सादगी और सुरुचि के अनुपम

अनुपम मिश्र
अनुपम मिश्र

गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान परिसर की इस पुरानी इमारत का नाम पर्यावरण कक्ष है। पूछकर मालूम हुआ। कहीं लिखा हुआ था नहीं। बस मान लेना था कि यही पर्यावरण कक्ष है। इसमें अन्दर घुसते ही अखबारों से काटी ढेर सारी तस्वीरें दीवारों पर चिपकी हैं। दाईं तरफ एक छोटे कमरे में लकड़ी की मेज और कुर्सी पर दरमियानी कद का एक व्यक्ति कागज पर लिखे को पढ़ने और बीच-बीच में कलम से निशान लगाने, लिखने में लीन है।

इस तल्लीनता ने ऐसा वातावरण रच दिया था कि अन्दर आने के लिये पूछने में हिचक हो रही थी। दरवाजा खुला था, इसलिये खटखटाने का संयोग भी नहीं बन रहा था। कुछ क्षण में ही उस व्यक्ति को शायद आहट हुई। नजर ऊपर उठी। ‘आइए’ कहने पर नीरवता थोड़ी भंग हुई।

अन्दर प्रवेश करते ही बैठने को कहा। आधी बाजू का कुर्ता पहने इस व्यक्ति से परिचय-बात हुई। बीच-बीच में नजरें दीवारों पर चली जाती थीं। शायद इसे भाँपकर वे भी कुछ पलों का विराम देकर ही बात करने लगे। दीवारें गोया छोटा संग्रहालय थी। कुछ उद्धरण, कुछ चित्र, तो कुछ सामान भी मानो टांकी गई थीं। ये थोड़ी और साधारण चीजें भी इस तरह जगह पाई थीं कि सुरुचि का अहसास सहज ही हो रहा था और असाधारणता का भी। गाँधीजी के अलग-अलग दौर की अनेक तस्वीरें थीं। किसी जोहड़ का चित्र था। कुछ और भी। इसी के साथ चिपका यह उद्धरण कि घड़ी की खराब सुई भी चौबीस घंटे में एक बार तो सही समय दिखाती है।

सोचने पर लगता है कि अनुपम मिश्र की शख्सियत को दीवारों के ये चित्र और उद्धरण बयान करते हैं। जिस गद्य के अनूठापन की वजह से अनुपम जी से मिलने आया था, वह साधारण शब्दों से रचा गया सुन्दर स्थापत्य ही तो होता था। शब्दों के चयन और वाक्यों के गढ़न में सुरुचि और सुचिन्तन विन्यस्त थे। वे इसके जरिए एक कोलाज बनाने में माहिर थे। तभी तो देस-गाँव के ज्ञान की एक पूरी दुनिया खोलकर दिखाते थे, निहायत रोचक अन्दाज में। अनुपम मिश्र का लेखन भारत के छोटे-छोटे गाँवों के बुद्धि-वैभव का बखान है।

अपनी परेशानियों के लिये अक्षर-ज्ञान से महरूम लोगों ने परस्पर सम्बन्धों और सौहार्द्र से हल ढूँढा था। उसके लिये तमाम संसाधन स्थानीय थे। अक्षर की दुनिया का कारोबार करने वाली ज्ञान-मीमांसा अक्षर से वंचित लोगों की ज्ञान परम्परा के साथ न्याय करने में संकीर्ण साबित होती है। लम्बे काल खण्ड से विकसित यह ज्ञान अपनी समस्याओं से सहकार के क्रम में विकसित हुआ था। जहाँ की समस्या वहीं का समाधान, इससे निजात दिलाता था। इस निजात में संवेदना का क्षरण नहीं था।

यह समस्या की प्रकृति को उसकी सम्पूर्णता में देखने की कोशिश का परिणाम भी था। यही कारण है कि समस्या पैदा करने वाले कुदरत के प्रति संवेदनशील रुख अख्तियार होता था। हल भी ऐसा निकाला जाता था ताकि कुदरत को हराने का भाव न हो। खुद को विजित मानने का तो सवाल ही नहीं था।

