रामराज्य और पर्यावरण (Ram-Rajya and Environment)


सारांश


राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता के उपरान्त देश में रामराज्य स्थापित करने का सपना देखा था। गांधीजी के इस विचार को गंभीरता से नहीं लिया गया। रामराज्य की अवधारणा वाल्मीकीय रामायण एवं तुलसीदास कृत रामचरितमानस में है। इस लेख में रामराज्य के पर्यावरण सम्बन्धी विशेषताओं का उल्लेख किया गया है। यह अत्यन्त आश्चर्य की बात है कि वानिकी के जिन नवीन सिद्धांतों जैसे- ‘‘प्रिन्सिपल ऑफ सस्टेंड यील्ड’’ आदि को विदेशी विद्वानों द्वारा प्रतिपादित किया गया बताया जाता है कि वे सिद्धान्त रामचरित मानव में पहले से ही मौजूद हैं। रामराज्य की अवधारणा किसी धार्मिक संकीर्णता का द्योतक नहीं है बल्कि यह जनहित कारी अवधारणा है। इस पर गंभीर मनन एवं चिंतन की आवश्यकता है।

पर्यावरणAbstract : It was the dream of the Father of the Nation Mahatma Gandhi to establish Ram-Rajya in Independent India. Ram Rajya was not a new concept of Mahatma Gandhi. The concept of Ram-Rajya is very clear in Valmiki Ramayan of Maharishi Valmiki & Ram Charit Manas of Tulsidas ji. In this article the environmental aspect of Ram Rajya is described. The latest concept of Environmental Science and Forestry, for example “The Theory of Sustained Yield”, Roadside plantations are described in Ram Charit Manas.

प्रकृति के सानिध्य के बिना प्रगति की परिकल्पना मरुस्थल में हरियाली के सदृश दिवा स्वप्न है। कंक्रीट के जंगलों से होकर हम भौतिक समृद्धि के कितने ही सोपान पार कर लें, वास्तविक विकास हेतु भावनाओं की जल-धार से ही शुष्क मरुस्थल में हरियाली लाई जा सकती है और तभी चतुर्मुखी विकास सम्भव है। आज हम तथाकथित विकास के एक ऐसे दौर में पहुँच चुके हैं, जहाँ लगातार बढ़ रहा है पर्यावरण प्रदूषण हमारे अस्तित्व को अनवरत चुनौती दे रहा है। प्रकृति से दूर रहकर किए गए एकांगी विकास का कुपरिणाम हम सब ने भलीभाँति देख लिया है। वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण मृदा प्रदूषण, रेडियोएक्टिव प्रदूषण, ओजोन परत में छेद एवं अम्लीय वर्षा का अत्यन्त विनाशकारी स्वरूप बुद्धिजीवी एवं विवेकशील व्यक्तियों की चिन्ता का कारण बने हुए हैं। केदारनाथ की भीषण प्राकृतिक आपदा ने मानव समाज को झकझोर दिया है। लम्बे समय तक भौतिक विकास के विनाशकारी मद में मदोन्मत्त लोगों की सुप्त पर्यावरण चेतना अब धीरे-धीरे जागृत हो रही है तथा अब वे भी प्रगति के साथ प्रकृति की बात करने लगे हैं।

प्रकृति का सानिध्य, प्रगति का विरोधी नहीं है। प्रकृति और प्रगति के बीच संघर्ष की नहीं, सामन्जस्य की आवश्यकता है। महात्मा गांधी ने कहा था कि प्रकृति के सहारे हम केवल अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकते हैं, विलासिता की नहीं। विलासिता की वृत्ति किसी भी राष्ट्र अथवा समाज को धीरे-धीरे ऊर्जाहीन कर उसे समाप्त प्राय कर देती है। प्रकृति का सानिध्य भारतीय संस्कृति की मूल विशेषता है। महर्षि वाल्मीकि एवं तुलसीदास जी ने इस रहस्य को भली-भाँति समझा है। जिस रामराज्य की परिकल्पना महात्मा गांधी ने की थी उसकी वैचारिक आधारशिला बहुत पहले महर्षि वाल्मीकि एवं तुलसीदास जी द्वारा रखी जा चुकी थी।

जब हम अपने किसी मित्र या सम्बन्धी से मिलते हैं तो सभी का हालचाल पूछते हैं किसी से मिलकर हम उसके बच्चों, परिवार आदि की ही कुशलक्षेम पूछते हैं। हम सबने कभी सोचा ही नहीं कि किसी का हालचाल पूछते समय उस क्षेत्र के वनों, नदियों, तालाबों या वन्यजीवों का समाचार जानने की चेष्टा करें। ऐसा इसलिए है कि अब हम वनों, नदियाँ, तालाबों या वन्यजीवों को परिवार का अंग मानते ही नहीं। पहले ऐसा नहीं था। उस समय लोग एक दूसरे का समाचार पूछते समय वनों, बागों, जलस्रोतों आदि की भी कुशलता जानना चाहते थे। इसका कारण यह था कि उस समय लोग प्रकृति के विभिन्न अवयवों को परिवार की सीमा के अन्तर्गत ही मानते थे। इस सम्बन्ध में एक उदाहरण चित्रकूट में राम भरत मिलन के समय मिलता है। श्री राम अपने दुखी भाई भरत से पूछते हैं कि उनके दुखी होने का क्या कारण है? क्या उनके राज्य में वन क्षेत्र सुरक्षित हैं? अर्थात वन क्षेत्रों के सुरक्षित न रहने पर पहले लोग दुखी एवं व्याकुल हो जाया करते थे। वाल्मीकि रामायण में वर्णित उदाहरण निम्न प्रकार है-

कच्चिन्नागवनं गुप्तं कच्चित् ते सन्ति धेनुकाः।
कच्चिन्न गणिकाश्वानां कुन्जराणां च तृप्यसि।। (2/100/50)

जहाँ हाथी उत्पन्न होते हैं, वे जंगल तुम्हारे द्वारा सुरक्षित हैं न? तुम्हारे पास दूध देने वाली गाएँ तो अधिक संख्या में हैं न? (अथवा हाथियों को फँसाने वाली हथिनियों की तो तुम्हारे पास कमी नहीं है?) तुम्हें हथिनियों, घोड़ों और हाथियों के संग्रह से कभी तृप्ति तो नहीं होती? अनेक स्थानों पर वाल्मीकि जी ने पर्यावरण संरक्षण के प्रति संवेदनशीलता को रेखांकित किया है। श्री भरत जी अपने सेना एवं आयोध्यावासियों को छोड़कर मुनि के आश्रम में इसलिये अकेले जाते हैं कि आस-पास के पर्यावरण को कोई क्षति न पहुँचे-

ते वृक्षानुदकं भूमिमाश्रमेषूटजांस्तथा। न हिंस्युरिति तेवाहमेक एवागतस्ततः।। (2/91/09)

वे आश्रम के वृक्ष, जल, भूमि और पर्णशालाओं को हानि न पहुँचायें, इसलिये मैं यहाँ अकेला ही आया हूँ। पर्यावरण की संवेदनशीलता का यह एक उत्कृष्ट उदाहरण है।

रामराज्य पर्यावरण की दृष्टि से अत्यन्त सम्पन्न था। मजबूत जड़ों वाले फल तथा फूलों से लदे वृक्ष पूरे क्षेत्र में फैले हुये थे-

नित्यमूला नित्यफलास्तरवस्तत्र पुष्पिताः। कामवर्षी च पर्जन्यः सुखस्पर्शैं मरुतः।। (6/128/13)

श्री राम के राज्य में वृक्षों की जड़ें सदा मजबूत रहती थीं। वे वृक्ष सदा फूलों और फलों से लदे रहते थे। मेघ प्रजा की इच्छा और आवश्यकता के अनुसार ही वर्षा करते थे। वायु मन्द गति से चलती थी, जिससे उसका स्पर्श सुखद जान पड़ता था।

तुलसीदास जी ने वर्णन किया है कि उस समय में पर्यावरण प्रदूषण की कोई समस्या नहीं थी। काफी बड़े भू-भाग पर वन क्षेत्र विद्यमान थे। वन क्षेत्रों में ही ऋषियों एवं मुनियों के आश्रम थे, जो उस समय ज्ञान-विज्ञान का केन्द्र थे। समाज में इन ऋषि-मुनियों का बड़ा सम्मान था। बड़े-बड़े राजा महाराजा भी इन मनीषियों के सम्मान में नत मस्तक हो जाते थे। श्रीराम को वनवास मिलने के उपरान्त सर्वाधिक प्रसन्नता इसी बात की हुई कि वन क्षेत्र में ऋषियों का सत्संग का लाभ प्राप्त होगा-

मुनिगन मिलन विशेष वन, सबहिं भाँति हित मोर।

प्राचीन काल में ज्ञान विज्ञान एवं शिक्षा के केन्द्र आबादी से दूर होते थे। प्रकृति की गोद में स्थित इन केन्द्रों से ही हमारी सभ्यता का प्रचार एवं प्रसार हुआ। विभिन्न सामाजिक बुराइयों से ये केन्द्र सर्वथा दूर थे। यहाँ का वातावरण अत्यन्त स्वच्छ एवं निर्मल था। वन एवं वन्य जीवों के प्रति प्रेम यहाँ स्वतः उत्पन्न हो जाता था। ऋषियों एवं मुनियों के प्रत्येक कृत्य से सृष्टि के प्रति प्रेम का सन्देश गूँजता था। मानसिक शान्ति एवं आत्मिक प्रसन्नता यहाँ भरपूर मात्रा में विद्यमान थी तथा विद्याध्ययन करने वाले बच्चों के संस्कार का निर्माण इसी परिवेश में होता था। श्रीराम को आने वाले समय में रामराज्य की स्थापना करनी थी, जिसमें सभी सुखी हो सकें इसलिये स्वाभाविक ही था कि उन्होंने लम्बे समय तक ऋषि-मुनियों के सानिध्य में रहने का निर्णय लिया। तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में अनेक स्थानों पर वन क्षेत्रों का सजीव वर्णन किया है। वन क्षेत्र घनी आबादी से दूर स्थित होते थे तथा इन क्षेत्रों में भोली-भाली आदिवासी जनता रहती थी। श्री राम ने इन भोले-भाले लोगों से प्रगाढ़ मित्रता स्थापित की और जीवनपर्यन्त उसका निर्वहन किया। निषादराज केवट, वानरराज सुग्रीव एवं गिद्धराज जटायु इसका स्पष्ट उदाहरण हैं। वनवासी बन्दरों से राम की मित्रता जगत प्रसिद्ध है। इन्हीं बन्दर-भालुओं की सहायता से उन्होंने लंका पर विजय प्राप्त की उपेक्षित गिद्ध जटायु को श्रीराम ने अत्यधिक सम्मान दिया। श्रीराम के सानिध्य से अंगद, हनुमान, जामवन्त, नल, नील, सुग्रीव, द्विविद, आदि भालू कपि तथा जटायु जैसे गिद्ध सदा के लिये अमर हो गये। पूरे रामचरित मानव में हम पाते हैं कि विभिन्न प्राकृतिक अवयवों को उपभोग मात्र की वस्तु नहीं माना गया है। बल्कि सभी जीवों एवं वनस्पतियों से प्रेम का सम्बन्ध स्थापित किया गया है। प्रकृति के अवयवों का उपभोग निषिद्ध नहीं है। उनके प्रति कृतज्ञ होकर हम आवश्यकतानुसार उस सीमा तक उपयोग कर सकते हैं जब तक किसी अवयव के अस्तित्व पर संकट न आए। कोई भी प्रजाति किसी भी दशा में लुप्तप्राय नहीं होनी चाहिये। रामराज्य में प्रकृति के उपहार स्वतः प्राप्त थे। तुलसीदास जी ने रामराज्य में वनों की छटा एवं उनसे मिलने वाले उपहारों का चित्रण दर्शनीय है-

फूलहिं फरहिं सदा तरु कानन। रहहिं एक सँग जग पंचानन।।
खज मृग सहज बयरु बिसराई। सबन्हि परस्पर प्रीति बढ़ाई।।
कूजहिं खग मृग नाना बृंदा। अभय चरहिं बन करहिं अनंदा।।
सीतल सुरभि पवन वह मंदा। गुंजत अलि लै चलि मकरंदा।।
लता बिटप माँगे मधु चवहीं। मनभावतो धनु पय स्रवहीं।।
ससि संपन्न सदा रह धरनी। त्रेता भई कृतयुग कै करनी।।
प्रगटीं गिरिन्ह विविध मनि खानी। जगदातमा भूप जग जानी।।
सरिता सकल बहहिं बर बारी। सीतल अमल स्वाद सुखकारी।।
सागर निज मरजादा रहहीं। डारहिं रत्न तटन्हि नर लहहीं।।
सरसिज संकुल सकल तड़ागा। अति प्रसन्न दस दिसा विभागा।।
बिधु महि पूर मयूखन्हि रबि जप जेतनेहिं काज।।
मागें बारिद देहिं जल रामचंद्र के काज। (7/23)

उक्त वर्णन में हम पाते हैं कि प्रकृति रामराज्य में स्वतः उपहार देती थी। वास्तव में प्रकृति हमें सब कुछ देती है हमें केवल धैर्य एवं विवेक से रहना है। प्रकृति का सीमित विदोहन ही सुखमय भविष्य की गारंटी है। प्रकृति द्वारा प्रदत्त वस्तु का उपभोग हमें प्रकृति से छेड़छाड़ किये बिना करना चाहिये। गणितीय भाषा में यदि हम केवल ब्याज का उपभोग करें, तो मूलधन सदा बना रहेगा एवं हम ब्याज का सदैव उपभोग करते रहें। विदोहन का यही नियम कल्याणकारी है। रामराज्य में प्रकृति का विदोहन निषिद्ध है। प्रकृति का असीमित विदोहन अपराध है। स्वाभाविक रूप से प्रकृति प्रदत्त उपहारों का उपभोग ही रामराज्य का आदर्श है। आधुनिक वानिकी का निरन्तर उत्पादन का सिद्धान्त (Principle of sustained yield) भी इसी प्रकार का है-

The principle of sustained yield envisages that a forest should be so exploited that the annual or periodic feelings do not exceed the annual or periodic growth, as the case may be.

रामराज्य में उक्त परिकल्पना से भी सुन्दर स्थिति की कल्पना की गयी है। प्रकृति द्वारा स्वतः एवं स्वाभाविक रूप से प्रदत्त उपहारों का प्रकृति के प्रति आत्मीयता या कृतज्ञता रखते हुये उपभोग करना ही रामराज्य का आदर्श है। आधुनिक वानिकी के सततता के सिद्धान्त का यही तात्पर्य है कि हम वानिकी उत्पादों का उपभोग इस प्रकार करें कि मूल सम्पत्ति को कोई क्षति न पहुँचे। हमारे पूर्वजों की सोच इससे भी कहीं आगे थी। वन क्षेत्रों को क्षति न पहुँचे, इतना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि वन क्षेत्रों में सतत वृद्धि का प्रयास किया जाना चाहिये। इसीलिये पर्यावरण प्रदूषण की समस्या न होते हुये भी दशरथ, राम, सीता एवं लक्ष्मण द्वारा समय-समय पर पौध रोपण कार्य किया गया है। सृष्टि का प्रत्येक अवयव, जिसका निर्माण कृत्रिम विधियों से नहीं किया जा सकता, हमारे लिये अमूल्य है। प्रकृति के किसी भी अंग की उपेक्षा करके हम सुखी नहीं रह सकते। स्वस्थ एवं समृद्ध पर्यावरण के बिना रामराज्य की स्थापना सम्भव नहीं है। जीवन की प्रथम आवश्यकता है- शुद्ध वायु। रामराज्य में वायु पूर्णतः शुद्ध थी-

पर्यावरणसीतल सुरभि पवन बह मंदा।

प्रदूषित वायु धरती पर जीवन के अस्तित्व को समाप्त कर सकती है, धीरे-धीरे यह तथ्य अब प्रबुद्ध लोगों के समझ में आ रहा है। रामराज्य वन क्षेत्रों से भरा था। सभी वृक्ष हरे-भरे पुष्प तथा फल सम्पन्न थे। समृद्ध वन में वन्यजन्तु स्वाभाविक रूप से रहा करते थे। सभी वन्यजीव ऐसे वन क्षेत्र में प्रफुल्लित थे। शेर, हाथी, विविध प्रकार के रंग-बिरंगे पक्षी तथा विभिन्न प्रजातियों के हिरण आदि जीवन को जीवन्त बनाया करते थे। रामराज्य में सभी जीव-जन्तु प्रसन्न मन से अपना स्वाभाविक जीवन जीते थे। प्रकृति के किसी भी अवयव से किसी प्रकार की छेड़छाड़ नहीं की जाती थी। वन क्षेत्रों की कमी से ईंधन एवं चारा की विकट समस्या उत्पन्न होती है। ग्रामीण क्षेत्र ईंधन एवं चारा की कमी से बुरी तरह से प्रभावित होते हैं। चारे की कमी से दूध-दही का उत्पादन घटता है जो मानव जीवन के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। रामराज्य में ईंधन एवं चारा की कमी नहीं थी इसलिये गाय पर्याप्त मात्रा में दूध देती थी-

मनभावतो धेनु स्रवहीं।

यही कारण है कि रामराज्य में सभी स्वस्थ एवं निरोग थे। जीवन की द्वितीय मूल आवश्यकता है- शुद्ध पेयजल। रामराज्य में सभी नदियाँ शुद्ध, शीतल, निर्मल एवं स्वादिष्ट जल से परिपूर्ण थीं-

सरिता सकल बहहिं बर बारी। सीतल अमल स्वाद सुखकारी।।

सभी तालाब गहरे जल से भरे थे जिसमें कमल के पुष्प खिले रहते थे। शुद्ध वायु एवं पेयजल की उपलब्धता किसी भी सभ्यता के विकास का केन्द्र बिन्दु है। इसके बिना विकास की कोई भी अवधारणा दिवास्वप्न है। वायु एवं पेयजल के प्रदूषण से हम आज जूझ रहे हैं। हमने सभी नदियों को लगातार प्रदूषित किया है। यदि हम रामराज्य के अभिलाषी हैं तो गोस्वामी तुलसीदास जी की अवधारणा के अनुरूप शुद्ध पेयजल एवं शुद्ध वायु की उपलब्धता सुनिश्चित करना ही होगा। ऐसा कोई भी कार्य हमें प्रत्येक दशा में बन्द करना होगा जो वायु एवं जल को प्रदूषित करता हो चाहे उससे कितना भी भौतिक लाभ मिलता हो। पर्यावरण प्रदूषण का मूल कारण है हमारी लिप्सा। धरती मानव की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु सक्षम है। किन्तु लगातार अनियन्त्रित रूप से बढ़ रही भोगवृत्ति स्वयं धरती को बर्बाद करती है। खनिज, धातु, पेट्रोल, डीजल आदि सभी हमें धरती मां की कोख से प्राप्त होते हैं। मानव द्वारा किये जा रहे असीमित विदोहन से धरती लगातार ऊसर एवं बंजर होती जा रही है। हम यह भी नहीं सोच पा रहे हैं कि असीमित विदोहन जारी रहने से मानव की आने वाली सन्तति का भविष्य क्या होगा? रामराज्य में विदोहन की वृत्ति नहीं थी। मानव की आवश्यकताओं की पूर्ति स्वाभाविक रूप से पर्वतीय क्षेत्रों एवं समुद्री क्षेत्र से हो जाया करती थी। धरती हरी-भरी थी। पर्याप्त वन क्षेत्र विद्यमान थे। कृषक सम्पन्न थे। किसानों की सम्पन्नता से राज्य समृद्ध था। अभाव का नामोनिशान न था।

आवश्यकता से अधिक पर्यावरण प्रदूषण मौसम को परिवर्तित कर देता है। समय पर वर्षा न होना, अत्यधिक वर्षा का होना, अम्लीय वर्षा आदि का कुप्रभाव आज हम देख रहे हैं। कृषि प्रधान देश के लिये यह स्थिति विनाशकारी है। रामराज्य में बादलों से आवश्यकतानुसार ही वर्षा होती थी। कुछ लोगों को यह अतिशयोक्ति लग सकता है। किन्तु स्वस्थ पर्यावरण में सर्दी, गर्मी और वर्षा नियमित रहती है, इसमें कोई सन्देह नहीं है। तुलसीदास जी अत्यन्त दूरदर्शी थे। आज जिन समुद्री तूफानों का कुपरिणाम हमें अभिशप्त कर रहा है, उसकी कल्पना उन्हें थी। सुनामी का कहर अनेक परिवारों को समाप्त कर चुका है। यह सब पर्यावरण प्रदूषण का ही कुप्रभाव है। रामराज्य में समुद्र अपनी मर्यादा में रहते थे। ऐसा तभी सम्भव है जब पूरा मानव समाज पर्यावरण संरक्षण के प्रति पर्याप्त संवेदनशील हो।

पर्यावरण संरक्षण को महत्त्व देते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी का मानना है कि वृक्ष से फल तोड़कर खाना तो उचित है किन्तु वृक्ष को काटना अपराध की श्रेणी में आता है-

रीझि खीझि गुरुदेव सिख सखा सुसाहित साधु। तोरि खाहु फल होइ भलु तरु काटे अपराध।।

रामराज्य धरती पर अनायास ही नहीं स्थापित हो जाता है। इसके लिये परिश्रम, समर्पण एवं सतत प्रयास आवश्यक है। तुलसीदास जी ने इस ओर स्थान-स्थान पर संकेत किया है। आज पूरा मानव समाज इस बात पर एकमत है कि सभी प्रकार के प्रदूषणों को दूर करने का एकमात्र प्रभावी उपाय है- पौधारोपण एवं उसकी सुरक्षा। जिस समाज का प्रत्येक व्यक्ति पौधरोपण एवं उसकी सुरक्षा के प्रति प्रतिबद्ध हो, वहाँ प्रदूषण टिक ही नहीं सकता। वृक्षारोपण कार्य जैसे महान लक्ष्य की पूर्ति हेतु केवल राजकीय प्रयास ही पर्याप्त नहीं हैं। सभी को इस कार्य से जोड़ना होगा। आजकल वृहद वृक्षारोपण का कार्य व्यापक रूप से चलाया जा रहा है, जिसका उद्देश्य जन सामान्य को वृक्षारोपण हेतु प्रेरित करना है। यदि हम रामचरित मानस का अध्ययन करें तो पाते हैं कि जन साधारण को वृक्षारोपण हेतु प्रेरित करने का कार्य तुलसीदास जी आज से बहुत पहले ही प्रारम्भ कर चुके थे। सबसे प्रेरणास्पद बात यह है कि वृक्षारोपण हेतु प्रेरित करने का कार्य अत्यन्त सहजता से किया गया है, जैसे कि वह हमारी दिनचर्या का ही एक अंग हो। वृक्षारोपण कार्य को उपदेशात्मकता से दूर रखकर एक स्वाभाविक कृत्य बना देना गोस्वामी जी की दूरदर्शिता का परिचायक है। यदि हम किसी भी शुभ अवसर जैसे बच्चा पैदा होने, विवाह आदि के समय वृक्षारोपण की परम्परा डाल लें, तो यह एक अनुकरणीय कार्य होगा। ऐसे वृक्षों से लोगों का भावनात्मक सम्बन्ध रहेगा तथा वे इसे हर कीमत पर सुरक्षित रखने का प्रयास करेंगे। तुलसीदास जी ने ऐसी परम्परा को प्रारम्भ करने की चेष्ट की। रामचन्द्र जी के विवाह के उपरान्त जब बारात लौट कर आती है तब आयोध्या नगरी में विविध वृक्षों का रोपण किया जाता है-

सफल पूगफल कदलि रसाला। रोपे बकुल कदम्ब तमाला।।

गोस्वामी जी द्वारा वृक्षारोपण को एक स्वाभाविक कार्य बताया गया है। हर व्यक्ति को स्वप्रेरणा से ही, जहाँ भी जैसे भी सम्भव हो, वृक्षारोपण कार्य करते रहना चाहिये। अपने वन-प्रवास के दिनों में सीताजी एवं लक्ष्मण जी द्वद्यारा विस्तृत रोपण किया गया-

तुलसी तरुवर विविध सुहाए। कहुँ-कहुँ सियँ, कहुँ लखन लगाए।।

शुभ अवसर पर वृक्षारोपण की परम्परा एवं स्वाभाविक रूप से वृक्षारोपण की प्रवृत्ति को आज का युगधर्म माना जाय तो अनुचित न होगा। इस युगधर्म के निर्वाह से हमें प्रदूषण से मुक्ति मिल सकती है।

पथ वृक्षारोपण आधुनिक युग में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। सड़क, रेलवे लाइन एवं नहर की पटरियों के किनारे खाली पड़ी जमीन पर युद्धस्तर पर पूरे देश में वृक्षारोपण किया गया है। रामचन्द्र जी के विवाह के उपरान्त राज्याभिषेक की तैयारी के अवसर पर गुरु वसिष्ठ आदेश देते हैं-

सफल रसाल पूगफल केरा। रोपहु वीथिन्ह पुर चहुँ फेरा।।

रेलवे लाइन एवं नहरें उस समय नहीं थीं किन्तु मार्ग के किनारे उस समय भी रोपण किया जाता था जो उपर्युक्त उदाहरण से पूर्णतः स्पष्ट है। मार्ग के किनारे मुख्यतः फलदार वृक्षों का रोपण किया जाता था। यहाँ पर एक स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि शहरी क्षेत्र के लोग वनीकरण के युगधर्म के निर्वाह में किस प्रकार अपना योगदान दें। यह प्रश्न तब भी था और अब भी है। इसका बड़ा ही सुन्दर समाधान गोस्वामी जी ने प्रस्तुत किया है। शहरी क्षेत्र में वन के स्थान पर वाटिका लगाई जा सकती है। इसके लिये विशेष यत्न करना होगा जैसे गमले में फूल लगाना, लताएँ लगाना, छोटी पौध का रोपण आदि। आजकल बोनसाई की तकनीक भी आ गई है। इसमें विशेष प्रयास अपेक्षित है। अयोध्या नगरी में सभी ने सुमन वाटिकाएँ, लताएँ आदि लगाई हैं। नीचे के उदाहरण में सबहिं शब्द विशेष महत्त्व का है अर्थात रोपण सभी को करना है उसका आकार, प्रकार जैसा भी हो। रामराज्य के चित्रण में इसका वर्णन आता है-

सुमन वाटिका सबहिं लगाईं। विविध भाँति करि जतन बनाई।।
लता ललित बहु जाति सुहाईं। फूलहिं सदा बसन्त की नाईं।।


कुछ समय पूर्व उत्तर प्रदेश शासन द्वारा नगर वन विकसित करने पर बल दिया गया। इसे शहर के फेफड़ों के रूप में विकसित किया जाना था। इसके अन्तर्गत शहरी क्षेत्रों के आस-पास वन क्षेत्रों की स्थापना किया जाना था। गोस्वामी जी के नगर वन की अवधारणा इससे कहीं अधिक व्यापक है। इस अवधरणा में वनों के साथ उपवन, तालाब, पशु-पक्षी सभी को सम्मिलित किया गया है। नगर वन नगर में, नगर के किनारे या आस-पास हो सकते हैं। इससे प्राकृतिक प्रदूषण दूर होने के साथ-साथ मनोवृत्ति के सुधार में भी सहायता मिलती है। अयोध्या नगरी का चित्रण दर्शनीय है-

पुर सोभा कछु बरनि न जाई। बाहेर नगर परम रुचिराई।।
देखत पुरी अखिल अघ भागा। वन उपवन वाटिका तड़ागा।।


इस प्रकार पौधरोपण, वनों की रक्षा, वन्य जीवों के प्रति प्रेम आदि को गोस्वामी जी ने मानव के स्वाभाविक कर्म के रूप में इस प्रकार चित्रित किया है जैसे वह उनकी दिनचर्या का अंग हो। यही वृत्ति प्रदूषण रहित धरती और सम्यक विकास की आधारशिला है और यही वृत्ति अनुकरणीय एवं कल्याणकारी है। जिस रामराज्य की अवधारणा गोस्वामी जी ने प्रस्तुत की थी तथा महात्मा गांधी जी ने जिसका सपना देखा था उस रामराज्य को इसी पथ पर चलकर हम धरती पर पुनः स्थापित कर सकते हैं।

संदर्भ


1. वाल्मीकीय रामायण भाग-1 एवं 2-महर्षिक वाल्मीकि, प्रकाशक-गीताप्रेस, गोरखपुर, उ.प्र.।
2. गोस्वामी तुलसीदास, रामचरितमानस, प्रकाशक- गीताप्रेस, गोरखपुर, उ.प्र.।
3. सिंह, महेन्द्र प्रताप, वाल्मीकि की पर्यावरण चेतना भाग-1 (वनस्पतियाँ), प्रकाशक-अभ्युदय प्रकाशन, लखनऊ।
4. सिंह, महेन्द्र प्रताप, मानस में प्रकृति विषयक, प्रकाशक-पर्यावरण ज्ञान यज्ञ समिति, लखनऊ।
5. सिंह, महेन्द्र प्रताप, तुलसी की अन्तर्दृष्टि, प्रकाशक- उद्योग नगर प्रकाशन, गाजियाबाद।

लेखक परिचय


महेन्द्र प्रताप सिंह
उप वन संरक्षक, कार्यालय प्रमुख वन संरक्षक, 17, राणा प्रताप मार्ग, लखनऊ-226001, उ.प्र., भारत, mahendrapratapsingh1960@gmail.com
प्राप्त तिथि-29.07.2016 स्वीकृत तिथि-16.08.2016

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