शिक्षक और कवि

29 Mar 2019
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कुमाऊँनी भाषा के अनन्य सेवक, कवि, शिक्षक और मनीषी बचीराम श्रीकृष्ण पंत (जुलाई 1889-18 अक्टूबर 1958 ई.) वर्तमान पिथौरागढ़ जिले के भटगाँव (बेरीनाग) में पैदा हुए थे। उनका जन्म नाम तो श्रीकृष्ण था किन्तु वे बचीराम के नाम से ही जाने जाते थे। तीन भाइयों और दो बहनों में वे सबसे छोटे थे। अपना परिचय उन्होंने अपनी प्रकाशित रचना महिला धर्म प्रकाश में इस तरह दिया है।

भरदवाज कुल में जनम, पितु हैं गंगाराम।
अम्बादत्त, हरदत्त, बची-राम सहोदर नाम।
बेनीनाग समीप है, भटगाऊ में धाम।
अल्मोड़ा शुभ नगर है, यही जिले का नाम।


उनका जीवन कठिनाइयों में बीता था। माँ और पिता अल्पावस्था में ही उन्हें छोड़ गए थे। बड़े भाई अम्बादत्त, जो स्वयं एक शिक्षक और पोस्टमास्टर थे। उनके पालन-पोषण का भार उठाया और मायके में ही रहने वाली और बाल विधवा छोटी दीदी सरस्वती ने सदैव उनकी देखरेख की थी। बेरीनाग अपर प्राइमरी स्कूल से दिसम्बर 1904 में 15 साल 5 महीने की उम्र में पास होने के बाद उन्होंने लगभग 25 किलोमीटर दूर कांड़ा मिडिल स्कूल से पढ़ाई पूरी की थी।

सन 1909 में अल्मोड़ा शहर में गवर्नमेंट स्कूल में स्पेशल ट्रेनिंग क्लास में प्रवेश मिला था और प्रशिक्षण पूरा होने के बाद वे जिला बोर्ड के प्राइमरी स्कूल में अध्यापन करने लगे थे। पहले लोअर प्राइमरी अध्यापक (वेतन मात्र दो रुपए महीने) और बाद में अपर प्राइमरी स्कूल के हेड मुदर्रिस बन गए थे। 9 जून, 1944 को रिटायर होते समय उनका वेतन केवल 45 रुपए महीना था।

स्वाध्याय और बच्चों को पढ़ाने-लिखाने में उनकी स्वावाभिक रुचि थी। वे अनन्य पुस्तक-प्रेमी थे। जीर्ण-शीर्ण पोथी-पुस्तकों और पत्रिकाओं का जीर्णोद्धार कर उन्हें सम्भालकर रखना और नई पुस्तकों व पत्रिकाओं के संग्रह की प्रवृत्ति ने घर में एक छोटा-मोटा पुस्तकालय बना डाला था और इसका नाम रखा गया था श्रीरामकृष्णग्रन्थागार। इसमें हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी के अलावा उर्दू बंगाली, मराठी तथा गुजराती भाषाओं की पुस्तकें अलमारियों, काठ के सन्दूकों और बस्तों में सहेजकर रखी रहतीं थीं। संस्कृत के हस्तलिखित ग्रन्थ भी बस्तों में बधे रखे रहते थे जो अक्सर उनकी व उनके बड़े भाई की हस्तलिपि में होते थे।

ग्रीष्म अवकाशों अथवा जोड़ों की लम्बी रातों में धार्मिक ग्रन्थों, उपन्यासों, कथा-कहानियों के पाठ से परमानन्द प्राप्त होता था। चाँद, सरस्वती, प्रभा, सुधा, संगम, कल्याण, कल्याण कल्पतरु, रीडर्स डाइजेस्ट, खिलौना, बानर, बालसखा, नटखट आदि पत्रिकाओं को पढ़ने से गाँव में भी सारी दुनिया की जानकारी मिल जाती थी। शिव बावनी, भारत-भारती और सरकार द्वारा प्रतिबन्धित अन्य पुस्तकें भी पढ़ने को मिल जाती थीं। अवकाश ग्रहण करने के बाद 1945-46 में उन्होंने एक हस्तलिखित मासिक पत्रिका बच्चों के लिए निकाली थी-बालचन्द्र। इनकी प्रतियों के मुखपृष्ठ पर चन्द्रशेखर शिवजी की छवि रहती थी और लिखा होता था बालचन्द्र शिव ने अपनाया। प्रेम विवश हो शीश चढ़ाया।मुखपृष्ठ ज्येष्ठ पुत्र हरिश्चन्द्र द्वारा चित्रित होता था।