कुदरत के साथ आपसी सहकार और सौहार्द्र से पनपे इस विचार-प्रत्यय में उसके स्वभाव को समझने का गहन प्रयास था। उसके गुस्सा के प्रति हिकारत का भाव भी नहीं था। इसमें प्रकृति के क्रोध और प्यार को वैसे ही देखने का भाव निहित था, जैसे परिवार के आपसी सम्बन्धोंं में भी होता है। प्रकृति ऐसा स्रोत मात्र नहीं समझी जाती थी, जहाँ से जब जरूरी हो सिर्फ लेते रहा जाये और उसकी परवरिश का ख्याल न किया जाये।

प्रकृति भी मनुष्य का पड़ोस था, जिसके प्रति आदर-भाव रखकर ही स्नेह पाया जा सकता था। रोचक यह भी कि प्रकृति के प्रति कृतज्ञता का भाव रखने वाला समाज, इसे कहता भले न हो, पर व्यवहार में पालन करता था। मनुष्य और प्रकृति के सम्बन्धों का यह शास्त्र किसी राजा ने नहीं बनाया था। ऊपर से बनता तो यह शिलालेखों में उत्कीर्ण होता। भोजपत्र या कागजों पर लिखे होते। ये सब जीवनचर्या का अभिन्न हिस्सा था। मन-मस्तिष्क पर उगा रहता था। भले ही बिखरे रूप में।

इस बिखरे को सहेजने में पर्याप्त धीरज और संवेदनशीलता की जरूरत थी, ताकि अक्षर की दुनिया वालों को बताया जा सके। अनुपम मिश्र का शब्द-संसार इसी दायित्व का सुन्दर परिणाम है। इसमें प्रकृति की सुन्दरता है तो विचारों की दृढ़ता भी। संवेदन के साथ ही बिखरे विचार तन्तुओं को जोड़कर मानों अनुपम मिश्र ने स्वागत का गद्य-गीत लिखा हो। इनके लेखन में समाज में रचे-बसे पर, अस्फुट विचार विन्यास होकर सगुण रूप धारण कर लेते थे।

विचार और ज्ञान की विशद परम्परा को समझकर ही यह देखने की आँख पाई जा सकती थी कि अकेले नहीं आते बाढ़ और अकाल। सूचनाओं की बाढ़ और विचारों के अकाल को सुचिन्तित और सहज रूप से बयान करना दुष्कर शब्द-साधना है। कहना न होगा कि अनुपम मिश्र इस साधना के सुन्दर उदाहरण हैं।

इस साधना के लिये जैसे जीवन की अपेक्षा होती है, उन्होंने उसे अपनाया था। इस साधना के लिये अनिवार्य है कि समाज के पास सीखने के भाव से जाया जाये। उसका अंग बनकर रहा जाये। ताकि उनको अहसास हो कि साधक ज्ञान बघारने नहीं आया है, बल्कि हमारी जानकारी को भी सम्मान दे रहा है, हमें भी आदर दे रहा है। अनुपम मिश्र इसी भाव से समाज में रच-बस जाते थे। उन्हें पूरी महत्ता देते थे।

अनुपम-व्यक्तित्व के लिये उनके कमरे में घड़ी वाले उद्धरण के बिम्ब का जिक्र किया गया है। यह समाज और उनके बीच के रिश्ते को व्याख्यायित करने में उपयोगी है। समाज से सीखने के क्रम में उसके सभी विचारों-रुढ़ियों-परम्पराओं को स्वीकार करना और प्रसारित करना जोखिम भरा है। बौद्धिक दुनिया का दो मोटा विभाजन करने पर एक श्रेणी उन लोगों का दिखता है, जिन्हें भारतीय गाँव-देस में सब कुछ गलत ही दिखता है।

ऐसे लोगों को लगता है कि अंग्रेज नहीं आये होते, कथित ‘आधुनिक ज्ञान’ न आया होता तो हम जाहिल ही रह जाते। गोया इतने बड़े कालखण्ड वाले समाज के पास अपना कुछ था ही नहीं और जो था वह सब गड़बड़ ही था। दूसरी श्रेणी उन लोगों की है जो समाज-देश को भागवत-भाव से देखते हैं। उन्हें समाज में कमजोरियाँ, नकारात्मक विचार, गलत-प्रवृत्तियाँ पनपी और विकसित हुई नहीं दिखतीं।

व्यापक समाज की जटिलता व विविधता न समझने के कारण दोनों तरह के बौद्धिक-भाव एक-दूसरे के प्रति विपर्यय सोच रखते हैं। अनुपम मिश्र गाँधी-विनोबा-जयप्रकाश की उस धारा से आते हैं, जो इन दोनों से इत्तेफाक नहीं रखते। वे न तो सबको स्वीकार करते हैं और न खारिज ही। खराब घड़ी की सुई से भी एक बार सही समय प्राप्त करने का बिम्ब मनुष्यता में अगाध विश्वास का परिणाम है और प्रमाण भी।

अनुपम मिश्र चीजों-घटनाओं-प्रवृत्ति-परम्परा, को सफेद-स्याह में विभाजित कर नहीं देखते थे। वे इसे सम्पूर्णता में देखते थे।

अनुपम मिश्र की शख्सियत को दीवारों के ये चित्र और उद्धरण बयान करते हैं। जिस गद्य के अनूठापन की वजह से अनुपम जी से मिलने आया था, वह साधारण शब्दों से रचा गया सुन्दर स्थापत्य ही तो होता था। शब्दों के चयन और वाक्यों के गढ़न में सुरुचि और सुचिन्तन विन्यस्त थे। वे इसके जरिए एक कोलाज बनाने में माहिर थे। तभी तो देस-गाँव के ज्ञान की एक पूरी दुनिया खोलकर दिखाते थे, निहायत रोचक अन्दाज में। अनुपम मिश्र का लेखन भारत के छोटे-छोटे गाँवों के बुद्धि-वैभव का बखान है।अनुपम मिश्र के काम से वाकिफ लोग बताते हैं कि संसाधनों के कम-से-कम उपयोग के जरिए सुन्दर और सम्पूर्ण सकारात्मक परिणाम लाने में लीन रहते थे। यह उनके लेखन में भी दिखता है। शब्दों का अपव्यय नहीं। पर कंजूसी भी नहीं। जितने शब्द अति-आवश्यक हैं उनका ही प्रयोग और उपयोग। ‘आज भी खरे हैं तालाब’ और ‘राजस्थान की रजत बूँदें’ सहित तमाम लेख और टिप्पणियाँ इसकी खूबसूरत मिसाल है।

सादगी और सुरुचि का समन्वय उनके लेखन और सम्पादन दोनों में लक्षित होता है। ‘गाँधी मार्ग’ के प्रत्येक अंक में न सिर्फ रचनाओं के चयन और संयोजन में, बल्कि उनकी प्रस्तुति में भी। वे पुराने आलेखों को नए सन्दर्भ और प्रसंग में नई अर्थवत्ता प्रदान करने लायक बनाते थे। इसके जरिए वर्तमान दशा का परोक्ष जिक्र भी हो जाता था और उसे दिशा देने वाला गाँधी मार्ग भी दिख जाता था। ‘गाँधी मार्ग’ पत्रिका के एक ऐसे ही स्तम्भ का नाम रखा था- ‘पुराना चावल’।

इस स्तम्भ में पत्रिका में ही पहले छपे किसी आलेख की पुनः प्रस्तुत होती थी। इस नाम से अनुपम जी के शब्द चयन की विशेषता उजागर हो जाती है। लोक कहावत है- ‘पुराना चावल ही पथ्य बनता है।’ इस शब्द के जरिए एक भरी-पूरी दुनिया का बिम्ब आँखों के सामने आ जाता है।

अनुपम मिश्र सच्चे मायने में गाँधी की राह पर चलने वाले पथिक थे। उनके शब्द संसार में अपवाद स्वरूप भी वे गाँधी के जीवन पर लिखा मिले। फिर वे गाँधी की व्याख्या कैसे कर रहे थे? हमारे समय में गाँधी विचार को कैसे पहुँचा रहे थे? दरअसल उन्होंने गाँधी भावना से अपना काम चुना था और उस पर अमल कर रहे थे। गाँधी जी ने रचनात्मक कार्यों पर बहुत बल दिया है।

अनुपम जी रचनात्मक कार्य में आजीवन लगे रहे। शब्दों को भी इसी का जरिया बनाया। वे पानी और पर्यावरण के जिस चिन्ता और चिन्तन में लगे थे, वह गाँधी भावना के अनुरूप है। यह गाँधी विचार का ही विस्तार है। इसकी जड़ें गाँधी दर्शन में गहरी धँसी हैं। अनुपम जी इसी को समझने, व्याख्या करने और समझने में लगे थे। सादगी और सुरुचिपूर्ण ढंग से। कहना न होगा कि ऐसे ही लोग हमारे समय में गाँधी का विस्तार कर रहे हैं।

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