रोजमर्रा के जीवन में कचरा करते हम

Plastic Trash
Plastic Trash
आज जो कचरा हमारे पर्यावरण और भूजल को नुकसान पहुंचा रहा है। उसे हमने ही तो जमा किया है। पेन, शेविंग किट, दूध की थैली, पानी का बोतल आदि सभी चीजें प्लास्टिक में ही आती है जिसे हर हफ्ते कचरा बढ़ाने वाले ‘यूज एंड थ्रो’ के रूप में प्रयोग करते हैं। पूरे देश में हर रोज चार करोड़ दूध की थैलियां और दो करोड़ पानी की बोतलें कूड़े में फेंकी जाती हैं। इस बढ़ते कचरा के बारे में जानकारी दे रहे हैं पंकज चतुर्वेदी।

सबसे खतरनाक कूड़ा तो बैटरियों, कंप्यूटरों और मोबाइल का है। इसमें पारा, कोबाल्ट, और न जाने कितने किस्म के जहरीले रसायन होते हैं। एक कंप्यूटर का वजन लगभग 3.15 किलो ग्राम होता है। इसमें 1.90 किग्रा लेड और 0.693 ग्राम पारा और 0.04936 ग्राम आर्सेनिक होता है, शेष हिस्सा प्लास्टिक होता है। इनमें से अधिकांश सामग्री गलती-सड़ती नहीं हैं और जमीन के संपर्क में आकर मिट्टी की गुणवत्ता को प्रभावित करने और भूगर्भ जल को जहरीला बनाने का काम करती है।

बीते दशकों में लोगों की बढ़ती आय व जीवन-स्तर ने भारत में कूड़े का उत्सर्जन लगातार बढ़ाया है। और अब कूड़ा सरकार व समाज दोनों के लिए चिंता का विषय बनता जा रहा है। भले ही हम कूड़े को अपने पास फटकने नहीं देना चाहते हों, लेकिन सचाई यही है कि कूड़ा हमारी गलतियों या बदलती आदतों के कारण ही दिन-दुगना, रात-चौगुना बढ़ रहा है। वह प्लास्टिक कूड़ा जिसे नष्ट करना संभव नहीं है; अणु बम से भी ज्यादा खतरनाक है और आने वाली कई पीढ़ियों के लिए बड़ा संकट है। नेशनल इन्वायरनमेंट इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट, नागपुर के मुताबिक देश में हर साल 44 लाख टन खतरनाक कचरा निकल रहा है। देश में औसतन प्रति व्यक्ति 20-60 ग्राम कचरा हर दिन निकलता है। इसमें आधे से अधिक कागज, लकड़ी या पुट्ठा होता है, जबकि 22 फीसद कूड़ा-कबाड़ा, घरेलू गंदगी होती है। कचरे का निबटान पूरे देश के लिए समस्या बनता जा रहा है। दिल्ली नगर निगम कई-कई सौ किलोमीटर दूर तक कचरे का डंपिंग ग्राउंड तलाश रहा है। विचारणीय है कि इतने कचरे को एकत्र करना, उसे दूर तक ढोकर ले जाना कितना महंगा व जटिल काम है।

यह सरकार भी मानती है कि देश के कुल कूड़े का महज पांच फीसद ठीक से निस्तारित हो पाता है। राजधानी दिल्ली का 57 फीसद कूड़ा तो परोक्ष या अपरोक्ष रूप से यमुना में बहा दिया जाता है। कागज, प्लास्टिक, धातु जैसा बहुत-सा कूड़ा-कचरा बीनने वाले जमा कर रिसाइक्लिंग वालों को बेच देते हैं। सब्जी के छिलके, खाने-पीने की चीजें, मरे हुए जानवर आदि कुछ समय में सड़-गल जाते हैं। इसके बावजूद ऐसा बहुत कुछ बच जाता है, जो हमारे लिए विकराल संकट का रूप लेता जा रहा है। असल में, कचरे को बढ़ाने का काम समाज ने ही किया है। अभी कुछ साल पहले तक स्याही वाला फाउंटेन पेन प्रयोग होता था, उसके बाद ऐसे बाल-पेन आए जिनकी केवल रीफिल बदलती थी। आज बाजार में ऐसे पेनों का चलन है जो खत्म होने पर फेंक दिए जाते हैं। देश की बढ़ती साक्षरता दर के साथ ऐसे पेनों का इस्तेमाल और उनका कचरा बढ़ता गया है।

