शीशा पत्थर पर दे मारना

30 Jun 2013
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बस जरा सी गफलत होती है और जंगल,
आदमी की गिरफ्त से छूटकर,
दीवारों की कवायद में शामिल
हो जाता है!

धूमिल

उत्तराखंड में मची तबाही ने यह साफ कर दिया है कि, भारतीय राजनीति अब सिवाए आर्थिक गणित के कुछ भी और सोच पाने में स्वयं को असमर्थ पा रही है। विभीषिका के एक पखवाड़े पश्चात भी कहीं से कोई ऐसी टिप्पणी सामने नहीं आई जो कि विकास के मौजूदा स्वरूप खासकर पर्यावरणीय नजरिए से पुनरावलोकन की बात करती हो! विषय पर पर्दा डालने के लिए कहा जा रहा है कि हमारी “पहली’’ प्राथमिकता राहत प्रदान करना और फसे लोगों को बाहर निकालना है। लेकिन नीति निर्माताओं को समझना होगा कि पहली प्राथमिकता और एकमात्र प्राथमिकता में अंतर है। सारी गतिविधियों से साफ नजर आ रहा है कि राहत का 99 प्रतिशत कार्य सेना व अर्धसैनिक बलों पर डालकर नौकरशाही बसों से यात्रियों को उत्तराखंड से बाहर भेजने को ही अपने कर्तव्य की इतिश्री मान रही है।

राजनीतिक दलों की आपसी खींचतान और देहरादून हवाई अड्डे पर राजनीतिक कार्यकर्ताओं के बीच हुई मारपीट के दृश्य देखकर लग रहा था कि हम एक ऐसी दुनिया में रह रहे हैं, जहां संवेदना के लिए कोई गुंजाइश नहीं बची है। अनेक राज्यों द्वारा भेजे गए हवाई जहाज उत्तराखंड से खाली वापस आ रहे हैं, लेकिन वे अन्य या पड़ोसी राज्यों के निवासियों को उनमें नहीं बैठा रहे हैं। जैसे कि भारत अपने आप में एक राष्ट्र न होकर राष्ट्रों का समूह हो। इस कठिन समय में भी यदि जब हम अपनी क्षेत्रीयता और प्रांतीयता तक को नहीं भुला पा रहे हैं तो कैसे उम्मीद की जा सकती है कि इस देश में धार्मिक, जाति एवं वर्ग का भेद कभी समाप्त हो पाएगा!

इस बीच उत्तराखंड के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने एक साक्षात्कार में कहा कि वे केवल अपनी अंतरात्मा की आवाज सुनते हैं। इसका अर्थ क्या यह हुआ कि उन्हें हजारों लाखों तीर्थ यात्रियों का आर्तनाद भी सुनाई नहीं देता? भारतीय तंत्र के ज्ञानियों ने यहां तक दावा किया है कि वे तो जंगल में घास के बढ़ने की आहट भी सुन सकते हैं, लेकिन बहुगुणा जी को तो पहाड़ों और नदियों की चिंघाड़ भी सुनाई नहीं दी और उस साक्षात्कार में उनकी आत्मा से जो प्रस्फुटित हुआ उस पर गौर करिए, राज्य आपदा बोर्ड की पिछले 6 वर्षों से कोई बैठक नहीं हुई थी। इसमें उनका विगत 1 वर्ष का कार्यकाल भी शामिल है।

(उनका प्रति प्रश्न था) क्या केदारनाथ में बादल हरिद्वार के किनारे व्यावसायिक निर्माण की वजह से फटे हैं?

पर्यटन के बिना विकास भी प्रभावित होगा। इसके न होने से गरीबी, असंतोष और पलायन होगा। यह एक महत्वपूर्ण सुरक्षा मामला भी है।

(जलविद्युत परियोजनाओं के बारे में) यदि आपने कोई निर्णय ले लिया हो तो उस पर दृढ़ रहें और उसे महज इसलिए मत छोड़ो, क्योंकि कुछ एक्टिविस्ट शोर मचा रहे हैं। ऐसी ही हाय-बाप टेहरी बांध के बनने पर भी मची थी। (वैसे सिर्फ एक्टिविस्टों ने ही नहीं सन् 2009 में केग ने भी इस पर आपत्ति उठाई थी)

अभी 56 को स्वीकृति (पनबिजली परियोजनाओं को) मिल गई है। 36 की प्रक्रिया भी प्रारंभ कर दी है। दिसंबर तक इसकी निविदा जारी कर देंगे। सन् 2016 तक हमारे पास अतिरिक्त बिजली होगी।

