साक्षात्कार: जानें मोबाइल पर पानी में फ्लोराइड की मात्रा

27 Aug 2016
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जल प्रदूषण मानवता के सबसे बड़े संकटों में से एक ​है खासतौर पर प्रदूषित पेयजल। पूरी दुनिया के लोग पेय की कमी और दूषित पेयजल की समस्या से जूझ रहे हैं। आज पूरे विश्व की 85 प्रतिशत आबादी सूखे के हालात में रह रही है और कुल 78.3 करोड़ लोगों की पहुँच में साफ पानी नहीं है।

भारत की बात करें तो पानी से सम्बन्धित कुछ आँकड़ों पर नजर डालना बेहद जरूरी है जैसे दुनिया की 16 प्रतिशत आबादी भारत में बसती है लेकिन विश्व के कुल जल संसाधन का केवल 4 प्रतिशत ही भारत के पास है। जबकि भारत ​में भूजल का दोहन पूरे विश्व में सबसे ज्यादा होता है यहाँ तक ​कि चीन भी इस मामले में हमसे पीछे है।

हाल के आँकड़ों के मुताबिक भारत की कुल एक चौथाई यानी लगभग 33 करोड़ आबादी पीने के पानी की कमी से जूझ रही है। देश की शहरी आबादी में से केवल 62 फीसद और ग्रामीण इलाकों के केवल 18 प्रतिशत लोगों तक शोधित जल पहुँच पाता ​है, ग्रामीण आबादी में से 69 करोड़ लोगों को साफ सुरक्षित पेयजल उपलब्ध नहीं होता है।

जल स्वच्छता और सफाई के लिये काम करने वाली संस्था वाटर एड के हाल के अध्ययन में भी यह सामने आया है कि भारत के कुल धरातलीय जल का 80 प्रतिशत प्रदूषित हो चुका है।

​फिलहाल 10 करोड़ से ज्यादा लोग प्रदूषित जलस्रोत के इलाकों में रहते हैं। बहुत गहराई से भूजल के दोहन के कारण जमीन से निकलने वाले पानी में खतरनाक स्तर तक फ्लोराइड और आर्सेनिक पाया जाता है।

एक अध्ययन के मुताबिक देश की लगभग 6.66 करोड़ आबादी फ्लोराइडयुक्त पेयजल का इस्तेमाल करने के कारण फ्लोरोसिस नामक बीमारी की चपेट में आने के खतरे में हैं। ये भी चौंकाने वाला तथ्य है कि 50 करोड़ से ज्यादा लोग केवल प्रदूषित जल खासतौर पर फ्लोराइड और आर्सेनिक के प्रदूषण के कारण होने वाली बीमारियों की चपेट में हैं।

गौरतलब है कि फ्लोराइड की जल में 15 मि.ग्रा./ली. से अधिक मात्रा स्वास्थ्य के लिये बहुत खतरनाक साबित होती है, यह शरीर में जमा होने लगता है और दाँतों व अस्थियों को कमजोर करने लगता है जबकि आर्सेनिक जैसे तत्व शरीर के तंत्रिका तंत्र पर असर डालते हैं और कैंसर जैसी बीमारियों की भी वजह बनते हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के आँकड़ों के मुताबिक भी भारत में 3.8 करोड़ लोग हर साल केवल जलजनित रोगों का शिकार होते हैं जिनमें 75 प्रतिशत संख्या बच्चों की होती है और केवल प्रदूषित पेयजल के इस्तेमाल के कारण हर साल साढ़े सात से आठ लाख लोगों की मौत हो जाती है।

जाहिर है यह समस्या बहुत बड़ी और गम्भीर है इसलिये इससे निपटने के कारगर उपाय और विकल्प भी बहुत जरूरी हैं। पेयजल में फ्लोराइड, आर्सेनिक व अन्य खतरनाक तत्वों के प्रदूषण को मापने और उसे हटाने के लिये व्यापक स्तर पर काम हो रहा है।

