फुकुशिमा के सबक सीखने से इन्कार

22 Jul 2011
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28 मार्च 1979 को अमेरिका के पेनसिल्वानिया इलाके में थ्री माइल आइलैण्ड में परमाणु हादसा हुआ। बीस मील के दायरे में रहने वाली करीब 6 लाख आबादी वाला इलाका खाली करवाया गया। हादसे में हुई मौतों पर कोई अधिकृत विश्वसनीय बयान भले न दिया गया हो लेकिन परमाणु संयंत्र के नजदीक रहने वाली आबादी में अनेक खतरनाक बीमारियों के बढ़ने की अनेक गैर सरकारी रिपोर्टें आयी हैं। परमाणु विकिरण युक्त 40 हजार गैलन पानी को नजदीकी नदी में छोड़ देने पर अमेरिकी प्रशासन और सुरक्षा एजेंसियों की जनता में खूब थू-थू हुई। अमेरिका भी परमाणु सुरक्षा के मामले में अपनी अचूक व्यवस्था का भरपूर दम भरता था। थ्री माइल आइलैण्ड के परमाणु हादसे के बाद अमेरिका ने अपने मुल्क में कोई नया परमाणु संयंत्र नहीं लगाया।

चेर्नोबिल हादसे को इस वर्ष की 26 अप्रैल को 25 वर्ष हो गए। तत्कालीन सोवियत संघ के उक्रेनियन गणराज्य में हुए उस हादसे में कितने लोग मारे गए, इसके आँकड़े आश्चर्यजनक हद तक विरोधाभासी हैं। कुछ सूत्र चेर्नोबिल के हादसे से मात्र 31 लोगों की मौत हुई मानते हैं, कुछ तीन से चार हजार और कुछ के मुताबिक चेर्नोबिल से हुए रेडिएशन की वजह से 1986 से 2004 के बीच 9 लाख से ज्यादा लोग मारे गए। रेडिएशन से प्रभावित करीब सवा लाख हेक्टेयर जमीन को हादसे के बाद से अब तक और आगे भी न जाने कितने वर्षों तक के लिए किसी भी तरह की जैव उपस्थिति के लिए खतरनाक घोषित कर दिया है।

चेर्नोबिल दुनिया के अति सुरक्षित कहे जाने वाले परमाणु संयंत्रों में से एक था। सोवियत संघ की आपातकालीन सुरक्षा का आलम ये था कि संयंत्र के पास मौजूद समूचे प्रिपयात शहर की आबादी को उन्होंने महज कुछ ही घंटों के भीतर खाली करवा लिया था।

और सन् 2011 की 11 मार्च को जापान में सूनामी और भूकंपों की तबाही झेल रहे जापान को फुकुशिमा परमाणु संयंत्र में दुर्घटना का कहर झेलना पड़ा। जापान में इसका इंसानों के जीवन और स्वास्थ्य पर कितना असर हुआ है, ये तथ्य तो अभी बाहर नहीं आये हैं। जो जानें गयीं, उनमें कितनों के लिए भूकंप को, कितनों के लिए सूनामी को और कितनों के लिए परमाणु हादसे को जिम्मेदार माना जा सकता है, ये एक अलग ही कवायद है। लेकिन इतना तो स्थापित हो ही गया कि जापान, जो धरती और समंदर की करवटों और मिजाज को बहुत अच्छे से जानता है और जिसकी सुरक्षा व्यवस्था भी विश्व के अन्य विकसित देशों से कम नहीं थी, वो भी अपने परमाणु संयंत्र को दुर्घटना से नहीं बचा सका।

अमेरिका, सोवियत संघ और जापान - तीनों ही देश तकनीकी और विज्ञान के मामले में दुनिया के अग्रणी और अत्यंत सक्षम देशों में से हैं। तीनों ही देशों में श्रेष्ठ तकनीकी, श्रेष्ठ वैज्ञानिक और राज्य की पूरी मशीनरी का साथ होने के बावजूद परमाणु संयंत्रों में दुर्घटनाओं को टाला नहीं जा सका।