राजनीतिक दलों की आपसी खींचतान और देहरादून हवाई अड्डे पर राजनीतिक कार्यकर्ताओं के बीच हुई मारपीट के दृश्य देखकर लग रहा था कि हम एक ऐसी दुनिया में रह रहे हैं, जहां संवेदना के लिए कोई गुंजाइश नहीं बची है। अनेक राज्यों द्वारा भेजे गए हवाई जहाज उत्तराखंड से खाली वापस आ रहे हैं, लेकिन वे अन्य या पड़ोसी राज्यों के निवासियों को उनमें नहीं बैठा रहे हैं। जैसे कि भारत अपने आप में एक राष्ट्र न होकर राष्ट्रों का समूह हो। अब इसे शीशा ही पत्थर पर मारना कहा जाएगा। क्योंकि जब हम पत्थर शीशे पर फेंकते हैं तो कहीं यह संभावना बनी रहती है कि शायद हमारा निशाना चूक जाए और शीशा बच जाए। लेकिन यहां तो इतनी तबाही के बावजूद मुख्यमंत्री ने घोषणा कर दी कि दिसंबर में “टेंडर’’ हो जाएंगे। यानि मुख्यमंत्री धनकुबेरों को आश्वस्त कर रहे थे कि उन पर किसी प्रकार का संकट नहीं आने वाला है। कितनी ही तबाही मची हो, पर्यावरणविद्, स्थानीय निवासी, कृषि एवं वन विशेषज्ञ चाहे जितनी आपत्ति उठाते रहें मुख्यमंत्री की अंतरात्मा ने दिसंबर का महीना लॉटरी खुलने के लिए तय कर दिया है। और शायद उनकी अंतरात्मा को डायनामाइट, जेसीबी, क्रशर, डंपर और सीमेंट मिश्रण करने वाली मशीनों के साथ ही साथ पेड़ों के कटने और पत्थरों के लुड़कने की आवाजें भी सुरीली लगती हैं। अतः उनका पुनः सक्रिय किया जाना आवश्यक है।

वैसे यहां इस बात पर भी गौर करना होगा कि राजनेता कांच/शीशा तोड़ रहे हैं या आईना। आसपास हुई तबाही के बाद जब वे अपना चेहरा आईने में देखते होंगे तो उन्हें उसी में ऐब नजर आता होगा और अलकनंदा ने नीचे आए पत्थर पर वे अपना आइना तोड़ देते होंगे। वैसे विजय बहुगुणा अकेले नहीं हैं, उनका साथ देने केंद्रीय पर्यटन मंत्री के. चिरंजीवी भी आ गए हैं। उन्होंने घोषणा की है कि उत्तराखंड की सरकारी पर्यटन सुविधाओं की पुनर्स्थापना हेतु, उनका विभाग 100 करोड़ की विशेष सहायता उत्तराखंड सरकार को देगा। यह वर्तमान वित्तीय वर्ष में पर्यटन संरचनाओं के लिए आवंटित 95 करोड़ रु. के अलावा है। अनियंत्रित पर्यटन उद्योग का सर्वाधिक खामियाजा पर्यटकों को ही भुगतना पड़ा है। सब ओर से इसकी वर्तमान प्रणाली पर पुनर्विचार की बात हो रही है। सभी ने देखा है कि सर्वाधिक अनियंत्रित एवं अवैधानिक निर्माण पर्यटन के क्षेत्र में ही हुआ है। शायद चिरंजीवी ने भी आइना देख लिया और उसे दोषी ठहरा कर उत्तराखंड पर्यटन विभाग को हरी झंडी दे दी।

पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र ने अपने लेख “तैरने वाला समाज डूब रहा है’’ में बिहार-नेपाल सीमा से प्रारंभ हुई “चार कोसी झाड़ी’’ का जिक्र करते हैं। (चार कोस = 8 मील = 12.87 किलोमीटर) जिसका थोड़ा सा हिस्सा अब चंपारण में मिलता है।’’ इसकी लंबाई पूरे बिहार में ग्यारह सौ-बारह सौ किलोमीटर थी। आज के खर्चीले, अव्यवहारिक तटबंधों के बजाए यह विशाल वन-बंध आने वाली नदियों को छानने का काम करता होगा। तब भी बाढ़ आती होगी, लेकिन उसकी मारक क्षमता ऐसी नहीं होगी।’’ इसी परिप्रेक्ष्य में हिमालय के वनोच्छादन को भी देखें। सैकड़ों मीलों के जंगलों के बाद गंगा-यमुना हरिद्वार में नीचे उतरती हैं। यानि ये पूरा क्षेत्र उनके वेग को शांत करने का कार्य करता है। वनों की कटाई से उस वेग को शांत करने वाला तत्व तिरोहित हो गया, परिणामस्वरूप हजारों तीर्थ यात्री भी अकाल मौत के शिकार हो गए।

लेकिन हमारे कर्ताधर्ता किसी और ही सिद्धांत पर कार्य करते हैं। प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक देविंदर शर्मा बहुत रोचक ढंग से भारत के सकल घरेलू उत्पाद, (जीडीपी) की गणना की पद्धति को समझाते हुए कहते हैं कि एक हरा भरा पेड़ इसमें योगदान नहीं करता, लेकिन जैसे ही वह कटता है, वैसे ही वह सकल घरेलू उत्पाद में योगदान कर देता है। उत्तराखंड में आई तबाही के बाद वित्तमंत्री चिदम्बरम एवं योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया का कोई बयान न आने पर देविंदर शर्मा की ये बात पुनः याद हो आई और एकाएक दिमाग में आया कि जड़ से उखड़े पेड़ अगले साल की जीडीपी में कितना योगदान देंगे? क्या भारत के आर्थिक मामलों के विभाग इसी नई गणना में लगे हैं?

बहरहाल नासमझी का दौर जारी है और केंद्रीय जल बोर्ड बता रहा है कि टिहरी बांध में क्षमता से 449 प्रतिशत अधिक पानी भर गया है। उत्तराखंड में बारिश अभी भी जारी है, लेकिन देहरादून के सरकारी कार्यालय जलविद्युत परियोजनाओं के दिसंबर में जारी होने वाले “टेंडर’’तैयार करने में व्यस्त हैं। धूमिल के ही शब्दों में कहें तो,

“अकाल को सोहर की तरह गा रहे हैं।’’

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