शिप्रा को प्रदूषण मुक्त करने के उपाय

निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि प्रदूषित जल की समुचित उपचार व्यवस्था नदी तटवर्ती सभी नगरों में होना चाहिए। इसके अतिरिक्त नदी को प्रदूषण मुक्त रखने हेतु परिक्षेत्र का वनीकरण, नदीतल का गहरीकरण आदि की दिशा में सक्रिय प्रयास होना चाहिए। इन उपायों को मूर्त रूप देने हेतु कतिपय सुझाव प्रस्तुत हैं :-

1. वनीकरण :- शिप्रा परिक्षेत्र के अन्तर्गत इन्दौर-सम्भाग की इन्दौर तथा सांवेर तहसील, उज्जैन-सम्भाग की उज्जैन, घटिया, खाचरौद, महिदपुर तथा आलोट तहसील आती है। परिक्षेत्र का प्रायः सभी क्षेत्र वन विहीन हैं। शिप्रा का उद्गम स्थल ककरी-बरड़ी पहाड़ी है। जो कि समुद्र सतह से 747.06 मीटर ऊँची है। उद्गम स्थल से कतिपय किलोमीटर दूरी तक ही शिप्रा पठारी क्षेत्र की यात्रा करती है, तत्पश्चात उसका बहाव समतल भूमि पर हो जाता है। इसी प्रकार महिदपुर व आलोट तहसील में शिप्रा कुछ दूरी की यात्रा पठारी क्षेत्र में तथा शेष यात्रा समतलीय धरातल पर करती है। इसी कारण शिप्रा परिक्षेत्र में पुराकाल में पठारी भाग को छोड़कर कहीं भी वन नहीं थे। वनों के कटने के कारण शिप्रा की तटवर्तीं पहाड़ियाँ वृक्षाविहीन एवं निरावृत हो गईं। फलस्वरूप पहाड़ियों में अपरदन प्रक्रिया होने लगी। भू-अपरदन क्रिया ने नदी तल में गाद संग्रहित कर नदी तल को उथला व फैलावदार कर दिया है। जिससे वर्षा ऋतु में जल फैलाव की सीमा में विस्तार होने लगा। इस प्रकार शिप्रा के फैलावदार नदी होने के कारण जल में वाष्पीकरण प्रक्रिया भी अधिक होने लगी और नदी में वर्ष भर जल-प्रवाह न रह सका। नदी को प्रवाहमयी बनाए रखने हेतु निरावृत, क्लीनशेव्ड पहाड़ियों पर वनीकरण करना आवश्यक हो गया है।

निरावृत पहाड़ों के वनीकरण की दिशा में 1962-63 में नदी-घाटी परियोजना प्रारम्भ की गयी जिसका मुख्यालय उज्जयिनी में था। इस योजना के अन्तर्गत जल-ग्रहण क्षेत्र के भू-अपरदन रोकने हेतु विभिन्न भू-संरक्षण कार्य किये गये। केवड़ेश्वर, देवगुरड्या तथा जानापाव क्षेत्र की पहाड़ियों पर वृक्षों की बाड़ लगाई गयी तथा शेष भाग में वृक्षारोपण भी किया गया। खाईयों में पत्थर के डाट लगाकर पहाड़ियों के जल प्रबाह के वेग को कम किया गया ताकि भूमि अपरदन कम हो। फलस्वरूप नदी तल में गाद संग्रहण की मात्रा में कुछ कमी आयी। वनीकरण क्षेत्रों के ठीक नीचे शिप्रा, खान व गम्भीर नदी के जल ग्रहण क्षेत्रों में कृष्य क्षेत्रों के लिये समोच्च बंधान के कार्य किये गये। ग्रेडेड बाँध भी बाँधे गये उनमें उपयुक्त स्थानों पर उत्प्लव मार्गों की व्यवस्ता की गयी। इन प्रक्रियाओं से कृष्य क्षेत्रों को पर्याप्त लाभ मिला। यह योजना केवल शिप्रा, खान व गम्भीर के उद्गम स्थल पर ही क्रियान्वित की गयी, शेष शिप्रा परिक्षेत्र इस योजना से वंचित रहा। आवश्यकता है कि योजना का फैलाव सम्पूर्ण नदी तट पर किया जाए ताकि सम्पूर्ण परिक्षेत्र योजना से लाभान्वित हो सके।

योजना के अन्तर्गत वनीकरण की प्रक्रिया में केवल उन वृक्षों का ही रोपण किया जाए जो कम जलग्राही हों तथा जिनकी जड़े भूमि में ज्यादा नीचे गहराई तक न जाती हैं। यूकेलिप्टस दलदली क्षेत्र का बहुजलग्राही वृक्ष है; तथा इसकी जड़ें बहुत गहराई तक जाती हैं। ये वृक्ष स्वतः को जीवित हेतु पृथ्वी में गहराई तक जाकर जल शोषण करते हैं। परिणाम स्वरूप भू-जलस्तर क्रमशः नीचे होता जाता है। इस वृक्ष में छाया भी नहीं होती है कारण कि वह सीधा ऊपर की ओर बढ़ता है। यह वृक्ष परिक्षेत्र के लिये हानिकारक है। इस कारण इसका रोपण परिक्षेत्र में नहीं होना चाहिए। परिक्षेत्र के लिये नीम, आम, पीपल, गूलर, इमली, जामफल आदि वृक्षों का रोपण लाभप्रद होगा, कारण कि ये वृक्ष छातेदार हैं। इनकी छाया वाले भू-भाग स्वाभाविक रूप से अन्य भाग की अपेक्षा ठंडे रहते हैं। फलस्वरूप भू-वाष्पीकरण भी इन वृक्षों के क्षेत्रों में कम होता है। इन वृक्षों की वनीकरण प्रक्रिया से भू-अपरदन तथा जल वाष्पीकरण न्यूनमात्रा में होगा और भू-जलस्तर की गिरावट पर कुछ अंशों तक अंकुश भी लग सकेगा। यह वनीकरण का कार्य ग्राम पंचायतों के माध्यम से सुनिश्चित किया जा सकता है।

