सिंधु का विषाद

26 Feb 2011
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हिमालय के उस पार, पृथ्वी के इस मानदंड के लगभग बीच में कैलाशनाथ जी कि आंखों के नीचे चिर-हिमाच्छादित पुण्यवान प्रदेश है, जिसके छोटे से दायरे में आर्यावर्त की चार लोकमाताओं का उद्गम-स्थान है। उस पार और इस पार का विचार यदि न करें, तो हम कह सकते हैं कि उत्तर भारत की लगभग सभी नदियां यहां से झरती हैं।

हिमालय हिन्दुस्तान का ही है, और किसी देश का नहीं, मानो यह सिद्ध करने के लिए हिमालय के उत्तर की ओर बहने वाले पानी की एक-एक बूंद इकट्ठा करके हिमालय के दोनों छोरों से घूमकर उन्हें हिन्द महासागर तक पहुंचाने का काम सिंधु और ब्रह्मपुत्र, दोनों नद अखंड रुप से करते हैं। ये दो नद ऐसे लगते हैं, मानो श्री कैलाशनाथ जी ने भारत वर्ष को अपनी भुजाओं में लेने के लिए दो कारुण्य बाहु फैलाये हों। हिमालय की रुकावट मानों सहन न होती हो इस तरह सतलुज और घाघरा हिमालय की गोद में से सीधा रास्ता निकाल कर मानसरोवर का जल भारतवर्ष के दो बड़े प्रांतों को पिलाने लगती हैं। जब कि गंगा, यमुना और और उनकी असंख्य बहनें पिता का लिहाज रखकर इस ओर रहते हुए वहीं काम करती हैं। पंजाब की पांच नदियां और संयुक्तप्रांत की (उत्तर प्रदेश की) पांच नदियां मिलकर भारतवर्ष की समृद्धि को दस गुना बढ़ा देती हैं। ये दसों नदियां भारतीय हैं। केवल सिंधु और ब्रह्मपुत्र को अति-भारतीय कह सकते हैं।

भारतवासी गंगा मैया को प्राप्त करके सिंधु को मानों भूल ही गये हैं। सिंधु के तट पर आर्यों के धर्म प्रसिद्ध तीर्थ हैं ही नहीं। वैदिक देवताओं के देवता इन्द्र को जिस प्रकार हम भूल गये हैं, उसी प्रकार सप्त-सिंधु में मुख्य सिंधु नदी को भी मानो हम भूल ही गये हैं। दक्षिण और पूर्व की ओर महासाम्राज्यों की स्थापना करके प्राचीन आर्य वायव्य दिशा के प्रति कुछ उदासीन से बने और इस कारण हमेशा के लिए खतरे में आ पड़े। उत्तर की ओर तो हिमवान की रक्षा थी ही। पश्चिम की ओर ठेठ अंदर तक राजपूताने की मरुभूमि और राजपूत तथा डोगरा जाति के शौर्य से पूरी रक्षा मिलती थी। उससे बाहर वेगवती सिंधु रक्षा कर रही थी। इससे आगे करतार (खिरथर) से लेकर हिन्दूकुश तक प्रचंड पर्वतनाला की रक्षा थी। पहाड़ी परोपनिसदी (अफगान) लोगों की स्वातंत्र्य-प्रियता भी विदेशियों को इस ओर आने नहीं देती थी। मगर जहां देशवासी ही उदासीन हो गये, वहां पहाड़ी दीवारें और नदियां कितनी रक्षा कर सकती हैं? परोपनिसदी लोगों में यवन मिल गये और बाल्हीक के पास हिन्दुस्तान की जो शास्त्रीय फौजी सीमा थी, वह खिसकती खिसकती अटक तक आकर अटक गई। और अटकने भी विदेशियों को अंदर आने से अटकाने के बजाय भारतवासियों को बाहर जाने से ही अटकाया! रानी सेमी-रामिस हिन्दुस्तान आने से नहीं अटकी। फारस के सम्राट दरायस पंजाब और सिंधु से सुवर्णकर भार लेने से न अटके। युएची तथा हूण लोग हिन्दुस्तान आने से न अटके। सिकंदर पांच नदियों को पार करने से न अटका। महमूद या बाबर को भी यह अटक न अटका सकी। हमें मालूम होना चाहिये था कि जिस नदी ने काबुल नदी के पानी का स्वीकार किया वह पश्चिम की ओर से आने वाले लोगों को नहीं अटकायेगी!