सरकारों से लेकर गैर सरकारी व कई सामाजिक-पर्यावरणीय सरोकारी संस्थाएँ इस दिशा में गम्भीर कोशिश कर रही हैं ताकि सभी लोगों को शुद्ध पेयजल उपलब्ध हो सके। इसी मसले पर हमने बंगलुरु में सैमुअल राजकुमार से बातचीत की जो कि जल और स्वच्छता या वाटर व सेनिटेशन से सम्बन्धित स्टार्ट-अप कम्पनी टर्नअप रिसर्च लैब से सम्बद्ध रहे हैं। फिलहाल सैमुअल डच कम्पनी अक्वो में प्रोडक्ट डेवलपमेंट मैनेजर हैं और कैडिसफ्लाई वाटर टेस्टिंग किट के विकास और ​विपणन से जुड़े हैं। पेश है बातचीत के मुख्य अंश-

कम लागत के कैडिसफ्लाई वाटर टेस्टिंग किट का विकास करने के लिये सबसे पहले आप लोगों की टीम को बधाई, शुरुआत कैसे हुई ये बताएँ?

शुक्रिया! मैं 2011 में इण्डिया वाटर पोर्टल के साथ बतौर कंसल्टेंट काम कर रहा था। पानी से जुड़े बुनियादी मसलों के नवीन और प्रयोगधर्मी हल के लिये उन्होंने इसी साल अक्टूबर में 'वाटर है​काथन' आयोजित करने की योजना बनाई थी। इसी के सिलिसिले में मुझे पीने के पानी से सम्बन्धित सबसे बड़ी समस्या का पता चला।

पेयजल में फ्लोराइड और आर्सेनिक की सुरक्षित मानक से बहुत ज्यादा मात्रा। और पानी में इसकी मात्रा की जाँच के बारे में जब हमने मालूम किया तो पता चला कि निजी क्षेत्र के कुछ सप्लायर्स ऐसी मशीनों को शोध संस्थाओं, सरकारी संस्थानों और विश्वविद्यालयों के लैब आदि को उपलब्ध कराते हैं लेकिन उन मशीनों या किट की कीमत एक लाख से शुरू होती है।

जाहिर है ऐसे में किसी आम आदमी खासतौर पर ग्रामीण इलाके के लोगों के लिये जो फ्लोराइड से सबसे ज्यादा प्रभावित हैं अपने पेयजल की गुणवत्ता की जाँच कराना बहुत मुश्किल काम है साथ ही इसके लिये उनके पास केवल सरकार पर निर्भर रहने का ही वि​कल्प बच जाता है। फिर हमनें सात लोगों की टीम बनाई जिसे जुगाड़ सेंसर का नाम दिया और साथ मिलकर फ्लोराइड टेस्टिंग मशीन विकसित किया ताकि कम लागत में कहीं भी, कभी भी, आसानी से पेयजल में प्रदूषण की मात्रा की जाँच हो सके।

यह मशीन ब्लूटूथ के जरिए मोबाइल फोन से जुड़ी होती है और जाँच के परिणाम को मोबाइल पर डिस्प्ले करती है। तो कह सकते हैं कि 2012 के शुरुआत में हमने शुरुआत की। सात लोगों की हमारी टीम के साथ हमने अपनी स्टार्टअप कम्पनी टर्नअप रिसर्च लैब एलएलपी की शुरुआत की।

पेयजल, स्वच्छता जैसे मसलों पर काम करने का विचार कैसे आया?
टर्नअप रिसर्च लैब एलएलपी शुरू करने से पहले मैं वेब डेवलपर के तौर पर काम कर रहा था, मैंने इण्डिया वाटर पोर्टल, इण्डिया बायोडायवर्सिटी पोर्टल, इण्डिया सेनिटेशन पोर्टल जैसे पोर्टलों को विकसित करने का काम किया है। इसके अलावा मेरी पृष्ठभूमि इंजीनियरिंग की है, सॉफ्टवेयर आर्किटेक्चर, डिजाइन और डेवलपमेंट मेरे काम करने के विषय रहे हैं। इसलिये इन दोनों के संयोग ने एक ओर जहाँ मुझे पेयजल प्रदूषण, स्वच्छता जैसी समस्याओं को जड़ से समझने की दृष्टि दी वहीं इंजीनियरिंग और साफ्टवेयर की पृष्ठभूमि ने इनके हल के लिये विकल्पों पर काम करने की प्रेरणा दी।

पानी में फ्लोराइड एवं आर्सेनिक की जाँच करने वाली किट

कैडिसफ्लाई वाटर टेस्टिंग किट पूरी तरह से तैयार है या अभी काम बाकी है? और कैडिसफ्लाई नाम क्यों?
हम इसे प्लास्टिक के साथ कम्बाइन करने की कोशिश कर रहे हैं, वैसे यह पूरी तरह से तैयार है। कैडिसफ्लाई एक कीट है जो बहुत ही साफ पानी में रहता है, हमने अपने टेस्टिंग किट का नाम इसीलिये कैडिसफ्लाई रखा है। फ्लोराइड परीक्षण के अलावा हमने इसमें और पैरामीटर भी जोड़े हैं जैसे आयन, फॉस्फोरस, नाइट्रेट, क्रोमियम और पीएच स्तर की जाँच।

सरकारी सहयोग मिला? चुनौतियाँ क्या रहीं या क्या हैं?
सरकारी सहयोग नहीं मिला शुरुआत में फंडिंग की समस्या सबसे बड़ी चुनौती थी, लेकिन पिछले साल विश्व बैंक के जल और स्वच्छता कार्यक्रम डब्ल्यूएसपी के तहत हमें फंडिंग सहायता मिली। और डब्ल्यूएसपी के मार्फत ही टर्नअप का स्थानीय प्रशासन के साथ जरूरी सम्पर्क हो पाया। दरअसल, जब आप नॉन प्रॉफिट या गैर मुनाफा पर आधारित मॉडल पर काम करते हैं तो आर्थिक चुनौतियाँ मिलनी तय हैं लेकिन ये भी सच है कि अगर आप ग्रामीणों या कमजोर आर्थिक तबके के लोगों को सोच कर कोई उत्पाद लाना चाह रहे हैं लागत और उत्पादन में सन्तुलन लाना बहुत कठिन काम है।

बड़ी समस्या क्या रहीं?
हमारे देश में पानी की गुणवत्ता की जाँच एक गम्भीर मसला है, पेयजल परीक्षण का काम बहुत केन्द्रीकृत है और हर जिले में केवल एक या दो ही प्रयोगशाला हैं। परीक्षण के परिणाम आने में भी एक से दो सप्ताह का समय लग जाता है, सरकारी प्रयोगशालाओं तक सभी की पहुँच सहज नहीं है और काम करने के तरीके भी बहुत खराब हैं दूसरी ओर निजी प्रयोगशालाओं में परीक्षण बहुत महंगे होते हैं जबकि पेयजल के परीक्षण की ज्यादा जरूरत उन लोगों को है ​जो ग्रामीण इलाकों में रहते हैं और परिशोधित पेयजल उन तक नहीं पहुँचता है।

कैडिसफ्लाई की पूरी संकल्पना क्या है?
टर्नअप रिसर्च लैब एलएलपी की हमारी टीम को फ्लोराइड नॉलेज और एक्शन नेटवर्क के साथ जुड़े रहने के कारण कैडिसफ्लाई को विकसित करने में काफी मदद मिली। हम समस्या, जरूरत और निदान तीनों को समझ पाये और इन्हीं बिन्दुओं पर काम किया। हमारा लक्ष्य सरल, कम लागत वाला और आसानी से एक जगह से दूसरे जगह ले जाने और स्मार्ट फोन का इस्तेमाल करते हुए कही भी पानी में फ्लोराइड की मात्रा का परीक्षण कर सकने वाला वाटर टेस्टिंग मशीन विकसित करना था।

कैडिसफ्लाई एंड्रॉयड मोबाइल फोन के कैमरा और फ्लैश का इस्तेमाल करते हुए जाइलेनाल आरेंज फील्ड टेस्ट रिएक्शन को स्वचालित करता है। परीक्षण के तुरन्त बाद परिणाम मोबाइल पर डिस्प्ले होने लगता है साथ ही यह आँकड़ों के मानचित्रण और उन्हें आॅनलाइन शेयर करने का भी विकल्प देता है। इस मशीन के हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर को ओपन सोर्स कर दिया गया है, ताकि कोई भी मशीन विकसित कर सकें।

डच कम्पनी अक्वो के साथ कैडिसफ्लाई के लिये समझौता करने की कोई खास वजह?
हमने अपनी कम्पनी के लिये फंड जुटाने हेतु सरकारी व गैरसरकारी कई संस्थाओं से लगभग दो साल तक मदद माँगी लेकिन बात नहीं बनीं। आखिरकार हमने गैर मुनाफे पर आधरित डच एनजीओ ए ग्लोबल नॉन प्रॉफिट सॉफ्टवेयर फाउंडेशन को कैडिसफ्लाई को बेच दिया। एक्वो सामाजिक कार्यक्रमों के लिये इंटरनेट, मोबाइल साफ्टवेयर और सेंसर्स का सृजन करती हैं। कैडिसफ्लाई के हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर को ओपन सोर्स कर दिया गया है, ताकि कोई भी मशीन विकसित कर सकें।

मशीन की कीमत क्या रहेगी? और किसी को इस उपकरण से पेयजल की जाँच करनी हो तो क्या प्रक्रिया होगी?
कैडिसफ्लाई की कीमत अभी तय नहीं की है लेकिन उसे 7 हजार से नीचे ही रखने का लक्ष्य है। दरअसल मशीन की कीमत 6 हजार ही है एक हजार टेस्टिंग किट के लिये चार्ज किया जाता है जिससे 50 परीक्षण किये जा सकते हैं, यानी प्रत्येक परीक्षण पर 20 रुपए खर्च होंगे। 50 टेस्ट पूरे हो जाने के बाद फिर से एक हजार रुपए में नया किट खरीदा जा सकता है।

भविष्य की क्या योजनाएँ हैं?
फ्लोराइड की जाँच के दो तरीके ​हैं, पहला द आयोन सेलेक्टिव इलेक्ट्रॉड अप्रोच और दूसरा कलरिमेट्रिक अप्रोच, पहली वाली विधि के उपकरणों की कीमत डेढ़ लाख रुपए हैं और दूसरी विधि में इस्तेमाल उपकण की कीमत 20,000 रुपए होती हैं।

हमारा लक्ष्य कलरिमेट्रिक अप्रोच के लिये एक हजार रुपए से भी कम में सेंसर और पहली विधि के लिये दस हजार से कम में विकसित करना है। फ्लोराइड के बाद अब हम आर्सेनिक और कोलीफॉर्म पर काम करना चा​हते हैं। पेयजल में इनकी मात्रा के परीक्षण और उससे बचने के उपायों पर गम्भीर होकर काम करना चा​हते हैं।

इसके अलावा हम लोगों को फ्लोराइड के दुष्प्रभावों के बारे में जागरूक करना चाहते हैं। अपने उत्पाद की बिक्री के लिये बेहतर नेटवर्क और ढाँचा तैयार करना चाहते हैं। हमारी चिन्ता पेयजल में फ्लोराइड की मात्रा पता लग जाने के बाद पेयजल को कैसे प्रदूषण मुक्त किया जा सकता है उसके लिये कुछ ठोस किये जाने को लेकर भी है।
 

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