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रेडियोऐक्टिवता

रेडियोऐक्टिवता (प्राकृतिक) नाभिक का एक गुण है। जो कुछ ज्ञान हमें नाभिक के विषय में प्राप्त है, वह सब रेडियोऐक्टिवता के अनुसंधान के द्वारा ही प्राप्त हुआ है। यदि यह बात सत्य न होती कि U235, U238 तथा Th232 रेडियोऐक्टिव हैं तथा उनकी अर्ध-आयु विश्व की आयु (3´109 वर्ष) से अधिक है, तो न तो प्रकृति में ऐसे तत्व होते जितना परमाणु क्रमांक 83 से अधिक है, न हमें नाभिकीय भौतिकी का ज्ञान होता और न आज परमाणु में ही होते। लघु जीवनकाल वाले तत्व विश्व की रचना के समय से अब तक विघटित होकर लुप्त हो चुके हैं। केवल उपरिलिखित तीन नाभिक तथा अन्य स्थायी तत्व सुदूर भूत में जन्म लेने के पश्चात्‌ अब भी अवशिष्ट हैं। इस प्रकार प्राकृतिक रेडियोऐक्टिव तथा कृत्रिम रेडियोऐक्टिवता में कोई मूलभूत अंतर नहीं है। सच पूछा जाए तो अधिकतर प्राकृतिक रेडियोऐक्टिव तत्व अब कृत्रिम रूप से प्रयोगशालाओं में उत्पादित हो चुके हैं।

जैसा ऊपर कहा गया है, रेडियोऐक्टिवता नाभिक का एक गुण है। कुछ परमाणुओं में से ऐल्फ़ा तथा बीटा कणों के निष्कासन से इस बात का संकेत प्राप्त हुआ कि परमाणु छोटी इकाइयों से निर्मित है। ऐल्फ़ा कणों के प्रकीर्णन के प्रयोगों के निरीक्षणों से रदर्फर्ड का परमाण्वीय नाभिक की संरचना संबंधी विचार सत्य सिद्ध हुआ। विभिन्न रेडियोऐक्टिव तत्वों के रासायनिक संबंधों के विश्लेषण से समस्थानिकों (isotopes) की खोज हुई। प्राकृतिक रेडियोऐक्टिव तत्वों से उपलब्ध ऊँची ऊर्जा वाले ऐल्फ़ा कणों द्वारा परमाणुओं पर बमबारी करने से कुछ नाभिकों को विघटित होते देखा गया। इसी से न्यूट्रॉन की खोज हो सकी तथा नाभिक की संरचना ज्ञात हो सकी। इस बमबारी से प्राप्त रूपांतरित परमाणु प्राय: रेडियोऐक्टिव होते हैं। इन कृत्रिम रेडियोऐक्टिव तत्वों के क्षय के नियमतथा पूर्वज्ञात प्राकृतिक रेडियोऐक्टिव तत्वों के क्षय के नियमों में समानता है।

नाभिक के सिद्धांत में बोर (Bohr) के परमाणु संबंधी सिद्धांत जैसा कोई सरल 'यांत्रिक प्रतिरूप' नहीं है, यद्यपि ऊर्जास्तरों का विचार नाभिक के लिए अपना लिया गया है। इस विज्ञान का न्यूक्लीय स्पेक्ट्रमिकी कहते हैं। यदि किसी परमाणु का कोई इलेक्ट्रॉन उत्तेजित अवस्था में पहुँचा दिया जाए, तो वह प्राय: 10-8 सेकंड में अपने मूलभूत स्तर पर लौट आएगा। पर बहुत से नाभि उत्तेजित अवस्था में बहुत लंबे काल तक (कुछ नाभिक तो अरबों वर्ष तक) रह सकते हैं और तत्पश्चात्‌ एक स्थायी अवसथा में विघटित होते हैं। इसके अतिरिक्त परमाणओं की अपेक्षा नाभिक अधिक प्रकारों से विघटित होते हैं। एक नाभिक का एक नीचे ऊर्जास्तर में संक्रमण एक ऐल्फ़ा उत्सर्जन द्वारा (ऐल्फ़ा-रेडियोऐक्टिव), एक इलेक्ट्रॉन अथवा पॉज़ीट्रॉन निष्कासन द्वारा अथवा के-इलेक्ट्रॉन प्रग्रहण द्वारा (बीटा-रेडियोऐक्टिवता) अथवा एक 'फ़ोटॉन' (गामा किरण) निष्कासन द्वारा (गामा-रेडियोऐक्टिवता), हो सकता है।

प्रकृति में बहुत से रेडियोऐक्टिव तत्व पाए जाते हैं। प्राकृतिक रेडियोऐक्टिवता बहुत भारी तत्वों में सर्वाधिक पाई जाती है। ये सब तत्व ऐल्फ़ा सक्रिय होते हैं। ये तत्व प्रकृति में इसलिए विद्यमान हैं, क्योंकि ये इतने धीरे धीरे विघटित होते हैं कि तत्वों की सृष्टि के समय से अब तक भी वे शेष बच रहे हैं। जो रेडियोऐक्टिव तत्व प्रकृति में नहीं पाए जाते, वे न्यूक्लीय अभिक्रिया द्वारा बनाए जा सकते हैं।

रेडियोऐक्टिवता की खोज रंट्येन (Roentgen) द्वारा सन्‌ 1895 में एक्सकिरण की खोज के तुरंत बाद हुई। इसकी खोज का श्रेय फ्रांस के हेनरी बेकरेल (H. Becquerel) को है। रंट्येन की खोज के पश्चात्‌ ऐसा शक किया जाता था कि एक्सकिरणों का उत्पादन एक्सकिरण-नलिका की दीवारों की प्रतिदीप्ति के कारण हुआ था। इस कारण बहुत से निरीक्षक इस बात की खोज में लगे हुए थे कि अन्य प्रतिदीप्तिशील, या स्फुरदीप्तिशील पदार्थों में एक वेधनशील विकिरण की खोज करें। इन्हीं लोगों में बेकरेल भी थे। बेकरेल यूरेनियम के एक लवण के साथ प्रयोग कर रहे थे। कुछ वर्ष पूर्व इन्होंने सिद्ध कर दिया था कि पराबैंगनी किरणों के प्रभाव से इस लवण में तीव्र स्फुरदीप्ति उत्पन्न हो जाती थी : इन्होंने थोड़ा सा लवण लेकर प्रकाश के सामने रखा और उसको काले कागज में लपेटकर एक फोटो प्लेट के समक्ष रखा। चाँदी की एक पट्टिका उस लवण तथा फोटो प्लेट के बीच में रख दी गई थी। कुछ घंटों के पश्चात्‌ फोटो प्लेट डेवलेप करने पर एक प्रत्यक्ष प्रभाव दिखाई दिया, अर्थात्‌ यूरेनियम लवण कुछ ऐसा विकिरण निकालता था जो उस चाँदी की पट्टिका को भी पार कर फोटो प्लेट पर प्रभाव डालता था। शीघ्र ही यह भी ज्ञात हो गया कि वह विकिरण उस यौगिक के यूरेनियम वाले अंग से आता था तथा उसे समतुल्य यूरेनियम लेने पर, अथवा उसके समान यूरेनियम की मात्रा रखनेवाले किसी भी यौगिक को लेने पर, उस विकिरण की तीव्रता सदा समान रहती थी। साथ ही यह भी देखा गया कि इस विकिरण का निष्कासन, स्फुरदीप्ति अथवा प्रतिदीप्ति के किसी भी गुण पर, अथवा उस पदार्थ की भौतिक अथवा रासायनिक अवस्था पर, बिलकुल निर्भर नहीं था। इस प्रकार रेडियोऐक्टिवता की खोज हो गई।

इस खोज के तुरंत बाद ही अन्य अन्वेषक हुए, जिनके नाम रदर्फर्ड, सॉडी, मैडम क्यूरी तथा पियरे क्यूरी आदि हैं। शीघ्र ही यह बात खोज निकाली गई कि थोरियम, पोलोनियम, रेडियम तथा ऐक्टीनियम से भी ऐसे ही वेधनशील विकिरण निकलते हैं। सच पूछा जाए तो बहुत से पदार्थ रेडियोऐक्टिव पाए गए, पर प्राय: ये सभी मूल रूप से यूरेनियम अथवा थोरियम से उत्पन्न ज्ञात हुए। यह बात साफ हो गई कि इन रेडियोऐक्टिव पदार्थों के परमाणु स्थायी नहीं है, उनका क्षय अथवा विघटन होता है, उनसे कुछ विकिरण निकलते हैं तथा ये पदार्थ नए तत्वों में परिणत हो जाते हैं। यही नहीं, यह नवोदित पदार्थ भी यदि रेडियोऐक्टिव हुआ, तो उसका भी इसी प्रकार क्षय होता है। इस प्रकार पुत्र नाभिक, पौत्र नाभिक आदि के क्षय का एक शृंखलाक्रम उस समय तक चलता जाता है जब तक परिणामी तत्व एक स्थायी तत्व, प्राय: सीसा (lead) तथा विस्मथ, न हो जाए। इस प्रकार कम से कम प्राकृतिक रेडियोऐक्टिव तत्वों के विषय में तो कहा ही जा सकता है कि उनका पूर्वज या तो यूरेनियम है या थोरियम। ये प्राकृतिक रेडियोऐक्टिव तत्व प्राय: भारी परमाणुवाले हैं तथा इनका परमाणु द्रव्यमान सीसा के परमाणु द्रव्यमान से अधिक है। कुछ हल्के तत्व भी प्राकृतिक रेडियोऐक्टिवता प्रदर्शित करते हैं। ये हैं : पोटैशियम 40 (19K140), रूबिडियम87 (37Rb87), समेरियम147 (62Sm147), ल्यूटीशियम176 (71Lu176), लैंथेनम138, न्यूडियम150 तथा रेनियम187 (Re187)। इनके परमाणुक्रमांक 19 तथा 71 के बीच में हैं, जबकि भारी रेडियोऐक्टिव तत्वों के परमाणुक्रमांक 81 तथा 92 के बीच में हैं।

