समानता और एक वैश्विक जलवायु समझौता

16 Jan 2016
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विकासशील देशों में समानता के सिद्धान्त का उपयोग रक्षात्मक अंदाज में करने की प्रवृत्ति रही है, जबकि समानता को सुनिश्चित करने वाले विशिष्ट प्रस्तावों को पूरी तरह व्यक्त नहीं किया गया है। यदि विकासशील देश विशिष्टीकरण को सुनिश्चित करते हुए प्रस्ताव व्यक्त करें, तो यह आदर्श होगा और विकास के लिये उनकी मूल चिन्ताओं से यह भी सुनिश्चित होगा कि वे वैश्विक कार्यवाही के बोझ का अपना उचित हिस्सा वहन करते देखे जा रहे हैं और उन पर निष्क्रियता का आरोप नहीं लगाया जा सकता है।

यह वस्तुतः स्वयंसिद्ध है कि जलवायु परिवर्तन उन प्रमुख चुनौतियों में से एक है, जिनका आज दुनिया को सामना करना पड़ रहा है। विशेष रूप से विकसित देशों में ऐसे बुद्धिजीवियों, राजनीतिक नेताओं, उद्योग जगत के समर्थकों और इक्का-दुक्का सेलिब्रिटी लोगों के एक निकाय की मुखर उपस्थिति के बावजूद, जिन्हें जलवायु परिवर्तन से इनकार करने वाला कहा जा सकता है, इस तरह के विचार विश्व स्तर पर तेजी से अल्पमत में आते जा रहे हैं। ऐसा कोई गम्भीरता से विचार करने योग्य राजनीतिक व्यक्ति नहीं है, जो गम्भीरता से सार्वजनिक तौर पर जलवायु परिवर्तन के खतरे को टालने के लिये किसी स्तर की ठोस वैश्विक और राष्ट्रीय कार्यवाही की जरूरत से इनकार करे। इस तरह की कार्यवाही और उसके सामान्य ढाँचे के पक्ष में वैज्ञानिक तर्क जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल (आईपीसीसी) की ढाई दशकों की विभिन्न रिपोर्टों में विस्तार से प्रस्तुत किए गए हैं, सबसे हाल ही में उनकी पाँचवीं आकलन रिपोर्ट (एआर5) में।

इसके बावजूद, एक ऐसे वैश्विक जलवायु समझौते को तैयार करने की प्रक्रिया श्रम-साध्य और दुरुह साबित हुई है, जो ग्रीन हाउस गैसों (जीएचजी) के उत्सर्जन को कम करने के लिये निश्चित लक्ष्यों को निर्धारित करता हो। मूल समझौते की रूपरेखा पर, अर्थात जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यूएनएफसीसी), जिसमें भारी बहुमत से देशों ने उन व्यापक सिद्धान्तों पर सहमति व्यक्त की थी, जिसके तहत इस तरह के एक वैश्विक समझौते पर पहुँचा जा सकता है, 1992 में अपेक्षाकृत आसानी से हस्ताक्षर किए गए थे। हालाँकि इसके बाद से, इस ढाँचा समझौते की शर्तों को लागू करना और विभिन्न देशों द्वारा जिन विशिष्ट कार्यों को किए जाने की आवश्यकता थी, उन पर सहमति होना मुश्किल साबित हुआ है।