कविता से उन्हें भारी लगाव था। अवकाश के क्षणों या राह चलते भी रचना और मनन चलता रहता था। हिन्दी और कुमाऊँनी में उन्होंने कविताएँ रची थीं। किसी भी कागज पर कलम या पेंसिल से अपनी बेजोड़ लिपि में मन के भाव उतार लेते थे। कविताओं की भाषा सरल, बोधगम्य, भाव-प्रवण और मनमोहक रहती थी। अपने ही अध्यवसाय से उन्होंने अंग्रेेजी, उर्दू, संस्कृत और बंगला भाषाओं को सीखा था।

कुमाऊँनी कविताओं का उनका पहला संग्रह सन 1912 में सुमति प्रकाशिका भजनावली के नाम से छपा था। कुमाऊँनी और हिन्दी की कविताओं का अगला संग्रह महिला धर्म प्रकाश, 1920 में छपा था जिसमें नारी महिमा, शिक्षा, पतिव्रत धर्म, ज्ञानोपदेश, भजन, आदि के साथ बाल विधवा के दुख पर भी कविताएँ हैं। एक अबोध बालिका जो अभी-अभी विधवा हुई है कैसे अपनी माँ को उलाहना देती है, बहुत ही करुणापूर्ण है-

तू आज किलै यो कूँछी, इजु हिकुरी-हिकुरी के रूँछी,
नी खेंच चरयो हा! टूटो, यो सुन्दर दाणो फूटो।
लटि छी बाटीं पोरूँ की, तू आज किलैकि ख्वऊँछीं?
नथ नी ख्वै, पीड़ नि हूँनी? सब ये कैं असल बतूँनी।
के बौज्यू ठुली बणूँनी? सब ठीक किलै नी कूँनी?


उनकी लेखनी से हर सामाजिक बुराई, कुरीति अथवा विडम्बना पर कविताएँ फूट निकलती थीं। मद्यपान, वेश्यावृत्ति, दुराचार, अप्राकृतिक यौनाचार, छुआछूत, अशिक्षा, पाखण्ड, शोषण, अमेल विवाह, बालविवाह, स्त्रियों पर अत्याचार, घूसखोरी, आदि पर उन्होंने चेतावनी और भर्त्सना की कई कविताएँ रचीं हैं। प्रकृति, मौसम, पेड़-पौधों, नदी-पहाड़ों, पशु-पक्षियों, कीट-पतंगों, जानवरों, तिथि-त्योहारों पर उन्होंने मार्मिक कविताएँ रचीं। घुघुत, शुक प्रति, तितली, मौन, जैंगणियाँ, धनपुतला, उपन, खटमल राज, बडुवा, मतवाला भ्रमर, बलदक उवाण, कांटक उवाण, व्याघ्रनख, दाँत, बणफूल, किरमड़, हिसालु, घिडारु, सिसण, सल्लदेव, शिलंग, काफल, विन्ध्य-हिमालय, गंगा-सिन्ध संवाद, गंगास्तुति, छीड़ेश्वर प्रातःकाल, रात्रि आगमन, शौक, ओ डोट्याल, घुघुती त्यार, भिटौली, फूलदेई, होली, दीवाली, बसन्त रूड़, आँखर सिखौ, अ आ सिख, पढ़ी लियौ, मातृभाषक प्रेम, विश्वनाथ की नगरी, अवधपुरी, लगभग सारी प्रकृति और सामाजिक राजनैतिक व जीवन की स्थितियाँ पर रचनाएँ कीं थीं। स्वदेशी आन्दोलन, गाँधी, कतुवा, विदेशी वस्रों का बहिष्कार, खादी, धन की महत्ता जैसी सामयिक बातों पर भी बेधड़क लेखनी चलाई थी।

1921 में उन्होंने वाग्धारा प्रदीप कोष के नाम से हिन्दी व्याकरण, रचना मुहावरों व कविता पर एक विविधता से भरा विलक्षण ग्रन्थ लिखा था जो अप्रकाशित ही रह गया। उनकी कुमाऊँनी व हिन्दी रचनाओं में विश्वयुद्ध, स्वतंत्रता-संग्राम, कवीन्द्र रवीन्द्र (शोक पंचक), पुस्तक-स्तव, सिफारिश देव, अकाल, जैसे विषयों के साथ-साथ दुख, शोक, हर्ष, व्यंग्य, आख्यान-उपाख्यान, नाटक, प्रार्थना, विनय, आरती, प्रबोधन, सम्वाद, आण, पहेली, प्रश्नोत्तरी, आदि 1937 से 1950 तक चार हस्तलिखित संग्रहों में प्राप्त हैं- काव्य सुधा (1937-1939), काव्य सुधा (1938-1942), कविता कुसुम (1939-1946) और कविता कुसुम (1943-1950)। उनकी कविताएँ सैकड़ों की संख्या में है और अधिकांश अप्रकाशित हैं। कुछ कविताएँ समय-समय पर ब्राह्मण, सर्वस्व, शक्ति, कुमाऊँ कुमुद, अचल, अल्मोड़ा समाचार, गजट अल्मोड़ा, स्वाधीन प्रजा और समता में प्रकाशित होती रहती थीं।

अल्मोड़ा में उनकी ससुराल थी और उनके श्वसुर थे सिद्धहस्त चित्रकार श्री गंगाराम जोशी। वहाँ के सभी तत्कालीन विद्वानों और कवियों से उनकी अच्छी जान-पहचान थी। सर्वश्री जीवनचन्द्र जोशी (नैनीताल बैंक के मैंनेजर और अचल के सम्पादक), श्यामारणदत्त पंत, शिवदत्त सती, गौरीदत्त पांडे, गौर्दा, रामदत्त पंत आदि के साथ उनकी अच्छी बनती थी। श्यामाचरणदत्त पंत की प्रसिद्ध रचना दातुलै की धार पर उन्होंने लिखा था दातुलै की धार, श्याम गीता सार। पढ़ी-सुणी हई जालो जगत उधार।।

अपने सेवाकाल में उनको भारी कष्ट ही झेलना पड़ा था। उनको सदा दूरस्थ स्कूलों में काम करने के लिए बाध्य किया गया था, जो कभी भी 30 से 50 किमी. से कम नहीं होते थे। कुछ स्थान तो 80 किमी, की दूरी पर थे। इन स्थानों में बाराकोट, मासी, तिखून, सौड़, पाली, चौंसार, धामस, जैंती, बिलखेत, आदि थे। घर के पास का निकटस्थ स्थान जो रिटायर होने के पहले उनको दिया गया था वह था जगथली जो उनके घर से मात्र 16 किमी, की दूरी पर था। लगता है उनकी सरलता, निर्भीकता और चापलूसी में अज्ञ होने के कारण और सम्भवतः उनकी सामयिक पत्रिकाओं में छपने वाली कविताओं और उनके विषयों ने उन्हें अधिकारी वर्ग में अप्रिय बना दिया था।

युवा बेटे की असामयिक मृत्यु और अफसरों की तानाशाही और दुर्व्यवहार ने उन्हें तोड़ डाला था। जब वे पुराऊँ पट्टी के सौड़ विद्यालय में थे तो उनको बरसात के समय बहुत परेशानी इस बात की होती थी कि बच्चे अपने घरों से बरसाती नालों को पार कर नहीं आ पाते थे और कभी-कभी तो पूरे महीने भर कोई बच्चा स्कूल नहीं आ पाता था। ऐसी दशा में उन्हें बच्चों की फीस अपनी गाँठ से भरनी पड़ती थी, अन्यथा स्कूल बन्द होने का भय था। समस्या के हल के लिए उपनिरीक्षक को दो पत्र लिखे थे। पहले में जुलाई-अगस्त, 1934 में सिर्फ आठ आने फीस वसूल हो पाने और दो माह की फीस अपनी गाँठ से भरने की बात के साथ ही बालकों के पास पाठ्यपुस्तकें व लिखने का सामान न होने, स्कूल की बाटिका का गाय-भैसों द्वारा नष्ट किए जाने बाबत लिखा था। जिसके उत्तर में आरएस रावत, उप निरीक्षक द्वारा आदेश दिया गया- पिछले सरक्यूलरों के मुताबिक जो इस विषय में भेजे गए थे काम किया जाए। पाठ्य-पुस्तकें और सामान बालकों के सरपरस्तों से खरीदवाया जाए।दूसरे पत्र में यह लिखे जाने पर कि स्कूल के चारों ओर नदियाँ हैं। बरसात में बड़ा उग्र रूप धारण कर लेती हैं। इस कारण से बालकों की उपस्थिति अत्यन्त न्यूनतम रहती है। अतः विनय है कि इन नदियों पर पुल बनवाने का प्रबन्ध करा दिया जाए। पुल के न होने से सदैव प्राणों का भय लगा रहता है। उन्हीं पूर्व अफसर ने टिप्पणी लिख भेजी गाँववालों से कहा जाए कि वे म्यूना पुल छोटी-छोटी नदियों के ऊपर लगवा दें। ये दोनों उदाहरण अफसरशाही के काम के ढंग को भली भाँति उजागर करते हैं।