2. नदी तल गहरीकरण :- नदी-तल के गहरीकरण हेतु नदी तटवर्ती पंचायतों को इसका दायित्व दिया जाए। नदी तल से मिट्टी, पत्थर आदि ले जाने वाले इच्छुक व्यक्ति को निःशुल्क ले जाने की अनुमति दी जाए। नदी में राख आदि प्रदूषणकारी सामग्री को प्रवाहित करने तथा मिट्टी, पत्थर आदि अवशिष्ट वस्तुओं को नदी में फेंकने पर पूर्ण बंदिश लगाई जाना उचित होगा। नदी तट की मिट्टी को किसी भी उद्योग या अन्य किसी कार्य हेतु उत्खनन की अनुमति देना नियम विरुद्ध घोषित किया जाए।

3. जल शुद्धिकरण उपाय :- नदी तटवर्ती सभी नगरों के प्रदूषित जल-मल की शत-प्रतिशत उपचार व्यवस्था हेतु उपचार संयन्त्रों को स्थापित किया जाए। उपचार क्षमता सम्बन्धित नगरों के प्रमाण से कुछ अधिक ही होना चाहिए। सभी उद्योगों द्वारा विसर्जित दूषित जल का शत-प्रतिशत उपचार किया जाना विधि-सम्मत तथा अनिवार्य कर दिया जाए। इसका पालन पक्षपात रहित होकर कठोरता से किया जाना चाहिए।

नदी जल में मछली, कछुआ आदि जन्तु पर्याप्त मात्रा में रह सकें इसकी व्यवस्था स्थानीय प्रशासन व जनता को संयुक्त रूप से करना चाहिए। जल जन्तुओं की जल शुद्धिकरण करने एवं पर्यावरण संतुलित रखने में प्रमुख भूमिका रहती है।

4. जल उपयोग का विवेकीकरण :- आधुनिक जीवन में जल की उपयोगिता में निरन्तर वृद्धि हुई है। गाँव की अपेक्षा शहर में प्रति व्यक्ति जल की खपत में वृद्धि चिन्ता का विषय है। शहरों में शॉवर स्नान, टब-स्नान, फ्लश-लैट्रिन, वाशिंग-मशीन, कूलर तथा बगीचों की सिंचाई आदि में जल का अधिक प्रयोग होता है जिनके कारण सामान्य ग्रामीण की अपेक्षा नगरीय व्यक्ति पर 15 गुना जल अधिक उपयोग में आता है। नदी या अन्य जल स्रोतों में जल की मात्रा सीमित ही है पर उसका उपयोग असीमित हो रहा है तथा आने वाले वर्षों में जल उपयोग मात्रा में वृद्धि ही होने की सम्भावना है। जल-संग्रह क्षेत्र को देखते हुये आवश्यकता है कि जल के अनुपयोगी प्रयोग पर अंकुश लगाया जाए तथा जल के प्रयोग का विवेकीकरण किया जाए, अन्यथा भविष्य में निश्चित रूप से जल-अकाल का सामना करना ही पड़ेगा।

5. शिप्रा में जलसंग्रहण की योजना तथा उपाय :- ऊपर के वर्णित उपायों के अतिरिक्त एक अन्य योजना भी है जो शिप्रा के पर्यावरण को संतुलित रखने में प्रमुख भूमिका निभा सकती है। इस योजना के अनुसार शिप्रा नदी पर लगभग प्रति दस किलोमीटर की दूरी पर तीन-चार मीटर ऊँचे बैराज बना दिये जाएँ। इस प्रक्रिया के तहत सम्पूर्ण शिप्रा क्षेत्र में लगभग पन्द्रह-बीस बैराज। इन बैराजों के कारण लगभग सम्पूर्ण शिप्रा में वर्षा जल संग्रहित हो जाएगा। इस (3-4 मीटर) संग्रहित जल से शिप्रा तटवर्तीं गाँवों को जल मिल सकेगा तथा समीपस्थ क्षेत्र में जल भू-भरण प्रक्रिया भी हो सकेगी। इस जल-भू-भरण से क्षेत्र में जल संवर्धन भी होगा। फलस्वरूप नदी जल में वाष्पीकरण की प्रक्रिया भी कम होगी। इन बैराजों का निर्माण शासन स्थानीय पंचायतों के सहयोग तथा माध्यम से कर सकता है। बैराजों के निर्माण के बाद इन बैराजों के रख-रखाव का भार स्थानीय पंचायतों को देना व्यावहारिक एवं सुविधाजनक होगा। इस प्रक्रिया से ग्रामीणजनों में भी नदी तथा उसके जल के प्रति दायित्व बोध जागृत होगा।

उपर के उपायों के अतिरिक्त जल-संवर्धन के अनेक कृत्रिम उपाय भी हैं – यथा पुनर्जल भू-भरण आदि जिनसे भू-जल संवर्धन तथा नदी जल स्तर उचित सीमा तक रखा जा सकता है। इन उपायों से पर्यावरण को भी संतुलित रखने में सफलता मिल सकती है। उपायों की सफलता जन-सहयोग पर ही निर्भर करती है। अतः इस हेतु जन-जागरण आवश्यक है। प्रकृति प्रदत्त वस्तुओं के प्रति सभी का संवेदनशील होना ही प्रजातन्त्र की सफलता है।
 

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