सावधान दुनिया में बढ़ रहा है मरुस्थल

हम वैश्विक प्रदूषण व जलवायु परिवर्तन के शिकार तो हो ही रहे हैं, ज़मीन की बेतहाशा जुताई, मवेशियों द्वारा हरियाली की अति चराई, जंगलों का विनाश और सिंचाई की दोषपूर्ण परियोजनाएँ हैं। बारिकी से देखें तो इन कारकों का मूल बढ़ती आबादी है। हमारा देश आबादी नियंत्रण में तो सतत सफल हो रहा है, लेकिन मौजूदा आबादी का ही पेट भरने के लिये हमारे खेत व मवेशी कम पड़ रहे हैं। ऐसे में एक बार फिर मोटे अनाज को अपने आहार में शामिल करने, ज्यादा पानी वाली फसलों को अपने भोजन से कम करने जैसे प्रयास किया जाना जरूरी है। एक तरफ परिवेश में कार्बन की मात्रा बढ़ रही है तो दूरी ओर ओजोन परत में हुए छेद में दिनों-दिन विस्तार हो रहा है। इससे उपजे पर्यावरणीय संकट का कुप्रभाव लगातार जलवायु परिवर्तन के रूप में तो सामने आ ही रहा है, जंगलों की कटाई व कुछ अन्य कारकों के चलते दुनिया में तेजी से पाँव फैला रहे रेगिस्तान का खतरा धरती पर जीवन की उपस्थिति को दिनों-दिन कमजोर करता जा रहा है।

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम यानि यूनेप की रपट कहती है कि दुनिया के कोई 100 देशों में उपजाऊ या हरियाली वाली ज़मीन रेत के ढेर से ढँक रही है और इसका असर एक अरब लोगों पर पड़ रहा है। उल्लेखनीय है कि यह खतरा पहले से रेगिस्तान वाले इलाकों से इतर है।

मरुस्थलीयकरण दुनिया के सामने बेहद चुपचाप, लेकिन खतरनाक तरीके से बढ़ रहा है। इसकी चपेट में आये इलाकों में लगभग आधे अफ्रीका व एक-तिहाई एशिया के देश हैं। यहाँ बढ़ती आबादी के लिये भोजन, आवास, विकास आदि के लिये बेतहाशा जंगल उजाड़े गए। फिर यहाँ नवधनाढ्य वर्ग ने वातानुकूलन जैसी ऐसी सुविधाओं का बेपरवाही से इस्तेमाल किया, जिससे ओज़ोन परत का छेद और बढ़ गया।

याद करें कि सत्तर के दशक में अफ्रीका के साहेल इलाके में भयानक अकाल पड़ा था, तब भी संयुक्त राष्ट्र की एजेंसियों ने चेताया था कि लगातार सूखी या बंजर हो रही ज़मीन के प्रति बेपरवाही रेत के अम्बार को न्यौता दे रही है। उसी समय कुछ ऐसी सिंचाई प्रणालियाँ शुरू हुई, जिससे एक बारगी तो हरियाली आती लगी, लेकिन तीन दशक बाद वे परियोजनाएँ बंजर, दलदली ज़मीन उपजाने लगीं। ऐसी ही ज़मीन, जिसकी ‘टॉप सॉईल’ मर जाती है, देखते-ही-देखते मरुस्थल का बसेरा होती है।

जाहिर है कि रेगिस्तान बनने का खतरा उन जगहों पर ज्यादा है, जहाँ पहले उपजाऊ ज़मीन थी और अंधाधुंध खेती या भूजल दोहन या सिंचाई के कारण उसकी उपजाऊ क्षमता खत्म हो गई। ऐसी ज़मीन पहले उपेक्षित होती है और फिर वहाँ लाइलाज रेगिस्तान का कब्ज़ा हो जाता है।

यहाँ जानना जरूरी है कि धरती के महज सात फीसदी इलाके में ही मरुस्थल है, लेकिन खेती में काम आने वाली लगभग 35 प्रतिशत ज़मीन ऐसी भी है जो शुष्क कहलाती हैं और यही खतरे का केन्द्र है।

बेहद हौले से और ना तत्काल दिखने वाली गति से विस्तार पा रहे रेगिस्तान का सबसे ज्यादा असर एशिया में ही है। इसरो का एक शोध बताता है कि थार रेगिस्तान अब राजस्थान से बाहर निकल कर कई राज्यों में जड़ जमा रहा है।

हमारे 32 प्रतिशत भूभाग की उर्वर क्षमता कम हो रही है, जिसमें से महज 24 फीसदी ही थार के इर्द-गिर्द के हैं। सन 1996 में थार का क्षेत्रफल एक लाख 96 हजार 150 वर्ग किलोमीटर था जो कि आज दो लाख आठ हजार 110 वर्ग किलोमीटर हो गया है।

