समृद्धि का संगम

चीन ने तिब्बत से आने वाले भारत के प्रमुख नद ब्रह्मपुत्र को रोककर बिजली और सिंचाई के साधन बढ़ा लिए हैं। चूंकि तिब्बत को चीन अपना ही इलाका समझता है, इसलिए वह वहां की ऐसी नदियों के साथ भी मनमानी कर रहा है, जो लंबा सफर भारत में तय करती हैं। तिब्बत और चीन से आनेवाली नदियां भारत की परिस्थितियों और भूगोल को भी निर्धारित और प्रभावित करती हैं। अधिकांश भारतीय नदियों के उद्गम का स्रोत हिमालय में है और हिमालय का सजल ह्दय मानसरोवर चीन में।

भारत न केवल अपने हिमालयी सीमांत के प्रति लापरवाह है, बल्कि नदियों के प्रति उसकी असावधानी गंगा को निर्मल बनाने की नकली मुहिम से भी नहीं छिप पा रही। हमारी सरकार को सबसे पहले उन नदियों का मानचित्र प्रस्तुत करना चाहिए, जिनकी जड़ें देश की सीमाओं से बाहर हैं। बाहर से आनेवाली नदियों के उद्गम की देखभाल में सरकार को आर्थिक रूप से शामिल होना चाहिए। आखिर नदियों को किसी भी राष्ट्र की भाग्यरेखा कहा गया है।

ऐसी ही एक नदी तिब्बत से निकलकर उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले में आती है। इस नदी को ‘जाड़गंगा’ के नाम से जाना जाता है। गंगोत्री से लगभग 15 किलोमीटर पहले भैरव घाटी में इसका भागीरथी के साथ संगम होता है। बरसाती महीनों में इसका जलस्तर गंगा से छह गुना होता है और सामान्य मौसम में चार गुना। भारत-चीन सीमा से भैरव घाटी तक इस नदी को लगभग 200 किलोमीटर का सफर तय करना पड़ता है। इस नदी की विशेषता है कि इसमें रेत नहीं आती, क्योंकि यह तिब्बत से भैरव घाटी तक फैले हुए पठारों के ऊपर से प्रवाहित होकर आती है। भागीरथी गंगा में बहिरागत जाडगंगा पहला संगम बनाती है। गंगा के इस प्रथम संगम पर भैरव घाटी में सुंदर पर्यटन स्थल विकसित किया जा सकता है, लेकिन पर्यटन विभाग की सूची में इस जगह का विकास शामिल नहीं है। यह भी मान्यता है कि जाडगंगा असल में जाह्नवी है और प्रथम संगम के बाद वह भी गंगा में विलीन हो जाती है। भैरव घाटी से लगभग 20 किलोमीटर पहले दुनिया का सबसे नयनाभिराम प्राकृतिक स्थल हर्षिल है। यह पूरी घाटी नंदन कानन जैसी आकर्षक और शांत है। चारों ओर सेब के बाग, समतल घाटी और सड़क, अपने ही पार्श्व से बहती हुई गंगा निर्मल आकाश और हरापन चारों ओर फैला हुआ है।

तिब्बत से भारत आ रही जाडगंगा पर चीन बांध बनाकर बिजली और सिंचाई के साधन विकसित करे, उससे पहले करीब 200 किलोमीटर लंबे इस नदी क्षेत्र में भारत को पनबिजली योजनाओं की शुरुआत कर देनी चाहिए। इससे बिजली का अकाल दूर किया जा सकता है। इससे इस सीमांत क्षेत्र के गांवों में 1962 से भागे हुए लोग फिर से बस जाएंगे। नतीजतन खेती, भेड़-बकरी पालन और ऊन के कुटीर उद्योग पहले की तरह पर्यटकों को उनकी पसंद का सामान उपलब्ध करा सकेंगे। इससे जादुंग और नेलंग जैसे गांव फिर से आबाद हो जाएंगे, जहां रुककर महापंडित राहुल सांकृत्यायन और कवि नागार्जुन ने तिब्बत जाने के लिए अच्छे मौसम की प्रतीक्षा की थी और जहां से राजस्थान के यायावर लेखक रामेश्वर टांटिया राहुल जी के बाद तिब्बत गए।

जाडगंगा पर छोटे-छोटे बांध और विद्युत गृह बनने से भागीरथी की निर्मलता और भी बढ़ जाएगी, क्योंकि जाडगंगा में पहले ही सिल्ट की मात्रा अत्यंत नगण्य होने से यदि कहीं कुछ प्रदूषण आता भी होगा, तो वह भी फिल्टर हो जाएगा। जाडगंगा हमारी जड़ता को तोड़ सकती है। जाह्नवी हमारी प्रकाश-गंगा का स्थान ले सकती है। भैरव घाटी को हम बिजली की घाटी बना सकते हैं। गंगा के इस प्रथम संगम को हम तीर्थस्थल की वही गरिमा दे सकते हैं, जो पुराणों में शिव के प्रमुख गण भैरव ने इसे दी थी।

प्राकृतिक संपदाओं का सामाजिक समृद्धि के लिए उपयोग उत्तराखंड को सीखना होगा। अन्यथा हिमालय की गोद में एक गरीब राज्य बनकर जीना बहुत ही पीड़ादायक लगता है। उत्तराखंड जितना अपने को धर्म, तीर्थ और देवताओं से जोड़ता है, उस मुकाबले वह अभी अपने को विज्ञान से नहीं जोड़ पाया है। अन्यथा यह देवभूमि के साथ विज्ञान भूमि भी हो गया होता। उत्तराखंड के पास सर्वाधिक प्राकृतिक संसाधन हैं। लेकिन उनसे क्या-क्या बनाया जा सकता है, इसका विचार और प्रशिक्षण यहां की सरकार की प्राथमिकता में नहीं है। गंगा-यमुना की कई बड़ी-बड़ी सहायक नदियां हैं, जिन पर मध्यम श्रेणी की पनबिजली परियोजनाएं स्थापित की जा सकती हैं। गंगा-यमुना से अधिक जलराशि वाली नयार और पिंडर नदियां टिहरी बांध से उत्पन्न होने वाली बिजली से आठ गुनी बिजली पैदा कर सकती हैं। हमने नदियों की अनवरत जलराशि को अनंत काल से समुद्र में समाने के लिए अविकल-अविरल बहने दिया है। जाहिर है, हम जल शक्ति को उस तरह नहीं पहचान सके, जिस तरह पश्चिम के देशों ने पहचाना। प्रकृति के सामने भारतीय समाज की चेतना जितनी मजबूर हो जाती है, वैसी विवशता दुनिया की किसी अन्य प्रजाति में नहीं दिखती।

नदियों का जन्म केवल समुद्र में समाने के लिए नहीं हुआ है। उत्तराखंड को जल-ऊर्जा की मातृभूमि बनाया जाना जरूरी है। सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा के लिए यह सबसे मुफीद राज्य है। लेकिन इस ओर अभी तक कोई दिखाई देने वाले कदम यहां की दस वर्षीय सरकार ने नहीं उठाए हैं। राज्य दस वर्ष का है, लेकिन नेतृत्व को तो इतिहास और भविष्य की चिंता होनी चाहिए। काश, उत्तराखंड के बारे में ऐसी चिंता पैदा हो सकती, तो राज्य का कल्याण हो जाता

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading