सिंचाई : अपर्याप्त बुनियादी ढाँचा

10 Mar 2015
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जितनी सिंचाई क्षमता का उपयोग किया जा सकता था, उसके करीब 73.5 प्रतिशत उपयोग के साधन तैयार कर लिए गए हैं। परन्तु, सृजित क्षमता के काफी बड़े भाग का उपयोग नहीं हो रहा है उसके कई कारण हो सकते हैं। इनमें सबसे उल्लेखनीय कारण सिंचाई कमाण्ड क्षेत्र में अन्तिम छोर तक पानी पहुँचाने की प्रणाली का अनुपयुक्त और अपर्याप्त होना है। इसके अलावा, सिंचाई साधनों का खराब रख-रखाव और परिचालन भी प्रमुख कारण है।भारत में नियोजित विकास के युग की शुरुआत के साथ ही सिंचाई की बुनियादी सुविधाओं का विस्तार होता आ रहा है। परन्तु इस विस्तार की गति किंचित अस्थिर रही है। पहली कुछ पंचवर्षीय योजनाओं के दौरान कृषि उत्पादन में वृद्धि के साधन के तौर पर सिंचाई को बढ़ावा देने पर जो जोर दिया जा रहा था, वह धीरे-धीरे धीमा पड़ गया, विशेषकर तब जब अपर्याप्त अनाज की चिन्ताएँ दूर हो चली थीं। सिंचाई के लिए राज्यों के वार्षिक बजटीय आवण्टन या तो कम होते गए या, कुछ मामलों में वास्तविक मूल्यानुसार ठहर से गए थे। नतीजा यह हुआ कि सिंचाई के बुनियादी ढाँचे में विकास की दर कम हो गई। इस प्रवृत्ति को अब उलटने का प्रयास किया जा रहा है।

पानी के सभी उपलब्ध स्रोतों से देश की कुल सिंचाई क्षमता, जो पहले 11.35 करोड़ हेक्टेयर की बताई जाती थी अब 13.99 करोड़ हेक्टेयर तक आँकी गई है। इनमें से करीब 5.80 करोड़ हेक्टेयर की सिंचाई क्षमता बड़ी और मध्यम सिंचाई परियोजनाओं के जरिये सृजित की जा सकती है। इन पर मुख्यतः सरकारी धन खर्च होता है। इसके अलावा करीब 80 करोड़ 10 लाख हेक्टेयर की क्षमता का सृजन लघु सिंचाई परियोजनाओं के माध्यम से हो सकता है। इनके लिए अधिकांश निवेश निजी स्रोतों से होता है।

अब तक देश में विभिन्न प्रकार के बाँधों, बराजों, सिंचाई नेटवर्क और अन्य इसी तरह के साधनों से सिंचाई का बुनियादी ढाँचा काफी हद तक विकसित किया जा चुका है। इन सिंचाई साधनों से लगभग 2 खरब घनमीटर पानी इकट्ठा कर सिंचाई और जल विद्युत सहित अन्य उद्देश्यों के लिए उपयोग किया जा सकता है।

वास्तविक सिंचाई क्षमता जो 1950-51 में 2 करोड़ 26 लाख हेक्टेयर थी, बढ़कर अब 10 करोड़ 28 लाख हेक्टेयर हो चुकी है। इनमें से करीब 4 करोड़ 24 लाख हेक्टेयर सिंचाई क्षमता का सृजन बड़ी और मध्यम सिंचाई परियोजनाओं के माध्यम से किया गया है और 6 करोड़ 4 लाख हेक्टेयर से अधिक की क्षमता का सृजन लघु सिंचाई परियोजनाओं के जरिये किया गया है। इस प्रकार, जितनी सिंचाई क्षमता का उपयोग किया जा सकता था, उसके करीब 73.5 प्रतिशत उपयोग के साधन तैयार कर लिए गए हैं। परन्तु, सृजित क्षमता के काफी बड़े भाग का या तो उपयोग नहीं हो रहा है अथवा भली-भाँति उपयोग नहीं हो रहा है। उसके कई कारण हो सकते हैं। इनमें सबसे उल्लेखनीय कारण सिंचाई कमाण्ड क्षेत्र में अन्तिम छोर तक पानी पहुँचाने की प्रणाली का अनुपयुक्त और अपर्याप्त होना है। इसके अलावा, सिंचाई साधनों का खराब रख-रखाव और परिचालन भी प्रमुख कारण है।

सरकारी अनुमानों के अनुसार सृजित सिंचाई क्षमता का वास्तविक उपयोग 8 करोड़ 72 लाख हेक्टेयर के आसपास हो रहा है। इसमें से 3 करोड़ 44 लाख हेक्टेयर बड़ी और मझोली परियोजनाओं के जरिये होता है, जबकि लघु सिंचाई क्षेत्र में 5 करोड़ 28 लाख हेक्टेयर में सिंचाई होती है। इसका अर्थ है कि भारी निवेश से सृजित तमाम सिंचाई परियोजनाओं की कुल क्षमता का 85 प्रतिशत से भी कम का लाभ उठाया जा रहा है; शेष सब बेकार और व्यर्थ पड़ा है, उनका उपयोग नहीं हो रहा है।

सिंचाई के बुनियादी ढाँचे के विशेषकर 1980 के दशक से, विस्तार में आया धीमापन चिन्ता का मुख्य कारण है। अस्सी के दशक के उत्तरार्ध से नब्बे के दशक के पूर्वार्ध के बीच सिंचित क्षेत्र में वृद्धि की दर 20 लाख हेक्टेयर प्रतिवर्ष से घटकर 5 लाख हेक्टेयर प्रतिवर्ष पर आ गई। अतिरिक्त क्षमता के निर्माण में आई इस मन्दी को सरकार ने भी वर्ष 2007-08 की आर्थिक समीक्षा में स्वीकार किया है। इसमें कहा गया है, “अतिरिक्त सिंचाई क्षमता के निर्माण की गति जो 1950-51 से लेकर 1989-90 के दौरान लगभग 3 प्रतिशत प्रतिवर्ष थी, वह आठवीं, नौवीं और दसवीं पंचवर्षीय योजनावधि में गिरकर क्रमशः 1.2 प्रतिशत, 1.7 प्रतिशत और 1.8 प्रतिशत रह गई।”

इसी तरह की गिरावट निर्मित सिंचाई क्षमता के उपयोग की दर में भी देखी गई। यद्यपि नौवीं और दसवीं योजनावधि में इस मामले में कुछ सुधार देखा गया। इस प्रवृत्ति के बारे में 2007-08 की आर्थिक समीक्षा में कहा गया है, “निर्मित सिंचाई क्षमता के उपयोग में वृद्धि की दर नौवीं योजना के दौरान गिरकर 1 प्रतिशत हो गई थी, परन्तु दसवीं योजनावधि में इसमें सुधार आया और यह दर बढ़कर 1.5 प्रतिशत हो गई। उपयोग की औसत दर, सिंचाई क्षमता में वार्षिक वृद्धि के औसत से कम रही, जिसका परिणाम यह हुआ कि कुछ सिंचित सिंचाई क्षमता के उपयोग में निरन्तर कमी आती गई। इससे सार्वजनिक कोष का न केवल दुरुपयोग होता है, बल्कि सिंचित क्षेत्र से होने वाली आय भी प्रभावित होती है।”

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