पश्चिम तिब्बत में कैलाश की तलहटी में सिंधु का उद्गम है। वहां से सीधी रेखा में वायव्य की ओर वह दौड़ती है, क्योंकि अंत में उसे नैऋत्य की ओर जाना है। कश्मीर में घुसकर लेह की फौजी छावनी की मुलाकात लेती हुई काराकोरम पहाड़ की रक्षा में वह सीधी आगे बढ़ती है। स्कार्डु के पास उसे होश आता है कि मुझे हिन्दुस्तान जाना है। गिलगिट के किले को दूर से देखकर वह दक्षिण की ओर मुड़ती है। चित्राल की ओर तो वह खुद जाना नहीं चाहती, लेकिन यह जांचने के लिए कि वहां का पानी कैसा है, वह स्वात नदी को अपने पास बुलाती है। स्वात भला अकेली क्यों आने लगी? उसकी निष्ठा काबुल नदी के प्रति है। सफेद कोह का पानी लाने वाली काबुल से मिलकर वह अटक के पास सिंधु से आ मिलती है। अब सिंधु पूरी-पूरी भारतीय बन जाती है। स्वात और काबुल के पास सुनने के लिए काफी इतिहास पड़ा है। खैबरघाट से कौन-कौन लोग आये और गये, बैक्ट्रिया के यूनानी लोग किस रास्ते से आये और कर्नल यंगहसबंड वहां से चित्राल की चढ़ाई पर कैसे गया-आदि सारा इतिहास ये दो नदियां बता सकती हैं। अमीर अमानुल्ला ने गर्मी के पागलपन में परसों ही जो चढ़ाई की थी उसकी बात यदि पूंछे तो वह भी ये बता सकेंगी। और कोहाट की क्रूरता से भी सिंधु अपरिचित नहीं है। वजीरिस्तान और बन्नू में क्षात्रधर्म को लज्जित करने वाली जो घटनाएं घटी थीं, उनकी कहानी कुरम के मुंह से सुनकर सिंधु का जी कांप उठता है। क्रुमु या कुरम नदी सिंधु से मिलती है तब उसका प्रवाह बिगड़ता है। पहाड़ के अभाव में वह मर्यादा में नहीं रह पाता। छोटे-बड़े टापू बनाती-बनाती सिंधु डेरा इस्माइल खां से लेकर डेरा गाजी खां तक जाती है।

अब सिंधु पांचों नदियों के पानी की राह देखती हुई संकरी होकर दौड़ती है। जम्मू की ओर से आने वाली चिनाब कश्मीरी झेलम नदी से मिलती हैं। लाहौर के वैभव का अनुभव करके तृप्त बनी हुई रावी इन दोनों से मिलती है। व्यास के पानी से पुष्ट बनी सतलुज इन तीनों के पानी में जा मिलती है। और फिर उन्मत्त बना हुआ पंचनद का प्रवाह अपनी पूरी रफ्तार के साथ मिट्टनकोट के पास सिंधु के ऊपर टूट पड़ता है। इतने बड़े आक्रमण को सहकर, हजम करके, अपना ही नाम कायम रखने वाली सिंधु की शक्ति भी उतनी ही बड़ी होनी चाहिये।

सिंधु न सिर्फ अपना नाम ही कायम रखती है, बल्कि यहां से वह अपने जीवन की उदार कृपा को अनेक प्रकार से फैलाती हुई आसपास के प्रदेश को भी अपना नाम अर्पण करती है। ‘त्यागाय संभृतार्था नाम्’ के उदाहरण रूप आर्य राजाओं का ही वह अनुकरण करती है। बड़ी-बड़ी सात घाटियों का पानी वह इकट्ठा जरूर करती है, मगर सारा पानी अनेक मुखों से महासागर को देने के लिए ही। और बीच में यदि कोई गरजमंद आदमी उसमें से मनमाना पानी कहीं ले जाना चाहे, तो सिंधु को कोई एतराज नहीं है।

फिर भी गंगा मैया की उदारता सिंधु में नहीं है। इसलिए अटक और सक्कर से लेकर हैदराबाद तक उस पर पुल बनाये गये हैं। सक्कर का पुल फौजी दृष्टि से बहुत महत्त्व का है। सिंधु में स्थित एक बड़े टापू से लाभ उठाकर यह पुल बनाया गया है। मगर रोहरी की ओर जहां पानी गहरा है, वहां यह पुल किसी भी समय पंखे की तरह समेटकर इकट्ठा किया जा सकता है। यदि फौज के लिए सिंधु को पार करना असंभव-सा बना देना हो, तो एक मंत्र बोलते ही सारा पुल लुप्त हो सकता है। फिर शिकारपुर-सक्कर अलग और रोहरी अलग।

