राष्ट्रीय जल नीति : जन विरोधी नीति

13 Jan 2015
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किसी भी नदी घाटी परियोजना में यह अवधारणा जमीनी सच्चाई नहीं बन सकी। पचास साला विकास के दौर की इस विफलता को परखे बिना इसे पुनः राष्ट्रीय जल नीति का अंग बनाना पानी को डण्डे से पीटने जैसी बात है। इस राष्ट्रीय जल नीति से न तो राष्ट्र का जलहित और न ही जनहित सधता दिखता है। इससे सिर्फ पानी के बहुराष्ट्रीय व्यापारियों का हित पूरा होगा, जो देश के करोड़ों गरीबों को और गरीब व बीमार बनाएगा, क्योंकि पीने लायक साफ पानी अब सिर्फ बोतलबन्द होकर ही बिकेगा। विगत् 15 वर्षों से प्रस्तावित राष्ट्रीय जल नीति अन्ततः एक अप्रैल 2002 के दिन दिल्ली के विज्ञान भवन में राष्ट्रीय जल संसाधन परिषद की बैठक में केन्द्रीय जल संसाधन मन्त्री और अधिकांश राज्यों के मुख्यमन्त्रियों की उपस्थिति में सर्वसम्मति से पारित कर दी गई। पर, प्रधानमन्त्री श्री वाजपेयी द्वारा घोषित यह राष्ट्रीय जल नीति 2002 देश के पानी की वर्तमान व भावी समस्याओं के मद्देनजर सिर्फ ‘पानी का पुलन्दा’ भर है। यानी, यह पूरा नीति-पत्र राष्ट्रीय जल संकट को समाधान की सार्थक दिशा प्रदान करने की जगह दिशाहीन बनाता है।

यह जल नीति जितनी अर्थहीन है, उससे कहीं अधिक जनहित विरोधी भी है। इस पूरे नीति-पत्र की सबसे आपत्तिजनक बात यह है कि पहले तो यह पानी जैसे प्रकृति प्रदत्त उपहार को राष्ट्रीय सम्पत्ति कहता है, फिर उसे एक बिकाऊ वस्तु घोषित करता है। इस जल नीति के 13वें बिन्दु में जल की समस्याओं के निदान में निज क्षेत्र को भागीदारी देने के नाम पर जो कुछ कहा गया है, उससे स्पष्ट है कि यह जल नीति विश्व व्यापार संगठन, आई एम एफ और विश्व बैंक के दबावों के तहत् देश की जल सम्पदा को सिर्फ निजी क्षेत्र को सौंपने के लिए पारित की गई है।

जल नीति के 13वें बिन्दु में कहा गया है, ‘जहाँ कहीं भी व्यावहारिक हों, वहाँ जल के विभिन्न उपयोगों के लिए जल संसाधन परियोजनाओं का आयोजन, विकास और प्रबन्धन में निजी क्षेत्र की भागीदारी को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। निजी क्षेत्र की भागीदारी से नवीनतम् विचार लागू करने और सेवा कुशलता में सुधार करने और जल उपयोगकर्ता के प्रति उत्तरदायी बनाने में मदद मिल सकती है। विशिष्ट स्थितियों पर निर्भर करते हुए जल संसाधन सुविधाओं के निर्माण, स्वामित्व, प्रचालन, लीजिंग और स्थानान्तरण में निजी क्षेत्र की भागीदारी पर विचार किया जा सकता है।

जल के निजीकरण और बाजारीकरण को बढ़ावा देने वाले इस काले प्रावधान के अलावा इस नीति पत्र में बाढ़ और सूखा जैसी समस्याओं के सिलसिले में जल संसाधनों की आयोजना, विकास तथा प्रबन्धन के सन्दर्भ में काफी विसंगतियाँ भरी पड़ी हैं। सबसे पहले राष्ट्रीय जल नीति की आवश्यकता के सन्दर्भ में कहा गया है कि जल एक प्रमुख प्राकृतिक संसाधन होने के साथ-साथ मनुष्य की एक मूलभूत आवश्यकता और एक मूल्यवान राष्ट्रीय सम्पत्ति है। अतः जल संसाधनों की आयोजना, विकास तथा प्रबन्धन राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में किए जाने की आवश्यकता है।’ इस मान्यता के सन्दर्भ में पहला सच यह है कि सभ्यताओं के आरम्भिक काल से ही जल और जल संसाधन सामुदायिक सम्पत्ति रहे हैं। दूसरा सच यह है कि भारत जैसे विविध भू-नैसर्गिक संस्कृति के क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न तरह के जल स्रोत हैं। अतः सिर्फ राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में जल संसाधनों का आयोजना, विकास और प्रबन्धन को निरूपित करना सिर के बल चलने जैसी बात होगी।

इस नीति-पत्र में राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में एक नदी बेसिन से दूसरी नदी बेसिन में जल स्थानान्तरित करने की बात कही गई है। यह अवधारणा प्रथम पंचवर्षीय योजना काल में नदी घाटी परियोजनाओं के गठन के समय ही निरूपित की गई थी। पर किसी भी नदी घाटी परियोजना में यह अवधारणा जमीनी सच्चाई नहीं बन सकी। पचास साला विकास के दौर की इस विफलता को परखे बिना इसे पुनः राष्ट्रीय जल नीति का अंग बनाना पानी को डण्डे से पीटने जैसी बात है। राष्ट्रीय जल नीति में लगभग सभी प्रकार के जल संसाधनों का मूल तत्व के रूप में आयोजना, विकास तथा प्रबन्धन में केन्द्रीयकरण और एकीकरण पर बल दिया गया है, जो भारत के विविध भू-नैसर्गिक संस्कृति के जल स्रोतों की विविधता के प्रतिकूल है।

