सन्नाटे की गूँज

17 Jan 2017
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यात्रा एक पर्यावरण आंदोलन की, जिसने विकास योजनाओं को देखने, परखने का नजरिया ही बदल डाला

साइलेंट वैली नेशनल पार्कजब से मुझे केरल की ‘साइलेंट वैली’ के बारे में लिखने को कहा गया था, तब से मेरे सामने एक ही सवाल बार-बार आ रहा था। आखिर इस घाटी को साइलेंट वैली क्यों कहा जाता है? ये 90 वर्ग किलोमीटर में फैली हुई सुंदर और हरी घाटी है।

इस घाटी का नाम बहुत ही असाधारण और खास है। हमारे देश में 100 से भी ज्यादा नेशनल पार्क हैं, जिनमें ज्यादातर का नाम नदी, पहाड़, मिथकीय किरदारों, जानवरों या भूत-पूर्व प्रधानमंत्रियों के नाम पर रखे गए हैं। इन नामों में केवल दो नाम हैं जो उस जगह के अहसास या भाव पर रखे गए हैं, जो नाम रखने की परम्परा को तोड़ते और कल्पनाशील दिखते हैं। इनमें पहला नाम है उत्तराखण्ड की ‘वैली ऑफ फ्लावर्स’ और दूसरा बेहतरीन नाम है ‘साइलेंट वैली’। पर्यावरण पर लिखने वाले वरिष्ठ पत्रकार ‘डैरल डि मॉन्टे’ ने अपनी किताब ‘स्टॉर्म ओवर साइलेंट वैली’ में भी इसके दिलचस्प नाम के बारे में जिक्र किया है।

इस घाटी को पहले ‘सैरन्ध्री’ नाम से जाना जाता था, जो पांडवों की पत्नी द्रौपदी का ही दूसरा नाम है। इसके अलावा यहाँ एक नदी है जिसका नाम पांडवों की माँ ‘कुंती’ के नाम पर है। एक अंग्रेज ने उपनिवेशीय समय में इस अछूती घाटी को खोजा था। उन्होंने पाया कि दूसरी घाटियों में आम तौर पर शाम को जंगलों में झींगुरों की आवाज गूँजती है पर इस घाटी में अंधेरा होने के बाद इस तरह की आवाजें सुनाई नहीं देती। ये इस घाटी की खूबी है।

अल्पख्यात जंगल


साइलेंट वैली हिंदुस्तान के गिने-चुने वर्षा-वनों में से एक है। ‘डिमॉन्टे’ अपनी किताब में लिखते हैं कि हम इस घाटी को ‘शोला फॉरेस्ट’ कहें तो ज्यादा बेहतर होगा। (शोला, वनस्पतियों का एक समूह है जो सिर्फ दक्षिण भारत के पश्चिमी घाटी की तलहटी में पाई जाती है)। ऊँची चोटियों से घिरा यह जंगल इतना घना है कि यहाँ पहुँचना बेहद मुश्किल है। साइलेंट वैली इतनी निर्जन है कि इसके मुख्य क्षेत्र में इंसान के रहने का कोई लिखित सबूत नहीं मिला है। हालाँकि, आस-पास के बफर जोन में कुछ आदिवासी लोग रहते हैं। लेकिन इंसान की दखलअंदाजी से यह जंगल लगभग अछूता रहा है, इस बात ने मेरी उत्सुकता और बढ़ा दी। मैं उस जगह जाने को उत्सुक थी, जो बरसों पहले पर्यावरण बनाम विकास की जबरदस्त बहस का गवाह बना।

मैं तमिलनाडु के कोयंबटूर शहर पहुँची और वहाँ से 62 किलोमीटर दूर साइलेंट वैली नेशनल पार्क के बेस कैंप मुक्काली के लिये मैंने टैक्सी लेने की सोची। अपनी इंग्लिश और टूटे-फूटे तमिल के 20 शब्दों के सहारे मुक्काली जाने के लिये टैक्सी खोजने लगी। लेकिन ‘साइलेंट वैली’ का नाम लेते ही टैक्सी वालों की भौहें चढ़ जाती और वे कंधा झाड़ लेते। उन लोगों ने इसके बारे में कभी सुना ही नहीं था। मैंने सोचा था कि कोयंबटूर के टैक्सी ड्राइवर बहुत-से पर्यटकों को ‘साइलेंट वैली’ ले जाते होंगे, लेकिन ऐसा कुछ था नहीं।

खैर, इसमें इन लोगों का भी बहुत दोष नहीं है। ग्यारह साल पहले स्टूडेंट के तौर पर मैं आदिवासियों की रिपोर्टिंग करते हुए तीन दिन साइलेंट वैली से कुछ ही दूर आटापाड़ी में रही थी। लेकिन उस समय मैंने पर्यावरण आंदोलनों में इस जंगल के ऐतिहासिक महत्त्व पर गौर नहीं किया था। लेकिन इसके बारे में इतना लिखे-कहे जाने के बावजूद साइलेंट वैली इतनी अनजान, इतनी अनदेखी-सी क्यों है? इस घाटी की शांति इसके लिये वरदान है या अभिशाप?

साइलेंट वैली को बचाने के लिये किये गए आंदोलनों में प्रमुख भूमिका निभाने वाले एमके प्रसाद का कहना है कि उन्होंने साइलेंट वैली के बारे में 1972 में तब सुना जब सरकार ‘कुंती नदी’ पर बाँध बनाने की योजना बना रही थी। उस वक्त वे कोझीकोड में बॉटनी के एक शिक्षक थे। उन्होंने बताया कि सरकार की योजना की खबर के बाद मैं उस घाटी में पहुँचा और देखा कि ये जंगल बहुत ही शांत, दुर्लभ और किसी छेड़छाड़ से बचा हुआ था। अगर इस घाटी में सरकार बाँध बना देगी तो कुछ ही सालों में हम इस जंगल को पूरी तरह खो देंगे।

बाँध बनाने का विचार पहली बार 1920 के दशक में सामने आया था। दरअसल ‘कुंती नदी’ केरल में 857 मीटर की ऊँचाई से गिरती हुई मैदानों में बहती है, जो बाँध बनाने के लिये एक आदर्श जगह है। वैसे भी आजादी के बाद सिंचाई और बिजली उत्पादन के लिये बहुउद्देशीय नदी घाटी परियोजनाओं पर खूब जोर दिया गया। सन 1979 तक भारत सरकार अपने योजनागत व्यय का 14 प्रतिशत हिस्सा बाँध और नहरों के निर्माण के लिये आवंटित कर चुकी थी। साइलेंट वैली परियोजना भी इन्हीं में से एक थी। सरकार ‘कुंती नदी’ पर 131 मीटर ऊँचा बाँध बनाना चाहती थी, जो 240 मेगावाट बिजली पैदा करता और केरल के पालघाट व मालापुरम जिलों की 10,000 हेक्टेयर जमीन का सिंचन कर सकता था। हालाँकि यह परियोजना कभी परवान नहीं चढ़ी।

अद्वितीय मुलाकात


तो कोयम्बटूर में मुझे आखिरकार एक टैक्सी ड्राइवर मिल गया जो मुझे गूगल मैप के हिसाब से मुक्काली ले जाने के लिये राजी हो गया। बहुत जल्दी ही हम तमिलनाडु से केरल जाने वाले आड़े-तेड़े और घुमावदार रास्तों पर चल रहे थे। यहाँ चारों तरफ केले, नारियल और स्थानीय फसलों के खेत थे। खेतों के चारों तरफ बिजली की फेंस थी ताकि फसलों को हाथियों से बचाया जा सके।

