रासायनिक प्रक्रम उद्योगों में जल संरक्षण, अपशिष्ट जल-न्यूनीकरण और जल पुनर्चक्रण

इस प्रपत्र में रासायनिक प्रक्रम उद्योगों में जल के उपयोग की प्राचीन मान्यताओं तथा प्रदूषण नियंत्रण कानूनों के अधीन बने मानकों तथा नियमों के अनुसार जल के खपत के न्यूनीकरण और जल संरक्षण की विधियों की चर्चा की गई है। विभिन्न उद्योगों में अपशिष्ट जल के उपचार और शोधन के बाद उसके पुर्नप्रयोग/पुनर्चक्रण को भी दर्शाया गया है जटिल प्रक्रमों/संक्रियाओं में अपशिष्ट जल के न्यूनीकरण हेतू ऊष्मा विनिमायिमों के जाल के लिए विकसित पिंच तकनीकी का प्रयोग कैसे किया जाया, इसका भी वर्णन किया गया है।

रासायनिक प्रक्रम में उद्योगों में जल एक महत्वपूर्ण पदार्थ है जिसका उपयोग प्रक्रम, शीतलन, बॉयलर भरण, स्वच्छता, पेय तथा विविध प्रयोगों में किया जाता है। जल की उपलब्धता तथा 'प्रयोग करो और बहा दो' के सिद्धांत को अपनाने के कारण प्रक्रम उद्योगों में जल के उपयुक्त उपयोग की ओर पूर्व ध्यान नहीं दिया जाता था। भूजल या भूपृष्ठ जल का मूल्य भी इतना कम था और मलिन/अपशिष्ट जल की मानक गुणवत्ता के पालन में ढिलाई बरतने के कारण जल के उपयोग और मलिन/अपशिष्ट जल की मात्रा के बारे में भी बहुत कम नियंत्रण था। समस्या केवल रेगिस्तानी/अर्ध रेगिस्तनी अथवा उन क्षेत्रों में थी जहां पर पानी की उपलब्धता अत्यल्प थी और सुदूर स्रोत से पानी के निष्कर्षण और परिवहन का मूल्य अधिक था। ऐसे क्षेत्रों में जल के न्यूनतम अथवा इष्टतम उपयोग पर काफी बल दिया गया और अपशिष्ट जल के समुचित उपचार/शोधन के बाद/कुछ क्षेत्रों में उनके पुनः प्रयोग पर भी ध्यान दिया गया।

भारत में जल (प्रदूषण निवारण और नियंत्रण) अधिनियम, 1974 और पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 तथा उनके अधीन निर्मित नियमों/विनियमों के लागू हो जाने के बाद रासायनिक प्रक्रम उद्योगों में जल के उपयोग और दूषित जल के विसर्जन के बारे में कुछ सोच प्रारंभ हुई। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने विभिन्न प्रक्रमों/उद्योगों के लिए न्यूनतम राष्ट्रीय मानक (मीनास) का निर्धारण कर जल के उपयोग की मात्रा प्रक्रम में उत्पाद या कच्चा माल की खपत के आधार पर विनिश्चित कर दी। इनके साथ ही विभिन्न प्रमुख उद्योगों से उत्सर्जित जल में विभिन्न अवयवों (प्रदूषकों) की सकल मात्रा भी विनिश्चित कर दिए गए. जल अधिभार अधिनियम, और उत्सर्जित जल की गुणवत्ता के मानक 1977 और उसमें 1991 में किए गए संशोधन के बाद उक्त अधिनियम की अनुसूची को दिए गए उद्योगों/प्रक्रमों में अनुसूची-II में दर्शाए गए विभिन्न उद्देश्यों के लिए होने वाले जल की मात्रा पर अधिभार की अधिकतम सीमा भी निर्धारित की गई है। इसी के साथ अब प्रत्येक उद्योग का प्रत्येक वित्तीय वर्ष के अंत तक का पर्यावरण-ऑडिट रिपोर्ट भी जमा करनी होगी।

उपर्युक्त के संदर्भ में अब सभी प्रक्रम उद्योगों में ‘जल-संतुलन’ और सभी संभावित प्रक्रमों/बिन्दुओं पर जल की खपत और मलिन जल के जनन पर भी ध्यान देना आवश्यक हो गया है। चूंकि मलिन जल के उपचार/शोधन पर होने वाला अनावर्त्ति और आवर्ति व्यय संपूर्ण प्रचालन व्यय का एक महत्वपूर्ण अंश होता है, अतएव मलिन/अपशिष्ट जल के जनन के न्यूनीकरण को अब बहुत महत्व दिया जाने लगा है।

इस रिसर्च पेपर को पूरा पढ़ने के लिए अटैचमेंट देखें



Posted by
Attachment
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading