सार्वजनिक जमीन

एक अर्थशास्त्री श्री एनएस जोधा राजस्थान में सार्वजनिक संपदा-संसाधनों के क्षय संबंधी अपने एक अध्ययन में बताते हैं कि राजस्थान जैसी आबोहवा वाली परिस्थिति में अपनी जमीन रखकर उसमें अनाज पैदा करने की अपेक्षा सार्वजनिक जमीन में पशु पालन ज्यादा लाभदायक रहा है। परंपरागत पद्धति में पशुओं को ज्यादातर बाहर ही चराते हैं, बहुत थोड़े से पशुओं को ही बांधकर खिलाया जाता है। इसलिए इस पद्धति में प्रति पशु खिलाने-पिलाने का खर्च मामूली आता है। यही कारण है कि अपनी जमीन में पशु पालने वालों की अपेक्षा सार्वजनिक जमीन में पशु पालने वालों के पास ज्यादा पशु होते हैं। दूसरे शब्दों में, समाज की ओर से उपलब्ध सार्वजनिक संपदा के कारण पशुपालन के लिए सहज अवसर मिलते हैं। लेकिन सार्वजनिक जमीन की हालत राज्यभर में एक-सी खस्ता हो चली है। एक तो उसका रकबा घटता गया, उसकी देखभाल ठीक नहीं रही और उसके बारे में जो भी औपचारिक या अनौपचारिक नियम-कानून थे, वे ढीले होते गए। सूखे क्षेत्र के 11 जिलों में 1951-52 से चराई की जमीन लगातार कम होती गई, और यह कमी 1951-52 से 1961-62 की अवधि में जो भूमिसुधार का वक्त था, बहुत ज्यादा हुई। इसका नतीजा यह हुआ कि पशुओं की आबादी सघन होती गई। 1951-52 में प्रति हेक्टेयर चरागाह पर 39 पशु थे, जो 1977-78 में 105 हो गए।

भूमि सुधार कार्यक्रम 1950 के दशक में शुरू हुए। बहुत बड़े पैमाने पर सार्वजनिक जमीन को निजी उपयोग में लाया जाने लगा। पर तब यह ख्याल नहीं रखा गया कि उसमें से बहुत-सी जमीन अनाज पैदा करने लायक थी ही नहीं। जंगल और स्थायी चरगाहों की तो पहले से काफी कमी थी ही, अब परती जमीन में अदलबदल कर खेती शुरू होने के कारण उस पर और भी जोर पड़ने लगा। पशुओं की चराई वहां ज्यादा होने लगी। बाद में ट्रैक्टरों का भी प्रचार हुआ तो परती जमीन और घटती गई।

इन गांवों के जंगलों और स्थायी चरागाहों में अरसे से सिर्फ घास, झाड़ियां और छोटे पेड़ पैदा होते थे। इसका कारण यह नहीं था कि वहां कुछ और पैदावार हो नहीं सकती थी, बल्कि समाज उसे इसी काम के लिए सुरक्षित रखता था। भूमि सुधार के दौरान अनेक प्रभावशाली लोगों ने उस जमीन को निजी उपयोग के लिए अपने कब्जे में ले लिया।

चरागाहों के आधार पर पशुपालन करने में पानी का इंतजाम करना बहुत महत्व का काम है, क्योंकि पर्याप्त पानी की सुविधा किए बिना अच्छे-से-अच्छे चरागाह भी मवेशियों को पूरा आसरा नहीं दे पाते। कई चरागाहों के आसपास पोखर, तालाब हुआ करते थे। इन्हीं तालाबों के नाम पर गांवों का नामकरण होता था।

श्री जोधा राजस्थान के दो गांवों में ऐसे कई तालाब मिले जो 1960 के दशक में अजीब ढंग से सूख गए। कई ऐसे तालाब तो ‘गायब’ ही हो गए जिनमें साद ज्यादा भरती थी, जलग्रहण क्षेत्र छोटा था और पानी भी बहुत कम जमा होता था। अड़ोस-पड़ोस के किसान धीरे-धीरे उस जगह को अपनी जमीन बताकर उस पर खेती करने लगे।

फसल कट जाने के बाद खेतों में पशुओं को चराने की एक आम परंपरा चली आई है। पशुपालकों के लिए यह बड़ी उपयोगी परंपरा रही है। चरागाहों और बिन-जुते खेतों से ज्यादा चारा वहां मिल जाता है, क्योंकि उनमें फसल के डंठल बचे रह जाते हैं। कटे भाग फिर फूट आते हैं। आज बुआई का क्षेत्र बढ़ने पर भी घास की कुल पैदावार में कोई बढ़ोतरी हुई हो, ऐसा नहीं है। इसका कारण शायद यह है कि ट्रैक्टर ज्यादा चलने लगे हैं। सूखे जिलों में 1961 में 2,251 ट्रैक्टर थे, जो 1971 में लगभग तिगुने यानी 6,652 हो गए।

समय के साथ सार्वजनिक जमीन और जल संसाधनों का प्रबंध भी बिगड़ता चला गया। बिना सोचे-समझे इनका बेहद दोहन होने लगा। नागौर जिले के कुछ गांवों में किए गए एक विस्तृत सर्वेक्षण से पता चलता है कि भूमि सुधार के पहले पशुपालकों को नकद या वस्तु के रूप में (1976-77 की दर से) प्रति परिवार 41 रुपए और ‘घासमारी-कर’ के रूप में प्रति पशु सवा रुपए सालाना देना पड़ता था। भूमि-सुधार के बाद यह चलन उठ गया। सार्वजनिक जमीन के उपयोग की देखरेख और व्यवस्था करने वाला कोई संगठन या संस्था भी नहीं बची है। श्री जोधा को यह जानकर बड़ा अजीब लगा है कि सार्वजनिक संसाधनों का प्रबंध आज के लोकतांत्रिक प्रशासन से ज्यादा अच्छी तरह राजा और जागीरदार किया करते थे।

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