अन्य देशों की प्रतिक्रियाएँ और फ्रांस की फुकुशिमा के हादसे के बाद तो पोलैण्ड, इटली, स्विट्जरलैण्ड, जर्मनी सहित दुनिया के अनेक देशों ने अपने देशों में प्रस्तावित परमाणु परियोजनाओं को स्थगित कर दिया है। अकेले योरप में ही सब मिलाकर करीब 150 रिएक्टर हैं जिनमें से आधे बिजली बनाने के काम में आते हैं। स्विट्जरलैण्ड ने अपने उन पाँच रिएक्टरों को बदलकर नये रिएक्टर लगाने का निर्णय रोक लिया है जिनकी उम्र पूरी हो गई थी। इटली चेर्नोबिल हादसे के बाद से ही परमाणु ऊर्जा से तौबा किये बैठा है। उसने अपना आखिरी परमाणु रिएक्टर भी 1990 में बंद कर दिया था। हालाँकि अपनी ऊर्जा जरूरतों का 10 प्रतिशत अभी भी वो परमाणु ऊर्जा से पूरा करता है लेकिन वो ऊर्जा वो खुद न पैदा करके आयात करता है। वैसे इटली भी वापस परमाणु ऊर्जा के उत्पादन के बारे में पुनर्विचार कर ही रहा था लेकिन जापान के हादसे ने उन विचारों को भी स्थगित कर दिया। यूरोप में ऑस्ट्रिया परमाणु ऊर्जा से पूरी तरह मुक्त देश है लेकिन इससे वो सुरक्षित होने का भ्रम नहीं पाल सकता। आस-पड़ोस के देशों के परमाणु संयंत्रों में होने वाली दुर्घटना का असर वहाँ पड़ेगा ही पड़ेगा। इसलिए ऑस्ट्रिया सभी देशों पर दबाव बनाने की कोशिश कर रहा है कि वो परमाणु ऊर्जा के विकल्प की तलाश करें न कि परमाणु ऊर्जा के विनाशकारी स्वरूप को कम करके आँकने की।

हाँ, फ्रांस की प्रतिक्रिया जरूर इन सब की तुलना में अधिक ढुलमुल रही। फ्रांस, दरअसल परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में अमेरिका के बाद शिखर पर दूसरे सर्वोच्च स्थान पर है। उसके पास 19 परमाणु संयंत्र हैं जिनमें 58 रिएक्टर काम करते हैं और उनसे फ्रांस की करीब 80 प्रतिशत ऊर्जा पैदा होती है। इस रास्ते पर सरपट दौड़ रहे फ्रांस के साथ ऐसा नहीं है कि वहाँ कभी कोई परमाणु दुर्घटना न घटी हो। स्तर 4 की दो बड़ी परमाणु दुर्घटनाएँ वहाँ 1969 और 1980 में घट चुकी हैं। उनके अलावा भी 2008 में एक ही हफ्ते में दो बार अरेवा के ही परमाणु संयंत्रों में यूरेनियम रिसाव की दुर्घटनाएँ हुईं। एक बार तो यूरेनियम टब से निकलकर भूजल में जाकर मिल गया और दूसरी बार पाइप फटने से यूरेनियम रिसाव हुआ। जाँच अधिकारियों ने पाया कि पाइप बरसों पुराना था और उसका लगा रहना लापरवाही का नतीजा था। अरेवा के अधिकारियों ने माना कि गलती पकड़े जाने से पहले तक उससे 120 से 750 ग्राम यूरेनियम का रिसाव हो चुका होगा। इसी तरह दूसरे मामले में यूरेनियम का रिसाव हुआ और वो पास की दो नदियों और भूजल में जाकर मिल गया। परमाणु सुरक्षा विशेषज्ञों ने तत्काल दोनों नदियों और आसपास के कुओं के पानी का उपयोग बंद करवाया। खेतों में पौधों को पानी देना भी बंद कर दिया गया। खुद अरेवा कंपनी ने इस दुर्घटना को गंभीर मानते हुए अपने प्लांट डायरेक्टर को नौकरी से हटा दिया लेकिन आधिकारिक तौर पर उसने इसे स्तर 1 की परमाणु दुर्घटना मानने पर जोर दिया और कहा कि इससे किसी को कोई नुकसान नहीं पहुँचा। हालाँकि दुर्घटना के स्तर का सही संदर्भ यह जानने पर बनता है कि स्तर 1 की दुर्घटनाएँ फ्रांस में 2006 में 114 हुई थीं और 2007 में 86।

परमाणु संयंत्र बनाने, यूरेनियम उत्खनन करने, परमाणु कचरे को ठिकाने लगाने आदि में वहाँ की अरेवा कंपनी दुनिया की सबसे बड़ी कंपनियों में से एक है। अरेवा कंपनी की मालिक फ्रांस की सरकार है। भारत में पिछले दिनों आये फ्रांस के राष्ट्रपति ने घूमने-फिरने, हाथ मिलाने, राजनयिक भोजन करने के अलावा जो एक काम पूरी मुस्तैदी से किया था, वो था अरेवा कंपनी द्वारा महाराष्ट्र के रत्नागिरि जिले में जैतापुर परमाणु संयंत्र के लिए परमाणु रिएक्टर अरेवा की ओर से तैयार करने का करार। बेशक तब तक फुकुशिमा नहीं हुआ था, लेकिन चार साल से जैतापुर क्षेत्र के लोग तो उस परमाणु परियोजना का विरोध कर हीं रहे थे। विरोध और भी स्तरों पर जारी था। दिल्ली में हस्ताक्षर अभियान चला, वामपंथी सांसदों ने मामला उठाया। एक स्वतंत्र दल ने वहाँ के लोगों से मिलकर और परियोजना के तकनीकी पहलुओं को लेकर एक रिपोर्ट जनता के बीच प्रसारित की। फिर फुकुशिमा हुआ। भारत सरकार ने जापान के लिए संवेदनाएँ इत्यादि प्रकट करने के बाद कहा कि जैतापुर परमाणु संयंत्र किसी भी हालत में नहीं रुकेगा।

जैतापुर में विरोध क्यों?


फुकुशिमा के हादसे के बाद भी भारत सरकार जैतापुर में 10000 मेगावाट क्षमता वाला परमाणु संयंत्र लगाने के निर्णय पर पुनर्विचार करने को भी तैयार नहीं है। एक ही स्थान पर स्थापित होने वाला ये दुनिया का सबसे बड़ा परमाणु संयंत्र होगा। जल्दबाजी में बगैर जरूरी जानकारियों को इकट्ठा और विश्लेषित किये ये परमाणु ऊर्जा संयंत्र वहाँ के ग्रामीण निवासियों पर थोप दिया गया है। पहले तो स्थानीय लोगों को कुछ हजार रुपये प्रति एकड़ का मुआवजा लेकर टरकाना चाहा लेकिन जब स्थानीय लोगों ने जमीन छोड़ने से इन्कार किया तो मुआवजे की राशि बढ़ाकर पिछले साल 4.5 लाख रुपये और बाद में 10 लाख रुपये प्रति एकड़ तक बढ़ा दी गयी, लेकिन प्रभावितों में से इक्का-दुक्का लोगों को छोड़ किसी ने मुआवजा नहीं लिया। दूसरी तरफ अधिकारी ये दोहराते रहे कि वो जमीन तो बंजर है, खाली पड़ी है और 50-60 प्रतिशत जमीन का तो कोई दावेदार भी नहीं है, इसलिए परियोजना निर्माण में कोई बाधा नहीं है। सरकार की एक एजेंसी द्वारा किये गए एक अध्ययन के बाद कहा गया कि वहाँ मछुआरों का कोई गाँव ही नहीं है जबकि जब विरोध करने वाले लोगों पर पुलिस दमन हुआ तो वो मछुआरों के गाँव सखरी नाटे में ही हुआ, जो आदमी मारा गया, वो भी मछुआरा ही था।

परियोजना से प्रभावित होने वाले सभी गाँवों की ग्राम पंचायतों ने बाकायदा प्रस्ताव पारित करके परियोजना का विरोध किया है और वहाँ के लोग पिछले पाँच बरसों से अहिंसक और लोकतांत्रिक तरीकों से इस परियोजना का विरोध कर रहे हैं। कुछ परिवारों को छोड़कर बाकी लगभग सभी परिवारों ने सरकार द्वारा दिये जा रहे मुआवजे को नहीं लिया है फिर भी राष्ट्रीय हित का बहाना लेकर सरकार ने उनकी जमीनों पर भूमि अधिग्रहण कानून के अनुच्छेद 17 का इस्तेमाल करके आपातकाल प्रावधान के तहत परियोजना के लिए लोगों की 953 हेक्टेयर कब्जा कर लिया है। लेकिन लोगों के विरोध और उनके सवालों का जवाब देने के बजाय सरकार अपने तय रास्ते पर आगे बढ़ रही है। इस परियोजना के पहले जो अध्ययन होने चाहिए थे, वो पूरे होने के पहले, और आसपास के जनजीवन, पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों पर परमाणु ऊर्जा के होने वाले असरों को जाँचने के पहले ही जमीन का अधिग्रहण कर लिया गया। इसमें उन लोगों का कोई ध्यान भी नहीं रखा गया जो जमीनों के मालिक भले न हों तो भी जिनका जीवन मुख्य रूप से मछलीपालन जैसी समुद्र से जुड़ी हुई गतिविधियों पर निर्भर रहता है।

बेशक परियोजना के स्थानीय विरोध की वजह लोगों की परमाणु ऊर्जा के खतरों के बारे में जागरूकता नहीं, बल्कि उनका सरकारी वादों के प्रति संदेह और अपनी आजीविका के उजड़ने का खतरा प्रमुख रहा होगा, लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने उससे आगे बढ़कर परमाणु ऊर्जा के सर्वग्रासी और भस्मासुरी स्वरूप की भी जानकारी हासिल कर ली है। पिछले 4-5 वर्षों से जैतापुर के आसपास के लोग जाकर तारापुर के पड़ोसी गाँवों के निवासियों से मिल रहे थे और जानकारियाँ ले रहे थे उनसे जो खुद लगभग 50 बरस पहले के भुक्तभोगी रहे हैं। तारापुर वालों ने बताये वो जानते हैं कि जो सरकार बिजली बनाने और फिर सस्ती बिजली देने का झुनझुना उन्हें पकड़ा रही है वो तारापुर में भी कर चुकी है और तारापुर के आसपास रह रहे लोगों को अभी भी 8-8 घंटे की बिजली कटौती का सामना करना पड़ता है। तारापुर प्रभावितों ने उन्हें सरकारी भ्रष्टाचार से तो आगाह किया ही, साथ ही आजीविका के साधनों पर परमाणु ऊर्जा के पड़ने वाले असरों के बारे में भी बताया कि किस तरह तारापुर संयंत्र से समुद्र में मिलाये जाने वाले पानी ने मछलियों की उपलब्धता को काफी हद तक घटाया है, लोगों में चर्मरोग व अन्य बीमारियाँ फैली हैं.... और उनमें से कोई जनता की मदद करने नहीं आया जो पहले जमीन लेने के लिए मान-मनुहार कर रहे थे।

