समझें प्रकृति के ताप करें बेहतर कर्म

विचार करने की बात है कि जब अपने प्रकृति को ही नहीं समझ पाते हैं तो इस महा-प्रकृति को कैसे समझ सकते हैं। अपने प्रकृति को जो समझ लेता है और बेहतरी की तरह आगे बढ़ने लगता है, उसे कोई समस्या सताती नहीं है। हम या तो अतीत में गोता लगाते रहते हैं या भविष्य की कल्पनाओं में तैरते रहते हैं। दोनों हमारे लिए कोई समाधान नहीं देते हैं। इसलिए वर्तमान को सुधारने की जरूरत है। वर्तमान को सुधार कर हम अपने अतीत और भविष्य दोनों को बेहतर बनाकर प्रकृति के तापों को बहुत ही धैर्यपूर्वक सामना कर सकते हैं। वेदों में तीन सत्ताओं को सत्य, अनादि और अविनाशी माना गया है। ये सत्ताएं हैं-ईश्वर, जीव और प्रकृति। इसमें ईश्वर सबसे शक्तिशाली और अबूझ है। जो इसे बूझ लेते हैं उसे ऋषि कहा गया है। यह साधना का विषय है। योग दर्शन में ईश्वर को प्राप्त करने के बारे में बहुत ही विस्तार से वर्णन किया गया है। दुनिया के तमाम धार्मिक और आध्यात्मिक ग्रंथों में इसको हासिल करने के उपाय बताए गए हैं। इसके बाद नंबर आता है जीव का जीव के बारे में वेदों में इसे स्वतंत्र सत्ता कहा गया है। तुलसी महाराज इसे ईश्वर का अंश बताते हैं। इसमें सत और चित तो है लेकिन आनंद नहीं है। इसे आनंद ईश्वर की अनुकंपा के जरिए योग साधना के बाद हासिल होता है। तीसरा सत्ता जो स्वतंत्र है उसे प्रकृति कहा गया है। प्रकृति दो तरह की होती है। एक-सूक्ष्म प्रकृति और दूसरी-स्थूल प्रकृति। स्थूल प्रकृति का साक्षात्कार हम रोज़ाना करते हैं लेकिन सूक्ष्म प्रकृति का साक्षात्कार बहुत ही साधना के बाद हासिल होता है। प्रकृति हमेशा से विद्यमान रही है और रहेगी। यह कभी पूर्णतः विनाश को नहीं प्राप्त होती है। कहा जाता है जो इंसान प्रकृति के सानिध्य में रहता हुआ माया से ग्रसित नहीं होता है, वह कभी क्षय को प्राप्त नहीं होता है। लेकिन यह सहज नहीं है।

हर इनसान तीन तरह के तापों से ग्रसित होता है। यहां तक कि भगवान कहे जाने वाले राम, कृष्ण और परशुराम भी इन तीन तापों से बच नहीं पाए। इसलिए कहा जाता है, मनुष्य की देह धरकर जो भी इस दुनिया में आएगा उसे इन तीन तापों का सामना करना ही पड़ेगा। इसलिए इन तीन तापों से छूटने के उपाय बुद्धिमानीपूर्वक करना चाहिए। ये तीनों ताप हैं – दैहिक, दैविक और भौतिक। जरूरी नहीं है कि तीनों ताप सभी को सताते हों। इनसे बचने का सबसे कारगर उपाय है ईश अनुकंपा हासिल करना। साथ ही, परोपकार के कार्य सतत करते रहना और प्रकृति के नियमों के मुताबिक ही जिंदगी बसर करना। प्रकृति के नियम को जानने के लिए वेदों का स्वाध्याय जरूरी है। वेदों में प्रकृति के नियमों की विस्तार से व्याख्या की गई है। ये नियम बहुत ही सरल और व्यावहारिक हैं। जैसे कोई भी प्रतिकूल कार्य न करना, जिससे किसी को दुख मिले। सतत धैर्यवान बनकर अपने कर्तव्य पर चलते रहना। हमेशा संतुलन में रहना और अपने स्वार्थ में ऐसे कुछ न करना जिससे किसी भी प्राणि को दुख मिले। मन, वाणी और कर्म की पवित्रता को बनाए रखना। इस तरह प्रकृति से संतुलन रखते हुए सतत कार्य करते रहना।

इस सृष्टि में कण-कण का अपना धर्म और स्वभाव है। जैसे जल का स्वभाव बहते रहना और धर्म बिना किसी भेदभाव के हर किसी को ठंडक पहुंचाना है। प्रकृति का स्वभाव और धर्म स्थिर बने रहना और प्राणि तथा अप्राणि को क्षति न पहुंचाना है। सतत अपने कार्यों में लगे रहना और अपने गुण धर्म के मुताबिक कार्य करना है। ऐसा ही इंसान को बनने की जरूरत है। जो इस प्रकृति को समझकर अपने कर्तव्य का सम्यक पालन करता है उसे प्रकृति के दाह परेशान नहीं करते हैं। दरअसल इंसान अपने धर्म, कर्तव्य और स्वभाव के मुताबिक कर्तव्य नहीं करता है अपना स्वार्थ सिद्ध करना ही अपना धर्म मानता है। इसलिए वह तमाम तरह के तापों से ग्रसित रहता है। एक सीधी सी बात है कि दुख देने से दुख मिलता है और सुख देने से सुख मिलता है इस बात को हम समझ नहीं पाते हैं या समझते हुए भी उसपर अमल नहीं कर पाते हैं। यह ज्ञान, धैर्य, संतोष, सहिष्णुता और करुणा की भावना से दूर होने के कारण ऐसा होता है। साधनों के जरिए इन कमियों को हम दूर कर सकते हैं। कहते हैं करत करत अभ्यास ते जड़मति होत सुजान। लेकिन हम इस सत्य युक्ति पर भी ईमानदारी से अमल नहीं कर पाते हैं। जिसका परिणाम यह होता है कि जिंदगी हमारी यूं ही बीत जाती है और हम प्रकृति के नज़दीक नहीं आ पाते हैं।

विचार करने की बात है कि जब अपने प्रकृति को ही नहीं समझ पाते हैं तो इस महा-प्रकृति को कैसे समझ सकते हैं। अपने प्रकृति को जो समझ लेता है और बेहतरी की तरह आगे बढ़ने लगता है, उसे कोई समस्या सताती नहीं है। हम या तो अतीत में गोता लगाते रहते हैं या भविष्य की कल्पनाओं में तैरते रहते हैं। दोनों हमारे लिए कोई समाधान नहीं देते हैं। इसलिए वर्तमान को सुधारने की जरूरत है। वर्तमान को सुधार कर हम अपने अतीत और भविष्य दोनों को बेहतर बनाकर प्रकृति के तापों को बहुत ही धैर्यपूर्वक सामना कर सकते हैं। लेकिन इस तरफ विचार ही नहीं करते हैं। वेदों में कहा गया है – हम सच्चे मायने में इंसान तभी बन सकते हैं, जब हमारे अंदर ज्ञान पूर्वक कार्य करने की भावना और साहस हो। एक आदर्श मनुष्य के रूप में हमारा सारा जीवन बीते तो कोई वजह नहीं कि हम प्रकृति का सानिध्य न प्राप्त कर पाएं। सोचिए, विचारिए और फिर ज्ञानपुर्वक आगे बढ़ने के लिए निर्णय लीजिए। निश्चित ही तीनों तापों हम बचकर अपने परम लक्ष्य मोक्ष को हासिल कर लेंगे।

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