इस कठिनाई के स्रोतों को पता लगाना कठिन नहीं है। इस मुद्दे की जड़ जलवायु परिवर्तन कार्यवाही के अर्थशास्त्र में निहित है। ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन, विशेष रूप से कार्बनडाईऑक्साइड का उत्सर्जन, जो इन गैसों में सबसे महत्त्वपूर्ण और सबसे शक्तिशाली है, जो जीवाश्म ईंधनों और उनके व्युत्पन्नों पर मानवता की विशाल और सतत निर्भरता का एक परिणाम है और जिस तरीके से उसका उपयोग होता है, वह 150 से अधिक वर्ष पहले शुरू हुई औद्योगिक क्रान्ति का एक अभिन्न हिस्सा, वास्तव में उसकी नींव है। नई प्रौद्योगिकियाँ उदीयमान हैं, जबकि उद्योगेतर उपयोग के लिये अक्षय ऊर्जा निश्चित रूप से कई मामलों में परिपक्व हो गई है लेकिन इसके बावजूद, जलवायु परिवर्तन की गति को मंद करने की लागत को लेकर काफी अनिश्चितता बनी हुई है। (अर्थात ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी की लागत को लेकर) और सभी राष्ट्र, विकसित हों या विकासशील, इन लागतों को लेकर सतर्क हैं। जो लागत आज बैठनी है और जो भविष्य में हो सकती है। विकासशील देश पसोपेश में हैं, क्योंकि उन पर न केवल विकास की खाई को भरने का बोझ है - ताकि वे अपनी जनता के लिये एक अच्छा जीवन स्तर सुनिश्चित कर सकें। बल्कि उन्हें जीवाश्म ईंधन के उपयोग की सीमाओं के तहत इस लक्ष्य को हासिल करना है, जिसका कोई सानी औद्योगिक वृद्धि और विकास के विश्व इतिहास में नहीं है।

वैश्विक जलवायु कार्यवाही साझेदारी


विकसित देश अपना बोझ कम करने के लिये रची गई पैंतरेबाजी की एक लम्बी शृंखला में लिप्त हो गए हैं, जिसके लिये रणनीतियों, अवधारणाओं के ढाँचे, तर्कों और कूटनीतिक हथकंडों की एक पूरी व्यवस्था विकसित की गई है, जिसे वार्ता में और बाहर प्रयोग किया जाता है, ताकि मोटे तौर पर दुनिया के प्रति और विशेष रूप से विकासशील देशों के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को कम किया जा सके।

वैश्विक जलवायु कार्यवाही की आवश्यकता की एक नैतिक अनिवार्यता है, न केवल सार रूप में, बल्कि यूएनएफसीसीसी के एक अभिन्न अंग के रूप में भी। यह समझौता, जिसपर सभी राष्ट्रों द्वारा सहमति दी गई है, इस अनिवार्यता को स्पष्ट और मुखर रूप से स्वीकार करता है। इस प्रकार वैश्विक जलवायु वार्ता में प्रमुख मुद्दा तेजी से जलवायु कार्यवाही के सम्बन्धित वैश्विक आर्थिक बोझ का होता जा रहा है, विशेष रूप से विकसित और विकासशील देशों के बीच सम्बन्धित हिस्सेदारी में, एक ऐसी दुनिया में, जिसमें आज भी विकसित और विकासशील देशों की बीच काफी असमानताएँ हैं।

यह बात स्वयं यूएनएफसीसीसी द्वारा स्पष्ट रूप से स्वीकार की गई है कि वैश्विक जलवायु कार्यवाही में इस बोझ का बँटवारा समानता के आधार पर किया जाना चाहिए। कन्वेंशन के अनुच्छेद 3.1 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि सभी पक्षों को मानवजाति की वर्तमान और भविष्य की पीढ़ियों के हित के लिये जलवायु प्रणाली की रक्षा समानता के आधार पर और उनकी साझी लेकिन अलग-अलग की गई जिम्मेदारियों और सम्बन्धित क्षमताओं के अनुसार करनी चाहिए। तदनुसार, विकसित देशों के पक्ष को जलवायु परिवर्तन और उसके प्रतिकूल प्रभाव का मुकाबला करने में आगे आना चाहिए।

अनुच्छेद 3.2 आगे कहता हैः ‘विकासशील देशों के पक्ष की विशिष्ट जरूरतों और विशिष्ट परिस्थितियों को, विशेष रूप से उनकी, जो जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों से खास तौर पर अतिसंवेदनशील हैं, और उन पक्षों को, विशेष रूप से विकासशील देशों के पक्ष को, जिन्हें इस कन्वेंशन के तहत असंगत या असामान्य बोझ वहन करना होगा, उनपर पूरा ध्यान दिया जाना चाहिए।’ कन्वेंशन में अन्य अनुच्छेद हैं, जिनमे विकसित देशों के जिम्मे आने वाली अन्य अधिक विशिष्ट जिम्मेदारियों पर विस्तार से विवरण है, जिसमें जलवायु परिवर्तन की गति को मंद करने में अग्रणी रहने, विकासशील देशों के लिये अनुकूलन के साथ सहायता, वित्त और प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के तौर पर विकासशील देशों के लिये सहायता देना शामिल है।

