शहरी और औद्योगिक क्षेत्रों में बढ़ता ध्वनि प्रदूषण

आज बढ़ते ध्वनि प्रदूषण के प्रति सही समझ और विरोध प्रदर्शन की सख्त जरूरत है। यह तभी सम्भव है जब लोगों में इससे होने वाले दुष्परिणामों की जानकारी और जागरुकता बढ़े। पूर्वी देशों खासतौर पर संयुक्त राज्य अमेरिका में बढ़ते शोर के खिलाफ व्यापक जन विरोध किया जाने लगा है।आज विश्व की लगातार बढ़ती जनसंख्या और उसकी आवश्यकताओं ने अजीबोगरीब मुश्किलें पैदा कर दी हैं। असन्तुलित और अनियन्त्रित विकास गतिविधियों ने इन मुश्किलों को और भी जटिल बनाया है। इस विकास यात्रा से जुड़ी मानवीय गतिविधियों ने पारिस्थितिकी सन्तुलन को खतरनाक स्तर तक क्षति पहुँचाई है। तकनीक और संसाधनों की कमी से जूझते विकासशील देश एक ओर जहाँ पर्यावरण में असंख्य प्रदूषक झोंक रहे हैं, वहीं दूसरी ओर विकसित और सम्पन्न देश सुविधा-सम्पन्न होते हुए भी पर्यावरण संरक्षण नियमों का उल्लंघन कर बहुआयामी संकट पैदा कर रहे हैं। पर्यावरण संरक्षण और विकास की दिशा के बीच कोई तादात्म्य नहीं रहा है।

जीवनदायी तत्व हवा, पानी और मिट्टी अपनी मूल संरचना, स्वभाव और पहचान खोकर अपना स्वरूप बदल चुके हैं। लगभग पूरे विश्व के जलस्रोत और वायु-आवरण प्रदूषण की मान्य सीमाएँ लाँघकर हानिकारक स्तर तक पहुँच चुके हैं। इसके दुष्परिणाम प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सभी को प्रभावित कर रहे हैं। बढ़ता पर्यावरण विनाश और प्रदूषकों की मात्रा जन-स्वास्थ्य के लिए बेहद खतरनाक साबित हो चुकी है। आज आबादी का एक बड़ा हिस्सा (विशेषकर विकासशील देशों में) प्रदूषणजनित अनेक रोगों की चपेट में हैं। औद्योगिक क्षेत्रों में होने वाले प्रदूषण के खतरे जानलेवा और भारी क्षति पहुँचाने वाले बन चुके हैं। कोयला, सिलिका, एस्बैस्टस और अनेक भारी धातुओं के उद्योगों से जुड़े मजदूरों का जीवनकाल घट रहा है। इन उद्योगों से जुड़े लोग गम्भीर स्वास्थ्य समस्याओं की चपेट में हैं। शहरी और व्यस्त रिहायशी क्षेत्रों में भी सम्पूर्ण इकोसिस्टम गम्भीर संकट में है।

पिछले कुछ वर्षों से एक नई समस्या का जन्म हुआ है। जो निरन्तर खतरनाक होती जा रही है। यह समस्या है- शहरी और औद्योगिक क्षेत्रों में लगातार बढ़ते शोर या ध्वनि प्रदूषण की और इससे पैदा होने वाली अनेक खतरनाक बीमारियों की। हालाँकि यह एक अदृश्य प्रदूषण है किन्तु इसके प्रभाव घातक होते हैं। महानगरों, व्यस्त नगरों और यहाँ तक कि भीड़-भाड़ वाले कुछ कस्बों में ध्वनि प्रदूषण का स्तर काफी अधिक है। मुंबई, कोलकाता और कानपुर जैसे शहरों में ध्वनि प्रदूषण का स्तर 85 से 115 डेसीबल तक पहुँच चुका है, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के मापदंडों के अनुसार इसकी अधिकतम सीमा 45 डेसीबल है। अनुमान है इस बढ़ते शोर से जहाँ एक ओर स्वास्थ्य खतरे पनपेंगे वहीं दूसरी ओर इससे अनेक सामाजिक-आर्थिक और मनोवैज्ञानिक समस्याएँ भी पनपेंगी। यह भी सम्भावना है कि यदि ध्वनि प्रदूषण का विस्तार इसी गति से जारी रहा तो भारत सहित अनेक विकासशील देशों की उत्पादकता और अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। उत्पादकता घटने का सीधा सम्बन्ध बढ़ते शोरगुल से है- यह तथ्य अनेक शोध समूहों द्वारा किए गए अध्ययनों से प्रमाणित हो चुका है।

डेसीबल


डेसीबल ध्वनि तीव्रता की इकाई होती है। डेसीबल महसूस किए जाने वाले ध्वनि और रेफरेन्स दबाव (जहाँ सुनाई देने की सीमा का प्रारम्भ होता है) के लागोरिथम का अनुपात होता है इसे शून्य से 130 के पैमाने पर नापते हैं। शून्य का अर्थ न्यूनतम श्रवणीय ध्वनि से है, जबकि 130 डेसीबल का अर्थ कष्टदायक ध्वनि तीव्रता से है जो असह्य हो। डेसीबल के स्तर पर आंशिक वृद्धि का अर्थ है ध्वनि दबाव में कई गुना वृद्धि 120 डेसीबल पर ध्वनि दबाव 80 डेसीबल के ध्वनि दबाव से 100 गुना अधिक होता है।

ध्वनि प्रदूषण के एक विशेषज्ञ प्रो. ग्लोरिग के अनुसार ध्वनि प्रदूषण से पैदा बहरापन एक प्रमुख समस्या है। उद्योगों में श्रमिकों के इस बहरेपन से अन्य बीमारियों की तुलना में अधिक नुकसान हो रहा है केवल अमेरिकी उद्योगों को इस समस्या से प्रतिदिन करोड़ों डॉलर का नुकसान हो रहा है। आबादी का एक बड़ा हिस्सा इस प्रदूषण की चपेट में आ रहा है सो अलग। एक महत्त्वपूर्ण सर्वे से ज्ञात हुआ है कि 50 प्रतिशत उद्योगों में काम कर रहे लोगों को जब उच्च तीव्रता वाले शोर में रखा गया तो वे बुरी तरह प्रभावित हुए। इन कामगारों में बेहद चिड़चिड़ापन पाया गया। उनको जल्दी-जल्दी गुस्सा आता था, वे धैर्य नहीं रख पाते थे और छोटी-छोटी बातों पर आन्दोलन कर उत्पादन रोक देते थे। यह सच्चाई उन स्थानों की है जहाँ भारी उद्योग स्थापित हैं और जो महानगरीय क्षेत्रों में हैं।

ब्रिटेन में लगभग हर चौथा आदमी स्नायु सम्बन्धी रोगों से पीड़ित है। टोकियो शहर में केवल एक वर्ष में शोर से सम्बन्धित 14,000 शिकायतें दर्ज की गई।

पश्चिमी मध्य प्रदेश के कुछ प्रमुख औद्योगिक नगरों जैसे देवास, इन्दौर और उज्जैन की औद्योगिक बस्तियों में किए गए ताजा शोध से चौंकाने वाले परिणाम प्राप्त हुए हैं। औद्योगिक शोर से नये स्वास्थ्य खतरे पनपने के स्पष्ट संकेत मिले हैं। इन क्षेत्रों में रहने वालों में सामान्य चयापचय एवं आन्तरिक क्रियाओं में काफी परिवर्तन नोट किए गए। अनिद्रा, बहरापन, रक्तचाप और महिलाओं में सामान्य मासिक चक्र में गड़बड़ी की शिकायतें आम पाई गई।

1988 के पर्यावरण संरक्षण कानून की धारा 6(1) के अन्तर्गत ध्वनि प्रदूषण पर सख्त रोक लगाई गई है। जनजागरण के आंशिक प्रयासों के बावजूद भी इस समस्या का कोई स्थायी समाधान नहीं निकल सका है। सुविधाओं में विस्तार के साथ शोर भी बढ़ा है। वास्तव में शोर ट्रैफिक एवं औद्योगिक, सामाजिक, धार्मिक, व्यावसायिक तथा राजनैतिक क्रिया-कलापों का प्रतिफल ही है।

50 डेसीबल का शोर सोते हुए आदमी को जगाने के लिए पर्याप्त है। एक प्रयोग से ज्ञात हुआ है कि 60-80 डेसीबल का शोर जो लाउडस्पीकर पैदा कर सकता है, सोते हुए व्यक्ति की धड़कन तेज कर सकता है। संकरी गलियों में रहने वाले इससे और भी अधिक प्रभावित होते हैं।

जर्मन वैज्ञानिक राबर्ट कोच का कहना है कि यदि शोर इसी गति से बढ़ता रहा तो एक दिन हमें कालरा, चेचक और अन्य संक्रामक बीमारियों की तरह शोर के खिलाफ लड़ाई लड़नी होगी।