भारत की कुल 328.73 मिलियन ज़मीन में से 105.19 मिलियन ज़मीन पर बंजर ने अपना डेरा जमा लिया है, जबकि 82.18 मिलियन हेक्टेयर ज़मीन रेगिस्तान में बदल रही है। यह हमारे लिये चिन्ता की बात है कि देश के एक-चौथाई हिस्से पर आने वाले सौ साल में मरुस्थल बनने का खतरा आसन्न है।

हमारे यहाँ सबसे ज्यादा रेगिस्तान राजस्थान में है, कोई 23 मिलियन हेक्टेयर। गुजरात, महाराष्ट्र, मप्र, और जम्मू-कश्मीर की 13 मिलियन भूमि पर रेगिस्तान है तो अब उड़ीसा व आन्ध्र प्रदेश में रेतीली ज़मीन का विस्तार देखा जा रहा है।

अंधाधुंध सिंचाई व जमकर फसल लेने के दुष्परिणाम की बानगी पंजाब है, जहाँ दो लाख हेक्टेयर ज़मीन देखते-ही-देखते बंजर हो गई। बठिंडा, मानसा, मोगा, फिरोजपुर, मुक्तसर, फरीदकोट आदि में ज़मीन में रेडियोएक्टिव तत्त्व की मात्रा सीमा तोड़ चुकी है और यही रेगिस्तान की आमद का संकेत है।

भारत के सन्दर्भ में यह तो स्पष्ट है कि हम वैश्विक प्रदूषण व जलवायु परिवर्तन के शिकार तो हो ही रहे हैं, ज़मीन की बेतहाशा जुताई, मवेशियों द्वारा हरियाली की अति चराई, जंगलों का विनाश और सिंचाई की दोषपूर्ण परियोजनाएँ हैं। बारिकी से देखें तो इन कारकों का मूल बढ़ती आबादी है।

हमारा देश आबादी नियंत्रण में तो सतत सफल हो रहा है, लेकिन मौजूदा आबादी का ही पेट भरने के लिये हमारे खेत व मवेशी कम पड़ रहे हैं। ऐसे में एक बार फिर मोटे अनाज को अपने आहार में शामिल करने, ज्यादा पानी वाली फसलों को अपने भोजन से कम करने जैसे प्रयास किया जाना जरूरी है।

सिंचाई के लिये भी छोटी, स्थानीय तालाब, कुओं पर आधारित रहने की अपनी जड़ों की ओर लौटना होगा। यह स्पष्ट है कि बड़े बाँध जितने महंगे व अधिक समय में बनते हैं, उनसे उतना पानी तो मिलता नहीं है, वे नई-नई दिक्कतों को उपजाते हैं, सो छोटे तटबन्ध, कम लम्बाई की नहरों के साथ-साथ रासायनिक खाद व दवाओं का इस्तेमाल कम करना रेगिस्तान के बढ़ते कदमों पर लगाम लगा सकता है।

भोजन व दूध के लिये मवेशी पालन तो बढ़ा लेकिन उनकी चराई की जगह कम हो गई। परिणामतः मवेशी अब बहुत छोटी-छोटी घास को भी चर जाते हैं और इससे जमीन नंगी हो जाती है। जमीन खुद की तेज हवा और पानी से रक्षा नहीं कर पाती है। मिट्टी कमजोर पड़ जाती है और सूखे की स्थिति में मरुस्थलीकरण का शिकार हो जाती है।

मरुस्थलों के विस्तार के साथ कई वनस्पति और पशु प्रजातियों की विलुप्ति हो सकती है। गरीबी, भुखमरी और पानी की कमी इससे जुड़ी अन्य समस्याएँ हैं।

रियो डी जेनेरो में हुए धरती बचाओ सम्मेलन में भी इस बात पर सहमति बनी थी कि रेगिस्तान रोकने के लिये नई तकनीक के बनिस्पत पारम्परिक तरीके ज्यादा कारगर हैं, जिसमें ज़मीन की नमी बरकरार रखने, चारागाह व जंगल बचाने व उसके प्रबन्धन के सामाजिक तरीकों, फसल में विविधता लाने जैसी हमारी बिसराई गई अतीत की तकनीकें प्रमुख हैं।

बढ़ता रेगिस्तान गरीबी को जन्म देता है और गरीबी, असन्तोष का कारण बनती है और इसका अन्तिम पड़ाव अशान्ति, युद्ध, टकराव ही होता है। और ऐसे हालातों में किसी भी समाज का जीना सम्भव नहीं होगा।

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