सामाजिक स्वीकार्यता की कसौटी पर बांध

सामाजिक स्वीकार्यता की कसौटी पर बांध
सामाजिक स्वीकार्यता की कसौटी पर बांध

भारतीय समाज लगभग 6000 साल पहले से पानी से दो मोर्चों पर जूझ रहा है। पहला मोर्चा है बाढ़ और दूसरा मोर्चा है पानी की बारहमासी निरापद आपूर्ति। सभी जानते हैं कि, बाढ, अस्थायी आपदा है इसलिए भारतीय समाज ने बसाहटों को, नदियों सुरक्षित दूरी पर बसाया। दूसरे मोर्चे पर सफलता हासिल करने के लिए उन कुदरती लक्षणों को समझने का प्रयास किया जो पानी की सर्वकालिक एवं सर्वभौमिक उपलब्धता सुनिश्चित करते है। लगता है, यही जद्दोजहद जल संरचनाओं के विकास का आधार बनी होगी। जल संरचनाओं के विकास के उल्लेखनीय उदाहरण हैं - दक्षिण बिहार की आहर-पईन, जम्मू की कुहल, उत्तराखंड की नौला, अरुणाचल की अपतानी, नागालेंड की जाबों, राजस्थान की खड़ीन और टांका, महाराष्ट्र की फड, केरल की सुरंगम, अलीराजपुर, मध्यप्रदेश की पाट संरचना इत्यादि। उक्त उदाहरणों के आधार पर कहा जा सकता है कि भारत के प्रबुद्ध समाज ने अपनीलम्बी जीवन यात्रा में, पानी के हर संभव स्त्रोत यथा बरसाती पानी से लेकर भूमिगत जल, जीवन्त झरनों और नदियों से लेकर बाढ़ तक के पानी को संचित करने के लिए उपयुक्त संरचनाओं का विकास किया। उन संरचनाओं के निर्माण का लक्ष्य था, मानसून की सौगात का 365 दिन लाभ उठाना। संरचना निर्माण से जुडा यह विकास कर्म, कौशल और समझदारी का जीता-जागता उदाहरण है।  

देश के विभिन्न भागों में बनी परम्परागत जल संरचनाओं की पानी सहेजने की फिलासफी को समझकर, उन्हे आसानी से वर्गीकृत किया जा सकता है। इस वर्गीकरण के अनुसार, असरकारी संरचनाओं में मूख्य हैं परम्परागत बांध और परम्परागत तालाब। उल्लेखनीय है कि परम्परागत बांधों का निर्माण ईसा से लगभग तीन सहस्त्राब्धी पहले कच्छ के इलाके में प्रारंभ हो चुका था। बांध निर्माण में भारत का दक्षिणी भूभाग भी पीछे नहीं था। चोल और पांड्य राजाओं के सत्ता में आने के सदियों पहले तिरुनेलवेली जिले में पत्थरों से स्थायी बांधों का निर्माण होने लगा था। परम्परागत बांध निर्माण का अन्य उल्लेखनीय उदाहरण है राजा भोज (सन 1010 से सन 1055) द्वारा भोपाल के पास भोजपुर में बनवाया बांध। लगभग 65000 हैक्टर में फैले इस बांध को चैदहवीं सदी में होशंगशाह ने तुडवा दिया था। उस दौर में भी बांधों का निर्माण, उपयुक्त भौगोलिक परिस्थितियों में, नदी की मुख्य धारा पर पाल डाल कर किया जाता था। अतिरिक्त बरसाती पानी की निकासी के लिए पक्का वेस्टवियर बनाया जाता था।

जहाँ तक परम्परागत तालाबों का प्रश्न है तो भारत में तालाबों का निर्माण ही मुख्य धारा में था। उनका निर्माण गंगा और सिन्धु नदी के कछार, पश्चिम बंगाल, झारखंड, ओडिसा, छत्तीसगढ़, सम्पूर्ण मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र तथा मरुस्थली इलाके को छोडकर समूचा राजस्थान, तेलंगाना, आन्ध्र प्रदेश, तामिलनाडु, गुजरात, केरल तथा दमन एवं दीव में होता था। वे मुख्यतः दो प्रकार के होते थे - जल संचय तालाब और भूजल को समृद्ध करने वाले जल संचय तालाब। जल संचय तालाबों का निर्माण निस्तार के लिए तथा भूजल समृद्ध करने वाले तालाबों का निर्माण क्षेत्रीय जल सन्तुलन तथा नमी संरक्षण के लिए किया जाता था। जहाँ तक कुओं तथा बावडियों के निर्माण का प्रश्न है तो वे बने तो बडी संख्या में हैं पर सीमित जल क्षमता के कारण, बांधों तथा तालाबों की तुलना में उनका महत्व काफी कम है।

जाहिर है, बांधों और तालाबों के निर्माणों के लिए, स्थानीय मौसम, धरती का भूगोल की गहरी समझ के अलावा उच्च स्तरीय तकनीकी ज्ञान, उपयुक्त निर्माण सामग्री और निर्माणकर्ताओं की सहज उपलब्धता अनिवार्य है। अनुभव बताता है कि प्राचीनकाल में भारत में तालाबों की तुलना में बांधों की स्वीकार्यता कम थी। छोटी-छोटी नदियों पर भले ही बांध बने पर बडे बांधों का निर्माण प्रचलन में नहीं था। यदि बडे बांध कहीं बने थे तो वे अपवाद स्वरुप थे। जहाँ तक परम्परागत तालाबों का प्रश्न है तो साईज की कमी-वेशी के बावजूद, वे ही मुख्य धारा में थे। उनकी गहराई के अधिक होने के उनमें संचित जल का आधार बरसाती पानी (रन-आफ) के अलावा भूजल भी था। रन-आफ, भंडारण तथा वेस्टवियर से अतिरिक्त पानी की निकासी के सटीक गणितीय सम्बन्ध के कारण वे लगभग गादविहीन तथा बारहमासी होते थे।

उल्लेखनीय है कि अंग्रेजों के भारत पर काबिज होने के बाद बांधों और तालाबों के पारम्परिक जलविज्ञान की अनदेखी हुई और विदेशी जलविज्ञान, नए निर्माणों का आधार बना। आजादी के बाद आधुनिक बांधों के निर्माण का सिलसिला चालू रहा। उन्हें को भारत के नए तीर्थ की संज्ञा मिली। उनके बनने से सिंचाई क्षमता का काफी विस्तार हुआ और परम्परागत तालाबों का महत्व कम हुआ।  

किसी भी जल संरचना की स्वीकार्यता के अनेक मापदण्ड हो सकते हैं। उदाहरण के लिए समाज का  पुराना अनुभव, लागत, निर्माण अवधि, क्षेत्रीय जल संन्तुलन, वायोडायवर्सिटी एवं नदी के प्रवाह पर अच्छा बुरा प्रभाव, गाद निकासी, लम्बा सेवाकाल, न्यूनतम पर्यावरणी दुष्परिणाम, निर्माण की सहजता, न्यूनतम विस्थापन इत्यादि इत्यादि।और भी मापदण्ड हो सकते हैं पर स्वीकार्यता की उपर्युक्त कसौटियों पर यदि आधुनिक बांघों और परम्परागत तालाबों को परखा जावे तो पता चलता है कि -

अनुभव

पुराना अनुभव बताता है कि जहाँ बांधों का निर्माण उपयुक्त भौगोलिक परिस्थितियों में ही किया जा सकता है वहीं तालाबों का निर्माण लगभग हर जगह संभव है। इसके अलावा, बांधों से केवल कमाण्ड को पानी उपलब्ध कराया जा सकता है वहीं तालाबों की जल उपलब्धता को सर्वकालिक एवं सर्वभौमिक बनाया जा सकता है। अर्थात तालाबों की स्वीकार्यता अपेक्षाकृत बेहतर हैं। विकेन्द्रीकृत सेवा है।

लागत

बांधों के निर्माण पर बडी राशि खर्च होती है वहीं तालाबों का निर्माण व्यय और प्रति इकाई पानी की दर अपेक्षाकृत काफी कम है। इसकी सत्यता, जल संचय की प्रति क्यूबिक मीटर लागत की तुलना द्वारा जानी जा सकती है।  

निर्माण अवधि

तालाबों की तुलना में बांधों के निर्माण की अवधि बहुत अधिक होती है। बांधों के निर्माण की अवधि के अधिक होने के कारण उनके लाभों को समाज तक पहुँचने में काफी समय लगता है।    
 
क्षेत्रीय जल संन्तुलन

बांधों की तुलना में तालाबों खासकर परकोलेशन तालाबों के प्रभाव से क्षेत्रीय जल संन्तुलन बेहतर होता है तथा लाभों को समाज तक पहुँचने में काफी कम समय लगता है। तालाब, जल संग्रह के विकेन्द्रीकृत और बांध केन्द्रीकृत उदाहरण है। केवल तालाबों की मदद से ही जल स्वराज की अवधारणा को जमीन पर उतारा जा सकता है। जल संकट को नियंत्रित किया जा सकता है।
 
वायोडायवर्सिटी एवं नदी के प्रवाह पर प्रभाव,

बांधों के निर्माण से वायोडायवर्सिटी पर बुरा असर पडता है एवं नदी का अविरल प्रवाह बाधित होता है। तालाबों के मामले में यह प्रभाव बेहद कम है।    
 
सेवाकाल

बांधों की तुलना में परम्परागत तालाबों का सेवाकाल काफी लम्बा होता है। इस अन्तर के कारण, समाज को तालाबों से अधिक समय तक लाभ प्राप्त होता है।    
 
पर्यावरणी प्रभाव  

परम्परागत तालाबों की तुलना में बांधों के पर्यावरणी दुष्परिणाम अधिक हंै। इसका खामयाजा समाज को भोगना पडता है।    
 
निर्माण

बांधों की तुलना में तालाबों का निर्माण सहज है। उनके निर्माण में समाज की भागीदारी संभव है। तकनीकी जटिलता के कारण, बांधों के निर्माण में, समाज की भागीदारी लगभग शून्य होती है।    
 
विस्थापन

बांधों की तुलना में तालाबों द्वारा होने वाला विस्थापन सामान्यतः शून्य होता है। इस कारण उनकी सामाजिक स्वीकार्यता बेहतर है।
अन्त में, गहराते जल संकट और सामाजिक स्वीकार्यता की कसौटी पर कम अंक लाने के बावजूद बांधों का निर्माण मुख्य धारा में है। लगता है हमारी पृज्ञा हाशिए पर है और वह उपेक्षा तथा अनदेखी की शिकार हैं।    

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading