रिलीफ-नकारने से लेकर गोली खाने तक की यात्रा

पृष्ठभूमि


इन नदियों को आउटलेट देने की जरूरत है। आउटलेट के नहीं रहने से ही बाढ़ का प्रकोप हो जाता है। अब ऐसा होता है कि हर साल कुछ-न-कुछ बाढ़ आती ही रहेगी। इसलिये फ्लड प्रोटेक्शन और सुखाड़ की रिलीफ के लिये एक नॉन-आफिशियल और आफिशियल लोगों का बोर्ड बनाया जाय। केवल मिनिस्टरों और कर्मचारियों से काम नहीं चलेगा। इस ढंग का काम रहेगा कि वह देखें कि कितनी नावों, कितनी रसद और कितनी दवा आदि की जरूरत होगी। नेचुरल कैलमिटी आती ही रहेगी इसलिये बोर्ड को प्रिवेन्टिव मेजर पहले से ही लेकर रखना चाहिये ताकि रिलीफ देने के समय देर न हो।

पारम्परिक तौर पर राहत और बाढ़ समस्या का कोई खास तालमेल नहीं था क्योंकि अमूमन एक बड़ी बाढ़ के बाद रबी की एक बहुत अच्छी फसल की उम्मीदें बढ़ी रहती थीं। अंग्रेजों के शासन काल में जरूरत पड़ने पर थोड़ी-बहुत राहत सामग्री की व्यवस्था प्रशासन या निलहे गोरों की तरफ से होती थी। बाढ़ के समाप्त होते ही गृह निर्माण में मजदूरों को कुछ न कुछ काम मिल जाया करता था। रेल लाइनों तथा सड़कों का निर्माण/रख-रखाव भी रोजगार का काम चलाऊ साधन होता था। सरकार की तरफ से कभी-कभी डिप्टी कलक्टर स्तर का कोई अधिकारी 2-4 हजार रुपये लेकर बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में जाया करता था और कुछ प्रभावित परिवारों के बीच बांट कर चला आता था। 1937 में पटना में एक बाढ़ सम्मेलन हुआ था जिसमें सारी बहस तटबन्धों के समर्थन या विरोध पर केन्द्रित थी। यह एक बेनतीजा बहस थी मगर उसके बाद राहत की मद में कुछ अधिक धन का प्रावधान होने लगा था। देश आजाद होने के बाद 1947 में सहरसा, दरभंगा और मुंगेर (उस समय खगड़िया और बेगूसराय, मुंगेर का हिस्सा हुआ करता था) में राहत कार्यों के लिए परामर्शी समितियों का गठन हुआ। इन समितियों ने सरकार के राहत कार्यों को सुचारु रूप से चलाने की सिफारिश की और जल्दी ही नावों की उपलब्धता, चरखा केन्द्रों के संचालन, कर्ज की अदायगी में सहूलियतों या माफी के प्रावधान आदि की अनुसूची तैयार की गयी। अब सरकार का राहत बजट बढ़ कर पाँच लाख रुपयों के करीब तक जा पहुँचा था।

ललितेश्वर मल्लिक लिखते हैं, ‘‘...मुफ्त की रिलीफ के सम्बन्ध में पूर्व परामर्श-दातृ कमिटी, सहरसा का अनुभव कुछ कटु सा रहा। एक तो रुपये कम होने के कारण जिन लोगों को रिलीफ मिलनी चाहिये उन सभी लोगों को रिलीफ दी नहीं जा सकती थी जिससे असंतोष फैलता था और दूसरा, जिन लोगों को रिलीफ मिलती थी वह उसे अपना कानूनी हक समझ कुछ करने को तैयार नहीं होते थे - इससे नैतिक स्तर कुछ गिरता सा जाता था, लोगों में भीख मांगने के भाव जागृत होते थे। इसके अतिरिक्त मध्यम श्रेणी के बहुत से लोग, विशेषतः विधवायें मुफ्त की रिलीफ लेना नहीं चाहती थीं परन्तु किसी तरह के सहायता के बिना उनकी दशा समाज के निम्न श्रेणी के लोगों से अच्छी नहीं थी।’’ अंग्रेजों के शासन के समय मध्यवर्गीय परिवारों की महिलाओं के लिए राहत सामग्री का विशेष प्रावधान रहता था क्योंकि वह सामाजिक कारणों से राहत सामग्री लेने आ नहीं सकती थीं। अधिकारी उनके पास खुद राहत सामग्री लेकर जाते थे।

राहत कार्य


राहत कार्यों की पूरी प्रक्रिया समझने के लिए थोड़ा पीछे की ओर चलते हैं। ब्रिटिश सरकार अपने अमल में कोई भी राहत कार्य चलाने से पहले एक टेस्ट रिलीफ का कार्यक्रम चलाती थी। इसमें बाजार में मजदूरी की दर से आधी दर पर अमूमन मिट्टी काटने का काम खोला जाता था। इन कामों में अगर आधी दर पर काफी संख्या में मजदूर काम पर आते थे तो 3 या 7 दिन बाद राहत कार्य की मजदूरी बाजार की पूरी दर पर नियमित कर दी जाती थी और काम आवश्यक या निर्धारित समय तक चलता रहता था। मजदूरों के टेस्ट के समय काम पर न आने पर या बहुत कम संख्या में आने पर राहत कार्य बन्द कर दिये जाते थे। यह राहत कार्य किस गंभीरता से चलते थे उसके बारे में एक बड़ी ही दिलचस्प टिप्पणी एक अंग्रेज इंजीनियर, एम. आर. बैगली ने अपने संस्मरण में 1924 में लिखा था। पचास साल पहले के राहत कार्य के अपने अनुभव के बारे में लिखते हुए उसने कहा था कि बिहार में 1876 में बहुत जबर्दस्त सूखा पड़ा था और उस समय वह सीतामढ़ी में सूखा राहत कार्यों की देख-रेख के लिए एक इंजीनियर की हैसियत से आया था। उसके संस्मरण के कुछ अंश हम प्रसंगवश यहाँ उद्धृत करने जा रहे हैं। देखें बॉक्स-उनकी पाँचों उंगलियाँ घी में थीं।

इस संस्मरण से सत्ता और उसके लिए काम करने वाले लोगों का चरित्र उजागर होता है खासकर तब जब लोग मुसीबत में रहते हैं। इससे यह भी पता लगता है कि निष्ठा पूर्वक पूरी संवेदना के साथ राहत कार्यों में लगे किसी व्यक्ति का उस लूट-पाट, झूठी रिपोर्टिंग और भ्रष्टाचार के माहौल में किस तरह दम घुटता होगा। जनता की परेशानी का स्तर कैसा है और समस्या का आकार कितना बड़ा है इसकी अनदेखी कर के महज खानापूरी करके वाह वाही लूटना और उस क्रम में कुछ सक्षम अधिकारियों और कार्यकर्ताओं को फायदा पहुँचाने के लिए राहत कार्य चलाने का इतिहास कम पुराना नहीं है। इतना कह कर वापस 1947 में लौट चलते हैं। तब से अब तक बहुत कुछ बदल चुका है। अब कोई यह कहता हुआ सुनाई नहीं पड़ता कि उसे राहत सामग्री की जरूरत नहीं है। बढ़ती आबादी, बाढ़ नियंत्रण की गलत नीतियों पर अमल, राहत बजट का आवश्यकता के अनुरूप न होने और वितरण में भ्रष्टाचार आदि कुछ ऐसे कारण हैं जिनकी वजह से राहत सामग्री के लिए चारों ओर मारा-मारी लगी रहती है। असली जरूरतमन्द लोगों तक राहत सामग्री पहुँच ही नहीं पाती है।

भारत की आजादी के बाद राहत कार्यों का परिदृश्य


देश की आजादी के पहले बाढ़ के बाद के समय में राहत कार्य चलाये जाने के उदाहरण बहुत कम मिलते थे। राहत संबंधी अधिकांश कार्यक्रम सूखे के समय में ही सुनने में आते थे। आजादी के बाद बाढ़ राहत कार्यों में भी तेजी आयी जिसका एक कारण तो सरकार का अपना दायित्व बोध था क्योंकि उसे यह सिद्ध करना था कि उसके काम करने के तरीके ब्रिटिश हुकूमत से भिन्न हैं और वह प्रजा की चिन्ता करती है। इसके पलट जनता की अपेक्षाएं भी अपनी सरकार से बढ़ गयी थीं। रिलीफ इन दोनों के बीच की कड़ी बन कर आगे आयी। सच यह है कि रिलीफ की मांग सुरसा की तरह है। इसकी जितनी भरपायी की जायेगी, वह उतनी ही बढ़ती जायेगी। रिलीफ पहली बार मांगने या पाने वाला व्यक्ति उसे कृतज्ञता-भाव से स्वीकार करता है मगर धीरे-धीरे यह उसकी आदत बनती है और अन्त में वह इसे अपना अधिकार मान कर मांग करता है। समय के साथ सरकार रिलीफ बांट कर धीरे-धीरे अपने ही जाल में फंसने लगी। राम विनोद सिंह ने जब बिहार विधान सभा में इस सवाल को उठाया था (1956) तब देश को आजाद हुए बहुत दिन नहीं बीते थे। उनका कहना था, ‘‘...ऐसे तो रिलीफ बांटने का सिद्धान्त ही गलत है क्योंकि इसके चलते सारी जमात भिखमंगों की जमात बन जाती है, जो लोग अपने पैरों पर खड़ा हो सकते थे वे लोग भी ऐसा नहीं करते हैं और उन लोगों की आदत ऐसी हो जाती है कि अगर रिलीफ आने में जरा भी देरी हुई तो बहुत ही चिल्ल-पों करने लगते हैं। सरकार खुश होती है तो कुछ रिलीफ बंटवा देती है। कोई देखने वाला नहीं है और दिनों दिन लोगों में असंतोष बढ़ता जा रहा है। रिलीफ का रुपया कुछ कर्मचारी की जेब में, कुछ पेशकार की जेब में, कुछ अफसर की पॉकेट में और रहा सहा गाँव के दलाल के पेट में चला जाता है। नाम मात्र को ही असली आदमी को रिलीफ का रुपया मिलता है।’’

उस समय नेतागण शायद इस बात को समझते थे कि राहत कार्य जरूरी और महत्वपूर्ण होते हुए भी किसी समस्या का समाधान नहीं होता। किसी भी असमर्थ को मदद पहुँचाने के दो तरीके हो सकते हैं। पहला, उसे मदद इस तरह से दी जाए कि वह समय के साथ खुद सक्षम हो जाए और उसे किसी दूसरे की मेहरबानी पर आश्रित न रहना पड़े। मदद का यह एक सम्मानजनक उपाय है। दूसरा, वह आदमी जब-जब मुसीबत में फँसे, उसे आवश्यक मदद देकर विदा किया जाय। बाद वाला तरीका मदद मांगने वाले को दाता का आश्रित बनाता है। लगातार बंटने वाली रिलीफ इसी पर-निर्भरता के भाव को जन्म देती है। उसके अपने पैरों पर खुद खड़ा होने की क्षमता दिनों दिन क्षीण होती जाती है। दाता पर निर्भर व्यक्ति अपना आत्म-सम्मान खो देता है और फिर दाता उसका अपने फायदे के लिए शोषण करना शुरू कर देता है। यह जरूरी नहीं है कि रिलीफ मांगने या लेने वाला व्यक्ति गरीब और मजबूर ही हो। मुफ्त में मिलने वाली चीज पर हाथ साफ करने का मौका सामाजिक और आर्थिक रूप से संपन्न लोग भी नहीं छोड़ते। यह बात 1955 में ही विधायक गदाधर सिंह ने कही थी, ‘‘...सरकार रिलीफ बांट कर वाह-वाही लेना चाहती है। लेकिन मैं कहूँगा कि सरकार को इसको बन्द करके परमानेन्ट रिलीफ का इंतजाम करे ताकि आगे भुखमरी नहीं हो सके। मुझे यह कहते हुए दुःख होता है कि हमारे समाज में (लोग) बिना कमाये पैसा लेना पाप समझते हैं लेकिन आज बड़े आदमी जो 20, 25 बीघा जमीन रखने वाले हैं वे सरकार से पैसा लेने में खुशी जाहिर करते हैं और पैसा लेने के लिए पैरवी करते हैं। ऐसा मालुम होता है कि इस रिलीफ के जरिये लोगों का नैतिक पतन हो रहा है और आने वाली संतति के लिए यह एक बहुत खतरनाक चीज है।’’

मानसिक पतन केवल रिलीफ लेने वाले का ही नहीं होता, रिलीफ देने वाला भी उसी मानसिकता का शिकार होता है। समय के साथ उसके अन्दर भी निहित स्वार्थ हिलोरें मारता है। रिलीफ अगर उसके दरवाजे से बंटे तो क्या कहने, वरना रिलीफ बांटने वाले के साथ उसका हर समय दिखायी पड़ना भी उसके लिए कम गौरव की बात नहीं होती। रिलीफ एक ऐसा व्यवसाय है जिसमें पूंजी की खास जरूरत नहीं पड़ती। सारा काम रसूख से ही चल जाता है। इसमें खर्चा-पानी तो निकलता ही है, सुबह-शाम सलाम दागने वालों की भीड़ भी दरवाजे पर जुटती है। राजनैतिक महत्वाकांक्षा पालने वाले व्यक्ति के लिए इतना निवेश बहुत होता है। रामबृक्ष बेनीपुरी कहते हैं, ‘‘...कुछ लोग हमारे देश में ऐसे हैं जो बराबर संकटकाल की खोज में रहते हैं और उससे फायदा उठाते हैं। वह जानते हैं कि हथिया में पानी नहीं बरसा तो रिलीफ बांटने की व्यवस्था होगी और इसीलिए वह कलक्टर, एस.डी.ओ. और मंत्रियों के यहाँ दरबार करने लगे हैं। यह नरभक्षी मानव इस ताक में लगे हुए हैं कि कब रिलीफ बंटे कि हम इससे मौज उड़ावें। इसलिए मैं यह कहना चाहता हूँ कि ऐसे समय में सरकार को चाहिये कि एक सर्वदलीय रिलीफ कमिटी बनायी जाए और वे इन सारी चीजों को देखें और अभी से होशियारी बरती जाए ताकि जो लोग जनता की मुसीबत से फायदा उठाना चाहते हैं वह न उठाने पावें। आपको मालूम है कि कुछ समय पहले जब बाढ़ के समय रिलीफ का काम हुआ था तो 150 आदमियों पर मुकदमा चलाया गया था। इसलिए मैं कहना चाहता हूँ कि जो रिलीफ का काम हो वह अच्छी प्रकार हो ताकि पुराना इतिहास दुहराने का अवसर नहीं मिले।’’

बेनीपुरी को शायद यह उम्मीद रही हो कि सरकार आने वाले दिनों में रिलीफ पर नकेल कसेगी मगर वैसा कुछ भी नहीं हुआ। वृन्दा प्रसाद राय ‘वीरेन्द्र’ ने रिलीफ बांटने और जनता की समस्याओं को सही परिप्रेक्ष्य में न देखने और उसका समाधान न करने पर सरकार की खिंचाई की। 1966 में करेह नदी का तटबन्ध कई जगह टूटा था। तटबन्ध तोड़ कर बाहर आयी नदी के पानी को रास्ता देने की व्यवस्था न करने और विकल्प के तौर पर रिलीफ बांटने की उन्होंने भर्त्सना करते हुए उन्होंने बिहार विधान परिषद में कहा, ‘‘आपने कोसी और करेह नदी में तो तटबन्ध बना दिया लेकिन उनसे अधिक पानी निकलने का रास्ता नहीं है और आप को लोगों की तबाही का तमाशा देखने में मजा मिलता है और आप को उन लोगों के बीच रिलीफ बांटने में भी मजा मिलता है। आज 19 वर्षों से आपका यही तमाशा जारी रहा है।’’

1966 आते-आते इतना तो स्पष्ट होने लगा था कि रिलीफ बंटना बन्द नहीं होगा क्योंकि रिलीफ लेने और देने वालों दोनों की जड़ें जम चुकी थीं। इस बात का संज्ञान लेते हुए कि तटबन्धों के बीच फंसी नदियों के बहते पानी को निकास का रास्ता देना चाहिये, रिलीफ को नियमित करने, सही समय पर उपलब्ध कराने और सही लोगों तक पहुँचाने के लिए एक संस्था की मांग की जाने लगी। पार्षद राधा कृष्ण प्रसाद सिंह ने बिहार विधान परिषद से आग्रह किया, ‘‘...मैं समझता हूँ कि हमलोगों ने जो अध्ययन किया है उससे ऐसा प्रतीत होता है कि इन नदियों को आउटलेट देने की जरूरत है। आउटलेट के नहीं रहने से ही बाढ़ का प्रकोप हो जाता है। अब ऐसा होता है कि हर साल कुछ-न-कुछ बाढ़ आती ही रहेगी। इसलिये फ्लड प्रोटेक्शन और सुखाड़ की रिलीफ के लिये एक नॉन-आफिशियल और आफिशियल लोगों का बोर्ड बनाया जाय। केवल मिनिस्टरों और कर्मचारियों से काम नहीं चलेगा। इस ढंग का काम रहेगा कि वह देखें कि कितनी नावों, कितनी रसद और कितनी दवा आदि की जरूरत होगी। नेचुरल कैलमिटी आती ही रहेगी इसलिये बोर्ड को प्रिवेन्टिव मेजर पहले से ही लेकर रखना चाहिये ताकि रिलीफ देने के समय देर न हो। एक माननीय सदस्य ने कहा है कि एक अरब का नुकसान हुआ है। प्रिवेन्टिव मेजर नहीं लिया गया तो नुकसान होता ही रहेगा। बोर्ड में नॉन-आफिशियल लोग रहेंगे तो मिनिस्टरों के साथ बैठने में अपमान नहीं होगा। वक्त का तकाजा है कि बोर्ड बनाया जाय।’’

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