समावेशी विकास का नया मंत्र

आने वाले दस साल में आर्थिक वृद्धि की रफ्तार को बनाए रखने के लिए देश की बिजली उत्पादन की क्षमता 300,000 मेगावाट हो जानी चाहिए और इसके लिए जरूरी है कि जल-विद्युत परियोजनाओं की तादाद ज्यादा बढ़े। ज्यादातर बांध जैव-विविधता वाले क्षेत्रों में बनेंगे, इसलिए विशेषज्ञों का अनुमान है कि इलाके में जैव-विविधता घटकर एक तिहाई रह जाएगी और वनों के आकार में तकरीबन 1700 वर्ग किलोमीटर की कमी आएगी। लोगों की जीविका या संस्कृति के नाश या फिर विस्थापन की बात तो खैर है ही। वन और पर्यावरण मंत्रालय के बारे में उद्योग-जगत की आम धारणा है कि वह पर्यावरण पर होने वाले नुकसान के आकलन की आड़ में परियोजनाओं की मंजूरी में अड़ंगे लगाता है। उद्योग-जगत की इस राय से प्रधानमंत्री भी सहमत हैं। बीते नवंबर महीने में मंत्रिमंडल में नए चेहरे शामिल हुए तो उसके आगे प्रधानमंत्री ने अपनी सरकार की प्राथमिकताओं को दोहराते हुए कहा था कि वित्तीय घाटा देशी और विदेशी निवेश की राह रोक रहा है और निवेश की राह में खड़ी बाधाओं में एक नाम उन्होंने 'एन्वायरनमेंटल क्लियरेंस' का भी गिनाया था। ऐसा कहते समय निश्चित ही प्रधानमंत्री की नजर में वन और पर्यावरण मंत्रालय से जुड़ीं वे समितियां रही होंगी, जिनका गठन मंत्रालय ने 2006 की एक अधिसूचना के बाद किया था। यह अधिसूचना पर्यावरण सुरक्षा अधिनियम 1986 के तहत जारी की गई। अधिसूचना के केंद्र में पर्यावरण की सुरक्षा की चिंता तो थी ही, एक कोशिश 'विकास' की धारणा को समग्रता में देखने की भी थी और इसी के अनुकूल जारी अधिसूचना के उद्देश्य बड़े महत्वाकांक्षी थे। एक तो इसमें यह कहा गया कि किसी भी विकास परियोजना की मंजूरी इस तरह से ठोंक-बजाकर दी जाएगी कि उसके साकार होने के बाद पर्यावरण के नुकसान की आशंका न्यूनतम रहे।

दूसरे, इसमें पहली बार माना गया कि विकास परियोजनाएं सिर्फ निवेश और विकास का ही मुद्दा नहीं हैं, उनके साथ विस्थापन, संस्कृति-लोप और जीविका के नाश का भी मुद्दा शामिल रहता है इसलिए किसी विकास परियोजना को मंज़ूर करते वक्त पूँजी लगाने वाले के साथ-साथ प्रभावित होने वाले स्थानीय लोगों की भी सुनी जाएगी। अधिसूचना में कुल मिलाकर माना गया कि विकास परियोजनाओं की मंजूरी सिर्फ लागत और लाभ के अर्थशास्त्र का ही मामला नहीं है, वह संसाधनों पर समाज के हक का भी मामला है इसलिए परियोजनाओं की मंजूरी समग्र प्रभाव को नजर में रखकर होनी चाहिए।

एक तरह से देखें तो उदारीकरण के बाद के दौर में सरकारें जिन मंत्रों की मोहिनी फूंक रही हैं- वन और पर्यावरण मंत्रालय की अधिसूचना उसी का एक नमूना था। नया मंत्र जनता की भागीदारी पर आधारित लोकतंत्र बनाने का है। यानी, एक ऐसा लोकतंत्र जिसमें सरकार के फ़ैसलों में खुद जनता भी भागीदार हो, साथ ही फैसला लेने की पूरी प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने पर भी जोर है ताकि किसी से कोई भी सूचना छुपी न रहे और हर कोई उपलब्ध सारी जानकारी की तुला पर अपने हानि-लाभ को तौल कर इस प्रक्रिया में भागीदार हो सके। राजनीति का यह नया शब्दकोश विश्वास दिलाता है कि इस राह पर चलकर शासन का चेहरा सर्व-समावेशी और विकास का चेहरा मानवीय होता जाएगा। ये मंत्र ऐसे हैं कि इनके आगे उदारीकरण के विकासवाद का कोई भी विरोधी घुटने टेक दे। भागीदारी आधारित लोकतंत्र और सर्व-समावेशी विकास - यानी मनुष्य को उसकी नियति का नियंता बनाने का एक विराट आयोजन। इस आयोजन के बारे में सोचें तो लगेगा- असली वक्त तो यही है आधुनिकता के अब तक अधूरे पड़े उन वादों को पूरा करने का जो कभी फ्रांसिसी-क्रांति ने सारी दुनिया से किया था।

चर्च-पोप-परमेश्वर को अपदस्थ करके अगर मनुष्य को जगत-जीवन के केंद्र में स्थापित करने के क्रम में आधुनिकता के किसी चरण में कोई कमी रह गई थी तो उस कमी को दूर करने का असली वक्त तो यही है जब सरकारें खुद नियम बनाकर कह रही हैं कि 'आओ, हे बोझ से थके हुए और अब तक हाशिए पर पड़े मेरे लोगों! अपने भाग्य का फैसला आप करो।'

बहरहाल, शब्द चाहे साहित्य के हों या राजनीति के, अक्सर छल ही करते हैं। वन और पर्यावरण मंत्रालय ने जारी अधिसूचना के उद्देश्यों को ध्यान में रखकर जो समितियां बनाईं उनके कामकाज की समीक्षा से, कम से कम यही निष्कर्ष निकलता है। अधिसूचना के बाद जो समितियां बनाई गईं, उन्हें विकास परियोजनाओं के मूल्यांकन से जुड़ी विशेषज्ञों की शीर्ष समिति यानी एक्सपर्ट अप्राइजल कमेटी कहा गया।

नाम के अनुरूप इनका ज़िम्मा नदी-घाटी विकास परियोजना और जल-विद्युत परियोजनाओं सहित अन्य विकास परियोजनाओं का 'समग्र प्रभाव' के लिहाज से मूल्यांकन करना और इस मूल्यांकन के आधार पर उसे मंज़ूर या खारिज करना था। समितियों का गठन 2007 के अप्रैल महीने में हुआ था और बीते दिसंबर 2012 तक नदी-घाटी और जल-विद्युत परियोजना के मूल्यांकन से जुड़ी समिति की 63 बैठकें हो चुकी थीं।

बांधो में डूबती जैव विविधताबांधो में डूबती जैव विविधतातकरीबन छह साल की इस अवधि में समिति ने जल-विद्युत से संबंधित कुल 262 परियोजनाओं पर विचार किया और द साऊथ एशियन नेटवर्क ऑन डैम्स, रीवर्स एंड पीपल नाम की संस्था के रिपोर्ट को मानें तो समिति ने किसी भी जल-विद्युत परियोजना को न तो पर्यावरण के लिहाज से नुक़सानदेह माना, न ही उसके बाकी प्रभावों को ध्यान में रखकर खारिज करने लायक समझा यानी समिति की तरफ से छह साल के दौरान जल-विद्युत परियोजनाओं के मामले में मंजूरी शत-प्रतिशत रही।

इस सौ फीसदी मंजूरी के पीछे कोई विवेक तो होगा ही। यह विवेक कहता है कि आने वाले दस साल में आर्थिक वृद्धि की रफ्तार को बनाए रखने के लिए देश की बिजली उत्पादन की क्षमता 300,000 मेगावाट हो जानी चाहिए और इसके लिए जरूरी है कि जल-विद्युत परियोजनाओं की तादाद ज्यादा बढ़े।

सरकारी विवेक बिजली का समाधान जल-विद्युत परियोजनाओं में देखता है और सरकार की योजना 2025 तक जल-विद्युत परियोजनाओं के जरिए 110000 मेगावाट बिजली-उत्पादन की है। मंजूरी विकास के इसी विवेक से दी गई और दिक्कत भी यही है क्योंकि ऐसा करने का मतलब होगा, हिमालयी नदी घाटी क्षेत्र में हर तीन सौ वर्ग किलोमीटर पर एक जल-विद्युत केंद्र का होना।

चूंकि ज्यादातर बांध जैव-विविधता वाले क्षेत्रों में बनेंगे, इसलिए विशेषज्ञों का अनुमान है कि इलाके में जैव-विविधता घटकर एक तिहाई रह जाएगी और वनों के आकार में तकरीबन 1700 वर्ग किलोमीटर की कमी आएगी। लोगों की जीविका या संस्कृति के नाश या फिर विस्थापन की बात तो खैर है ही।

लेखक सीएसडीएस से संबद्ध हैं।

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