विद्यार्थी समय पर फीस नहीं दे पाते थे और फीस समय पर न भर पाने के कारण उनके नाम कट जाते थे। 1939 में लिखी गई कविता यह तो बड़ी विपत्ति है में इसी लाचारी का मार्मिक वर्णन हैः

अर्द्ध मास तक फीस जमा हो, यी नियम जाहिर है।
जिस बालक से नही मिले वह, विद्यालय बाहर है।।
काट दिया जो नाम कहीं तो, अधिपति यह लिखते हैं।
क्या कारण है बाल कमी का? विनय नहीं सुनते हैं।।


उनको संग्राम में सक्रिय भाग लेने का सुयोग नहीं मिल पाया तो भी अपनी कविताएँ असहयोग, खादी विदेशी माल का बहिष्कार, स्वाधीनता, आदि पर लिखकर शक्ति, कुमाऊँ कुमुद, समता, आदि में एक कूर्माचलवासी के नाम से उन्होंने छपाई थीं। लेखनी के प्रति (1938) में वे कहते हैं-

लेखनी तू रुष्ट है या थक गई?
शासकों की बात से क्या डर गई?
निर्भीक होकर कर सदा निज काम को,
सिर कटा कर तू बढ़ा निज नाम को।।
निर्जीव है फिर डर कहो किसका रहा?
वीरता से वैरियों के गढ़ ढहा।
पत्रिकाएँ भारती की सुपुत्री तू बड़ी,
काट भारत की छिनक में दुख घड़ी।।


उनकी कुछ कविताएँ मार्मिक प्रसंगों, दुर्घटनाओं और अत्याचार के विरोध के स्वरों की है। ग्राम सुधार, साक्षरता सम्मेलन तथा मेलों में उनको कविता पाठ के लिए बुलाया जाता था। वे सरल भाषा में सारगर्भित कविताएँ सुनाते थे। बागेश्वर के मेले में सन 1939 में साक्षरता और ग्राम सुधार पर स्वरचित कविताएँ सुनाकर उन्होंने खूब प्रशस्ति पाई। कुछ खास कविताएँ जो लोगों को बहुत पसन्द थीं और बार-बार सुनाने का आग्रह होता था, अहा चहा अ, चिनि ऐ गै हो, सरधिय बामण, ठुल्लो कै थैं कूनी? कौछ्यो-भौछ्यो, नौव तार घर, आ ईजा आ ईजा लछमी, तू आज किलै यो कूँछी (विधवा विलाप), कुली पुकार और नौ रीत।

1938 के करीब गाँव के सीमान्त पर अपने एक मकान में उन्होंने अपनी विधवा दीदी सरस्वती के नाम पर पर एक संस्कृत की पाठशाला खुलवाई, जिसमें एक शास्त्री जी गाँव के ही कुछ युवकों को संस्कृत पढ़ाते थे। सभी विद्यार्थी मिडिल स्कूल पास कर चुके थे और दिन रात अमरकोश और लघुसिद्धान्त कौमुदी के पाठ गूँजते रहते थे। दुर्भाग्य से 1941 में विश्वयुद्ध के कारण यह बन्द हो गई।

दूसरे विश्व युद्ध और उसके बाद के सालों में अकाल और बढ़ती मंहगाई के कारण जीवनयापन कितना कठिन हो गया था यह उनकी कविताओं में बड़े ही करुणा भरे रूप में झलकता है। सेवा से मुक्ति पाने के बाद ही उन्होंने गाँव में रहने का अवसर पाया था। तब उनका अधिकांश समय पुस्तकों के अध्ययन, उनकी सार-सम्भाल और बागवानी में बीतता था। उन्हें जड़ी बूटियों का ज्ञान था। इनके उपयोग पर योग सग्रह नाम से अपने अनुभव भी लिखे हैं।

उनके विशेष शौक थे, पुस्तकों का पठन-पाठन, जिल्दसाजी, बागवानी, साहित्य-चर्चा, कविता रचना, सुपात्र को शिक्षा देना तथा जरूरतमन्दों की सहायता करना। पाखण्ड और मिथ्याचरण से उनको चिढ़ थी।

संग्रामी शेरसिंह कार्की शेर से उनकी बहुत गहरी छनती थी। कार्की बेनीनाग अपर प्राइमरी स्कूल के हेडमास्टर थे। वे कुँवारे थे, सूत कातते थे और उनका सादा जीवन देश सेवा के लिए समर्पित था। वे गाँधीवादी थे। स्वयं भी एक हस्तलिखित पत्रिका सखा का सम्पादन करते थे। जब बचीराम उनके स्कूल में आते उनसे कविता सुनाने का अनुरोध अवश्य किया जाता था।

उनकी रचनाएँ स्थानीय पत्रिकाओं में छपती थीं किन्तु उनका कार्य क्षेत्र शहर से दूर गाँवों में होने के कारण उनकी अधिकांश रचनाएँ अप्रकाशित ही रह गई थीं। कुमाऊँ के साहित्य पर प्रकाश डालने वाले लेखकों, जैसे डॉ. त्रिलोचन पांडे, यदि शिवानी ने अचल के सारे अंकों को देखा होता तो उनकी प्रकाशित 29 रचनाओं में सार्थक कविताएँ, व्यंग्य, नाटक, पहेलियाँ और आँण अवश्य दिखाई देती। द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण सम्पादक श्री जीवनचन्द्र जोशी को दिसम्बर 1939- जनवरी 1940 के अंक के साथ अचल को बन्द करना पड़ा था। इस अंक में श्री बचीराम पंत की भी एक कविता थी- तो सम्पादकीय विचार में श्री जोशी ने लिखा था श्रीश्यामाचरणदत्त, श्री बचीराम (कृष्ण) पंत, श्री भोलादत्त, श्री बालादत्त तिवाड़ी, श्री भैरवदत्त जोशी, आदि लै जो सरपूर्ण काव्य सरिता प्रवाहित करी छ, वीकी हम भूरि 2 प्रशंसा करनूं। डॉ. भवानीदत्त उप्रेती ने उनके साहित्य का विशद विवेचन कर कहा कि गुमानी के बाद उनकी रचनाओं का क्षेत्र और विस्तार सब से बढ़ कर है।

उनकी भाषा सरल, सटीक तथा समर्थ है। बात को संक्षेप में रखने और कसे सम्वादों ने उनके नाटकों या व्यंग्यों को चुटीला और प्रभावोत्पादक बनाया है। प्रारम्भिक कविताओं के छन्द पारम्पिरक हैं और बाद की रचनाओं में दोपदे, तिपदे, चौपदे, पाँचपदे और कहीं-कहीं उनेक मिश्रण तथा अतुकान्त भी हैं। विषय समसामयिक, पौराणिक हैं तथा ऐतिहासिक भी। गरीब, अमीर, सज्जन, दुर्जन, अत्याचारी, वंचक, समर्थ और निरुपाय सभी पर लिखा। वे निर्भीक, सत्यप्रिय और स्पष्टवादी थे। वाकपटुता, नैपुण्य और चापलूसी करने के गुण उनमें नहीं थे।

वे जीवन भर कविता रचते रहे। मृत्यु के केवल एक सप्ताह पहले एक कविता बहे प्रेम की धारा लिखी थी। मधुमेह से ग्रस्त होने पर उन्होंने व्यंग्य में बहे पीप की धारा भी लिखीं थीं जो उनकी अन्तिम रचना थीं। 18 अक्टूबर 1958 को दशहरे की सप्तमी की शाम को उनका स्वर्गवास हो गया था। अन्तिम समय में भी उनके मुख पर अपने ही एक भजन भज लियौ सीताराम की पक्तियाँ थी। अपने पीछे वे पत्नी, चार बेटों, एक बेटी और नाती पोतों को छोड़ गए थे।
 

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