25 से 45 वर्ष के बीच के एक हजार व्यक्तियों में (जो औद्योगिक क्षेत्र के समीप रहते हैं) एक अध्ययन किया गया और पाया गया कि शोर की सीमा 70 से 75 डेसीबल है। इस शोर से सर्वाधिक शिकायतें बहरेपन और श्रवणेंद्रियों के सम्बन्ध में थी। लगातार शोर से बहरापन बढ़ता पाया गया। अचानक तेज पटाखों की आवाज से अस्थायी और कभी-कभी स्थायी बहरापन लगभग निश्चित होता है। पूना में किए गए एक पर्यावरणीय अध्ययन के परिणाम बताते हैं कि ट्रैफिक कंट्रोल से जुड़े 80 प्रतिशत व्यक्ति श्रवणेंद्रियों सम्बन्धी परेशानियों के शिकार हैं।

एक अन्य अध्ययन विभिन्न स्कूलों और कॉलेजों के 5,000 छात्रों पर किया गया। ये सब या तो तेज झन्नाटेदार संगीत के शौकीन थे या फिर मोटरसाईकिल की घरघराहट के लगातार सम्पर्क में रहते थे। ये सभी युवक अपनी 50 प्रतिशत श्रवण शक्ति खो चुके थे। एक व्यक्ति जो प्रतिदिन डिस्कोथीक या अन्य शोर-शराबे वाले क्षेत्र में जाता है, स्वयं में होने वाले आंशिक बहरेपन को महसूस कर सकता है, किन्तु शांत क्षेत्र में आते ही वह राहत महसूस करता है। इस आंशिक बहरेपन में सुधार ध्वनि की तीव्रता और ध्वनि सम्पर्क समय पर निर्भर करता है। उस व्यक्ति विशेष की श्रवण संवेदनशीलता और ध्वनि प्रदूषण की प्रकृति भी एक अन्य महत्त्वपूर्ण कारक है। जो श्रवणेंद्रियों को प्रभावित करता है। ध्वनि के वातावरण में लगातार रहने से बहरेपन की सीमा में सुधार सम्भव नहीं हो पाता और प्रभावित व्यक्ति स्थायी बहरेपन का शिकार हो जाता है। इस शोर का सर्वाधिक प्रभाव फैक्ट्री में काम करने वालों पर पड़ता है। ऐसा प्रमाणित हो चुका है कि 75 डेसीबल का आठ घंटे तक लगातार शोर बहरा बनाने के लिए पर्याप्त होता है। औद्योगिक क्षेत्रों में 54 प्रतिशत लोग बहरेपन के शिकार पाए गए है।

अनुशंसित ध्वनि दबाव की सीमा

(विश्व स्वास्थ्य संगठन 1990 के मानकों के अनुसार)

क्र.सं.

पर्यावरण

अनुशंसित ध्वनि सीमा  (डेसीबल में)

प्रभाव

1.

रात्रि के समय (घर के अन्दर)

35

उच्च सीमा में बार-बार नींद खुलना

2.

दिन के समय (घर के अन्दर)

45

उच्च सीमा में वार्तालाप में व्यवधान

3.

शहरी क्षेत्रों में रात्रि के समय

45

उच्च सीमा में सो पाने में कठिनाई

4.

शहरी क्षेत्रों में दिन के समय

55

उच्च सीमा में खीझ, झुंझलाहट एवं गुस्सा

5.

औद्योगिक और व्यावसायिक क्षेत्रों में

75

उच्च सीमा में स्थायी बहरापन सम्भावित है।

 


अध्ययन में बहरेपन के अलावा ध्वनि प्रदूषण के अन्य हानिकारक प्रभाव भी देखे गए। अचानक सिरदर्द (55 प्रतिशत), मितली (19 प्रतिशत) और भूख खत्म होने की शिकायतें (52 प्रतिशत) दर्ज की गई। सामान्य रिहायशी क्षेत्रों में यह प्रतिशत बहुत कम पाया गया। तेज शोर से नाड़ी संस्थान पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। परिणामस्वरूप एड्रेनेलीन नामक एक हार्मोन का अतिस्राव होता है। एड्रेनेलीन हृदय की कार्यप्रणाली को प्रभावित करता है जिसके कारण मुक्त वसीय अम्ल रक्त में पहुँच जाते हैं। तेज शोर हृदयगति और रक्तचाप को भी बढ़ाता है। औद्योगिक क्षेत्रों में हृदय और रक्तचाप से प्रभावित 25 प्रतिशत अधिक लोग पाए गए। अध्ययन में प्रभावित व्यक्तियों के कालक्रमिक गुणों एवं व्यवहार में परिवर्तनों को भी रिकार्ड किया गया। इसके अन्तर्गत खीझ, थकान बोलने में असुविधा तथा मानसिक तनाव सम्बन्धी बहुत सी बीमारियाँ पाई गई। याददाश्त कम होना तथा मासिक चक्र में गड़बड़ी आदि की शिकायतें सामान्य थीं। शोधकर्ताओं का दावा है कि यदि 85 डेसीबल के शोर में लम्बे समय तक किसी व्यक्ति को रखा जाए तो उसके सामान्य व्यवहार में जबरदस्त तब्दीली आएगी। झुंझलाहट, स्वभाव में उग्रता और अनिद्रा जैसी परेशानियाँ बढ़ सकती है।

याददाश्त परीक्षण से ज्ञात हुआ कि औद्योगिक क्षेत्रों के 81 प्रतिशत लोग आंशिक स्तर पर अपनी याददाश्त खो बैठते हैं, हालाँकि शोधकर्ताओं की प्रश्नोत्तरी और निष्कर्षों से यह रहस्य बना ही है कि याददाश्त खोना किस तरह का है।

आधुनिक शोधों से यह जानकारी भी मिली है कि बढ़ा हुआ ध्वनि स्तर हाइपोथेलेमस तथा पिट्यूटरी ग्रंथियों पर सीधा प्रभाव डालता है जो अन्य अंतःस्रावी ग्रंथियों की कार्यप्रणाली को प्रभावित करती हैं। इससे रक्त में हार्मोन्स का स्तर गड़बड़ा जाता है। हारमोन्स ऐसे महत्त्वपूर्ण रसायन हैं जो सभी आन्तरिक क्रियाओं का विधिवत नियमन करते हैं। अध्ययन के अन्तर्गत औद्योगिक क्षेत्रों में रहने वाली सौ महिलाओं में ध्वनि प्रदूषण के प्रभाव को देखा गया और पाया गया कि 35 महिलाएँ इससे प्रभावित हैं जबकि ध्वनि प्रदूषण से मुक्त रिहायशी बस्तियों में हानिकारक प्रभावों का प्रतिशत कम पाया गया। इन शोधों के अलावा अभी भी मनुष्य के सामान्य स्वास्थ्य और व्यवहार पर पड़ने वाले व्यापक प्रतिकूल प्रभावों का अध्ययन होना बाकी है।

आजकल शहरी और औद्योगिक क्षेत्रों में अधिक डेसीबल का शोर एक सामान्य बात है। ज्यादा डेसीबल का मतलब है ज्यादा शोर। दैनिक जीवन में विभिन्न क्रियाकलापों द्वारा शोर डेसीबल इकाई में दर्शाया गया है।

क्रियाकलाप

डेसीबल

फुसफुसाहट

15-20

ट्रैफिक का शोर

40-45

साधारण बातचीत

40-60

गुस्से में बातचीत

70-80

शोरयुक्त बस

80

भारी ट्रक

90

मोटर साइकिल (समीप से)

90

अखबारी प्रेस

100

शेर की दहाड़

110

रॉकेट की उड़ान

170

साइरन

200

लाउडस्पीकर

60-80

भीड़-भाड़ वाला ग्रामीण मेला

80-90

 


80 डेसीबल के शोर में लगातार रहना हानिकारक होता है। शोर को बर्दाश्त करने की उच्चतम सीमा 90 डेसीबल होती है। यदि इतने शोर में प्रतिदिन आठ घंटे रहा जाए तो स्थायी बहरापन पैदा हो जाता है। 93 डेसीबल पर सहनशक्ति घटकर चार घंटे रह जाती है जबकि 96 डेसीबल पर केवल दो घंटे।

विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा मान्य ध्वनि प्रदूषण की अधिकतम सीमा का उल्लंघन लगभग सभी औद्योगिक क्षेत्रों और शहरी क्षेत्रों में हो चुका है। भारतीय सन्दर्भ में हालात बदतर हो चुके हैं। लगभग सभी औद्योगिक और शहरी क्षेत्रों में ध्वनि प्रदूषण सभी मान्य सीमाएँ लाँघकर हालात को चिन्ताजनक बना रहा है। इसके प्रतिकूल प्रभावों से मनुष्य की प्रजनन क्षमता भी प्रभावित हो रही है।

आधुनिक शोधों से ज्ञात हुआ है कि बैक्टीरिया को छोड़कर समस्त प्राणियों में एक बायोलाॅजीकल घड़ी होती है जो उनमें होने वाली सभी जैविक क्रियाओं का नियमन सम्पादन और उचित समन्वयन करती है। अलग-अलग व्यक्तियों में चयापचय क्रियाओं का संचालन अलग-अलग गति से होता है। फलस्वरूप उनके कार्य, व्यवहार और क्षमताओं में भी अन्तर होता है, मिसाल के तौर पर कुछ लोग गहरी नींद नहीं सो पाते हैं जबकि इसके विपरीत कुछ लोग गहरी नींद सोते हैं। शोरगुल या ध्वनि प्रदूषण से नींद की गहराई प्रभावित होती है जिसका सीधा सम्बन्ध मनुष्य के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य से होता है।

भारत के राष्ट्रीय भौतिकी संस्थान द्वारा किए गए अध्ययनों से ज्ञात हुआ कि रिहायशी क्षेत्रों में भी ध्वनि प्रदूषण का प्रभाव बढ़ चुका है। सड़क पर चलने वाले दो, चार और छह पहिये वाले वाहनों की लगातार बढ़ती संख्या ध्वनि स्तर को एक बड़े क्षेत्र में बढ़ा रही है। प्रत्येक छह वर्षों में यह ध्वनि प्रदूषण दो गुना हो जाती है। यदि बढ़ते शोर की रफ्तार यही रही तो बहरापन सर्दी और जुकाम की तरह आम बात होगी।

भारत में अभी तक ऐसी कोई सक्रिय संस्था नहीं है जो शोर नियन्त्रण के लिए काम कर रही हो। प्रचार माध्यम भी अपेक्षित सक्रियता नहीं दिखाते। शासन के प्रयास ऐसे होने चाहिए कि ध्वनि प्रदूषण पर सख्त कानून हों और उनका पालन भी उतनी ही कड़ाई से हो। औद्योगिक इकाइयों को रिहायशी बस्तियों से दूर स्थापित किया जाए। शोर करने वाले पुराने वाहनों के आवासीय क्षेत्रों से निकलने पर प्रतिबंध हो। धार्मिक उत्सवों, अनुष्ठानों, शादियों आदि पर ऊँची आवाज में बजने वाले लाउडस्पीकरों पर रोक हो। आतिशबाजी के इस्तेमाल पर नियन्त्रण जरूरी है। इसके बावजूद भी कुछ इस प्रकार के शोर हैं जिन्हें हम आपसी समझ और सामंजस्य से दूर कर सकते हैं। साइलैंसर वाहन, मोटरकार, स्कूटर के हार्न, ड्रिलिंग मशीन से उपजा शोर, टायरों की रगड़ की आवाज, राजनैतिक जुलूसों में हो-हल्ला और नारेबाजी, मकानों का निर्माण, बर्तनों की खड़खड़ाहट, बच्चों का हँसना-रोना, लड़ाई-झगड़ों से उपजा शोर, रेडियो, टीवी. आदि कुछ ऐसे ही शोर हैं जिन्हें हम स्वयं नियन्त्रित रख सकते हैं।

आज बढ़ते ध्वनि प्रदूषण के प्रति सही समझ और विरोध प्रदर्शन की सख्त जरूरत है। यह तभी सम्भव है जब लोगों में इससे होने वाले दुष्परिणामों की जानकारी और जागरुकता बढ़े। पूर्वी देशों खासतौर पर संयुक्त राज्य अमेरिका में बढ़ते शोर के खिलाफ व्यापक जन विरोध किया जाने लगा है। वहाँ की सरकारें भी इस दिशा में अत्यधिक चिंतित हैं और बढ़ते शोर को नियन्त्रित करने के सभी सम्भव प्रयास कर रही हैं। भारत में अभी तक इस दिशा में कोई उल्लेखनीय पहल नहीं हुई है। केवल समाचार, अखबार और पत्रिकाओं में कभी-कभार कुछ चेतावनियाँ छप जाती हैं जिन्हें लोग भूल जाते हैं। अब आवश्यकता इस बात की है कि लोग इस बढ़ते शोर के प्रति जागरुक हों, इससे पनपने वाले खतरों को समझें और इसके विरोध में प्रभावशाली ढंग से आवाज उठाएँ।

(प्रोफेसर, रसायन विभाग, शासकीय आदर्श विज्ञान कॉलेज, रीवा, मध्य प्रदेश)

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