नतीजा यह कि तीन दशक पहले एक व्यक्ति साल भर में बमुश्किल एक पेन खरीदता था, जबकि आज औसतन हर साल एक दर्जन पेनों की प्लास्टिक प्रति व्यक्ति बढ़ रही है। इसी तरह शेविंग-किट में पहले स्टील या उससे पहले पीतल का रेजर होता था, जिसमें केवल ब्लेड बदले जाते थे, जबकि आज हर हफ्ते कचरा बढ़ाने वाले ‘यूज एंड थ्रो’ वाले रेजर ही बाजार में मिलते हैं। अभी कुछ साल पहले दूध भी कांच की बोतलों में आता था या लोग अपने बर्तन लेकर डेयरी जाते थे। आज दूध के अलावा पीने का पानी भी प्लास्टिक थैलियों-बोतलों में मिल रहा है। अनुमान है कि पूरे देश में हर रोज चार करोड़ दूध की थैलियां और दो करोड़ पानी की बोतलें कूड़े में फेंकी जाती हैं। मेकअप का सामान, डिस्पोजेबल बर्तनों का प्रचलन, बाजार से पोलीथीन बैग्स में सामान लाना, हर छोटी-बड़ी चीज की पैकिंग; ऐसे ही न जाने कितने तरीके हैं, जिनसे हम कूड़ा-कबाड़ बढ़ा रहे हैं। घरों में सफाई और खुशबू के नाम पर बढ़ रहे साबुन, स्प्रे व अन्य रसायनों के चलन ने भी अलग किस्म के कचरे को बढ़ाया है।

सबसे खतरनाक कूड़ा तो बैटरियों, कंप्यूटरों और मोबाइल का है। इसमें पारा, कोबाल्ट, और न जाने कितने किस्म के जहरीले रसायन होते हैं। एक कंप्यूटर का वजन लगभग 3.15 किलो ग्राम होता है। इसमें 1.90 किग्रा लेड और 0.693 ग्राम पारा और 0.04936 ग्राम आर्सेनिक होता है, शेष हिस्सा प्लास्टिक होता है। इनमें से अधिकांश सामग्री गलती-सड़ती नहीं हैं और जमीन के संपर्क में आकर मिट्टी की गुणवत्ता को प्रभावित करने और भूगर्भ जल को जहरीला बनाने का काम करती है। ठीक इसी तरह का जहर बैटरियों व बेकार मोबाइलों से भी उपज रहा है। भले ही अदालतें समय-समय पर फटकार लगाती रही हों, लेकिन अस्पतालों से निकलने वाले कूड़े का सुरक्षित निबटान भी दिल्ली, मुंबई व अन्य महानगरों से लेकर छोटे कस्बों तक संदिग्ध व लापरवाहीपूर्ण रहा है। राजधानी दिल्ली में कचरे का निबटान अब बड़ी समस्या बनता जा रहा है।

अभी हर रोज सात हजार मीट्रिक टन कचरा उगलने वाला यह महानगर 2021 तक 16 हजार मीट्रिक टन कचरा उत्पन्न करेगा। दिल्ली के अपने कूड़-ढलाव पूरी तरह भर गए हैं और आसपास 100 किमी दूर तक कोई नहीं चाहता कि उनके गांव-कस्बे में कूड़े का अंबार लगे। कहने को दिल्ली में दो साल पहले पॉलीथीन की थैलियों पर रोक लगाई जा चुकी है, लेकिन आज भी प्रतिदिन 583 मीट्रिक टन कचरा प्लास्टिक का ही है। इलेक्ट्रानिक और मेडिकल कचरा भी यहां की जमीन और जल में जहर घोल रहा है। स्पष्ट है कि शहरी क्षेत्रों के लिए कूड़ा अब नए तरह की आफत बन रहा है। हालांकि सरकार उसके निबटान के लिए तकनीकी व अन्य प्रयास कर रही है, लेकिन प्रयास तो कचरे को कम करने के लिए होना चाहिए। प्लास्टिक का कम से कम इस्तेमाल, पुराने कंप्यूटर व मोबाइल के आयात पर रोक तथा बेकार उपकरणों को निबटान के लिए उनके विभिन्न अवयवों को अलग करने की व्यवस्था करना बेहद जरूरी है।

सामानों की मरम्मत करने वाले हाथों को तकनीकी रूप से सशक्त बनाने व उन्हें जागरूक करने से निष्प्रयोज्य उपकरणों को फेंकने की प्रवृति पर रोक लग सकती है। वाहनों के नकली व घटिया पार्ट्स की बिक्री पर कड़ाई भी कचरे को रोकने में मददगार होगी। कचरा-नियंतण्र और उसके निबटान की शिक्षा स्कूली स्तर पर अनिवार्य बनाना भी जरूरी है। कचरे को कम करने और उसके निबटान प्रबंधन के लिए दीर्घकालीन योजना निर्माण को उच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिए।

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