कन्वेंशन पर हस्ताक्षर के बाद से, विकसित देश अपना बोझ कम करने के लिये रची गई पैंतरेबाजी की एक लम्बी शृंखला में लिप्त हो गए हैं, जिसके लिये रणनीतियों, अवधारणाओं के ढाँचे, तर्कों और कूटनीतिक हथकंडों की एक पूरी व्यवस्था विकसित की गई है, जिसे वार्ता में और बाहर प्रयोग किया जाता है, ताकि मोटे तौर पर दुनिया के प्रति और विशेष रूप से विकासशील देशों के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को कम किया जा सके। कन्वेंशन पर हस्ताक्षर किए जाने के प्रथम दो दशकों में, प्रयास यह था कि विकासशील देशों को इस बोझ का उनके हिस्से से ज्यादा बोझ ढोने के लिये राजी किया जाए।

अभी हाल ही में विकसित देश यह प्रयास करते रहे थे कि समानता और साझे किन्तु अलग-अलग दायित्वों और सम्बन्धित क्षमताओं के सन्दर्भ को ही पूरी तरह समाप्त कर दिया जाए। 2011 में डरबन में हुई जलवायु वार्ता के बाद से इस प्रवृत्ति को विशेष रूप से देखा गया है, जिसमें 2015 में यूएनएफसीसीसी की पक्षों की समिति की 21 वीं बैठक तक एक वैश्विक समझौते पर पहुँचने का लक्ष्य निर्धारित किया गया था। विकासशील देश मजबूती से इस प्रवृत्ति का विरोध करते रहे हैं लेकिन इनमें से ऐसे वर्ग हैं, जो उस क्षति को लेकर चिन्तित हैं, जो क्षति जलवायु परिवर्तन से उनके देशों और समाजों को हो सकती है। ऐसे देश जल्द से जल्द एक समझौते तक पहुँचने के लिये चिन्तित हैं, भले ही ऐसा साफ लगता हो कि इससे इसके बोझ का एक बड़ा हिस्सा बड़ी उभरती अर्थव्यवस्थाओं, खासकर चीन और भारत पर गिरेगा।

यहाँ यह बात भी कहनी होगी कि विकासशील देशों में समानता के सिद्धान्त का उपयोग रक्षात्मक अंदाज में करने की प्रवृत्ति रही है, जबकि समानता को सुनिश्चित करने वाले विशिष्ट प्रस्तावों को पूरी तरह व्यक्त नहीं किया गया है। यदि विकासशील देश विशिष्टीकरण को सुनिश्चित करते हुए प्रस्ताव व्यक्त करें, तो यह आदर्श होगा और विकास के लिये उनकी मूल चिन्ताओं से यह भी सुनिश्चित होगा कि वे वैश्विक कार्यवाही के बोझ का अपना उचित हिस्सा वहन करते देखे जा रहे हैं और उन पर निष्क्रियता का आरोप नहीं लगाया जा सकता है।

निस्संदेह, पेरिस कन्वेंशन के लिये वर्तमान तैयारियों में, चीन और भारत सहित विकासशील देशों ने जलवायु कार्यवाही की एक विस्तृत श्रृंखला प्रस्तुत की है, जिसे वे प्रस्तावित राष्ट्रीय स्तर निर्धारित अंशदान के माध्यम से लागू करेंगे, जिसमें योगदान देने के लिये सभी राष्ट्रों ने सहमति व्यक्त की है। राष्ट्रों को यह निर्धारित करने की अनुमति देने की, कि वे क्या महसूस करते हैं कि वे क्या कर सकते हैं, इस प्रक्रिया के साथ समस्या यह है कि यह प्रक्रिया विकसित राष्ट्रों को अनुमति देती है कि वे उस तरह की कार्यवाही के उपक्रमों का दावा कर सकते हैं, कि उन्हें वास्तव में क्या करना चाहिए। इस तरीके में खतरा यह है कि समय के साथ विकासशील देशों पर वास्तविक बोझ, जिनमें भारत अग्रणी है, वास्तव में बहुत अधिक बढ़ जाएगा, जिसे आवधिक समीक्षा के माध्यम से ऊपर से ऊपर बढ़ाया जाता रहेगा। ऐसा विशेष रूप से इसलिए है क्योंकि विकसित देशों ने अल्प अवधि के कार्यों के साथ-साथ अपने दीर्घावधि लक्ष्यों का संकेत दे दिया है, जबकि चीन के अपवाद को छोड़कर, ज्यादातर विकासशील देशों के आधिकारिक तौर पर केवल अल्पकालिक लक्ष्य हैं।

ऐसे में महत्त्वपूर्ण सवाल यह है कि विकासशील देश, खासकर भारत, एक समानतापूर्ण वैश्विक जलवायु समझौते के दायरे के भीतर, अपने लिये बोझ का एक अच्छा खासा हिस्सा लेकर किस तरह भावी विकास के लिये अपनी सामरिक आवश्यकताओं को सुनिश्चित कर सकते हैं? इस लेख में आगे हम एक ऐसा दृष्टिकोण प्रस्तुत कर रहे हैं, जिससे इन प्रश्नों के समाधान को समझने में सहूलियत होगी।

कार्बन बजट दृष्टिकोण


अनुबंध-1 देशों के लिये कार्बन बजट पात्रताएं (1870-2100) [जीटीसी] पिछले गैर कार्बनडाइऑक्साइड उत्सर्जनों के साथ जनसंख्या, सकल घरेलू उत्पाद, मानव विकास सूचकांक आधार वर्ष-2011

 

अनुबंध-1 देशों के लिये कार्बन बजट पात्रताएं (1870-2100) [जीटीसी]

अनुबंध-1 देशों का विगत उत्सर्जन (1870-2011) [जीटीसी]

अनुबंध-1 देशों द्वारा कार्बन क्षेत्र का अतिक्रमण-1 देशों के लिये भविष्य के लिये उपलब्ध कार्बन क्षेत्र (2012-2100) [जीटीसी]

साधारण प्रति व्यक्ति पात्रता

210

492

-281

प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद के आधार पर भारित प्रति व्यक्ति पात्रता

198

 

-294

गैर आय एचडीआई के आधार पर भारित प्रति व्यक्ति पात्रता

160

 

-332

 


आईपीसीसी पाँचवीं आकलन रिपोर्ट में, कार्य समूह 1 की रिपोर्ट में वैश्विक कार्बन बजट का प्रमुख ढँग से उल्लेख किया गया है। मूलभूत वैज्ञानिक विचार यह है कि एक निर्धारित अवधि में वैश्विक तापमान में वृद्धि इस अवधि में ग्रीन हाउस गैसों के संचयी वैश्विक उत्सर्जन के लिये लगभग समानुपातिक है। तापमान में यह वृद्धि वह है जो इस अवधि के दौरान कि अधिकतम तात्कालिक वृद्धि हुई है। पहले के तरीकों में उत्सर्जन में वृद्धि और गिरावट की वार्षिक दर पर ध्यान दिया जाता था (और एक शीर्ष वर्ष की अवधारणा थी, जिसमें वार्षिक उत्सर्जन अधिकतम तक पहुँचता था।) और तापमान में वृद्धि से आशय उस सन्तुलित तापमान से था, जो ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन बंद होने के बाद (और वातावरण के सन्तुलन की स्थिति में पहुँचने के बाद) भविष्य में होना था। हालाँकि अब यह वैज्ञानिक रूप से स्पष्ट है कि उत्सर्जनों में वृद्धि और गिरावट की दर के विवरण अधिकतम तापमान में वृद्धि का निर्धारण करने में महत्त्वपूर्ण तत्व नहीं हैं, बल्कि प्रासंगिक मात्रा ग्रीन हाउस गैसों के कुल उत्सर्जन की है। इस तरीके में, कार्बन चक्र का ब्यौरा प्रासंगिक नहीं है (जैसे कि महासागरों और जीवमंडल द्वारा ग्रीन हाउस गैसों का अवशोषण और शेष गैसों की वायुमंडलीय सांद्रता) और प्रासंगिक मात्रा प्रत्यक्ष संचयी उत्सर्जन ही है।

यह तरीका यह गणना करने का एक तैयार शुद्ध, नीति के अनुकूल साधन प्रदान करता है कि कितनी संचयी उत्सर्जन की विश्व स्तर पर अनुमति दी जा सकती है। यह वैश्विक कार्बन बजट है। इसके बाद इस बजट से प्रत्येक राष्ट्र का हिस्सा निर्धारित करना एक साधारण सी बात रह जाती है, जो कुछ वैध समानता सिद्धान्तों पर आधारित होता है, जिनमें प्रति व्यक्ति का आधार वास्तव में सबसे सरल होता है, जो अतीत के एक आधार वर्ष से संचीय उत्सर्जनों पर ध्यान देता है, (जैसे 1850, जिसे कई लोगों द्वारा ऐतिहासिक जिम्मेदारी के निर्धारण के लिये एक आधार वर्ष के रूप में लिया गया है, या 1870, जिसे आईपीसीसी ने अतीत के उत्सर्जन का निर्धारण करने के लिये इस्तेमाल किया है)। वैश्विक कार्बन बजट, या वैश्विक कार्बन क्षेत्र की एक समान हिस्सेदारी प्रदान करने का यह तरीका, मूल रूप से पूरी पृथ्वी को (और न केवल वातावरण को, क्योंकि कार्बन चक्र महासागरों और स्थलीय भू-जैव क्षेत्रों के बीच भी चलता है।) कम से कम कार्बन के मामले में एक वैश्विक कॉमन्स के रूप में लेने के सिद्धान्त पर निर्भर करता है।

इस वैश्विक कार्बन बजट दृष्टिकोण को आईपीसीसी। आर5 के अलावा भी व्यापक वैज्ञानिक समर्थन मिला है। अमेरिका की राष्ट्रीय अनुसंधान परिषद की वातावरण की ग्रीनहाउस गैसों की सान्द्रता के स्थिरीकरण लक्ष्यों पर समिति (एनआरसी, 2011) ने इसका काफी विस्तार से अध्ययन किया और राष्ट्रीय अनुसंधान परिषद द्वारा 2011 में अमेरिकी कांग्रेस को सौंपी गई अमेरिका के जलवायु विकल्प शीर्षक रिपोर्ट में इस्तेमाल मूलभूत नीतिगत ढाँचा भी कार्बन बजट दृष्टिकोण ही था। यही मूलभूत वैज्ञानिक दृष्टिकोण ‘जर्मन काउंसिल फॉर ग्लोबल चेंज’ और ‘चाइनीज अकादमी ऑफ सोशल साइंसेस’ (पैन, 2009) से सम्बन्धित चीनी वैज्ञानिकों द्वारा भी इस्तेमाल किया गया है। अभी हाल ही में अग्रणी जलवायु वैज्ञानिकों ने नेचर पत्रिका में एक टिप्पणी में इसी कार्बन बजट दृष्टिकोण का समर्थन किया है।

वास्तविक वैश्विक कार्बन बजट इस सम्भावना पर निर्भर करता है कि (1870 से) संचयी उत्सर्जनों की दी गई मात्रा से वैश्विक तापमान में वृद्धि 2 डिग्री सेल्सियस से अधिक नहीं होगी, इस वैश्विक तापमान में वृद्धि पर 2009 में कोपेनहेगन कन्वेंशन में सहमति हुई थी और अगले वर्ष इसकी कैनकन में पुष्टि की गई थी। वैश्विक तापमान में वृद्धि 2 डिग्री सेल्सियस से अधिक न होने की 67 प्रतिशत से 50 प्रतिशत तक की सम्भावना के लिये, वैश्विक कार्बन बजट 1212 गीगा टन कार्बन से लेकर 992 गीगा टन (जीटीसी) के बीच रहता है।