यह बात नहीं है कि शिकारपुर-सक्कर को अंग्रेजों ने ही महत्त्व दिया है। यहां के हिन्दू व्यापारी प्राचीन काल से बोलनघाट के रास्ते से कंदहार जाकर मध्य एशिया में तिजारत करते आये हैं। हिरात या मर्व, बुखारा या समरकंद, कहीं भी देखिये आपकों शिकारपुर के व्यापारी जरूर मिल जायेंगे। शिकारपुर की हुंडी मास्कों और पिटर्सबर्ग (लेनिनग्राड) तक सकारी जाती थी। सक्कर का स्मरण करें और बड़े जहाज के समान पानी में तैरने वाले साधुबेला नामक टापू स्मरण न हो यह असंभव है। साधुओं की काव्यमय अभिरुचि हमेशा सुंदर से सुंदर स्थान पसंद करती है। साधुबेला के सौंदर्य की ईर्ष्या सम्राट् भी करेंगे।

पता नहीं, सिंधु को आराम लेने की सूझी या सिंघाड़े खाने की; वह यहां से मंचर सरोवर की दिशा में दौड़ती है। किन्तु समय पर सावधान होकर या खिरथर (करतार) के कहने पर वह वापस लौटती है और शेवण से आग्नेय दिशा में मुड़कर हैदराबाद तक जाती है। यह प्रदेश कई युद्धों का साक्षी है। मालूम नहीं, जयद्रथ के समय में यहां की स्थिति कैसी थी। मगर दाहिर और जच्च के समय में यह प्रांत काफी पिछड़ा हुआ रहा होगा। चंद्रगुप्त के पहले ईरानी साम्राज्य को सोना दे देकर निःसत्त्व हो जाने के कारण कहो, या वहां के ब्राह्मण राजाओं के अनाचारों के कारण कहो, वहां के प्रजा बिलकुल कंगाल और कमजोर हो गई थी। ईरान का बादशाह आये या सिकंदर आये, बगदाद का मुहम्मद-बिन-कासिम आये या सर चार्ल्स नेपियर आये, सिंधु-तटवासी लोग हर समय हारे ही हैं।

जब सिकंदर ने जहाजों में बैठकर सिंधु को पार किया तब उसने अपनी रक्षा के लिए दोनों किनारों पर अपनी फौज चलाई थी। आज अंग्रेजों ने सिंधु को रक्षा के लिए नहीं, बल्कि पंजाब का गेहूं विलायत ले जाने के लिए सिंधु के दोनों तट पर रेलें दौड़ाई हैं। सिंधु का प्रवाह काफी बेगवान होने से गंगा की तरह उसमें जहाज नहीं चल सकते। इसी कारण से कराची के पास के केटी बंदरगाह का कोई महत्त्व नहीं रहा है।

सिंधु के मुख का प्रदेश सिंधु के ही पुरुषार्थ के कारण बना है। दूर-दूर से कीचड़ और बालू ला-लाकर सिंधु वहां उड़ेलती गई है। नतीजा यह हुआ है कि अरबी समुद्र को हमेशा अत्यंत सूक्ष्मता से या ‘बहादुरी से’ पीछे हटना पड़ा है।

सिधु का प्रवाह सिंधु नाम को शोभा दे इतना विस्तीर्ण और बेगवान है। गर्मी के दिनों में जब पिघले हुए बर्फ के पानी का पूर उसमें आता है, तब उसको घोड़े या हाथी की उपमा शोभा तो क्या दे, वह सूझती भी नहीं। उसको तो जल-प्रलय ही कहना होगा। सागर की लहरें जैसी उछलती हैं, वैसी ही सिंधु की लहरें उछलती हैं। मगरमच्छों के गुरु बन-सकें, ऐसे तैराक भी पूर के समय पानी में कूदने की हिम्मत नहीं करते।

प्रेम-दीवानी सती सुहिणी की ही, कच्चे घड़े के आधार पर, ऐसे प्रवाह में कूदने की हिम्मत हो सकती थी। प्रेम का प्रवाह, प्रेम का वेग और परिणाम के बारे में प्रेम का निरादर महासिंधु से भी बड़ा होता है।

सितंबर, 1929


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