सिमटती दुनिया वन्य जीवों की त्रासदी बना इंसान

16 Oct 2012
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जन्म से खूंखार होने के बाद भी बाघ इंसान पर डर के कारण हमला नहीं करता। यही कारण है कि वह इंसानों से दूर रहकर घने जंगलों में छुप कर रहता है। मानव पर हमला करने के लिए परिस्थितियां विवश करती हैं। छोटे-मोटे स्वार्थों के कारण न केवल जंगल काटे गए बल्कि जंगली जानवरों का भरपूर शिकार किया गया। जब तक भरपूर मात्रा में जंगल रहे तब तक वन्यजीव गांव या शहर की ओर रूख नहीं करते थे। लेकिन मनुष्य ने जब उनके ठिकानों पर हमला बोल दिया तो वे मजबूर होकर इधर-उधर भटकने लगे। केंद्र सरकार बाघों के संरक्षण के लिए दो दशक पूर्व से ‘प्रोजेक्ट टाइगर’ चला रही है। किंतु प्रोजेक्ट टाइगर यूं सफल नहीं कहा जा सकता है क्योंकि राजस्थान का सारिस्का नेशनल पार्क बाघों से खाली हो गया है। पन्ना टाइगर रिजर्व एवं मध्य प्रदेश के रणथम्भौर नेशनल पार्क के बाघों की दशा दयनीय हो चली है। उत्तर प्रदेश के दुधवा नेशनल पार्क में बाघों की संख्या आंकड़ेबाजी की भेट चढ़ी हुई है। इसके बाद भी देश के पूर्व वन एवं पर्यावरण राज्यमंत्री जयराम रमेश ने विगत माह घोषणा की थी कि देश में 1411 से बढ़कर बाघों की संख्या 1700 से ऊपर हो गई है। इसमें पिछली गणना में सुंदर वन को शामिल नहीं किया गया था जबकि इस बार सुंदर बन के बाघ शामिल हैं। फिर बाघों की संख्या कैसे बढ़ गई यह स्वयं में विचारणीय प्रश्न है। आंकड़े भले ही देश में बाघों की संख्या बढ़ा रहे हों किंतु हकीकत एकदम से विपरीत है। भारत में बाघों की दुनिया सिमटती ही जा रही है। इसका प्रमुख कारण है कि पिछले कुछेक सालों में मानव और बाघों के बीच शुरू हुआ संघर्ष।

बढ़ती आबादी के साथ प्राकृतिक संपदा एवं जंगलों का दोहन और अनियोजित विकास वनराज को अपनी सल्तनत छोड़ने के लिए विवश होना पड़ रहा है। उत्तर प्रदेश के पूरे तराई क्षेत्र का जंगल हो अथवा उत्तरांचल का वनक्षेत्र हो या फिर मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा आदि प्रदेशों के जंगल हों उसमें से बाहर निकलने वाले बाघ चारों तरफ अक्सर अपना आतंक फैलाते रहते हैं और बेकसूर ग्रामीण उनका निवाला बन रहे हैं। बाघ और मानव के बीच संघर्ष क्यों बढ़ रहा है? और बाघ जंगल के बाहर निकलने के लिए क्यों विवश हैं? इस विकट समस्या का समय रहते समाधान किया जाना आवश्यक है। वैसे भी पूरे विश्व में बाघों की दुनिया सिमटती जा रही है। ऐसी स्थिति में भारतीय वन क्षेत्र के बाहर आने वाले बाघों को गोली का निशाना बनाया जाता रहा तो वन दिन भी दूर नहीं होगा जब भारत की धरा से बाघ विलुप्त हो जाएंगे।