प्रस्तावित जैतापुर परमाणु संयंत्र से प्रभावित गाँवों के लोग अब ये जानते हैं कि परमाणु ऊर्जा संयंत्र के असर सिर्फ जमीन पर ही नहीं, हवा और पानी पर भी होते हैं और कई पीढि़यों तक खत्म नहीं होते। इन्हीं सब चीजों को जानते-समझते लोगों का विरोध लगातार जारी रहा। अनेक बार छुटपुट मुठभेड़ें भी हुईं लेकिन प्रधानमंत्री के बयान से पुलिस-प्रशासन को जैसे जैतापुर से परमाणु ऊर्जा विरोधियों को खदेड़ने की हरी झण्डी मिल गयी। दमन तेज हुआ और 18 अप्रैल 2011 को एक मछुआरे तबरेज सयेकर की पुलिस गोलीबारी में मौत हो गई। वो 600-700 लोगों की उस भीड़ का हिस्सा था जो जैतापुर में प्रस्तावित परमाणु संयंत्र का विरोध करने के लिए सखरी नाटे गाँव में इकट्ठा हुई थी। वो महज मछुआरा था, उसकी कोई जमीन नहीं जा रही थी। गाँववालों का और उसके परिवारवालों का इल्जाम है कि पहली गोली जब उसे लगी तब वो जीवित था और पुलिस ने उसे अस्पताल ले जाते समय रास्ते में मारा। उसे दिल, जिगर और किडनी के पास तीन गोलियाँ लगी पायी गयी।

उसके बाद भी सरकार का अडि़यल रवैया जारी रहा। देशभर में हो रहे विरोध की परवाह न करते हुए 23 अप्रैल 2011 को परमाणु संयंत्र के विरोध में तारापुर से जैतापुर यात्रा को पुलिस ने रोक दिया और लोकतांत्रिक तरीके से शान्तिपूर्ण विरोध कर रहे यात्रा में शामिल वैज्ञानिकों, पूर्व न्यायाधीशों, संस्कृतिकर्मियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया। करीब 200 लोगों के इस यात्रा जत्थे में भारतीय सेना के पूर्व एडमिरल एल. रामदास, मुंबई उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस बी. जी. कोल्से पाटिल, जस्टिस पी. बी. सावंत, इंजीनीयर व वैज्ञानिक अशोक राव, सौम्या दत्ता, सामाजिक कार्यकर्ता गैब्रिएला डाइट्रिच, एडवोकेट मिहिर देसाई, प्रोफेसर बनवारीलाल शर्मा, वैशाली पाटिल, पत्रकार ज्योति पुनवानी, मानसी पिंगले समेत अनेक मानवाधिकारवादी कार्यकर्ता शामिल थे। इन लोगों को जैतापुर तक नहीं जाने दिया गया। ये जिन बसों में जा रहे थे, उनके मालिकों को डराया धमकाया गया जिससे बस ड्राइवर बीच रास्ते में ही इन यात्रियों को छोड़ भाग निकले। एडमिरल एल. रामदास की अपील पर जैतापुर परियोजना को रद्द करने की माँग लेकर हजारों फैक्स प्रधानमंत्री कार्यालय को किए गए। लेकिन वरिष्ठ नागरिकों, वैज्ञानिकों और परमाणु ऊर्जा का अमनपूर्वक विरोध कर रहे लोगों की आवाज को भारत सरकार ने आसानी से अब तक अनसुना किया हुआ है।

