संकट में ग्लेशियर और तबाही का कारण बनती झीलें


जलवायु परिवर्तन के कारण दुनिया पर मँडराते संकट को नकारा नहीं जा सकता। यह भी सच है कि आज ग्लेशियरों के अस्तित्व पर जलवायु परिवर्तन के चलते हो रही तापमान में बढ़ोत्तरी के परिणामस्वरूप भयावह संकट मँडरा रहा है। नतीजन वे पिघल रहे हैं। सबसे बड़ी दुखदाई और खतरनाक बात यह है कि उनके पिघलने की रफ्तार दिनोंदिन तेजी से बढ़ती ही जा रही है।

वैज्ञानिक इसके बारे में दशकों से चेता रहे हैं। इससे भी बड़ा संकट ग्लेशियरों के पिघलने से बनी झीलों से है जो कभी भी भारी तबाही का कारण बन सकती हैं। उत्तराखण्ड में साल 2013 में केदारनाथ में आई भीषण प्राकृतिक आपदा का मुख्य कारण भी केदारनाथ के ऊपर स्थित चौराबाड़ी ग्लेशियर झील का फटना ही रहा था।

गौरतलब है कि इसी झील के फटने के कारण केदार घाटी में भीषण तबाही हुई जिसमें हजारों अकाल मौत के मुँह में चले गए और हजारों की तादाद में लापता हो गए जिनका आज तक पता नहीं चल सका है। मकान, गाँव, दुकान, बाजार जमींदोज हुए, पानी के सैलाब में बह गए और अरबों का नुकसान हुआ सो अलग।

यदि इन ग्लेशियरों के पिघलने से बनी झीलों का जायजा लें तो पता चलता है कि जब ग्लेशियर पीछे की ओर खिसकते हैं या यूँ कहें कि वे पिघलते हैं, तब वे उस दशा में अपने आगे मलबा कहें या बोल्डर या उन्हें डेबरीज कहें, छोड़ देते हैं। धीरे-धीरे कुछ समय बाद यही डेबरीज बाँध का रूप ले लेते हैं। इनमें ग्लेशियरों की बर्फ पिघलकर पानी के रूप में जमा होती रहती है। कुछ समय बाद यह झील का रूप अख्तियार कर लेती है। इसे ग्लेशियर झील या हिमनद झील भी कहा जाता है। यही झीलें तब फटती हैं जब भीषण तबाही का कारण बनती हैं।

वैज्ञानिकों का कहना है कि ग्लेशियरों के पिघलने से हिमनद झीलें तेजी से बनने लगी हैं। इनके फटने से होने वाली भीषण तबाही की उम्मीद ज्यादा रहती है। इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता। यही कारण है कि इससे बचने के उपायों पर सरकारों ने गम्भीरता से सोचना शुरू कर दिया है।

एवरेस्ट के करीब बनी विशाल इम्जा त्सो हिमनद झील भी कभी भी उत्तराखण्ड जैसी भीषण तबाही का कारण बन सकती है। यही वह अहम कारण है जिसके चलते नेपाल की सेना ने तबाही से बचने की खातिर इस ग्लेशियर झील से तेजी से नहर निकालने का काम शुरू कर दिया है। उसका मानना है कि इससे झील के लगातार बढ़ते जलस्तर को काबू में रखा जा सकता है।

नेपाली सेना के अनुसार झील का पानी बाढ़ की शक्ल में कहर बनकर पहाड़ी व तराई के हजारों लोगों पर न टूटे, इसके लिये बेहद जरूरी है कि इस झील के जलस्तर को काबू में रखा जाये। नेपाली सेना की मानें तो अगर कभी भी इम्जा ग्लेशियर झील फटी तो इससे पहाड़ी और तराई इलाके के तकरीब 56 हजार लोगों की जिन्दगी खतरे में पड़ सकती है।

एवरेस्ट से दस किलोमीटर दक्षिण में 5010 मीटर की ऊँचाई पर स्थित इम्जा से दर्जनों गाँवों के अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया है। इससे बचाव की खातिर इस झील के निकास द्वार पर एक मेकेनिकल गेट लगाया जाएगा, जहाँ से नहर के जरिए पानी को नीचे पहुँचाया जाएगा। नेपाली सेना के अनुसार यह परियोजना इस साल के अन्त तक पूरी हो जाने की उम्मीद है। नेपाली सेना इसके लिये बधाई की पात्र है कि उसने तबाही आने से पहले ही इस संकट से निपटने की दिशा में पहल शुरू की।

