शामलात का पुनर्विकास प्रचलित धारणाओं की खामियां

शामलात वास्तव में है क्या?


भारत तथा विश्व में शामलात के ह्रास का प्रमुख कारण स्थानीय संस्थानों व प्रबंधन का खत्म होना है। उत्तर पूर्व तथा झारखंड के अतिरिक्त देश में कहीं भी सामूहिक संसाधनों पर समुदाय के स्पष्ट अधिकार नहीं हैं। समुदायों के मध्य आदान-प्रदान तथा भिन्न उपयोग व्यवस्थाओं के कारण कई प्रकार की सामुदायिक संपदा व्यवस्थाओं का विकास हुआ है। परंतु, शामलातों पर अस्पष्ट सामुदायिक अधिकारों के कारण इन्हें नीतियों के अंतर्गत मान्यता प्राप्त नहीं हो पाई है। शामलात (या सामुदायिक संसाधन) शब्द जन संसाधनों से संबंधित है, जो किसी व्यक्ति विशेष की संपत्ति न होकर कई व्यक्तियों द्वारा सामूहिक रूप से तथा सार्वजनिक उद्देश्य के उपयोग में लाया जाता है। इन संसाधनों में चरागाह भूमि, वन एवं बिलानाम भूमि, तटीय भूमि, नदियां, एवं नदी के पेटे इत्यादि सम्मिलित हैं।

भारत में शामलात भूमि- विस्तार तथा महत्व


राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (NSSO 1999) के अनुसार भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 15 प्रतिशत हिस्सा शामलात हैं। इसका 23 प्रतिशत सामुदायिक चरागाह, 16 प्रतिशत ग्राम्य वन एवं अन्य जंगल, व 61 प्रतिशत भाग ‘अन्य श्रेणी में आते हैं (जैसे ग्राम्य स्थल, थ्रेशिंग भूमि, व अन्य बंजर व खाली पड़ी शामलात भूमि)। देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का एक बड़ा भाग शामलात भूमि की श्रेणी के अंतर्गत आता है फिर भी, शामलात भूमि एवं संसधनों के विस्तार को ही सिर्फ महत्वपूर्ण न मानें, बल्कि लोगों की आजीविकाओं में इसकी भूमिका को और भी अधिक महत्व दिया जाना चाहिए।’

शामलात का महत्व


देश के शुष्क एवं अर्ध-शुष्क क्षेत्रों के 21 जिलों के 82 गाँवों में एन. एस. जोधा द्वारा किया गया अध्ययन उन कुछ अध्ययनों में से एक था जिसने व्यापक स्तर पर ग्रामीण अर्थव्यवस्था में तथा विशिष्ट रूप से गरीब पर ग्रामीण अर्थव्यवस्था में तथा विशिष्ट रूप से गरीब परिवारों के लिए ‘सुरक्षा छतरी’ के रूप में शामलात की उपयोगिता को पूर्ण रूप से स्थापित कर दिया है। जोधा (1986) के अनुसार, देश के ग्रामीण क्षेत्रों के चारे की 80 प्रतिशत आवश्यकता शामलात भूमि से पूरी होती है। अध्ययन में यह भी स्पष्ट किया गया है, कि शामलात के अभाव में 48 से 55 प्रतिशत खेतों में अन्न व नकदी फसलों के स्थान पर चारे का उत्पादन करना पड़ेगा जिससे देश के पशुधन को संभाला जा सके। वहीं दूसरी तरफ चारे की उपलब्धता के आधार पर अपने पशुओं की संख्या को घटाने से 68 से 76 प्रतिशत पशुशक्ति की हानि के साथ-साथ 43 प्रतिशत तक खाद की भी कमी हो सकती है। इसके अतिरिक्त शामलात संसाधनों से ग्रामीण घरों में उपयोग किए जाने वाली जलावन लकड़ी का 58 प्रतिशत भाग भी पूरा होता है। यह बहुत ही महत्वपूर्ण है, क्योंकि लकड़ी का ईंधन आज भी ग्रामीण भारत की घरेलू ऊर्जा का प्रमुख स्रोत है।

शामलात, पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने के साथ-साथ जीवन के लिए आवश्यक संसाधनों को भी उपलब्ध कराते हैं। उनके द्वारा दी जाने वाली प्रमुख पारिस्थितिकी सेवाओं में मुख्य रूप से जल चक्र को बना कर रखना, जैवविविधता संरक्षण व ग्रीन हाउस गैसों को नियंत्रित करना इत्यादि है।

किसका लाभ, किसकी हानि- समानता का प्रश्न


शामलात अति गरीब परिवारों की आजीविका के लिए तुलनात्मक रूप से अधिक महत्वपूर्ण है। जोधा के अध्ययन ने बताया है कि अति गरीब परिवारों की 14 से 23 प्रतिशत तक की आय शामलात से ही पूरी होती है जबकि गैर गरीब परिवारों में शामलात पर निर्भरता 1 से 3 प्रतिशत ही है। कुछ अध्ययनों से यह भी पता चला है कि जहां गरीब परिवारों को तुलनात्मक रूप से अधिक लाभ होता है, वहं अमीरों को शामलात से लाभ शुद्ध रूप में ही होता है, पुरुष व स्त्री के बीच का लिंग भेद के चश्मे से देखने से पाएंगे की शामलात तक पहुंच व उस पर निर्भरता के मुद्दे में भी असमानता है।