रेडियोऐक्टिवता के प्रकार- यदि कुछ रेडियम को सीसा की एक ऐसी मोटी प्याली में रखा जाए, जिनमें एक ओर एक महीन छेद हो, तो विकिरण केवल उसी छेद से निकलेगा तथा सीधी रेखा में चलेगा। पर यदि निकलने की दिशा के लंबत: एक चुंबकीय बल लगा दिया जाए, तो केवल आवेशित कण एक वृत्तीय पथ में चलकर, अपनी गति तथा बल के द्वारा बनाए तल के लंबत: अपनी दिशा बदल देंगे, पर आवेशरहित कण (अथवा किरणें) अपनी पूर्वदिशा में ही चलेंगे। इस प्रकार का विशेष (deflection) निम्नलिखित नियम के अनुसार होता है :

कण पर विक्षेप बल = आवेश ´ गति ´ चुंबकीय बल। आवेश धनात्मक अथवा ऋणात्मक होने पर कण बाएँ, या दाएँ घूमेगा, क्योंकि विक्षेपबल की दिशा विपरीत हो जाएगी। यदि आवेश शून्य होगा, तो विक्षेपबल भी शून्य होगा। इस प्रकार चुंबकीय बल लगाने पर देखा गया कि एक विकिरण वाईं ओर कम अर्धव्यासवाले वृत्त में घूमा, तो अन्य विकिरण अधि अर्धव्यासवाले वृत्त में दाईं ओर घूम गया तथा एक अन्य विकिरण अविचलित सीधा चला गया, जबकि गति कागज के तल पर नीचे से ऊपर की ओर थी तब चुंबकबल कागज के तल से लंबत: अंदर को प्रवेश करता हुआ था। इस प्रकार बाईं ओर को घूमा विकिरण धनात्मक आवेशवाला 'ऐल्फा कण', दाईं ओर को घूमा विकिरण ऋणात्मक 'बीटा कण' तथा अविचलित विकिरण 'गामा किरण' कहलाए। ऐल्फा कण हीलियम तत्व के नाभिक हैं। इनपर आवेश = + 2e जहाँ e = इलेक्ट्रॉन का आवेश। बीटा कण तीव्र गतिवाले ऐसे इलेक्ट्रॉन हैं जो नाभिक से मुक्त हुए हैं, तथा गामा किरणें विद्युच्चुंबकीय तरंगें हैं जिनका तरंगदैर्घ्य = 10-10 सेंमी. के लगभग होता है। रदर्फ़र्ड व उनके सहयोगियों ने बड़े सुंदर ढंग से सिद्ध कर दिया था कि ऐल्फ़ा कण हीलियम के ही नाभि है।

रेडियोऐक्टिव क्षय का सांख्यिकीय नियम - सक्रियता की परिभाषा है, विघटनों की संख्या प्रति सेकंड, अर्थात्‌ यह विघटन के प्रति सेकंड की दर है। यह दर भिन्न भिन्न रेडियोऐक्टिव तत्वों के लिए भिन्न भिन्न होती है। सक्रियता तथा समय का ग्राफ चरघातांकी (exponential) वक्र रेखा है तथा सक्रियता के लघुगणक (logarithm) एवं समय का ग्राफ एक सरल रेखा है।

विघटन का यह नियम संभाविता पर आधारित है तथा उसी के नियमों से इस नियम को सैद्धांतिक रूप से सिद्ध किया जा सकता है। इस प्रकार ज्ञात सक्रियता का सूत्र निम्नलिखित है :

रेडियोऐक्टिवता, अर्थात्‌ सक्रियता, A = = N l... (1) यहाँ N = उस क्षण अविघटित तथा उपस्थित परमाणुओं की संख्या है तथा l = एक परमाणु के प्रति सेकंड के क्षय की संभाविता है। l को क्षय नियतांक (या विघटन स्थिरांक) भी कहते हैं। इस सिलसिले में अर्ध-आयु तथा औसत आयु की परिभाषा जानना भी आवश्यक है। एक रेडियोऐक्टिव पदार्थ की अर्ध-आयु वह काल है जिसमें परमाणुओं की वर्तमान संख्या घटकर आधी हो जाएगी तथा औसत आयु वह काल है जिसमें परमाणुओं की संख्या वर्तमान संख्या की 1/e के बराबर रह जाएगी। इनके सूत्र निम्नांकित हैं :

अर्ध आयु = ... (2)

औसत आयु = .. ... (3)

रेडियोऐक्टिवता के मात्रक अथवा इकाइयाँ - C = क्यूरी = किसी रेडियोऐक्टिव पदार्थ की वह मात्रा जो 3.70 ´ 1010 विघटन प्रति सेकंड दे। इस प्रकार रेडियम के एक ग्राम की रेडिया रेडियोऐक्टिवता एक क्यूरी होती है। इसी प्रकार मिली-क्यूरी = 1 m C = क्यूरी का हजारवाँ भाग तथा माइक्रो-क्यूरी = 1 m C = क्यूरी का दस लाखवाँ भाग = 10-6 क्यूरी।एक रदर्फ़र्ड = 106 विघटन प्रति सेकंड। इसी प्रकार इसका हजारवाँ तथा दस लाखवाँ भाग भी है।

यदि एक 'काउंटर' (रेडियोऐक्टिव कणों की संख्या गिननेवाला गणक, या गणित्र) को एक रेडियोऐक्टिव तत्व के निकट रख दिया जाए, तो वह कुल निकले हुए कणों का कुछ अंश ही अभिलेखन करेगा तथा उसकी गणना की दर उस रेडियोऐक्टिव तत्व की सक्रियता की समानुपाती होती है।