992 या 1212 जीटीसी का यह बजट पूरे विश्व के लिये उत्सर्जन की भौतिक सीमा है। सभी देशों के अतीत के उत्सर्जन इस बजट का एक हिस्सा समाप्त कर चुके हैं। अनुमान है कि 445 से 585 जीटीसी (औसत 515 जीटीसी) पहले से ही उत्सर्जित कर दिया गया है। अगर हम अतीत में गैर-कार्बन डाईऑक्साइड ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन को ध्यान में रखें, तो यह आँकड़ा 515 जीटीसी से बढ़कर 667 जीटीसी हो जाता है। भविष्य में होने वाले उत्सर्जन बची-खुची कार्बन गुंजाईश को समाप्त करने में और योगदान देंगे। लिहाजा किसी भी देश द्वारा ततमंद करने वाला कोई घटक, प्रत्यक्ष रूप से या परोक्ष रूप से इस कार्बन बजट पर एक दावा है। उदाहरण के लिये 2030 तक उत्सर्जन तीव्रता में 33 प्रतिशत की कमी से भारत का अर्थ हुआ (7 प्रतिशत की सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर के लिये) 18 जीटीसी का संचयी उत्सर्जन 2012 और 2030 के बीच करना। अमेरिका द्वारा 2025 में 2005 के स्तर से 26 प्रतिशत उत्सर्जन कम करने का अर्थ हुआ 2012 और 2025 के बीच 19 जीटीसी का संचयी उत्सर्जन करना।

वैश्विक कार्बन बजट में भारत के लिये एक उचित हिस्सा क्या होगा? यहाँ हमें इस तथ्य को अवश्य ध्यान में रखना चाहिए कि विकसित देशों द्वारा कार्बन क्षेत्र के अतिक्रमण से यह सुनिश्चित हो जाता है कि भारत सहित किसी भी विकासशील देश को, कार्बन क्षेत्र के अपने उचित हिस्से के वास्तविक भौतिक उपयोग का अवसर न मिल सके। जो भौतिक उपयोग का अवसर न मिल सके। जो भौतिक रूप से उपलब्ध है वह बाकी बचे कार्बन क्षेत्र का केवल उचित हिस्सा है।

सभी देशों के बीच 1870 और 2100 के बीच कुल उपलब्ध कार्बन बजट का एक साधारण प्रति व्यक्ति भागफल, अनुलग्नक-1 देशों में 210 जीटीसी की कार्बन बजट पात्रता में निकलता है, जो पहले से ही लगभग 380 जीटीसी (उनकी पात्रता से लगभग 169 जीटीसी अधिक) 2012 में ही उत्सर्जित कर चुके हैं। इस प्रकार विकसित देश पहले ही अतीत में कार्बन बजट के अपने उचित हिस्से से अधिक इस्तेमाल कर चुके हैं। इसे नीचे दी गई तालिका में दर्शाया गया है, जहाँ हमने उन परिणामों को भी प्रदर्शित किया है, अगर हम आधार के रूप में साधारण प्रति व्यक्ति आवंटन का उपयोग न करें, बल्कि प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद के विचार या प्रत्येक देश के मानव विकास सूचकांक सहित अन्य आधारों का भी आवंटन के आधार के रूप में उपयोग करें।

तालिका 1 से स्पष्ट है कि यदि हम साधारण प्रति व्यक्ति के अलावा किसी अन्य मापदंड का उपयोग करते हैं, तो विकसित देशों द्वारा कार्बन क्षेत्र का अतिक्रमण और भी अधिक हो जाता है, इससे भी बढ़कर, अब विकसित देशों द्वारा प्रस्तुत आईएनडीसी में भविष्य के लिये बचे-खुचे कार्बन क्षेत्र में उनके उचित हिस्से से भी अधिक का दावा करने का एक अनुचित प्रयास किया गया है, जैसा कि अमेरिका द्वारा प्रस्तुत निहित संचयी उत्सर्जन के हिसाब से संक्षेप में स्पष्ट होता है। इस पर रिपोर्ट में आगे मुख्य विकसित देशों के एक विश्लेषण में चर्चा की गई है।

जब एक बार कार्बन बजट एक देश या देशों के समूह द्वारा प्रयोग किया जाता है, तो यह दूसरों के लिये उपलब्ध नहीं रह जाता है। इसलिए अगर कार्बन बजट के सन्दर्भ में अब किसी देश द्वारा एक दीर्घकालिक लक्ष्य घोषित नहीं किया जाता है, तो भविष्य में इस कार्बन बजट का एक पर्याप्त हिस्सा प्राप्त करना मुश्किल साबित हो सकता है, चूँकि अन्य देश, विशेष रूप से सभी बड़े उत्सर्जक पहले से ही वैश्विक कार्बन बजट के अपने हिस्से का दावा कर चुके हैं। यदि विशेष रूप से भारत अब एक दीर्घावधि लक्ष्य की घोषणा नहीं करता है, तो वह उस समय, जब तक हमारी ऊर्जा और विकास का भविष्य उत्सर्जन के सन्दर्भ में स्पष्ट होता है, उपलब्ध एक पर्याप्त कार्बन बजट नहीं होने के जोखिम में आ जाएगा। भविष्य के वैश्विक कार्बन बजट के सन्दर्भ में, जिस हिस्से पर आज दावा नहीं किया जाएगा, वह उपलब्ध नहीं रह जाएगा, क्योंकि दूसरे प्रभावी ढंग से इसका एक प्रमुख हिस्सा उत्सर्जित कर चुके होंगे। इन सन्दर्भों से यह आवश्यक है कि भारत वैश्विक कार्बन बजट पर अपने दावे के रूप में अपने दीर्घकालिक विकास के भविष्य को पर्याप्त रक्षात्मक उपायों के साथ सुनिश्चित करे।

इस वैश्विक कार्बन बजट में भारत के लिये एक उचित हिस्सा क्या होगा? यहाँ हमें इस तथ्य को अवश्य ध्यान में रखना चाहिए कि विकसित देशों द्वारा कार्बन क्षेत्र के अतिक्रमण से यह सुनिश्चित हो जाता है कि भारत सहित किसी भी विकासशील देश को, कार्बन क्षेत्र के अपने उचित हिस्से के वास्तविक भौतिक उपयोग का अवसर न मिल सके। जो भौतिक उपयोग का अवसर न मिल सके। जो भौतिक रूप से उपलब्ध है वह बाकी बचे कार्बन क्षेत्र का केवल उचित हिस्सा है। इस दृष्टिकोण से 1870-2100 की अवधि के लिये भारत का वैध दावा लगभग 182-186 जीटीसी होगा, जो इस पर निर्भर करेगा कि गैर कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जनों को शामिल किया जाता है या नहीं। हालाँकि, समानता के आधार पर भौतिक रूप से सुलभ जो होगा, वह 83 से लेकर 109 जीटीसी तक होगा, जो इस पर निर्भर करेगा कि गैर कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन शामिल किया जाता है या नहीं। भौतिक रूप से सुलभता और समग्र पात्रता के बीच की खाई विकसित विश्व से प्रौद्योगिकी हस्तांतरण और वित्तीय सहायता की गणना का आधार बन सकती है, जो भारत के लिये वैध देय होगी। इस तरह का एक पात्रता परिप्रेक्ष्य सभी देशों के लिये वकसित किया जा सकता है, जो अन्य प्रकाशनों में किया गया है। विकासशील देशों में कुछेक देशों को तेल या अन्य संसाधनों के निष्कर्षण पर अपनी ऐतिहासिक निर्भरता के कारण उनके उचित हिस्से से अधिक कार्बन क्षेत्र की एक छोटी पात्रता की आवश्यकता हो सकती है (देखें विंकलर 2011 में कानिकटकर आदि)।

कई अन्य प्रस्ताव, विशेष रूप से अन्य विकासशील देशों से प्राप्त प्रस्ताव, जलवायु परिवर्तन को मंद करने की किसी भी व्यवस्था के लिये मार्गदर्शक सिद्धान्त के रूप में समानता पर ध्यान केन्द्रित करते हैं और विकसित और विकासशील देशों के बीच जिम्मेदारी के एक भिन्न आवंटन का प्रस्ताव करते हैं। जलवायु परिवर्तन को मंद करने के प्रस्तावों को मोटे तौर पर दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है - स्टॉक आधारित प्रस्ताव और प्रवाह आधारित प्रस्ताव। प्रवाह आधारित प्रस्ताव मंदन में समानता सुनिश्चित नहीं कर सकते, क्योंकि भिन्न-भिन्न उत्सर्जन प्रक्षेप पथों में भिन्न-भिन्न संचयी उत्सर्जन निहित होता है। प्रवाह आधारित प्रस्ताव, जो मंदन के बोझ को सामान्य कामकाज से विचलन प्रक्षेप पथ के रूप में बाँटता है, वह और भी अधिक समस्यास्पद है, क्योंकि मंदन का बोझ पूरी तरह सामान्य कामकाज प्रक्षेप वक्र के द्वारा निर्धारित किया जाता है, जिसके काफी मनमाने निर्धारण की सम्भावना है। इस तरह का मनमाने ढँग से निर्धारण मंदन के बोझ को महत्त्वपूर्ण स्तरों पर कम या अधिक कर सकता है। स्टॉक आधारित प्रस्ताव, जो शमन लक्ष्यों को आवंटित करने के लिये संचयी उत्सर्जन के आधार का उपयोग करते हैं, वे अधिक दृढ़ और वैज्ञानिक हैं। जैसा कि हमने पहले उल्लेख किया है, स्टॉक आधारित प्रस्तावों को, विशेष रूप से हाल ही में वैज्ञानिक साहित्य में महत्त्वपूर्ण समर्थन प्राप्त हुआ है लेकिन कई विकसित देशों के इस तरह के प्रस्ताव ऐतिहासिक जिम्मेदारी को नजरअंदाज करते हैं।

हालाँकि दुर्भाग्य से, यहाँ तक कि विकासशील देशों के पक्ष में भी, प्रस्तावों के मुख्य भाग में मंदन दायित्वों के वितरण के लिये आधार के रूप में भूमिका (राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान) है। इस प्रकार मंदन के लिये एक बॉटम-अप दृष्टिकोण अपनाने का एक अंतर्निहित समझौता है - जिसमें पक्ष और स्वेच्छा से अपने मंदन कार्यों की सीमा और उनका स्वरूप प्रस्तुत कर रहे हैं- किसी तरह की चर्चा के बिना कि यह कैसे सुनिश्चित किया जाएगा कि इन कार्यों का कुल योग समानता को सुनिश्चित करते हुए साथ-साथ ही तापमान वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे सीमित करने के लिये आवश्यक कुल प्रयासों के बराबर होता है।

अंततः जो वैश्विक जलवायु समझौता होगा, क्या कार्बन बजट दृष्टिकोण उसका वास्तविक रूप हो सकता है? यह भविष्यवाणी करना कठिन है और फिलहाल तो, विकसित देश मजबूती से इसके खिलाफ हैं, जबकि कई विकासशील देश इस प्रस्ताव के दायरे को पूरी तरह से समझ नहीं सके हैं। फिर भी, विकसित देश संचयी उत्सर्जन सीमा के बारे में बहुत बारीकी से समझते हैं और निस्संदेह वे इसका प्रयोग किसी भावी स्थिति समझौता वार्ता में करेंगे। हमारा आग्रह है कि भारत के लिये, यह दृष्टिकोण कम से कम वह न्यूनतम मानदंड होना चाहिए, जिसके द्वारा अन्य प्रस्तावों और मंदन कार्यों की वैधता की जाँच की जानी चाहिए और भारत की अपनी जरूरतों पर उनके सम्बन्धित प्रभावों का उचित मूल्यांकन होना चाहिए।

सन्दर्भ
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