हमारे यहाँ 2013 की उत्तराखण्ड त्रासदी के ठीक तीन साल बाद अब कहीं जाकर सरकार को खतरनाक स्तर तक पहुँच चुकी ग्लेशियर झीलों की सुध आई है। गौरतलब है कि बीते दिनों केन्द्रीय जल आयोग ने उत्तराखण्ड सहित उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, सिक्किम, जम्मू-कश्मीर, अरुणाचल प्रदेश जैसे हिमालयी राज्यों के मुख्य सचिवों को भेजे पत्र में 10 हेक्टेयर से कम क्षेत्रफल वाली खतरनाक ग्लेशियर झीलों को चिन्हित करने के निर्देश दिये हैं।

इस पत्र में आयोग ने सिक्किम के दक्षिण में स्थित लोहनाक झील प्रणाली की अध्ययन रिपोर्ट के साथ हिमालयी क्षेत्र के अन्तर्गत आने वाली 50 हेक्टेयर से ज्यादा क्षेत्रफल की 477 ग्लेशियर झीलों और 10 हेक्टेयर क्षेत्र में फैले जलाशयों की सूची भी दी है ताकि राज्य इसके आधार पर छोटी झीलों और जलाशयों की अध्ययन रिपोर्ट बना सकें।

आयोग ने उपरोक्त राज्य सरकारों को ऐसी चिन्हित झीलों की निगरानी करने और इसकी रिपोर्ट केन्द्रीय जल आयोग, राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण तथा राज्य आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण से साझा करने को कहा है।

केन्द्रीय जल आयोग ने राज्य सरकारों से कहा है कि वे ऐसी चिन्हित झीलों की सूची व अन्य जानकारियाँ केन्द्रीय जल आयोग के आयोजना एवं विकास निदेशालय को उपलब्ध कराएँ। साथ ही यदि कहीं भी चिन्हित झीलों के स्वरूप में अचानक आ रहे बदलाव देखने को मिलें तो तुरन्त ऐसी झीलों की उच्चस्तरीय निगरानी की जाये, ग्लेशियर झीलों का मजबूती से परीक्षण करने के साथ उनके फटने से आने वाली बाढ़ के सम्बन्ध में अध्ययन कर बाढ़ सम्भावित इलाकों में जनता को चेतावनी व आपदा प्रबन्धन केन्द्र में ऐसी स्थिति से निपटने के हर सम्भव आवश्यक इन्तजाम सुनिश्चित किये जाएँ।

इसमें दो राय नहीं कि हमारे हिमालयी क्षेत्र में सबसे ज्यादा तादाद में ग्लेशियर हैं। इनकी संख्या तकरीब 10,000 आँकी गई है जबकि अकेले उत्तराखण्ड राज्य में 900 से ज्यादा ग्लेशियर हैं। हमारे जीवन में इनके महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता। क्योंकि इनसे निकली नदियाँ हमारी जीवनदायिनी हैं जिनके बिना जीवन असम्भव है।

यह अब किसी से छिपा हुआ नहीं है कि ग्लेशियर दिनों-दिन तेजी से पिघल रहे हैं। ग्लेशियरों के पिघलने की दर प्रति वर्ष कहीं 5 से 10 मीटर है तो कहीं 10 से 15 तो कहीं 15 से 20 मीटर है। कहने का तात्पर्य यह कि इनके पिघलने की दर कहें या इनके सरकने की दर हर साल लगातार बढ़ती ही जा रही है। उस पर अंकुश नहीं लग पा रहा है। उस दशा में झीलों के बनने की दर में भी बढ़ोत्तरी होगी जो भयावह खतरे का संकेत है।

यह दर अगर इसी रफ्तार से बढ़ती रही तो एक दिन ऐसा भी आएगा जब इनका अस्तित्व ही खत्म हो जाएगा। उस स्थिति में पेयजल समस्या तो भयावह रूप धारण कर ही लेगी, पारिस्थितिक तंत्र भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहेगा जिसकी भरपाई असम्भव होगी। इसलिये जहाँ जलवायु परिवर्तन से प्राथमिकता के आधार पर लड़ना बेहद जरूरी है, वहीं ग्लेशियर से बनी झीलों से उपजे संकट का समाधान भी बेहद जरूरी है।

इन झीलों के बारे में सरकार का यह प्रयास देर से ही सही, सराहनीय ही नहीं प्रशंसनीय भी है। लेकिन अकेले इससे कुछ होने वाला नहीं। हमें नेपाल से इस दिशा में सबक लेना होगा। तभी कुछ बदलाव की आशा की जा सकती है।

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