इस नीति-पत्र में ‘परियोजना की आयोजना’ शीर्षक के तहत् कहा गया है कि परियोजना के निर्माण कार्य के दौरान तथा उसके बाद भी बस्तियों, व्यवसायों, सामाजिक, आर्थिक, पर्यावरणीय एवं अन्य पहलुओं पर परियोजना के प्रभावों का अध्ययन करना परियोजना आयोजना का अनिवार्य घटक होना चाहिए। लेकिन कहीं यह उल्लेख नहीं है कि परियोजना के प्रभावों का अध्ययन कौन करेगा और इसके लिए कौन-सी एजेंसी जिम्मेदार होगी। यह भी स्पष्ट नहीं है कि अध्ययन के नतीजों पर अमल करने के लिए योजनाकार किस हद तक जिम्मेदार होंगे।

बिहार जैसे राज्य के लिए सालाना बाढ़ एक गम्भीर समस्या है। राष्ट्रीय जल नीति में बाढ़ समस्या के सन्दर्भ में एक छह सूत्री नीति सुझाई गई है। पर ये नीतियाँ आशान्वित नहीं, निराश करती हैं। क्योंकि इन नीतियों में बाढ़ समस्या के निदान के लिए उन्हीं उपायों को दुहराया गया है, जिनका उपयोग पिछले सौ सालों से किया जा रहा है और वे उपाय सिर्फ असफल ही नहीं, बल्कि बाढ़ बढ़ाने के सरंजाम साबित हुए हैं। अंग्रेजी राजकाल से देशी राजकाल तक नदियों की बाढ़ को नियन्त्रित करने के लिए तटबन्धों व बाँधों का निर्माण किया जाता रहा है। लेकिन बिहार में इन बाढ़ नियन्त्रण निर्माणों के बाद बाढ़ प्रवण क्षेत्र में कमी आने की जगह इनमें बढ़ोतरी होती चली गई।

1952 में जब इस राज्य में कुछ सौ किलोमीटर लम्बे तटबन्ध बने थे, तब यहाँ का बाढ़ प्रवण क्षेत्र मात्र 25 लाख हेक्टेयर था, पर पिछली सदी के अन्तिम वर्षों में जब करीब 3500 किलोमीटर लम्बे तटबन्ध बन चुके थे, तब इस राज्य को बाढ़ प्रवण क्षेत्र 68.8 लाख हेक्टेयर हो गया था।

इन अनुभवों के बावजूद राष्ट्रीय जल नीति में बाढ़ समस्या के समाधान के सन्दर्भ में ‘नियन्त्रण’ को केन्द्रीय तत्व माना गया है। इस नीति में बाढ़ नियन्त्रण पर काफी जोर देकर कहा गया है कि ‘नियन्त्रण पर सर्वाधिक ध्यान देना चाहिए, इसके लिए यदि कुछ सिंचाई अथवा विद्युत लाभों की तिलांजलि भी देनी पड़े, तो दे देनी चाहिए।’ लेकिन बाढ़ के जल निकासी के सन्दर्भ में कुछ भी नहीं कहा गया है। हाँ, प्रत्येक बाढ़ प्रवण बेसिन के बाढ़ नियन्त्रण और प्रबन्धन के लिए एक मास्टर योजना की बात आवश्यक की गई है। किन्तु बाढ़ नियंत्रण के साथ बाढ़ प्रबंधन के लिए एक मास्टर योजना की बात आवश्यक की गयी है। किंतु बाढ़ नियन्त्रण के साथ प्रबन्धन का स्वरूप स्पष्ट नहीं किया गया है। इसमें कहा गया है कि ‘बाढ़ से होने वाली जान-माल तथा सम्पत्ति की हानि को कम करने के लिए बाढ़ प्रूफिंग के साथ बाढ़ मैदान क्षेत्रों में बस्तियाँ बनाने और व्यावसायिक कार्य को वर्जित करने के लिए कठोर नियम बनाने चाहिए।’ पूरा उत्तर बिहार गंगा की सहायक नदियों के बाढ़ का मैदान है। यहाँ की केरल जितनी सघन आबादी का अधिकांश हिस्सा इन्हीं मैदानों में निवास कर खेती और व्यवसाय से जीवनयापन करता रहा है। अतएव उपरोक्त प्रावधान के तहत इस बड़ी आबादी के निवास और व्यवसाय को प्रतिबन्धित करना जनहित विरोधी तथा विस्थापन की बड़ी समस्या का जनक होगा।

कुल मिलाकर इस राष्ट्रीय जल नीति से न तो राष्ट्र का जलहित और न ही जनहित सधता दिखता है। इससे सिर्फ पानी के बहुराष्ट्रीय व्यापारियों का हित पूरा होगा, जो देश के करोड़ों गरीबों को और गरीब व बीमार बनाएगा, क्योंकि पीने लायक साफ पानी अब सिर्फ बोतलबन्द होकर ही बिकेगा।

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