प्यास बड़ी है

16 May 2016
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लगातार सूखे ने न केवल लातूर बल्कि भारत के 250 से ज्यादा जिलों में पानी की कमी की गम्भीरता उजागर कर दी है। महाराष्ट्र में कृषि रकबे का मात्र 18 प्रतिशत क्षेत्र ही सिंचित कवर के तहत है, जबकि अखिल भारतीय औसत 47 प्रतिशत और पंजाब जैसे राज्यों में तो यह आँकड़ा 97 प्रतिशत है। बेशक, सिंचाई ढाँचे को विकसित करने के लिये और ज्यादा निवेश किये जाने की जरूरत है।

महाराष्ट्र में लातूर गम्भीर जल संकट का प्रतीक बन गया है। अनेक ‘जल दूतों’ (वॉटर ट्रेन) को लातूर की प्यास बुझाने के लिये चक्कर-पर-चक्कर लगाने पड़ रहे हैं। महाराष्ट्र सरकार को जलाशयों/जल वितरण केन्द्रों के आसपास शान्ति व्यवस्था बनाए रखने के लिये धारा 144 भी लगानी पड़ी।

आईपीएल मैचों के मामले में उच्च न्यायालय ने हस्तक्षेप करते हुए मैचों को राज्य से बाहर खिलाने को कहा है ताकि लगभग 60 लाख लीटर पानी बचाया जा सके। यह कोई पहली दफा नहीं है और यकीनन न ही आखिरी बार होगा, कि ट्रेनों को जल-संकट से जूझ रहे क्षेत्रों में पेयजल पहुँचाना पड़ा। सुधारात्मक उपाय नहीं किये गए तो इन ट्रेनों के चक्कर और कवरेज क्षेत्र बढ़ाने ही होंगे।

लगातार सूखे ने न केवल लातूर बल्कि भारत के 250 से ज्यादा जिलों (678 जिलों में से) में पानी की कमी की गम्भीरता उजागर कर दी है। घबरा जाने वाले लोग जहाँ कुदरत को कोसते हैं, वहीं बहादुर आगे बढ़कर चुनौती का सामना करते हैं और संकट को भी ऐसे अवसर में बदल डालते हैं, जो जन-जन के हित में होता है। नितिन गडकरी ने 15 अप्रैल को एक कार्यक्रम में ध्यान दिलाया था कि महाराष्ट्र सिंचाई ढाँचे पर जरूरत से कम निवेश कर रहा है। बताया कि उसने इस मद पर मात्र 7 हजार करोड़ रुपए व्यय किये जबकि तेलंगाना ने 25 हजार करोड़ रुपए।

महाराष्ट्र में कृषि रकबे का मात्र 18 प्रतिशत क्षेत्र ही सिंचित कवर के तहत है, जबकि अखिल भारतीय औसत 47 प्रतिशत और पंजाब जैसे राज्यों में तो यह आँकड़ा 97 प्रतिशत है। बेशक, सिंचाई ढाँचे को विकसित करने के लिये और ज्यादा निवेश किये जाने की जरूरत है।

अगर महाराष्ट्र बुलेट ट्रेन पर 90 हजार करोड़ रुपए की लागत वहन करने की सोच सकता है, तो अपने जल संसाधनों को विकसित करने के लिये इसी प्रकार की प्राथमिकता के साथ क्यों नहीं सोचता? सबसे पहले तो यह करे कि संसाधन आवंटन प्रक्रिया में श्रेष्ठ वर्ग की तरफदारी करना बन्द कर दे।

सिंचाई की मद पर निवेश



आइए, देखते हैं कि 10वीं तथा 11वीं योजनाओं (वित्तीय वर्ष 03-12) के दौरान के दस वर्षों में महाराष्ट्र ने सिंचाई की मद पर कितने धन का निवेश किया और हासिल क्या किया। आँकड़ों को तुलना करने योग्य बनाने की गरज से हमने सालाना परिव्यय को 2014-15 की कीमतों के आधार पर परिवर्तित किया। महाराष्ट्र में इन दस वर्षों में सिंचाई के लिये समग्र सार्वजनिक परिव्यय 1,18,235 करोड़ रुपए बैठता है।

इस अवधि के दौरान, निर्मित सिंचाई क्षमता (आईपीसी-इरिगेशन पोटेंशियल क्रियेटिड) 8.9 लाख हेक्टेयर तथा उपयोग में लाई गई सिंचाई क्षमता (आईपीयू-इरिगेशन पोटेंशियल यूटिलाइज्ड) मात्र 5.9 लाख हेक्टेयर थी। इससे पता चलता है कि आईपीयू की प्रति हेक्टेयर लागत 20 लाख रुपए थी। इसकी तुलना गुजरात से करें, जिसने इसी अवधि के दौरान मात्र 46,888 करोड़ रुपए व्यय (2014-15 की कीमतों के आधार पर) किये और 22.5 लाख हेक्टेयर की सिंचाई क्षमता का निर्माण और 17.3 लाख हेक्टेयर में उपयोग किया। इसकी आईपीयू लागत मात्र 2.71 लाख रुपए प्रति हेक्टेयर थी। मध्य प्रदेश में इसी अवधि में इसी प्रकार की कार्य लागत 4.26 लाख रुपए प्रति हेक्टेयर रही।

सो, महाराष्ट्र में सिंचाई पर कम व्यय असल मुद्दा नहीं है। असल मुद्दा है कि इसकी लागत (20 लाख रुपए प्रति हेक्टेयर) मध्य प्रदेश (4.26 लाख रुपए प्रति हेक्टेयर) और गुजरात (2.71 लाख रुपए प्रति हेक्टेयर) की तुलना में ऊँची है। क्या इसका कारण भौगोलिक स्थिति है, या सिंचाई प्रणालियों में बड़े स्तर पर रिसाव है?

हालांकि कोई भी गडकरी के विचार से सहमत होगा कि महाराष्ट्र को सिंचाई ढाँचे पर ज्यादा संसाधन जुटाने चाहिए लेकिन रिसाव पर ध्यान दिये बिना और ज्यादा धन जुटाए बिना अपेक्षित परिणाम हासिल नहीं किये जा सकते। महाराष्ट्र के लिये जरूरी है कि सिंचाई ढाँचे पर परिव्यय, निर्मित सिंचाई क्षमता और उपयोग की अन्य राज्यों में इस प्रकार के प्रयासों के साथ तुलनात्मक परख करते हुए पत्र जारी करे ताकि पता चल सके कि इतना ज्यादा निवेश के बावजूद अपेक्षित नतीजे हासिल नहीं किये जा सके।

गन्ने की कहानी बयाँ करती सच्चाई


आइए, अब गन्ने के मुद्दे पर गौर करते हैं। एक तय से ही पूरी कहानी बयाँ हो जानी चाहिए। महाराष्ट्र के सकल फसली रकबे के लगभग 4 प्रतिशत क्षेत्र में ही गन्ने की खेती होती है, लेकिन राज्य में उपलब्ध सिंचाई के पानी का करीब दो-तिहाई इस फसल में खप जाता है। इस प्रकार की बड़ी असमानता किसी अन्य राज्य में देखने को नहीं मिलती।

बाजार अर्थव्यवस्था में सिंचाई के पानी (और बिजली) की लागत और उसके उपयोग में उत्तरोत्तर वृद्धि की स्थिति इस विसंगति का समाधान कर सकती है। लेकिन जब खेती के लिये पानी और बिजली पर ज्यादा सब्सिडी मिल रही हो तो बनावटी माँग-आधिक्य की स्थिति पैदा हो जाती है, जिससे इन कीमती संसाधनों के लिये छीना-झपटी शुरू के हालात बन जाते हैं। कहना न होगा कि शक्तिशाली ही जीतता है, जो अन्य लोगों की सम्भावित समृद्धि का हरण कर लेता है।

तय यह भी है कि महाराष्ट्र में कपास के कुल रकबे में मात्र 3 प्रतिशत ही सिंचित है, जबकि गन्ने का शत-प्रतिशत। कपास को मात्र चार-पाँच बार पानी लगाया जाता है, जबकि गन्ने को 20-25 बार। इसी से कहानी का अनैतिक पहलू उजागर हो जाता है। गुजरात में कपास का 57 प्रतिशत रकबा सिंचित है। तो फिर हैरत ही क्या कि गुजरात में उपज महाराष्ट्र की तुलना में दोगुनी है।

माँग प्रबन्धन के लिहाज से क्या किया जा सकता है? सरकार ने फैसला कर लिया है कि आगामी पाँच वर्षों में मराठवाड़ा में कोई नई चीनी फैक्टरी नहीं लगाई जाएगी। यह स्वागत योग्य फैसला है, लेकिन बीते तीन सालों में जो करीब 20 चीनी फैक्टरी लगाई गई हैं, उनके बारे में क्या कहें? जब पानी दुलर्भ हो तो इसकी माँग पूरी करने के लिये एक ही रास्ता बचता है। यह कि इसके बढ़ते उपयोग के साथ-साथ इसके दाम बढ़ाए जाएँ या इसकी मात्रा की राशनिंग की जाये।

क्या सरकार इस दिशा में बढ़ सकती है कि प्रत्येक माँगकर्ता को एक समान प्रति हेक्टेयर आधार पर पानी आपूर्ति करे और फिर उन्हें अपने तई प्रयास करने दे? यह भी किया जा सकता है कि महाराष्ट्र में गन्ने की उपज के लिये ड्रिप सिंचाई को अनिवार्य बना दिया जाये। क्या सरकार चीनी फैक्टरियों को सुनिश्चित करने को कह सकती है कि आगामी तीन वर्षों में गन्ने के कम-से-कम 75 प्रतिशत रकबे को ड्रिप सिंचाई के तहत लाएँ नहीं तो उनके पास परिचालन अधिकार नहीं रह जाएगा?

ड्रिप सिंचाई प्रणाली लगभग 40-50 प्रतिशत पानी की बचत करेगी। ऐतिहासिक रूप से पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार गन्ना उत्पादन के केन्द्र रहे हैं, जहाँ प्राकृतिक रूप से जलाधिक्य है। लेकिन सहकारिताओं को लाइसेंसिंग प्राथमिकता के आधार पर देने के चलन से चीनी उद्योग उस पट्टी में पहुँच गया जहाँ पर्याप्त पानी नहीं है। इसलिये पानी को लेकर विवाद सर्वविदित हैं और अब आईपीएल मैचों पर उच्च न्यायालय के फैसले पर आते हैं।

एक किग्रा. चीनी के उत्पादन में 2,000 लीटर से ज्यादा पानी की खपत होती है। मात्र तीन टन चीनी, जिसकी कीमत करीब एक लाख रुपए होती है, से ही इतना पानी आईपीएल मैचों के लिये आपूर्त हो जाता, जिनसे 100 करोड़ रुपए के राजस्व की प्राप्ति सम्भावित थी। तो इन नीतियों और घोषणाओं में कितनी ज्यादा भावुकता, नाटकीयता, तार्किकता और प्रचारबाजी है, पाठक खुद ही फैसला कर सकते हैं।

जल प्रबन्धन मूल


1. महाराष्ट्र में सिंचाई पर कम व्यय मुद्दा नहीं है। मुद्दा है कि इसकी लागत (20 लाख रु. प्रति हे.) मप्र. (4.26 लाख रु. प्रति हे.) और गुजरात (2.71 लाख रु. प्रति हे.) की तुलना में ऊँची है

2. महाराष्ट्र के सकल फसली रकबे के लगभग 4 प्रतिशत क्षेत्र में ही गन्ने की खेती होती है, लेकिन राज्य में उपलब्ध सिंचाई के पानी का करीब दो-तिहाई इस फसल में खप जाता है

लेखक, कृषि अर्थशास्त्री हैं।

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