ऐल्फ़ा-विघटन - जैसा पहले कहा जा चुका है, ऐल्फ़ा कण हीलियम के नाभिक हैं। ऐल्फ़ा कणों को एक पतली काँच की दीवार से गुजराकर तथा कुछ दिन प्रतीक्षा करके, रदर्फ़र्ड तथा राइड्स ने सन्‌ 1909 में पतनी विसर्जन (discharge) नलिका में विसर्जन उत्पन्न कर, स्पेक्ट्रममापी से उस गैस का विश्लेषण किया तो हीलियम की पहचान हो गई।

न्यूक्लियस से ऐल्फ़ा का निष्कासन 'कूलॉम प्रतिकर्षण' के प्रभावस्वरूप होता है। चूँकि 'कूलॉम प्रतिकर्षी बल' (अथवा कूलॉम स्थितिज ऊर्जा) परमाणु-क्रमांक के वर्ग (=Z2) का समानुपाती होता है, इस कारण ऐल्फ़ा निष्कासन अधिक भारी (बड़े परमाणु क्रमांक वाले) नाभिकों में अधिक प्रभावकारी होता जाता है। यह भारी नाभिक स्वत: ऐल्फ़ा कण मुक्त करते हैं, अर्थात्‌ इस प्रकार मुक्त ऐल्फ़ा कण पर्याप्त गतिज-ऊर्जा से युक्त होते हैं तथा यह ऊर्जा तंत्र (system) के द्रव्यमान के क्षय से उपलब्ध होती है। ऐल्फ़ा कण एक स्थायी तथा 'संघनित-संरचना' है। इसकी बंधन-ऊर्जा 28.3 मेव (Mev = दस लाख इलेक्ट्रॉन वोल्ट) है। इसका द्रव्यमान अपने संघटकों के द्रव्यमान की तुला में यथेष्ट कम है। इस प्रकार यदि हम चाहते हैं कि विघटन द्वारा उत्पन्न पदार्थ अधिक से अधिक हल्का हो तथा साथ ही अधिक से अधिक ऊर्जा से युक्त हो, तो इसके लिए ऐल्फ़ा कण अन्य पदार्थों की अपेक्षा वरीय होगा। यह बात आगे सिद्ध हो जाएगी।

यदि कोई नाभिक (Z, A) स्वत: विघटित होकर एक ऐल्फ़ा कण तथा पुत्र-नाभिक (Z-2, A-4) मुक्त करता हो तथा इस अभिक्रिया की विघटन-ऊर्जा = Q हो, तो ऐल्फ़ा कण की गतिज ऊर्जा, Ka. क सूत्र यह होगा :

Ka =

अर्थात्‌ 'बड़े A' के लिए ऐल्फ़ा कण अधिकतम (पर संपूर्ण नहीं) विघटन-ऊर्जा ले जाता है।उदाहरण के रूप में U232 ऐल्फ़ा कण निष्कासित करता है तथा इसकी अर्ध आयु 70 वर्ष है। यदि हम विभिन्न प्रकार के निष्कासित नाभिकों के लिए मुक्त गतिज ऊर्जा ज्ञात करें, तो हमें आगे सारणी (2) में दिया गया फल प्राप्त होगा। इसको देखने से ज्ञात हो जाएगा कि ऊर्जा के विचार से स्वत: विघटन में केवल ऐल्फ़ा निष्कासन ही संभव है।

यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि एल्फ़ा निष्कासन के लिए इतना ही पर्याप्त नहीं है कि ऊर्जा के वियार से ऐल्फ़ा-निष्कासन संभव हो, यह भी आवश्यक है कि विघटन-स्थिरांक l, का मान भी बड़ा हो। साथ ही अन्य कण, जैसे बीटा-कण, भी यदि वह निकालता हो, तो बीटा-निष्कासन के लिए आंशिक-विघटन-स्थिरांक इतना बड़ा न हो कि ऐल्फ़ा-विघटन का प्रभाव दब जाए। उस ऐल्फ़ा निष्कासन की अर्ध-आयु 1016 वर्ष से कम होना आवश्यक है।

ऐल्फ़ा निष्कासन के स्पष्टीकरण के लिए क्वांटम यांत्रिकी के 'सुरंग प्रभाव (टनेल एफेक्ट) का उपयोग करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त ऐल्फ़ा निष्कासन तथा ऐल्फ़ा से पिता नाभिक की अभिक्रिया, यौगिक नाभिक (compound nucleus) के अनुवाद के सिद्धांत (Resonance Theory) के आधार पर, यौगिक नाभिक के उत्तेजित ऊर्जा के स्तरों से संबंधित है एवं उन स्तरों की उपलब्धता पर निर्भर करता है।

ऐल्फ़ा विघटन से संबंधित दो मुख्य राशियाँ हैं : विघटन ऊर्जा = Q तथा स्थिरांक (अथवा अर्ध-आयु)। ऊर्जा तथा संवेग की अविनाशिता के नियमों पर आधारित सूत्र यह है :