उत्तर प्रदेश के जिला खीरी एवं पीलीभीत के जंगलों से बाहर निकले बाघों ने विगत साल जिला खीरी, पीलीभीत, शाहजहांपुर, सीतापुर, बाराबंकी, लखनऊ, फैजाबाद में करीब दो दर्जन व्यक्तियों को अपना शिकार बनाया था। इसमें मौत का वारंट जारी करके दो बाघों को गोली मारी गयी थी। जबकि एक बाघ को पकड़कर लखनऊ प्राणी उद्यान भेज दिया गया था। पिछले छह माह के भीतर उत्तरांचल में भी जंगल से बाहर आकर मानवभक्षी बनने वाले दो बाघों को गोली मारी जा चुकी है एवं आधा दर्जन बाघों के शव मिल चुके हैं। देहरादून के पास मानवभक्षी एक बेजुबान तेंदुआ को गुस्साई भीड़ ने आग में जिंदा जलाकर बहिशयाना ढंग से मौत के घाट उतार दिया था। इसे हम इंसानों के लिए त्रासदी कह सकते हैं लेकिन जितनी त्रासदी यह इंसानों के लिए है उससे अधिक त्रासदी उन बाघों के लिए जो इंसानों का शिकार कर रहे हैं। बाघ जन्म से हिंसक और खूंखार तो होता है, लेकिन मानवभक्षी नहीं होता। इंसानों से डरने वाले वनराज बाघ को मानवजनित अथवा प्राकृतिक परिस्थितियां मानव पर हमला करने को विवश करती हैं।

उत्तर प्रदेश के दुधवा टाइगर रिजर्व परिक्षेत्र के साथ किशनपुर वनपशु विहार, पीलीभीत और शाहजहांपुर के जंगल आपस में सटे हैं। गांवों की बस्तियां और कृषि भूमि जंगल के समीप हैं। इसी प्रकार दुधवा नेशनल पार्क तथा कतरनिया वन्यजीव प्रभाग का वनक्षेत्र भारत-नेपाल की अंतरराष्ट्रीय खुली सीमा से सटा है साथ ही आसपास जंगल के किनारे तमाम गांव आबाद हैं। जिससे सीमा पर नेपाली नागरिकों के साथ ही भारतीय क्षेत्र में मानव आबादी का दबाव जंगलों पर बढ़ता ही जा रहा है। इसके चलते विभिन्न परितंत्रों के बीच एक ऐसा त्रिकोण बनता है जहां ग्रामवासियों और वनपशुओं को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जाना ही पड़ता है। भौगोलिक परिस्थितियों के चलते बनने वाला त्रिकोण परिक्षेत्र दुर्घटना जोन बन जाते हैं। सन् 2007 में किशनपुर परिक्षेत्र में आबाद गांवों में आधा दर्जन मानव हत्याएं करने वाली बाघिन को मृत्यु दंड देकर गोली मार दी गयी थी। इसके बाद नवंबर 2008 में पीलीभीत के जंगल से निकला बाघ खीरी, शाहजहांपुर, सीतापुर, बाराबंकी होते हुए सूबे की राजधानी लखनऊ की सीमा तक पहुंच गया था।

इस दौरान बाघ ने एक दर्जन ग्रामीणों का शिकार किया था, बाद में इस आतंकी बाघ को नरभक्षी घोषित करके फैजाबाद के पास गोली मारकर मौत दे दी गयी थी। सन् 2009 के माह जनवरी में किशनपुर एवं नार्थ खीरी फारेस्ट डिवीजन के क्षेत्र में जंगल से बाहर आये बाघ ने चार मानव हत्याएं करने के साथ ही कई मवेशियों का शिकार भी किया। इस पर काफी मशक्कत के बाद बाघ को पिंजरे में कैद कर लखनऊ प्राणी उद्यान भेज दिया गया था। सन् 2010 पीलीभीत के जंगल से निकले बाघ द्वारा खीरी, शाहजहांपुर में आठ ग्रामीण मौत के घाट उतारे गए थे। वन विभाग ने प्रयास करके बाघ को पिंजरे में कैद करके लखनऊ प्राणी उद्यान में भेज दिया था।

मानव जाति के शिकार होते बाघमानव जाति के शिकार होते बाघजन्म से खूंखार होने के बाद भी विशेषज्ञों की राय में बाघ इंसान पर डर के कारण हमला नहीं करता। यही कारण है कि वह इंसानों से दूर रहकर घने जंगलों में छुप कर रहता है। मानव पर हमला करने के लिए परिस्थितियां विवश करती हैं। बाघ अथवा वन्यजीव जंगल से क्यों निकलते हैं इसके लिए प्राकृतिक एवं मानवजनित कई कारण हैं। इनमें छोटे-मोटे स्वार्थों के कारण न केवल जंगल काटे गए बल्कि जंगली जानवरों का भरपूर शिकार किया गया। आज भी नेशनल पार्क का आरक्षित वनक्षेत्र हो या संरक्षित जंगल हो उनमें लगातार अवैध शिकार जारी है। यही कारण है कि वन्यजीवों की तमाम प्रजातियां संकटापन्न होकर विलुप्त होने की कगार पर हैं। इस बात का अभी अंदेशा भर जताया जा सकता है कि इस इलाके में बाघों की संख्या बढ़ने पर उनके लिए भोजन का संकट आया हो। असामान्य व्यवहार आसपास के लोगों के लिए खतरे की घंटी हो सकता है। मगर इससे भी बड़ा खतरा इस बात का है कि कहीं मनुष्यों और जंगली जानवर के बीच अपने को जिंदा रखने के लिए खाने की जद्दोजहद नए सिरे से किसी पारिस्थितिकीय असंतुलन को न पैदा कर दे।

जब तक भरपूर मात्रा में जंगल रहे तब तक वन्यजीव गांव या शहर की ओर रूख नहीं करते थे। लेकिन मनुष्य ने जब उनके ठिकानों पर हमला बोल दिया तो वे मजबूर होकर इधर-उधर भटकने को मजबूर हो गए हैं। पूर्व केंद्रीय वन एवं पर्यावरण राज्यमंत्री जयराम रमेश ने हाल ही में चार साल के बजाय एक साल में बाघों की गणना करने की बात कही है उनका मानना है कि इससे बाघों की सही ढंग से निगरानी हो सकेगी, सर्वेक्षण की दृष्टी से यह बात ठीक है। किंतु सरकार इस तरह की कोई भी दीर्घकालिक योजना बनाने में असफल है जिसमें वन्यजीव जंगल के बाहर न आए। इधर प्राकृतिक कारणों से जंगल के भीतर चारागाह भी सिमट गए अथवा वन विभाग के कर्मचारियों की निजस्वार्थपरता से हुए कुप्रबंधन के कारण चारागाह ऊंची घास के मैदानों में बदल गए इससे जंगल में चारा की कमी हो गई है। परिणामस्वरूप वनस्पति आहारी वन्यजीव चारा की तलाश में जंगल के बाहर आने को विवश हैं तो अपनी भूख शांत करने के लिए वनराज बाघ भी उनके साथ पीछे-पीछे बाहर आकर आसान शिकार की प्रत्याशा में खेतों को अस्थाई शरणगाह बना लेते हैं। परिणाम सह अस्तित्व के बीच मानव तथा वन्यजीवों के बीच संघर्ष बढ़ जाता है।

इसको रोकने के लिए अब जरूरी हो गया है कि वन्यजीवों के अवैध शिकार पर सख्ती से रोक लगाई जाये तथा जंगल के भीतर अनुपयोगी हो रहे चारागाहों को पुराना स्वरूप दिया जाए ताकि वन्यजीव चारे के लिए जंगल के बाहर न आयें। इसके अतिरिक्त बाघों के प्राकृतिक वासस्थलों में मानव की बढ़ती घुसपैठ को रोका जाये साथ ही ऐसे भी कारगर प्रयास किये जायें जिससे मानव एवं वन्यजीव एक दूसरे को प्रभावित किये बिना रह सकें। ऐसा न किए जाने की स्थिति में परिणाम घातक ही निकलते रहेंगे, जिसमें मानव की अपेक्षा सर्वाधिक नुकसान बाघों के हिस्से में ही आएगा।

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