सिंधु घाटीः पानी पर टिकी सभ्यता

23 Jul 2010
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अफगानिस्तान में काम करने वाले फ्रांसीसी पुरातत्वविदों ने रूसी सीमा से लगे बैक्ट्रिया प्रांत में हड़प्पा कालीन नगर के अवशेष पाए। ऐ-खानम क्षेत्र में उन्हें 25-30 किमी. लंबी और 30 मी चौड़ी नहरें मिलीं। इन नहरों का पता पहले नक्शे से लगाया गया और उनका काल निर्धारण पास के कांस्य युग के अवशेषों से किया गया। ये नहरें तीन सहस्त्राब्दी ई.पू. की थीं। नहरों के काल्पनिक मार्ग के आधार पर खुदाई की गई जहां से ऐसे बर्तन मिले जो हड़प्पा काल की पुष्टि करते हैं। सिंचाई की यह तकनीक या तो स्थानीय स्तर पर विकसित हुई या भारत से उत्तर की ओर जाने वाले हड़प्पा कालीन निवासियों द्वारा लाई गई।

हड़प्पा के लोगों ने पता नहीं क्यों, अपने प्रभाव क्षेत्र की बाहरी सीमाओं पर सिंचाई की उत्तम व्यवस्था की थी जबकि भीतर के इलाकों में वैसी व्यवस्था के प्रमाण नहीं मिलते। शायद प्रमाण इसलिए नहीं मिले की पुरातत्वविदों ने मोहनजोदड़ों और हड़प्पा जैसे समृद्ध शहरी केंद्रों पर ध्यान केंद्रित रखा और कुछ ग्रामीण बस्तियों की अनदेखी की। और फिर समतल इलाकों की तुलना में पहाड़ी क्षेत्रों में बांध बनाना ज्यादा आसान है। सिंधु जैसी नदियों में साल में दो बार बाढ़ आ जाती थी जिससे काफी मिट्टी और पानी जमा हो जाता था और सिंचाई की कृत्रिम व्यवस्था की जरूरत नहीं रह जाती थी।

कुएं हड़प्पा सभ्यता के विशेष साधन थे और अधिकतर घरों में पाए गए। मोहनजोदड़ो के हाल के पुरातात्विक सर्वेक्षण से पता चला है कि हरेक तीसरे घर में कुआं था। वहां 700 से ज्यादा कुएं पाए गए। वास्तव में कुएं हड़प्पा कालीन सभ्यता की ही देन हैं। हाल में ओमान में भी कुएं पाए गए हैं जो हड़प्पा सभ्यता के सम्पर्क में आए थे।

क्या हड़प्पा के लोग कुओं से सिंचाई करते थे? कराची के पास की बस्ती अल्लादीनों में खुदाई से पता चला है कि वहां एक कुआं था जिससे सिंचाई होती होगी। इसके दक्षिणी ओर बाथटब जैसा एक बड़ा भांड पाया गया। कुआं आसपास के पत्थर बिछे सतह से करीब सवा मीटर ऊंचा था। खुदाई करने वाले का कहना था कि उस समय के कुओं का ब्यास इसलिए छोटा रखा जाता था कि पानी की सतह ऊपर तक उठकर अर्टिजन कुओं की तरह बहने लगे। लगता है कुएं को जानबुझकर बीच में ऊंची जगह पर बनाया गया था ताकि इसका पानी आसानी से चारों तरफ के खेतों में फैल सके। अल्लादिनों मलिर नदी से पांच मीटर उंचाई पर है इसलिए खेतों के लिए पानी को ऊपर उठाने की जरूरत थी। खुदाई करवाने वाले ने लिखा है, “इसे देखकर मुझे विश्वास होता है कि कुएं से सिंचाई संभव है। अल्लादीनों को देखकर हड़प्पा के लोगों को कुओं से सिंचाई के आविष्कार का श्रेय दिया जा सकता है।”