Q = Q,

जहाँ ma = ऐल्फ़ा का द्रव्यमान, md = पुत्र का द्रव्यमान, Ka = ऐल्फ़ा की गतिज ऊर्जा है, A पिता नाभिक की द्रव्यमान संख्या और (A - 4) पुत्र नाभिक की द्रव्यमान संख्या है।

ऐल्फ़ा कणों का वेग तथा परास (Range) - गाइगर (Geiger) तथा नटॉल (Nuttal) ने सन्‌ 1911 में प्रयोगों के द्वारा विघटन स्थिरांक l, तथा परास, R, में एक संबंध ज्ञात किया था। वह समीकरण निम्नलिखित है तथा केवल सन्निकट संबंध देता है :

log l= A + B log R, अथवा l = A1 RB

यहाँ स्थिरांक B तीनों रेडियोऐक्टिव श्रेणियों (यूरेनियम-रेडियम, ऐक्टीनियम तथा थोरियम श्रेणियों) के लिए भिन्न है। अगली संबंध निम्नलिखित है :

एक श्रेणी विशेष के सभी के सदस्यों के लिए,

l = स्थिरांक ´ R57.5 सेंमी.

जहाँ R हवा में चला फासला (परास) है तथा इस स्थिरांक का मान यूरेनियम श्रेणी के लिए 10-42.3, थोरियम श्रेणी के लिए 10-44.2 तथा ऐक्टिनियम श्रेणी के लिए 10-46.3 है।

नाभिकों द्वारा निष्कासित ऐल्फ़ा के ऊर्जा क्षेत्र (4 से 10 मेव) में R = a v3, जहाँ a = एक स्थिरांक = 96.7 ´ 10-28 तथा v = ऐंल्फ़ा कणों की हवा में गति है।

इस कारण, l = 1/T = स्थिरांक + v171.6

अथवा T ¥ v-171.5

तथा log t = स्थिरांक + स्थिरांक ´ v-1

यह संबंध गैमो के सिद्धांत से उन सीमित ऊर्जावाले ऐल्फ़ा कणों के लिए जो क्षय द्वारा मुक्त होते हैं, बिल्कुल मेल खाता है।

वर्तमान सिद्धांत द्वारा दिया गया सूत्र निम्नलिखित है :
log T = - K

यहाँ z = पुत्र नाभिक की परमाणुसंख्या, z = ऐल्फ़ा कण की परमाणुसंख्या तथा K = ऐसा स्थिरांक, जो पुत्र नाभिक के अर्ध व्यास पर निर्भर करता है।

ऐल्फ़ा कणों की गति, या तो एक चुंबकीय क्षेत्र में उनको विक्षेप कराके, अथवा किसी वैद्युत विधि, जैसे आयनन कोष्ठ (chamber) द्वारा ज्ञात की जा सकती है, या एक प्रतिदीप्तिशील पदार्थ या स्फुरणगणित्र, जैसे ZnS(Ag), प्रयोग में लाया जा सकता है।

श्जब एल्फ़ा कण किसी गैस में से गुजरता है, तब अपने सारे पथ भर में बहुत से आयन भी उत्पन्न करता है। इन आयनों की संख्या ऐल्फ़ा कण की प्रारंभिक ऊर्जा पर निर्भर करती है। विभिन्न ऐल्फ़ा कणों द्वारा उत्पन्न आयन संख्या की सारणियाँ भी उपलब्ध हैं। RaC¢ से निकले ऐल्फ़ा कण की ऊर्जा 7.68 मेव (Mev) तथा आयनसंख्या के ग्राफ़ से उपलब्ध परास (range) = 6.95 सेंमी. है तथा यह हवा में रुकने से पहले 2.2 ´ 105 आयन जोड़ा उत्पन्न करने में खर्च हुई ऊर्जा का मान, एक गैस से दूसरी गैस के लिए भिन्न होता है तथा प्राय: नापी गई गैसो के लिए 20 से 40 Mev के मध्य में पाया गया है। यह ऊर्जा गैस के आयनन विभव से सदा अधिक होती है। वह कुछ अधिक ऊर्जा दो कारणों से होती है। ऐल्फ़ा कण निस्संदेह कुछ परमाणुओं को उत्तेजित तो कर देते हैं, पर आयनित नहीं करते। जो इलेकट्रॉन परमाणुओं से ऐल्फ़ा-कण द्वारा मुक्त होते हैं, उनमें कुछ गतिज-ऊर्जा भी होती है। इस प्रकार ऐल्फ़ा कण को आयनन ऊर्जा तथा गतिज ऊर्जा दोनों प्रदान करनी पड़ती हैं।

उपरिलिखित बातों (data) से यह भी ज्ञात होता है कि 7.68 मेव वाला ऐल्फ़ा कण औसतन 32 ´ 102 आयन जोड़े प्रति मिमी. अपने सारे पथ भर में पैदा करेगा। इस राशि को विशिष्ट आयन संख्या कहते हैं।