पुरुषों की तुलना में महिलाओं को एक सामाजिक श्रेणी के रूप में देखें तो सभी वर्गों एवं समुदायों में सामान्य रूप से शामलात संसाधनों से अलग प्रकार का संबंध पाया जाता है। लगभग सभी समाजों में, महिलाएं एवं बच्चे ही शामलात भूमि से अपनी दैनिक आवश्यकताओं जैसे ईंधन, चारा, व जल की आपूर्ति करते हैं। अतः शामलात भूमि के ह्रास अथवा उन तक पहुंच में कमी का अत्यधिक असर उनके परिवार के प्रति योगदान और उनके सामाजिक स्तर पर पड़ता है।

घटते शामलात


शामलातों का प्राकृतिक संसाधनों के रूप में महत्व तथा अति गरीब परिवारों के लिए उनके योगदान के बाद भी उनके विस्तार व गुणवत्ता में निरंतर गिरावट आई है। जहां ब्रिटिश काल में एवं उसके उपरांत हुए भूमि उपयोग में बदलाव शामलातों में कमी का एक प्रमुख कारण है, वहं कुछ नीतिगत फैसलों के कारण ऐसी परिस्थितियां बनी की बढ़ती जनसंख्या के दबाव भूमि का बँटवारा अधिक कृषि उत्पादकता की आवश्यकता तथा पर्यावरणीय ह्रास के कारण समुदाय आधारित शामलात प्रंधन व्यवस्थाएं भंग हो गई हैं।

शामलातों के प्रति इस उदासीनता का प्रभाव चरागाह भूमि पर सबसे अधिक पड़ा है। पशुओं की संख्या अथवा गांव में उपलब्ध भूमि के प्रतिशत के आधार पर चरागाह भूमि का निर्धारण किया जाता है। यद्यपि इस क्षेत्र की शामलातों पर निर्भरता को मान्यता दी जा चुकी है, परंतु फिर भी अधिक से अधिक भूमि को खेती के लिए प्रयोग में लाया जा रहा है।

अधिकतर मामलों में इन चरागाहों के विकास व देख-रेख का उत्तरदायित्व पंचायतों अथवा राजस्व विभाग का होता है। परंतु राज्य के नियमों व निर्देशों के सामने यह शक्तिहीन ही दिखते हैं जिनके अंतर्गत चरागाह भूमि अन्य कार्यक्रमों के अंतर्गत आवंटित कर दी जाती है।

संस्थान-सुरक्षित अधिकारों की आवश्यकता


परिभाषा के आधार पर शामलात एक प्रकार की सामुदायिक व्यवस्था है, जिसके कारण इनको संवर्धित प्रबंधन के लिए सुदृढ़ संस्थानात्मक प्रक्रियाओं की आवश्यकता होती है। ऐसे बहुत अधिक आंकड़े उपलब्ध है, जो ऐसी व्यवस्थाओं के अस्तित्व के साथ-साथ इन संस्थानों के माध्यम से समुदायों द्वारा शामलात के प्रभावी प्रबंधन की पुष्टि करते हैं।

भारत तथा विश्व में शामलात के ह्रास का प्रमुख कारण स्थानीय संस्थानों व प्रबंधन का खत्म होना है। उत्तर पूर्व तथा झारखंड के अतिरिक्त देश में कहीं भी सामूहिक संसाधनों पर समुदाय के स्पष्ट अधिकार नहीं हैं। समुदायों के मध्य आदान-प्रदान तथा भिन्न उपयोग व्यवस्थाओं के कारण कई प्रकार की सामुदायिक संपदा व्यवस्थाओं का विकास हुआ है। परंतु, शामलातों पर अस्पष्ट सामुदायिक अधिकारों के कारण इन्हें नीतियों के अंतर्गत मान्यता प्राप्त नहीं हो पाई है।

चरागाह भूमि के संदर्भ में विकास व प्रबंधन के लिए अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग नीतियाँ हैं। वस्तुतः चरागाहों के विकास व देख-रेख का उत्तरदायित्व पंचायतों अथवा राजस्व विभाग का होता है, जिनको या तो निर्णय लेने का कोई अधिकार नहीं होता है अथवा किन्हीं कारणों से वह निर्णय नहीं लेते। अतः विकास व प्रबंध के लिए शामलात संसाधनों की उपलब्धता के आधार पर व्यवस्था बनाई जानी चाहिए, जो गांव एवं पंचायत के स्तर पर कार्य करें तथा पशुधन विकास विभाग व राजस्व विभाग उनकी मदद करे। अतः यह आवश्यक है कि स्थानीय समुदायों को इस भूमि पर निश्चित अधिकार दिया जाए।

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