सवाल केवल पर्यावरण या लोगों की आज की आजीविका या मुआवजे भर का ही नहीं है। परमाणु संयंत्र के साथ सुरक्षा और खतरों के दीर्घकालीन मुद्दे जुड़े होते हैं। परमाणु ऊर्जा बनाने के पहले उससे बनने वाले कचरे के इंतजाम की योजना बनानी जरूरी है। जो संयंत्र लगाया जा रहा है उसे सुरक्षा के पैमानें पर पूरी तरह से जाँचना जरूरी है और सबसे जरूरी है कि जिन लोगों को विस्थापित किया जा रहा है उन्हें पूरी जानकारी हो और निर्णय प्रक्रिया में उनकी सहभागिता हो। जैतापुर के मामले में सब कुछ उल्टे तरीके से किया जा रहा है। फ्रांस की जिस ‘अरेवा’ कंपनी के बनाये संयंत्र को जैतापुर में स्थापित करने की कवायद की जा रही है, उसकी डिजाइन को सार्वजनिक नहीं किया गया है जबकि उसी तरह के उसी कंपनी के बनाये संयंत्रों पर यूरोप और अमेरिका की सरकारी एजेंसियों ने सवाल उठाये हैं। जैतापुर संयंत्र की मौजूदा अनुमानित लागत 328.6 अरब रुपये बतायी जा रही है जो परियोजना बनने तक और भी बढ़ जाएगी। परमाणु ऊर्जा के सवाल पर गोपनीयता का बहाना अपनाया जा रहा है। ये अब तक नहीं बताया जा रहा है कि इससे बनने वाली ऊर्जा की लागत क्या होगी, किस कीमत पर उसे बेचा-खरीदा जाएगा, किसी परमाणु दुर्घटना की स्थिति में संयंत्र निर्माता कंपनी की और सरकार की जिम्मेदारियाँ क्या होंगी, अपराध निर्धारण के क्या प्रावधान होंगे, आदि ऐसे सवाल जिनसे लोगों को पता चले कि परमाणु ऊर्जा वाकई उनके लिए व पर्यावरण के लिए नुकसानदेह है या फायदेमंद! और अब तो संसद ने न्यूक्लियर लाएबिलिटी विधेयक भी पारित कर दिया है जिससे किसी परमाणु दुर्घटना की स्थिति में परमाणु संयंत्र सप्लाइ करने वाली कंपनी को नहीं बल्कि देश के भीतर उसका संचालन करने वाली कंपनी को जिम्मेदारी भुगतना होगी जो भारत में एन.पी.सी.आई.एल. है। भारत में परमाणु संयंत्रों को चलाने के लिए 1987 में एन.पी.सी.आई.एल. या न्यूक्लियर पॉवर कॉपरेशन ऑफ इंडिया लि. नाम की कंपनी बनायी गई। कहने को तो ये भारत सरकार की पब्लिक सेक्टर कंपनी है लेकिन जैसे सरकार भी कहने भर के लिए भारत सरकार कहलाती है, काम तो वो अमेरिकी हितों के ही करती है, वैसे ही ये कंपनी भी कहने भर को सार्वजनिक उपक्रम है, काम तो उसका भी अन्य कॉर्पोरेट कंपनियों की ही तरह मुनाफा कमाना है।

एनपीसीआईएल बनाने के भी पहले भारत सरकार ने 1983 में एक परमाणु ऊर्जा नियामक बोर्ड बनाया था जिसका मुख्य कार्य परमाणु ऊर्जा से ताल्लुक रखने वाले मसलों में नियमन व सुरक्षा के पहलुओं पर नजर रखना है। इस बोर्ड के नब्बे के दशक के मध्य में अध्यक्ष रहे डॉ. ए. गोपालकृष्णन ने जैतापुर के परमाणु संयंत्र के असुरक्षित होने के बारे में अपनी चिंताएँ प्रकट करते हुए फरवरी 2011 में एक लेख के जरिए ये सवाल उठाये कि जब भारत में बने प्रेशराइज्ड हैवी वाटर रिएक्टर की लागत आज के मूल्य के मुताबिक करीब 8 करोड़ रुपये प्रति मेगावाट की है तो भारत सरकार फ्रांस की अरेवा कंपनी से योरपियन प्रेशराइज्ड रिएक्टर क्यों खरीद रही है जिसका दुनिया में न तो अब तक कहीं परीक्षण हुआ है और जिसकी लागत भी 20 करोड़ रुपये प्रति मेगावाट पड़ेगी।

इसके जवाब में एनपीसीआईएल की ओर से डॉ. गोपालकृष्णन का मखौल उड़ाते हुए जवाब दिया गया कि दुनिया में बहुत सारी जगहों पर ऐसे रिएक्टर लगे हैं जिनका पूर्व में कोई परीक्षण नहीं हुआ था। खुद भारत के ऐसे अनेक रिएक्टरों की मिसाल उन्होंने दी। उन्होंने कहा कि रिएक्टर जब तक लगेगा नहीं तब तक उसका परीक्षण कैसे होगा।

एनपीसीआईएल जैसी विशेषज्ञों-वैज्ञानिकों से भरी पड़ी कंपनी से एक आम नागरिक के तौर पर कोई भी ये जानना चाहेगा कि क्या परीक्षण के लिए थोड़ी कम क्षमता वाले रिएक्टर से काम नहीं चल सकता था जो सीधे दुनिया का सबसे बड़ा परमाणु संयंत्र (10000 मेगावाट) परीक्षण के लिए भारत ले आए? या क्या अरेवा कंपनी के अपने देश फ्रांस में इसके परीक्षण के लिए कोई जगह नहीं बची थी? या बहादुरी के मामले में भारत को ऐसी कोई मिसाल कायम करके दिखानी है कि देखो, हम दुनिया का सबसे बड़ा अ-परीक्षित परमाणु संयंत्र लगाने की भी हिम्मत रखते हैं !

भारत में परमाणु दुर्घटना क्यों नहीं हो सकती???


भारत में 20 परमाणु संयंत्र काम कर रहे हैं और पाँच निर्माणाधीन हैं। सरकार कितनी तेजी से परमाणु ऊर्जा के रास्ते पर आगे बढ़ना चाहती है, ये इससे स्पष्ट है कि उसके पास भविष्य के लिए 40 रिएक्टरों की योजनाएँ व प्रस्ताव मौजूद हैं। भारतीय वैज्ञानिकों ने अपनी किस्म की विकसित की गई तकनीक के साथ परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में जो भी कदम बढ़ाये थे, वे पिछले दौर में अमेरिका के साथ किये गए 123 समझौते के साथ पिछड़ गए हैं। अब हम एक तरह से मजबूर हैं कि हमारे वैज्ञानिक दूसरों के इशारों पर काम करें। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया, स्वीडन और रूस के साथ ये करार किया है कि भारत इन चारो देशों से 10-10 हजार मेगावाट क्षमता के रिएक्टर खरीद कर अपने देश में स्थापित करेगा। ये हमारे देश की नयी विदेश नीति का नतीजा है जो हमारे सत्ताधीशों ने साम्राज्यवादी ताकतों के सामने गिरवी रख दी है। फ्रांस की अरेवा कंपनी से लिये जाने वाले 10 हजार मेगावाट क्षमता के रिएक्टर उसी करार की नतीजा है।

जब हम अपनी जानी-पहचानी, घरेलू तौर पर विकसित की गई तकनीक के साथ काम करते थे तब भी मानवीय भूलें होती थीं। अब एक अपरीक्षित और अपरिचित मशीन हमारे वैज्ञानिक सँभालेंगे तो गलतियों की गुंजायश भी ज्यादा हो सकती है। पहले भी भारत में राजस्थान के परमाणु संयंत्र में 1992 में 4 टन विकिरणयुक्त पानी बह गया था और तारापुर में भी 1992 में 12 क्यूरीज रेडियोधर्मिता फैली थी।

तो भारत के पास ऐसी कौन सी जादू की छड़ी है जिससे इस देश के उच्च शिक्षित प्रधानमंत्री ये दावा करते हैं कि भारत के जैतापुर परमाणु संयंत्र में ऐसी कोई दुर्घटना कभी नहीं घटेगी, इसलिए संयंत्र का काम आगे बढ़ाना चाहिए।

विशेषज्ञों की दिव्य बातें


जाहिर है ऐसा विश्वास प्रधानमंत्री को उनके विशेषज्ञ ही दिला सकते हैं। जैतापुर परमाणु संयंत्र से जुड़े एक भौतिकविद् और कोल्हापुर के डी. वाय. पाटिल विश्वविद्यालय के कुलपति । डॉ. एस. एच. पवार ने एक अखबार को दिए इंटरव्यू में कहा कि जापान में 8.9 तीव्रता का जो भूकंप आया था, उससे सूनामी की लहरें पैदा हुईं लेकिन भूकंप से फुकुशिमा के परमाणु संयंत्र का कुछ नहीं बिगड़ा। परमाणु संयंत्र में जो विस्फोट हुआ, वो पानी के रिएक्टर में घुस जाने की वजह से जो बिजली गुल हुई और उससे जो परमाणु ईंधन को ठंडा करने का जो सिस्टम था, वो फेल हो गया, इसलिए विस्फोट हुआ।

दूसरी दिव्य ज्ञान की बात उन्होंने ये बतायी कि जैतापुर समुद्र की सतह से करीब 72 फीट की ऊँचाई पर है जिससे अगर कभी महाराष्ट्र में सूनामी आती भी है तो ‘उनके ख्याल से’ वो इतनी ऊँचाई पर नहीं पहुँच पाएगी।

तीसरी सबसे महत्त्वपूर्ण बात उन्होंने ये कही कि भारत को परमाणु विकिरणों से निपटने की तैयारी को तेज करना चाहिए। हमें ऐसे लोग तैयार करने चाहिए जो परनाणु विकिरणों से पैदा होने वाली परिस्थितियों से निपट सकें। डॉ. पवार ने ये भी बताया कि इसके लिए उनके विश्वविद्यालय ने अभी से ही कोर्सेस भी खोल दिए हैं।

डॉ. पवार के ये कथन किसी और व्याख्या की जरूरत नहीं छोड़ते। इन्हें पढ़कर कोई भी समझ सकता है कि चूँकि फुकुशिमा में रिएक्टर में विस्फोट भूकंप से नहीं हुआ बल्कि भूकंप से जो सूनामी उठी और सूनामी से जो पानी घुसा और उससे जो बिजली की आपूर्ति में रुकावट आयी, उससे विस्फोट हुआ। और इसीलिए भले ही जैतापुर में भूकंप आयें लेकिन यहाँ ‘डॉ. पवार के ख्याल से’ कभी सूनामी तो आएगी नहीं इसलिए यहाँ कभी बिजली आपूर्ति अवरुद्ध नहीं होगी और इसीलिए यहाँ कभी विस्फोट भी नहीं होगा। ऐसा लगता है कि सूनामी ने तो जैसे डॉ. पवार से ही वादा किया है कि वो 72 फीट ऊँचाई तक कभी नहीं आएगी। डॉ. पवार के इंटरव्यू से ऐसा भी लगता है कि वैसे कोई दुर्घटना कभी होगी नहीं लेकिन फिर भी अगर कुछ गड़बड़ हो ही जाती है तो विकिरण प्रभावितों का इलाज और देखभाल करने वाले लोगों को प्रशिक्षण देने के नये कोर्सेस विश्वविद्यालय ने चालू कर ही दिए हैं। डॉ. पवार के इन अत्यंत बुद्धिमानीपूर्ण कथनों को एनपीसीआईएल ने अपनी वेबसाइट पर एक बयान की तरह चस्पा कर रखा है।

खुद सरकारी भूगर्भीय सर्वेक्षण की रिपोर्टें बताती हैं कि जैतापुर भूकम्प संवेदी इलाके में मौजूद है और गुजरे 20 वर्षों में इस क्षेत्र में 92 छोटे-बड़े भूकंप आ चुके हैं। और फिर भारत के जो राजनेता हैं, जो ठेकेदार हैं, जो अफसरशाही है, वो क्या किसी से कम है? जो खेल के सामान में, जेल के सामान में, फौज के सामान में, पुल के, सड़क के, दवाई के, पानी के या किसी भी क्षेत्र में कमीशन लेकर घटिया सामान चलवा सकते हैं, जो जमीन पर ही नहीं, आकाशीय स्पेक्ट्रमों में भी और खेतों में ही नहीं गोदामों में भी भ्रष्टाचार की पताका फहरा सकते हैं, वे जैतापुर में भला क्यों नहीं ऐसा करेंगे। और अगर किया तो क्या वो हादसा किसी पुल या पानी की टंकी के गिर जाने जितना ही कहा जा सकता है?

कचरा भी खतरा


परमाणु ईंधन से अगर आपने बिजली बना भी ली तो भी परमाणु ईंधन के बाद बचने वाले कचरे को ठिकाने की समस्या तो फिर भी बनी ही रहती है। अप्रैल, 2010 में अमेरिकी राष्ट्रति बराक ओबामा ने जॉर्ज बुश के जमाने से चले आ रहे इस तर्क का इस्तेमाल 47 देशों के वाशिंगटन परमाणु सम्मेलन में किया कि परमाणु हथियारों के आतंकवादी समूहों के हाथ लग जाने का खतरा सबसे बड़ा है। हालाँकि जॉर्ज बुश ने किसी एक मौके पर देशवासियों के नाम संदेश में आतंकवाद के साथ-साथ परमाणु कचरे को भी मानवता और अमेरिका के लिए बड़ा संकट बताया था। ओबामा ने परमाणु खतरे के संकट का जिक्र भले टाल दिया लेकिन उससे संकट कहीं भी टला नहीं है। बल्कि अमेरिका में नेवादा इलाके में जहाँ परमाणु कचरे को युक्का पर्वत के नीचे दफन करने की योजना पूर्व में बनी थी, उसे भी ओबामा प्रशासन ने रोक दिया है। इसका सीधा मतलब ये है कि अमेरिका के पास भी अभी तक कोई दूरगामी नीति नहीं है कि वो अपने परमाणु कचरे से कैसे पीछा छुड़ाएगा।

ये परमाणु कचरा भीषण विकिरण समाये रहता है और इसकी देखभाल हजारों बरसों तक करना जरूरी होती है। कुछ रेडियोधर्मी तत्वों के परमाणु संयोजन तो विघटित होने में लाखों वर्षों का समय भी लेते हैं। हर परमाणु संयंत्र से निकलने वाले कचरे को और इस्तेमाल हो चुके परमाणु ईंधन को मोटी-मोटी दीवारों वाले कंटेनरों में सील कर जमीन के भीतर गहरे रखा जाता है और ये एहतियात बरतनी होती है कि उनसे किसी किस्म का रिसाव न हो। अगर रिसाव होता है तो वह भूगर्भीय जल के साथ मिलकर असीमित तबाही मचा सकता है। रिसाव के कुछ हादसे हुए भी है लेकिन इस तरह के हादसों को छिपाया जाता है क्योंकि इनके पीछे कंपनियों का अस्तित्व टिका रहता है।

प्राथमिकता क्या है?


सवाल सिर्फ इतना है कि हमारी प्राथमिकता क्या है? वैज्ञानिक तरक्की और इंसान के अस्तित्व में से अगर चुनने का मौका आये तो क्या चुनेंगे? परमाणु ऊर्जा के लिए क्या हम उन्हीं जिंदगियों को दाँव पर लगाने को तैयार हैं जिनकी जिंदगी को आरामदेह बनाने के लिए हमें ऊर्जा चाहिए। जापान के प्रधानमंत्री ने हाल में कहा है कि परमाणु ऊर्जा के बारे में उन्हें पूरी तरह नये सिरे से सोचना शुरू करना होगा। वैसे भी यह एक मिथ्या प्रचार है कि परमाणु ऊर्जा प्रदूषणरहित होती है या वो सस्ती होती है। पुरानी कहावत है कि सस्ता है तो क्या जहर खा लें ! और ये तो सस्ता भी हर्गिज नहीं। परमाणु संयंत्र के परमाणु कचरे का निपटारा किसी भी और प्रदूषण से ज्यादा खतरनाक होता है और अगर इस कचरे के निपटान की लागत व परमाणु संयंत्र की उम्र खत्म होने के बाद उसके ध्वंस (डीकमीशनिंग) की लागत भी परमाणु संयंत्र में जोड़ दी जाए तो ये किसी भी अन्य जरिये से ज्यादा महँगी पड़ती है।

जहाँ तक ऊर्जा की कमी का सवाल है, ये ऊर्जा की उपलब्धता से कम और उसके असमान वितरण से अधिक जुड़ा हुआ है। पिछले दिनों वैज्ञानिक डॉ. विवेक मोंटेरो ने इसका खुलासा करते हुए बताया कि मुंबई में एक 27 मंजिला मकान है जिसमें एक परिवार रहता है और इसमें हैलीपैड, स्वीमिंग पूल आदि तरह-तरह की सुविधाएँ मौजूद हैं। इस बंगले में प्रति माह 6 लाख यूनिट बिजली की खपत होती है। ये बंगला अंबानी परिवार का है। दूसरी तरफ शोलापुर में रहने वाले दस हजार परिवारों की कुल मासिक खपत भी 6 लाख यूनिट की है। अगर देश में बिजली की कमी है तो दस हजार परिवारों जितनी बिजली खर्च करने वाले अंबानी परिवार को तो सजा मिलनी चाहिए लेकिन उल्टे अंबानी को इतनी ज्यादा बिजली खर्च करने पर सरकार की ओर से कुल बिल पर 10 प्रतिशत की छूट भी मिलती है।

जर्मनी में उन संयंत्रों को डीकमीशन करने पर भी विचार चल रहा है जो पहले से मौजूद हैं। बहुत से देश ऊर्जा के वैकल्पिक स्त्रोतों पर शोध को प्रोत्साहन पहले से ही दे रहे हैं। वैसे भी परमाणु ऊर्जा में भी पानी की खपत बेतहाशा होती है क्योंकि रिएक्टर को ठंडा रखने के लिए मुख्य रूप से पानी ही इस्तेमाल किया जाता है। पानी की उपलब्धता के कारण ही परमाणु संयंत्र समुंदर या नदी के किनारे लगाये जाते हैं ताकि पानी की कमी न पड़े लेकिन इसी वजह से परमाणु संयंत्रों पर वो सारे खतरे बढ़ भी जाते हैं जो नदी में बाढ़ से हो सकते हैं या समुद्र में तूफान, सूनामी से। जैतापुर परमाणु संयंत्र में रोज करीब 5500 करोड़ लीटर पानी चाहिए होगा जिसे इस्तेमाल के बाद वापस समुद्र में फेंका जाएगा जिससे समुद्र का पूरा जैव संतुलन भी बिगड़ सकता है।

बेशक परमाणु संयंत्र से होने वाले रिसाव या दुर्घटना से लोग एक झटके में नहीं मारे जाते जैसे परमाणु बम से मरते हैं लेकिन परमाणु संयंत्र से जो विकिरण फैलता है वो परमाणु बम से फैलने वाले विकिरण की तुलना में कई गुना ज्यादा होता है। और हजारों-लाखों वर्षों तक उसका विकिरण समाप्त नहीं होता। अगर हिरोशिमा-नागासाकी ने हमें ये सिखाया था कि हम परमाणु बम से तौबा करें वैसे ही फुकुशिमा से हमें ये सीख लेना चाहिए कि परमाणु ऊर्जा थोड़ी-बहुत विज्ञान समझने या प्रयोगशालाओं के भीतर प्रयोग करने के लिए ही ठीक है। जब तक हमें ये न पता हो कि किसी काम के परिणाम को हम कैसे सँभालेंगे, हम उसे कैसे शुरू कर सकते हैं। और परमाणु ऊर्जा में सिर्फ ऊर्जा नहीं, बल्कि भीषण विकिरण और विकिरणयुक्त कचरा भी है। जैतापुर संयंत्र को रोकना जनता, पर्यावरण और इंसानियत - तीनों के लिए जरूरी है। जनता के पक्ष में इसके दीर्घकालीन वैज्ञानिक व राजनीतिक मायने भी होंगे।

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