परास को प्रयोग द्वारा ज्ञात करने की कई विधियाँ हैं। इसको एक प्रतिदीप्तिशील (fluorescent) पट पर उत्पन्न 'स्फुरण' अथवा 'प्रतिदीप्ति-कण' की संख्या को गिनकर ज्ञात कर सकते हैं, यदि धीरे-धीरे पट को स्रोत से उस समय तक दूर हटाया जाए जब तक पट पर 'चमकते सितारे' समाप्त न हो जाएँ। इसको एक 'अभ्र कोष्ठ' (cloud chamber) में चले पथ की लंबाई को फोटग्राफ़ करके भी ज्ञात किया जा सकता। परास को एक छिछले आयनन कोष्ठ (ionisation chamber) में विभिन्न फासलों पर उत्पन्न आयनों की संख्या की माप लेकर (अथवा ऐसे उपकरण को उपयोग में लाकर, जो कणों द्वारा पूर्ण रूप से चले फासलों को नाप सकता हो) भी ज्ञात किया जा सकता है। इसके ज्ञात करने की एक वैद्युत विधि यह है कि कणों के स्रोत को एक खोखले सुचालक गोले के केंद्र में स्थित कर, गोले के अंदर विभिन्न वायुदबावों पर ऐल्फ़ा-कणों द्वारा उत्पन्न कुल आयनों की संख्या एक विद्युद्दर्शी (electroscope) द्वारा माप ली जाए। यदि गोले का अर्धव्यास परास से बड़ा होगा, तो आयनों की कुल संख्या वायुदबाव कम करते जाने पर भी स्थिर रहेगी, क्योंकि ऐल्फ़ा-कण रुकने से पहले सदा समान आयनों की संख्या उत्पन्न करेंगे। चूँकि जैसे-जैसे दबाव घटता जाता है वैसे-वैसे परास बढ़ता जाता है, इस कारण एक ऐसा विशेष दबाव भी होगा जिसपर परास ठीक अर्धव्यास के बराबर होगा। अब यदि दबाव को और घटाया जाएगा तो आयनों की कुल संख्या कम होना आरंभ हो जाएगी, क्योंकि अब परास अर्धव्यास से बड़ा होगा तथा कण वायु में पूर्ण रूप से न रोके जा सकेंगे, देखें चित्र 1. तथा 2.। इस स्थान पर वक्र रेखा अपनी प्रवणता (slope) की दिशा बदल देगी। इस प्रकार उस दबाव से, जब आयनों की कुल संख्या में कमी आरंभ हो गई थी, तथा गोले के अर्धव्यास के ज्ञान से साधारण दशाओं के लिए परास की गणना की जा सकती है।

लंबे परासवाले कण तथा सूक्ष्म संरचना (fine structure) - प्राय: एक रेडियोऐक्टिव तत्व एक ही ऊर्जा के ऐल्फ़ा मुक्त करता है। यदि सूक्ष्म निरीक्षण तथा माप ली जाएँ तो ज्ञात होगा कि वह तत्व कई ऊर्जाओं (अथवा गतियों) का समूह (ऐल्फ़ा किरण समूह) मुक्त करता है तथा कुछ ऐल्फ़ा कण ऐसे भी होते हैं जिनका परास मुख्य समूह के परास से बहुत अधिक होता है। इनको प्राय: लंबे परासवाले कण कहा जाता है। यह देखा गया है कि ऐल्फ़ा कणों का समूह बहुत कम ऊर्जा अंतरवाले समूह के रूप में निकलता है। इनकी गति तथा परास बहुत पास पास होते हैं तथा साधारण विधियों से उनमें कोई भेद नहीं किया जा सकता। एक ऐल्फ़ा समूह में इन पास पास पड़े एवं भिन्न भिन्न अंगों (संघटकों) को इस विकिरण की 'सूक्ष्म संरचना' कहते हैं। इसी संरचना को अभ्र कोष्ठ के फोटोग्राफ, अथवा शक्ति शाली चुंबक द्वारा इसका विक्षेप कराकर तथा एक छोटी प्लेट में इसका रिकार्ड लेकर, पहचाना जा सकता है।

इस ऐल्फ़ा किरण के स्पेक्ट्रम को इस परिकल्पना के आधार पर स्पष्ट किया जा सकता है कि कुल विघटनों के कुछ अंशों में पुत्र नाभिक एक 'उत्तेजित ऊर्जास्तर में पायाएक स्रोत से मुक्त ऐल्फ़ा कणों का परास समान रहता है। जाता है, जिसके कारण ऐल्फ़ा कण की उपलब्ध ऊर्जा घट जाती है और वह नीची ऊर्जा से युक्त होकर निकलता है तथा बाद में पुत्र नाभिक अपनी उत्तेजित अवस्था से नीची आधारभूत अवस्था में उतरकर, एक या अधिक फ़ोटॉन या गामा किरणें मुक्त कर देता है। इस प्रकार के फ़ोटॉनों को पकड़कर उनकी ऊर्जा ज्ञात करने पर उनको विभिन्न ऐल्फ़ा समूहों की ऊर्जाओं के अंतर के बराबर पाया गया है।

बीटा तथा गामा विकिरण और उनके गुण - रेडियोऐक्टिव तत्वों के क्षय के द्वारा उत्पन्न बीटा-कण उच्च गतिवाले इलेक्ट्रॉन हैं। जिन वस्तुओं पर ये गिरते हैं, उनमें यह ऋणात्मक आवेश उत्पन्न कर देते हैं। इनको विद्युत्‌ क्षेत्र, या चुंबकीय क्षेत्र में विक्षेपित किया जा सकता है। इनका e/m (आवेश तथा द्रव्यमान का अनुपात) सदा उतना ही आता है जितना गरम पतले फिलामेंट से निकले इलेक्ट्रानों का तथा इन दोनों के e/m तथा गति का संबंध भी समान है। इसमें अब लेशमात्र भी संदेह नहीं है कि ये इलेक्ट्रॉन हैं तथा ऐसे इलेक्टॉन, जिनको क्षय होते हुए नाभिक ने बहुत ऊर्जा प्रदान कर दी है। बीटा कणों की ऊर्जा प्राय: शून्य से लेकर कई मेव तक होती है तथा वीटा कण का ऊर्जा स्पेक्ट्रम (अर्थात्‌ बीटा-कणों की संख्या तथा बीटा-ऊर्जा के मध्य खींचा गया ग्राफ़) तथा बीटा कणों की अधिकतम ऊर्जा (सीमांत ऊर्जा) का मान भिन्न भिन्न रेडियोऐक्टिव स्रोतों के लिए भिन्न भिन्न है। ऐसे पर्याप्त प्रमाण हैं कि कुछ पदार्थ कुछ ऐसे भी बीटा कण निष्कासित करते हैं जिनकी ऊर्जा 8 मेव, या संभवत: 11 मेव तक भी हो सकती है, पर प्राय: 2 या 3 मेव से अधिक ऊर्जा के बीटा कण बहुत ही कम देखने में आते हैं। इनकी ऊर्जा प्राय: बहुत कम होती है।

इस तथ्य पर विश्वास करने के लिए समुचित कारण उपलब्ध हैं कि ये इलेक्ट्रॉन नाभिक के अंदर वास नहीं करते, अपितु केवल निष्कासन के समय ही उनका 'जन्म', या 'उनकी रचना' होती है। उनके निर्माण के लिए आवश्यक ऊर्जा, क्षय के समय, नाभिक की एक निम्न ऊर्जास्तरवाली अवस्था में पुनर्व्यवस्था के द्वारा उपलब्ध होती है। केवल एक इलेक्ट्रॉन की विराम ऊर्जा (rest energy) = m C2 = 0.51 Mev, उसके निर्माण में तथा शेष बाहर जानेवाले कणों की गतिज ऊर्जा के रूप में प्रकट होती है।

सामान्यतया बीटा कणों की ऊर्जा ऐल्फा कणों की अपेक्षा कम होती है। अधिकतर बीटा कणों की ऊर्जा 3 मेव से कम होती है तथा अधिकतर ऐल्फ़ा कणों की ऊर्जा 4 मेव तथा 9 मेव के मध्य में होती है। यद्यपि बीटा कण की ऊर्जा कुछ कम होती है, तो भी द्रव्यमान कम होने के कारण, इसकी गति अधिक होती है। ऐल्फ़ा कणों के समान ही, बीटा कण भी, जब वह किसी पदार्थ से होकर गुजरते हैं तो कुछ निम्न ऊर्जावाले आयन उत्पन्न करते हैं। पर बीटा-कण कहीं अधिक कम आयनसंख्या प्रति मिमी. उत्पन्न करते हैं, अर्थात्‌ इसका विशिष्ट आयनन बहुत कम है। उदाहरणस्वरूप, एक 3 मेव वाले ऐल्फ़ा कण की गति प्रकाश की गति का श्भाग है और हवा में, 760 मिमी. पारे की दाब तथा 15° सें. ताप पर, यह प्रति मिमी. 4,000 आयन-जोड़े (आयन युगल) उत्पन्न करता है। बहुत कम विशिष्ट आयनन (आयनसंख्या प्रति मिमी.) होने के कारण बीटा कण का परास कहीं अधिक है, जबकि 3 मेव वाले ऐल्फ़ा कणों का वायुपरास लगभग 1.7 सेंमी. है। इस ऊर्जा का एक बीटा कण वायु में रुकने से पहले 13 मीटर चलता है। केवल 0.5 मेव वाले बीटा का परास लगभग 1 मीटर है। इस प्रकार एक औसत बीटा कण एक औसत ऐल्फ़ा कण से हजारों गुना अधिक वेधनशील है। अधिकतम ऊर्जा वाले ऐल्फा कण भी एक साधारण कागज, या ऐलुमिनियम क लगभग 0.06 मिमी. माटी चद्दर, के द्वारा रोके जा सकते हैं पर यह मोटाई तो बीटा कणों के रोकने के लिए आरंभ मात्र है। कुछ बीटा कण तो ऐंलुमिनियम की एक मिमी. से भी अधिक मोटाई से गुजर जाते हैं। ऐल्फ़ा कण हवा में प्राय: सीधे चलते हैं, पर अभ्रकोष्ठ में बने बीटा कण के पथ के फोटो देखने से ज्ञात हुआ है कि इसका पथ बिलकुल सीधी रेखा नहीं होता, वरन्‌ रास्ते भर यह थोड़ा थोड़ा विक्षेपित होता चलता है। इसी कारण ऐल्फ़ा कण के परास का एक सुनिश्चित अर्थ है, किंतु बीटा कण के परास का उतना सुनिश्चित अर्थ नहीं है। बीटा कण के असली परास का मान केवल उसके द्वारा चले अनियमित, संपूर्ण पथके निरीक्षण द्वारा ही आँका जा सकता है।

बीटा- कणों की ऊर्जा एक चुंबकीय क्षेत्र में, जो बीटा की गति की दिशा से लंबत: लगाया गया हो, बीटा को एक चक्रीय पथ में विक्षेपित कराकर नापी जा सकती है।

गामा किरणें - रेडियोऐक्टिव क्षय द्वारा मुक्त गामा किरणों तथा एक्स किरणों के गुण एक ही समान हैं। चुंबकीय, या विद्युत्‌, क्षेत्रों में इन दोनों की दिशा नहीं बदली जा सकती। गामा किरणें ऐक्स किरणों की तरह व्यतिकृत (interfered) तथा विवर्तित (diffracted) भी होती हैं। इनकी भी गति प्रकाश की गति के बराबर होती है। ये पदार्थों से फोटो इलेक्ट्रॉन भी एक्स किरणों के समान ही निष्कासित करती है। गामा किरणें विद्युच्चुंबकीय तरंगें हैं तथा इनका तरंगदैर्घ्य एक्स किरणों की तुलना में छोटा होता है। इसी कारण ये एक्स किरणों से अधिक वेधी होती हैं। गामा किरणें जिस पदार्थ स निकलती हैं उसी की विशिष्ट या लाक्षणिक होती हैं। किंतु अधिक नीची ऊर्जावाली गामा किरणों का तरंगदैर्घ्य बहुत सी एक्स किरणों से भी अधिक हो सकता है, और अब उपलब्ध उपकरणों द्वारा उत्पादित कुछ एक्स किरणें छोटी से छोटी गामा किरणों के लगभग समान होती हैं।

गामा किरणों का तरंगदैर्घ्य और उनकी ऊर्जा भी ज्ञात करने की कई विधियाँ हैं। यदि एक क्रिस्टल की 'स्पेसिंग' (अंतर) ज्ञात हो, तो उसमें गामा द्वारा व्यक्ति करण कराकर तरंगदैर्घ्य ज्ञात किया जा सकता है, यद्यपि यह विधि केवल लंबी किरणों के लिए ही संभव है तथा छोटी गामा किरणों की नाप में त्रुटि आ जाती है। दूसरी विधि इनके द्वारा मुक्त किए हुए फोटो-इलेक्ट्रॉन की ऊर्जा ज्ञात करना है। यह प्रभाव आइंस्टाइन के वैद्युत समीकरण के अनुसार ही होता है।

गामा किरणों द्वारा आयनन की क्रिया बीटा तथा ऐल्फ़ा कणों द्वारा आयनन से बहुत भिन्न है। जबकि एक आवेशित कण प्राय: सारे पथ में अनवरत आयन उत्पन्न करता है तथा इस क्रिया में बराबर धीरे धीरे अपनी ऊर्जा खोता जाता है, एक गामा किरण सीधे प्रत्यक्ष रूप से आयन उत्पन्न नहीं करती, अपितु छितरानेवाली, या प्रकीर्णन (scattering) की क्रिया में थोड़ी ऊर्जा खोन के सिवाय, यह अपनी सारी ऊर्जा एक फोटो इलेक्ट्रॉन को प्रदान कर स्वयं समाप्त हो जाती है और यह फोटो इलेक्ट्रॉन ही गौण या द्वितीयक क्रिया के द्वारा एक तीव्रगामी इलेक्ट्रॉन के रूप में आयन जोड़े उत्पन्न करता है।

एक नाभिक, जिसकी परमाणुसंख्या, Z, तथा जिसकी द्रव्यामान संख्या, A, हो, वह जब बीटा किरणों द्वारा एक पुत्र नाभिक (Z + 1, A) में परिवर्तित होता है, जहाँ (Z+1) पुत्र नाभिक की परमाणु संख्या है तथा A उसकी द्रव्यमान संख्या है तो विघटन ऊर्जा, Q के मान का सूत्र निम्नलिखित होगा :

Q = MA (Z, A) - MA (Z+1, A)।

यहाँ MA (Z) = पिता नाभिक का परमाणिवक द्रव्यमान है तथा MA (Z+1) = पुत्र नाभिक का परमाणिवक द्रव्यमान है। इस प्रकार बीटा विघटन के लिए शर्त यह है कि तत्वों की सारणी में दो निकटतम समभार (आइसोबार या समान द्रव्यमान संख्यावाले) परमाणु हों और यदि एक समभार का परमाण्विक द्रव्यमान, एक इकाई अधिक परमाणुसंख्या (= Z + 1) वाले समभार के परमाणु द्रव्यमान से अधिक होगा, तो पहला समभार दूसरे समभार में एक बीटाकण इलेक्ट्रॉन निष्कासन द्वारा विघटित हो जाएगा।

गामा विघटन उसी समय होता है जब नाभिक उत्तेजित अवस्था से निम्न ऊर्जा के स्तर पर उतरता है। इस क्रिया में 'न्यूक्लियानों' (न्यूट्रॉन अथवा प्रोटॉन) का सक्रंमण 'कक्षीय सिद्धांत', [ नाभिक की शेल थियोरी, Shell Theory)] के अनुसार होता है।

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