हडप्पा में कुओं का चलन ई.पू. तीसरी सहस्त्राब्दी के मध्य से शुरू हुआ, क्योकि हड़प्पा सभ्यता का श्रेष्ठ काल ई.पू. 2600 से शुरू हुआ था। इसलिए इन कुओं को अपनी तरह का प्राचीनतम कुआं कहा जा सकता है। अगर सुमेर में मिली एक प्राचीन मुहर में बनी कुएं की आकृति को छोड़ दें, जो कुंड जैसा दिखता है, तो कुओं का प्राचीनतम प्रमाण मिस्र में मिलता है जहां इनका जिक्र ई.पू. 2000 के शिलालेखों में है । ये भी कुंड होंगे, कुएं नहीं: क्योंकि उनका आकार छोटा था। इसलिए लगता है कि पानी के लिए कुओं की खुदाई का आविष्कार हड़प्पा काल में ही हुआ। यह उल्लेखनीय है कि हाल के सूखे के दौरान कच्छ में धौलावीरा के एक कुएं में पूरे गांव के उपयोग के लिए पर्याप्त पानी मौजूद था। हड़प्पा काल के दूसरे स्थानों से भी दिलचस्प प्रमाण मिले हैं। इतिहासज्ञों का मानना है कि हड़प्पा के लोगों के सिंचाई की कोई व्यवस्था की थी, क्योंकि वे गेहूं और जौ जैसी शरदकालीन फसलें उगाते थे। इसके लिए नदियों से नहीं, कुओं से आता था। कुछ विद्वानों के मुताबिक हड़प्पा के लोग नदियों का पानी लाने के लिए शायद गड्ढे खोदते थे। आम्री संस्कृति के काई बुथी में पुरातत्वविदों ने पाया कि “तैयार खेतों में झरने का पानी पहुंचाने की व्यवस्था की गई थी जैसा सिंधु के निचले क्षेत्रों में नदी तट के मैदानी इलाकों में किया गया था।” इन क्षेत्रों में नदी का पानी छोटे-छोटे उथले गड्ढों के जरिए खेतों तक पहुंचाया जाता था। सिंध के किरथर-कोहिस्तान क्षेत्र में नुका में कृत्रिम सिंचाई की वैसी ही व्यवस्था के प्रमाण मिले जैसी व्यवस्था बलूचिस्तान में गबरबंधों के रूप में की गई थी।

लेकिन प्रागैतिहासिक भारत में कृत्रिम सिंचाई व्यवस्था के सबसे विश्वसनीय प्रमाण पुणे के पास के इनाम गांव में मिलते हैं। वहां खुदाई से हड़प्पा बाद की तीन सभ्यताओं 1600-1400 ई.पू. से 1000-700 ई.पू. का पता चलता है। लोग खेती, मवेशी पालन, शिकार से और मछली मारकर जीवनयापन करते थे। वे जौ, मसूर और मटर उगाते थे। तीन सभ्यताओं में बीच की 1400-1000 ई.पू. वाली सभ्यता सबसे समृद्ध थी, शायद अनुकूल जलवायु के कारण राजस्थान में अन्न परागों पर आधारित अध्ययन से पता चलता है कि ई.पू. दूसरी सहस्त्राब्दी के उत्तरार्ध में पश्चिम भारत की जलवायु बरसाती हो गई थी। इनाम गांव में चार तरह के अनाज उपजाए जाते थे जिनमें जौ प्रमुख था। गेहूं सभ्यता के दूसरे चरण में आया। इससे भी पता चलता है कि जलवायु नम होती गई, क्योंकि गेहूं के लिए शरदकालीन वर्षा आवश्यक होती है। इनाम गांव में खुदाई से पत्थरों का ढेर निकला जिन्हें गारे से चिनकर बड़ी दीवार बनाई गई थी। इस दीवार के केवल आठ टुकड़े बचे थे। संभव है, इसका ऊपरी हिस्सा मिट्टी के गारे से बना हो। अभी यह दीवार 240 मीटर लंबी है और औसतन 3 मीटर मोटी। आसपास का क्षेत्र निचला इलाका है। इलाके की उल्लेखनीय बात यह है कि दीवार के साथ-साथ गहरी भूरी मिट्टी का क्षेत्र दिखता है। इस क्षेत्र की गहरी हरियाली इस क्षेत्र को बाकी क्षेत्र से अलग दिखाती है। हरित पट्टी संभवतः नहर और दीवार शायद उसका तटबंध थी। लगता है, यह नहर बेकार हो गई, क्योंकि इसमें आने वाले पानी के साथ आई मिट्टी इसमें भर गई। तटबंध के उत्तर में झरना अभी भी है। लगता है, बरसात में बस्ती को बचाने के लिए इसका पानी नहर में मोड़ दिया जाता था। इस मोड़े गए पानी का इस्तेमाल भी नहर के पास के खेतों की सिंचाई में किया जाता होगा। तब ज्यादा नियमित बारिश के कारण झरने में पानी ज्यादा आता होगा और आज के मुकाबले ज्यादा पानी रहता होगा और इससे गेहूं की उपज होती होगी। किसानों ने तटबंध तोड़ दिया। लेकिन ऊपर से लिए गए चित्रों से पता चलता है कि सिंचाई नहर थी और इससे इस मान्यता को बल मिलता है कि नहर को झरने से पानी मिलता था।

सेंटर फॉर साइंस एंड इनवायरोनमेंट की पुस्तक “बूंदों की संस्कृति” से साभार

 

 

 

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