तय कार्यक्रम के हिसाब से मुझे अगले दिन नेशनल पार्क जाना था। मैं अपने गाइड मारी से मिलने के लिये बहुत उत्सुक थी। 42 साल के मारी को लोग साइलेंट वैली का ‘इन्साइक्लोपीडिया’ मानते हैं। वे 15 साल की उम्र से इस हरी-भरी भूल-भुलैया में वन विभाग के अफसरों, शोधकर्ताओं, फोटोग्राफरों और पर्यटकों को घूमा रहे हैं। मारी थोड़े-बहुत पढ़े-लिखे हैं और अंग्रेजी बिल्कुल ही नहीं बोलते। लेकिन, अनगिनत पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों और जीव-जंतुओं के वैज्ञानिक नाम उन्हें जुबानी याद है। पर्यावरण संरक्षण में अपने योगदान के लिये उन्हें कई पुरस्कार मिल चुके हैं। मारी के पिता भी साइलेंट वैली के मशहूर गाइड रहे हैं।

मारी ने बताया कि बहुत-सी वनस्पतियों के बारे में उन्होंने पश्चिमी देशों के उन वनस्पति विज्ञानियों और प्राणी शास्त्रियों से जाना, जो पिछले इतने बरसों में यहाँ आते-जाते रहे हैं। “लेकिन विडंबना यह है कि मुझे यह नहीं पता कि बहुत-सी प्रजातियों को मलयालम में क्या बोलते हैं। किसी मलयाली ने मुझे यह सब नहीं सिखाया।”

अगली सुबह हम जीप से जंगल की ओर रवाना हुए। हमारे साथ इलाके के फॉरेस्ट अफसर अमीन अहसान एस. और अनुवाद में मदद के लिये कुछ दोस्त भी थे। जंगल में घुसते हुए मानो हम हरे रंग में डूब रहे थे। मारी ने पेड़ के तनों पर लगाए गए कैमरों की तरफ इशारा किया। अमीन अहसान ने बताया कि इन कैमरों ने यहाँ पाँच बाघों की मौजूदगी दर्ज की है। इस जंगल में अन्य परभक्षियों के अलावा तेंदुए और कम से कम दो काले पेंथर भी हैं। यह जंगल इतना घना है कि जंगली जानवरों का दिखाई देना मुश्किल है। लेकिन ‘साइलेंट वैली’ के सबसे नामी जानवरों ने हमें निराश नहीं किया। रास्ते में ही हमें पेड़ की डालियों पर झूलते यहाँ के खास लंगूरों (लॉयन टेल मकैक) के झुंड दिखाई पड़ गया। इन्हेंइन प्राइमेट्स को आईयूसीएन ने विलुप्त प्राय घोषित किया हुआ है। 70 और 80 के दशक में यह जानवर ‘साइलेंट वैली बचाओ अभियान’ का प्रतीक बन गया था, क्योंकि प्रदर्शनकारियों का कहना था कि बाँध बनने से इन लंगूरों का प्राकृतिक आवास बर्बाद हो जाएगा और इनका अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है। जंगल में आगे बढ़ते हुए हमें मालबार की बड़ी-बड़ी गिलहरी और नीलगिरी लंगूर भी दिखाई पड़े। ये तीनों प्राणी खासतौर पर पश्चिमी घाटों के एेसे घने जंगलों में ही पाये जाते हैं।

सेम के फूलऐसे छोटे-मोटे और आमतौर पर नजर में न आने वाले जीव-जंतु ही ‘साइलेंट वैली’ का असली आकर्षण हैं। एक जगह हम 200 साल पुराने कठहल के पेड़ को देखने के लिये ठहर गए। आज भी यह हाथियों, लंगूरों और पशु-पक्षियों को फल देता है। मैंने पेड़ की चोटी देखने के लिये अपनी गर्दन उठाई लेकिन यह इतना ऊँचा और घना है कि इसकी लम्बाई का ठीक-ठीक अंदाजा नहीं लग पाया। अमीन ने बताया कि उष्णकटिबंधीय वर्षावनों में पेड़ 30-45 मीटर ऊँचे और इतने घने होते हैं कि बारिश का पानी से जमीन तक पहुँचने में कम से कम आधा घंटा लग जाता है। जैसे-जैसे हम आगे बढ़े, मैं नई-नई चीजों के बारे में पूछती गई और मारी फटाफट मुझे उन चीजों के अंग्रेजी और वैज्ञानिक नाम बताते गए। उन्हें पेड़-पौधे, फूल-पत्तियों, मकड़ियाँ, तितलियाँ, मधुमक्खियाँ हर चीज की जानकारी है। वे इनकी दिलचस्प खूबियों के बारे में भी बताते चल रहे हैं। आगे एक नाग (वाइपर) सड़क किनारे कंडुली मारे बैठा था। इसका रंग ऐसा था कि अगर मारी और अमीन न बताएँ तो हम इसके पास से गुजर जाते। आगे चलकर एक बड़ा-सा बाज (सर्पन्ट ईगल) घने पेड़ की शाखा पर बैठा है, जिसकी चौकस निगाहें चारों तरफ देख रही हैं। धीरे-धीरे अहसास होता है कि यह जंगल एक-दूसरे पर निर्भर हजारों किस्म के जीव-जन्तुओं का अद्भुत ठिकाना है।

