राजस्थान : सिमटते चरागाह

राजस्थान के सूखे इलाके में खेती के बाद महत्वपूर्ण संपदा पशु ही है। राजस्थान के पश्चिमी हिस्सों में, जहां अक्सर सूखा पड़ता रहता है, लोगों का प्रमुख उद्योग पशुपालन है। राजस्थान में कोई चार करोड़ जानवर हैं। राजस्थान पशुधन वाले राज्यों में तीसरे स्थान पर है। देश के कुल दूध का 10 प्रतिशत और ऊन का 50 प्रतिशत इसी राज्य से आता है। ढुलाई-खिंचाई करने वाले ताकतवर पशु भी खूब हैं। राजस्थान में गाय, बैल, भेड़, ऊंट, बकरी और घोड़ों तक की उत्तम नस्लें मौजूद हैं। मिसाल के तौर पर राजस्थान में भेड़ों की संख्या देश की कुल भेड़ों का केवल 16 प्रतिशत है, फिर भी देश की कुल ऊन में से 50 प्रतिशत वहीं की है।

पिछले 30 सालों में वहां पशुओं की संख्या काफी बढ़ी। 1951 और 1983 के बीच गाय-बैल 25 प्रतिशत, भैंस 72 प्रतिशत, भेड़ 100 प्रतिशत बढ़ी और बकरियां 238 प्रतिशत बढ़ीं। बकरियों की आबादी में इस तेज बढ़ोत्तरी से अनेक पर्यावरणवादी तक चिंतित हुए। आज तो बकरियों को पर्यावरण का सबसे बड़ा दुश्मन मान लिया गया है। कहा जाता है कि उनके कारण जमीन ज्यादा-से-ज्यादा खुश्क होती जाती है, खेती योग्य जमीन का उपजाऊपन घट जाता है। कई राष्ट्रों ने तो बकरियों की आबादी घटाने के लिए कानून भी बनाए हैं।

दोष तो असल में हमारा है। सोच-समझकर खेती नहीं करते, परती जमीन पर ध्यान नहीं देते और जो थोड़ी-बहुत चरागाह की जमीन बची है और जहां अच्छी घास पैदा भी नहीं होती, वहीं सभी तरह के जानवरों को ठेल देते हैं। इन कारणों से बड़े और ज्यादा उत्पादकता वाले जानवर घटते जाते हैं और सारा दोष बेचारी बकरी के मत्थे मढ़ा जाता है। दरअसल इतनी विपरीत परिस्थितियों में बकरी ही जिंदा रह सकती है। गरीब किसानों के लिए गाय-बैलों की अपेक्षा बकरी पालने में खतरा भी कम रहता है।

इन चरागाहों में घास की पैदावार और उसके गुण दोनों घट रहे हैं। चरागाहों की देखभाल या विकास की ओर ग्राम पंचायतें शायद ही ध्यान देती हैं। राजस्थान में स्थायी चरागाह के रूप में लगभग 18 लाख 10 हजार हेक्टेयर जमीन बताई जाती है और इनमें से ज्यादातर हिस्से की देखभाल का भार तो ग्राम पंचायतों पर है लेकिन इसके लिए उन्हें कोई सुविधा नहीं दी जाती।

जंगल विभाग अपने मातहत के चरागाह में पैदा होने वाली घास इकट्ठा करके उसका कुछ हिस्सा नीलाम करता है और बाकी हिस्सा अभाव की स्थिति में खिलाने के लिए भंडारण कर लेता है। उत्तम प्रबंध वाले कुछ ही अच्छे चरागाह हैं, जहां नाममात्र का शुल्क लेकर मवेशी को चराने दिया जाता है, लेकिन उनके उपयोग के मामले में गांव वालों और जंगल विभाग वालों के बीच हमेशा ही झगड़े चलते रहते हैं।

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