साइलेंट वैली के पर्यावरण पर जलविद्युत परियोजना के प्रभाव का आकलन करने वाली एमजीके मेनन की अध्यक्षता वाली संयुक्त समिति की 1982 की रिपोर्ट के मुताबिक, यहाँ सिर्फ 0.4 हेक्टेयर के सैंपल एरिया में 84 किस्म के 118 संवहनी पौधे पाये गए हैं। अध्ययन बताते हैं कि साइलेंट वैली पनामा के बारो कोलोराडो द्वीप के ट्रॉपिकल रेनफॉरेस्ट की तरह है, जिसे दुनिया में जैव-विविधता का पैमाना माना जाता है। 1984 में राष्ट्रीय उद्यान घोषित के बाद से यहाँ वनस्पति और प्राणियों की कई प्रजातियाँ खोजी जा चुकी हैं। लाखों साल पुराने इस जंगल में अब भी कई अनजाने जीव-जन्तु और पेड़-पौधे होंगे!

हम घाटी के 30 मीटर ऊँचे मचान पर पहुँचते हैं, पहाड़ियों पर बादल तैर रहे हैं, जहाँ तक भी नजर जाती है हरियाली ही हरियाली है। अक्टूबर का आखिरी हफ्ता है, मारी और अमीन बताते हैं कि अब तक भारी बारिश हो जानी चाहिये थी। वे बताते हैं कि कम बारिश की वजह से जंगल का घनत्व कम हो गया है। बीजों के अंकुरण और वनस्पति पर भी असर पड़ा है। जल-धाराओं में प्रवाह सामान्य से कम है। उल्लेखनीय है कि गत अक्टूबर से दिसंबर के दौरान केरल में सामान्य से 62 प्रतिशत कम बारिश हुई है। मारी ने उस क्षेत्र की ओर इशारा किया जहाँ चार दशक पहले बाँध बनाने वाला था। मैंने पूछा, “बाँध बन गया होता, तब क्या होता?” मारी बोले, “…तो यह पहाड़ी इलाका होटल और रेस्तरां से अट जाता। कोई हत्यारा ही इस जंगल को तबाह करने की कोशिश कर सकता है। ये किसी इंसान का काम नहीं हो सकता।”

आंदोलन के बीज


वनस्पति विज्ञान के शिक्षक एमके प्रसाद भी साइलेंट वैली में हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट के खतरों को भांप चुके थे। वे केरल शास्त्र साहित्य परिषद (केएसएसपी) नाम के एक लोक विज्ञान आंदोलन से जुड़े थे। परिषद की पत्रिका में उन्होंने साइलेंट वैली में बाँध निर्माण की योजना के खिलाफ एक लेख लिखा। इस लेख को खूब प्रतिक्रियाएँ मिलीं। जल्द ही एक मुद्दा मीडिया और जन सभाओं में चर्चित हो गया। ‘बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी, फ्रेंड्स ऑफ ट्रीज सोसायटी’ और ‘वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड’ जैसी संस्थाएँ ने भी इस अभियान को समर्थन देना शुरू कर दिया।

हालाँकि, केरल राज्य विद्युत मंडल ने इस मुद्दे को अपने पक्ष में मोड़ने के भरसक प्रयास किये। तर्क दिया कि परियोजना से उत्तर केरल के इलाकों में बिजली पहुँचेगी, जबकि बाँध से जंगल का एक छोटा-सा हिस्सा (830 हेक्टेयर) ही डूबेगा। लोगों को यहाँ तक समझाने की कोशिश की गई कि साइलेंट वैली में दरअसल कुछ भी खास नहीं है! लेकिन ‘साइलेंट घाटी बचाओ आंदोलन’ के समर्थकों ने इन दावों को नकार दिया। तब तक कई प्रोफेसर, वैज्ञानिक और तत्कालीन व पूर्व नौकरशाह अभियान से जुड़ चुके थे। प्रसाद बताते हैं कि ‘द हिंदू’ और ‘इंडियन एक्सप्रेस’ को छोड़कर अंग्रेजी और मलयाली मीडिया को बाँध के पक्ष में करने में कामयाब हो गया था। इन्होंने प्रसाद पर अमेरिकी एजेंट होने के आरोप भी लगाए। उन्हें परोक्ष रूप से जान से मारने की धमकियाँ भी दी गईं।

इस बीच, सरकार ने जलविद्युत परियोजना से साइलेंट वैली के पर्यावरण पर पड़ने वाले असर को जानने के लिये कई समितियों का गठन किया। विशेषज्ञों ने पहली बार साइलेंट वैली की समृद्ध जैव-विविधता के सर्वेक्षण के लिये वहाँ का दौरा किया। एक समिति ने पर्यावरण को बचाने के लिये सुरक्षात्मक उपायों का सुझाव दिया, जिसे केरल सरकार ने तुरंत स्वीकार कर लिया। तत्कालीन कृषि सचिव एमएस स्वामीनाथन की अध्यक्षता वाली एक अन्य समिति ने परियोजना को खारिज करने की सिफारिश की। यह लड़ाई अदालतों में भी लड़ी गई। सन 1980 में जब इंदिरा गाँधी दूसरी बार प्रधानमंत्री बनीं तो उन्होंने केरल सरकार से बाँध का काम तब तक रोकने को कहा, जब तक परियोजना के प्रभाव का पूरा मूल्यांकन नहीं हो जाता। इसका नतीजा यह हुआ कि एमजीके मेनन की अध्यक्षता में केंद्र और राज्य की एक संयुक्त समिति बनाई गई। अपनी रिपोर्ट में समिति ने कहा कि 830 हेक्टेयर का जो क्षेत्र बाँध की वजह से डूबेगा, वह प्रकृति द्वारा संजोये गए नदतटीय पारिस्थितिकी तंत्र का महत्त्वपूर्ण उदाहरण है। बाँध बनने से साइलेंट वैली में लोगों की आवाजाही बढ़ेगी और जैवविविधता पर बुरा असर पड़ सकता है, जिससे पूरा इको-सिस्टम गड़बड़ा जाएगा।

आखिर 15 नवंबर, 1984 को ‘साइलेंट वैली’ को राष्ट्रीय उद्यान घोषित कर दिया गया। देश के पर्यावरण इतिहास में यह ऐतिहासिक क्षण था। इससे पहले पर्यावरण संरक्षण आमतौर पर वृक्षारोपण तक सीमित समझा जाता था, लेकिन इस आंदोलन ने देश को एक नई दृष्टि दी। विकास योजनाओं की मंजूरी से पहले पर्यावरण पर इसके असर के मूल्यांकन यानी एन्वायरनमेंट इम्पैक्ट असेस्मेंट (ईआईए) का विचार यहीं से जन्मा और जन सुनवाई अनिवार्य हो गई। प्रसाद कहते हैं, मैं बहुत किस्मत वाला हूँ कि ऐसे आंदोलन का हिस्सा बन सका।

फोटो साभार : जेमिमा रोहेकर/सीएसई


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