संपन्न बस्तर की विपन्न कहानी

pankaj chaturvedi
pankaj chaturvedi
लंबे वक्त से बस्तर नक्सली हिंसा, प्राकृतिक संपदा और आदिवासी संस्कृति की वजह से सुर्खियों में रहा है। लेकिन वहां की गरीबी, बीमारी और बदहाली पर अक्सर चर्चा नहीं होती। बस्तर के लोग मौसम को भी बीमारियों के नाम से बुलाते हैं। इस इलाके के जन-जीवन के बारे में बता रहे हैं पंकज चतुर्वेदी।

बस्तर के जंगल, वनोपज, अयस्कों पर सभी अपना हिस्सा चाहते हैं लेकिन यहां के सामाजिक दर्द, सांस्कृतिक क्षरण और पर्यावरणीय संकटों को गंभीरता से लेने को कोई तैयार नहीं है। जिन सड़कों से अफसर-नेता को आना-जाना है वह गड्ढारहित होती है, लेकिन आम आदमी के जिला या संभाग मुख्यालय आने वाली सड़के साल में सात महीने आने जाने लायक नहीं रहतीं। अपनी सभी नाकामी, गडबड़ियों को छिपाने का एक ही बहाना है -नक्सली।

छत्तीसगढ़ के ‘‘बस्तर’’ से बाहर के लोगों के लिए यह एक आकर्षण का केंद्र तो है लेकिन वहां की ओर मुखातिब हरेक व्यक्ति वहां नक्सलियों को देखना चाहता है। उनकी आंखें यहां की आदिवासी आबादी के हाथों में असलहा देखने को बेताब रहती हैं। वह यहां के आदिवासी समाज जो अकूत प्राकृतिक खनिज संपदा, जल-जंगल की रक्षा के लिए तत्पर हैं, उन्हें देखना चाहती हैं।

अगर भरोसा ना हो तो आप देश की राजधानी दिल्ली से निकलने या चलने वाले अखबारों-चैनलों की सामग्री छान मारिए कि कहीं इस बात का जिक्र आया है कि बीते दो महीनों में बस्तर में लगभग सौ से ज्यादा लोग साधारण-सी बीमारी पीलिया की जद में आकर मारे गए। इस साल के जुलाई-अगस्त महीने में अबुझमाड़ के जंगलों में 40 से ज्यादा आदिवासी हैजा-अतिसार जैसी संक्रामक बीमारी का शिकार हो फनां हो गए।

गौरतलब है कि ये सारी बीमारियां दुषित जल और भोजन की वजह संक्रमित करती है। गत तीन सालों में यहां मलेरिया से मरने वालों की संख्या सैकड़ों में पहुंच चुकी है। हां, राजधानी दिल्ली की मीडिया में यह बात जोरशोर से प्रसारित-प्रचारित किया जाता है, उनके पास इस बात का लेखा-जोखा अनिवार्य तौर पर होता है कि कब किसने कितने लोगों को मार गिराया।

जमीन की खरीद-फरोख्त के नाम पर फर्जीवाड़ा


बस्तर पर तकरीरें देने वालों को यह भी नहीं पता होगा कि बस्तर असल में रायपुर- विशाखापत्तनम राजमार्ग पर कोंडागांव से जगदलपुर के बीच एक छोटा-सा गांव है। यहां के राजा का महल, किसी गांव के आम किसान के घर की तरह सड़क पर ही दिखता है। असल में बस्तर कभी बहुत बड़ा जिला हुआ करता था और वह इतना बड़ा था कि वर्तमान समय का केरल राज्य क्षेत्रफल के लिहाज से उसके सामने छोटा पड़ता था।

आज उस बस्तर को सात अलग-अलग जिलों में बांट दिया गया है - कांकेर, कोंडागांव, जगदलपुर, नारायणपुर, बीजापुर, दंतेवाड़ा और कोंटा। इस संभाग का मुख्यालय जगदलपुर है। कह सकते हैं कि बस्तर की राजधानी अब जगदलपुर बन गया है। जगदलपुर को समझे बगैर बस्तर को जान पाना मुश्किल होगा। यह कोई सवा लाख आबादी वाला शहर है जगदलपुर, केवल नाम का ‘‘जगदल’’ पुर नहीं है यह- यहां देश के हर राज्य, भाषा के लोग हैं - उड़िया, तेलुगु, उत्तर प्रदेश, बिहार, नेपाल और पूर्वोत्तर राज्यों, ईसाई मिशिनरी में काम करने वाले बहुत से तमिल व मलयाली, सिख-सिंधी, बंगाली.....सभी जाति, धर्म और प्रांत के लोग यहां मिल जाते हैं। यही वजह है कि यहां जमीन के दाम रायपुर से भी ज्यादा हैं। यहां कई रिसोर्टस् हैं ।

कहते हैं कि बस्तर में पैसा कमा कर यहीं खर्च किया तो प्रगति होगी, यदि पैसा बाहर ले जाने की कोशिश की गई तो बर्बादी होगी। तभी यहां जो कोई भी नौकरी-व्यापार को आया, यहीं बस गया और यहीं का होकर रह गया। लोगों को रहने के लिए जमीनें कम हुईं तो यहां के विशाल दलपत सागर तालाब के बड़े हिस्से पर कब्जा कर कॉलोनी बना ली गईं। भारत के नियाग्रा प्रपात के तौर पर भव्य व मशहूर चित्रकोट जल प्रपात की दूरी जगदलपुर से 45 किलोमीटर है और अब उस पूरे रास्ते पर भीतर गांव-गांव तक जमीन खरीदना किसी करोड़पति के बूते की बात भी नहीं हैं।

वहां टाटा ने कई एकड़ जमीन खरीदी और उसके बाद आदिवासियों की जमीनों के बेनामी सौदों की झड़ी लग गई। सनद रहे इस इलाके में कोई गैरआदिवासी आदिवासी की जमीन नहीं खरीद सकता है, इसलिए यहां जमीन की खरीद-फरोख्त के नाम पर फर्जीवाड़ा चलता रहता है। जमीन का ही लोभ है कि चित्रकोट गांव में स्थित नागवंश के अंतिम शासक हरिश्चंद्रदेव का महल भी देखते-देखते बिखर गया और उनकी बेटी की समाधि पर खेत जोत दिए गए।

किशोरवय बंदूक की ताकत समझते हैं


रायपुर से बस्तर तक बहुत-सी योजनाएं चलकर आती है, और यहां से पैसा चल कर वहां तक जाता है, सो यह तीन सौ किलोमीटर की सड़क भले ही फोर लेन ना हो, लेकिन बिल्कुल चिकनी-सपाट है। इस सड़क पर सारी रात बगैर खौफ यातायात चलता है, कोई कह नहीं सकता कि यह इतना ‘‘बदनाम’’ इलाका है। पूंजी-प्रवाह के रास्ते में कहीं कोई बाधा नहीं आती है। बस जगदलपुर से सुकमा, नारायणपुर की तरफ जाने की कोशिश करेंगे तो वहां न ही सड़कें मिलेगी, ना ही सरकार।

स्कूल और दफ्तर नक्सलियों के खतरे के नाम पर बंद होते हैं और खुलते हैं। हकीकत में आपको पूरे रास्ते में कहीं सुरक्षा बल भी नहीं मिलेंगे। कहीं-कहीं मिलेंगे स्थानीय 16-18 साल के आदिवासी बच्चे जिनके कंधे पर पुरानी थ्री नॉट थ्री बंदूक होती है और वे वाहनों को चेक करते रहते हैं। असली पुलिस चाक चौबंद थानों के भीतर ही रहते हैं। ये किशोर अपने बचपन से बंदूक की ताकत के बारे में जान-समझ लेते हैं।

बंदूक लेकर कुछ सौ रुपए के बदले में सुरक्षा के लिए ड्यूटी के नाम पर ये किशोरवय फर्क महसूस करते हैं। यह दीगर बात है कि यदा-कदा इनमें से ही कोई नक्सली बता कर मार डाला जाता है तो स्थानीय स्तर पर कुछ समय के लिए असंतोष छाता है, लेकिन वह जल्दी ही मजबूरी के नीचे दफन हो जाता है।

शिल्प आदिवासियों का, मुनाफा किसी और का


बस्तर का अपना समृद्ध इतिहास है जो रखरखाव के बगैर नष्ट हो रहा है। यहां की अपनी बोलियां-साहित्य-संस्कार हैं जो यहां की बेशकीमती जमीन व अयस्कों की खरीद में लुप्त हो रही हैं, यहां का मधुर संगीत-नाट्य- नृत्य बारूद की गंध में बेसुध हो रहा है। जगदलपुर में ही देख लें यहां के पारंपरिक शिल्प बाजार पर पूरी तरह बंगालियों का कब्जा है, स्थानीय आदिवासी केवल पत्थर-लकड़ी-धातु तराशता है, उस पर मुनाफा दूसरे ही कमाते हैं।

पांच सालों के दौरान बस्तर इलाके के पांच सौ सरकारी स्कूलों को लाल आतंक के कारण बंद किया गया। बीजापुर जिला इससे सबसे ज्यादा प्रभावित है और वहां 264 स्कूल पूरी तरह बंद करने पड़े। इसके अलावा नारायणपुर के 10 व कोंटा के 16 स्कूल भी बंद किए गए। हालांकि प्रशासन ने बंद स्कूलों के लिए आश्रम खोले और कुछ जगह विस्थापित आबादी के लिए अस्थाई केबिन बनाकर शाला शुरू करने का प्रयास किया गया, लेकिन आश्रमों में पानी, शौचालय जैसी मूलभूत सुविधाओं की गैर माजूदगी से वहां के बच्चे अपना पूरा दिन जीवन जीने की जुगत में ही बिता देते हैं।

एक और चौंकाने वाला आंकड़ा गौरतलब है कि ताजा जनगणना बताती है कि बस्तर अंचल में आदिवासियों की जनसंख्या न केवल कम हो रही है, बल्कि उनकी प्रजनन क्षमता भी कम हो रही है। यहां कुपोषण, उल्टी-दस्त और मलेरिया जैसी बीमारियों के कारण हर साल हजारों लोगों का मरना सरकार व समाज की संवेदना को झकझोरता नहीं हैं।

संपदा पर हक तो सभी जताते हैं


बस्तर के जंगल, वनोपज, अयस्कों पर सभी अपना हिस्सा चाहते हैं लेकिन यहां के सामाजिक दर्द, सांस्कृतिक क्षरण और पर्यावरणीय संकटों को गंभीरता से लेने को कोई तैयार नहीं है। जिन सड़कों से अफसर-नेता को आना-जाना है वह गड्ढारहित होती है, लेकिन आम आदमी के जिला या संभाग मुख्यालय आने वाली सड़के साल में सात महीने आने जाने लायक नहीं रहतीं। अपनी सभी नाकामी, गडबड़ियों को छिपाने का एक ही बहाना है -नक्सली।

विडंबना है कि इलाके में सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन में बड़ी-बड़ी गड़बड़ियों की शिकायतों पर भी कोई कार्यवाही नहीं होती। कभी कह दिया जाता है कि विकास विरोधी नक्सली ऐसा कर रहे हैं या फिर कभी नक्सली जांच नहीं करने दे रहे हैं। कोंडागांव में जहां नदी नहीं है, वहां बाढ़ दिखाकर पुलिया के बहने के नाम पर करोड़ों का पैसा गड़प हो जाता है। कांकेर के आसपास सरकारी अनाज खुले में स्टोर कर उसे सड़ा दिखा कर हजम कर दिया जाता है, जंगलों की कटाई कर उसे रायपुर में बेचकर आदिवासियों पर जंगल सफाई का आरोप मढ़ दिया जाता है,- एक तरफ सरकारी लूट व जंगल में घुसकर उस पर कब्जा करने की बेताबी है तो दूसरी ओर आदिवासी क्षेत्रों के संरक्षण का भरम पाले खून बहाने पर बेताब ‘दादा’ लोग। बीच में फंसी है सभ्यता, संस्कृति, लोकतंत्र की साख। लगता है कि हर एक चाहता है कि बस्तर एक खौफ के नाम से बदनाम रहे, यहां वे ही लोग आ पाएं जिन्हें यहां के ‘‘बाजार’’ की जानकारी है।

दिल्ली में बैठे लोग चाहते हैं कि उनके सामने बस्तर का आदिवासी सिर पर सींग लगाकर, गले में ढोल लटका कर नाचे, गाए और गणतंत्र दिवस परेड में राष्ट्रपति को सलामी दे और जब हम वहां जाएं तो उनके अंतर्मन की पीड़ा को दरकिनार कर तलाशें कि आखिर नक्सली कैसे होते हैं!

सुरक्षा बलों के आसरा बन गए हैं बच्चों के स्कूल


अभी शिक्षक दिवस पर प्रधानमंत्री के साथ देशभर के बच्चों की बातचीत के क्रम में बस्तर के दंतेवाड़ा से एक बच्ची ने बस्तर में लड़कियों के लिए उच्च शिक्षा के वाजिब अवसर ना होने की बात कही। हकीकत तो यह है कि जब कभी यहां खून खराबा होता है तो सारे देश की निगाह इस तरफ जाती है, लेकिन जब यहां शिक्षा जैसा मूलभूत अधिकार का हनन किया जाता है और इसके लिए प्रशासन सुप्रीम कोर्ट की अवमानना करने से भी नहीं हिचकता तो यह खबर नहीं बनती।

प्राकृतिक संपदा, नैसर्गिक सुंदरता और समृद्ध संसाधन वाले बस्तर में सुरक्षा बलों की तुलना में नक्सलियों के साथ स्थानीय लोगों की अधिक नजदीकी के मूल कारणों में से एक यहां जागरूकता का अभाव होना है और जागरूकता का मूल मंत्र शिक्षा है जिसके लिए प्रशासन बेपरवाह है। यहां के स्कूल भवनों को सुरक्षा बलों का आसरा बना दिया गया है, सो नक्सली भी आचंलिक क्षेत्रों में स्कूल भवन केवल इस लिए बनने से रोक देते हैं, क्योंकि वहां बच्चे नहीं बंदूकें रहती हैं। अभी राज्य के बोर्ड के नतीजे आए बस्तर से कोई भी बच्चा राज्य स्तर की मेरिट सूची में नहीं है।

जहां तक शिक्षा का सवाल है, वह नारों और बड़े-बड़े बैनरों से निकलकर व्यावहारिक धरातल से कोसों दूर है। स्कूल भवन या तो सुरक्षा बलों का आसरा बने हैं या फिर नक्सलियों के आतंक से खंडहर। इस इलाके के बच्चों को बाहर नौकरी मिलना बेहद कठिन होता है, क्योंकि दसवीं पास करने के बाद उनका एम.एल.एल (मिनिमम लेबल आफ लर्निंग) या ज्ञान का न्यूनतम स्तर बमुश्किल छठी-सातवीं के बच्चे के बराबर होता है। बस्तर संभाग के सात जिलों में कुल 20 सरकारी कालेज हैं जिनमें हर साल चालीस हजार से ज्यादा बच्चे विभिन्न परीक्षाओं में बैठते हैं। जानकर दुख होगा कि इनमें से आधे से ज्यादा छात्र पास नहीं हो पाते हैं। कालेज में स्टाफ कम होने जैसी समस्याएं तो हैं ही, असल दिक्कत यह है कि स्कूल स्तर पर बच्चे जैसे-तैसे पास हो जाते हैं, लेकिन उनका शैक्षिक स्तर कॉलेज के लायक होता ही नहीं है।

और हो भी कैसे? बानगी के लिए यहां के सबसे विकसित दो जिलों - कोंडागांव व बस्तर को लेते हैं। यहां पर राज्य शासन, सर्व शिक्षा अभियान और जनजातिय विभाग द्वारा संचालित कुल चार हजार 886 स्कूल हैं, जिनमें पढ़ने वाले बच्चों की संख्या दो लाख 65 हजार से ज्यादा है। इन स्कूलों में भवन तो हैं, लेकिन प्राथमिक शालाओं में प्रधान अध्यापक के 1300 और आध्यापकों के 281 पद खाली हैं।

माध्यमिक स्तर पर तो ढांचा पूरी तरह चरमराया हुआ है, हेडमास्टर के 664 और उच्च श्रेणी शिक्षक के 1164 पदों पर कोई बहाली नहीं है। लगभग 185 स्कूल ऐसे हैं जहां पीने का पानी भी मयस्सर नहीं है। अब सुकमा, नारायणपुर, दंतेवाड़ा जिलों में तो ये आंकड़े शर्मनाक स्तर पर पहुंच जाते हैं। इसमें कोई शक नहीं है कि इलाके के आंचलिक क्षेत्रों में सड़क, परिवहन, बिजली जैसी सुविधाएं लगभग ना के बराबर है, सो वहां पदस्थ बाहरी कर्मचारी सेवा करने को तैयार नहीं होते हैं, ऊपर से नक्सलियों का इतना खौफ है कि सरकारी नौकर का गांव में रहना खतरे से खाली नहीं होता।

वैसे बीते पांच सालों के दौरान बस्तर इलाके के पांच सौ सरकारी स्कूलों को लाल आतंक के कारण बंद किया गया। बीजापुर जिला इससे सबसे ज्यादा प्रभावित है और वहां 264 स्कूल पूरी तरह बंद करने पड़े। इसके अलावा नारायणपुर के 10 व कोंटा के 16 स्कूल भी बंद किए गए। हालांकि प्रशासन ने बंद स्कूलों के लिए आश्रम खोले और कुछ जगह विस्थापित आबादी के लिए अस्थाई केबिन बनाकर शाला शुरू करने का प्रयास किया गया, लेकिन आश्रमों में पानी, शौचालय जैसी मूलभूत सुविधाओं की गैर माजूदगी से वहां के बच्चे अपना पूरा दिन जीवन जीने की जुगत में ही बिता देते हैं। स्कूल बंद होने से खाली पड़े भवनों पर सुरक्षा बल अपना कब्जा जमा लेते हैं तो कभी नक्सली उन्हें बारूद लगाकर उड़ा देते हैं। यह बात यहां के शिक्षक भी मानते हैं कि बच्चे पढ़ने नहीं बल्कि खाना खाने ही स्कूल आते हैं।

आदिम जाति कल्याण विभाग के ये आंकड़े भी यहां के ड्राप आउट रेट की बानगी है- बस्तर संभाग में पहली कक्षा में आए छात्र 27,143, कक्षा पांच तक पहुंचे 18,950, आठ पास कर पाए 12,553 और दसवीं में पहुंचे 11,745। यानी की चालीस फीसदी से ज्यादा आदिवासी बच्चे दसवीं तक भी नहीं पहुंच पाते हैं।

कोर्ट के आदेश की अवहेलना


जनवरी-2011 में एक जनहित याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने राज्य शासन को आदेश दिया था कि स्कूलों में सुरक्षा बलों को ना ठहरा जाए। कोर्ट ने यह भी कहा कि चुनाव या ऐसे ही हालात के नाम पर स्कूलों को बंदकर वहां सुरक्षा बलों को रुकाना गैरकानूनी है। लेकिन राज्य सरकार के कान पर जूं नहीं रेंगी।

घने जंगलों, प्राकृतिक झरनों और पहाड़ों जैसी नैसर्गिक सुंदरता से भरपूर बस्तर में भी पूरे देश की तरह मौसम बदलते हैं, उनके स्थानीय बोलियों में नाम भी हैं, लेकिन वहां के बाशिंदे इन मौसमों को बीमारियों से चिन्हते हैं। इस समय वहां पीलिया का मौसम चल रहा है, फिर उल्टी-दस्त का आएगा, फिर बारिश हुई कि मलेरिया का। सरकारी खजाने का मुंह बस्तर के जंगलों की तरफ इस तरह खुला हुआ है कि लगता है अब वहां की गरीबी, पिछड़ापन, अशिक्षा बस बीते दिनों की बात बनने ही वाले हैं।

अगस्त-2013 में सुप्रीम कोर्ट ने राज्य शासन को अवमानना का नोटिस भी थमा दिया, बावजूद हाल ही में संपन्न चुनावों में फिर से स्कूलों में सुरक्षा बलों का डेरा था। राज्य शासन कहता है कि वह चुनाव आयोग से अनुमति लेकर ऐसा करता है, लेकिन इस बात का जवाब देने को कोई तैयार नहीं है कि क्या चुनाव आयोग सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवहेलना कर सकता है? कुल मिलाकर सामने दिख रहा है कि बस्तर में शिक्षा का सवाल सुरक्षा के समाने गौण हैं।

हाल ही में केंद्र सरकार की एक योजना के तहत पूरे देश में स्कूल स्तर पर व्यावसायिक शिक्षा को शुरू किया गया, इसके लिए छत्तीसगढ़ के 25 स्कूलों को शामिल किया गया है। लेकिन रोजगारोन्मुखी शिक्षा की इस परियोजना में बस्तर संभाग का एक भी स्कूल नहीं है। यह बस्तर में पढ़ाई के प्रति राज्य के नजरिए को दर्शाता है। सरकारी सिस्टम बस्तर में सुरक्षा के नाम पर बेइंतिहां खर्च व व्यवस्था करता है, लेकिन यह तय है कि केवल सुरक्षा बलों के जरिए वहां नक्सल उन्मूलन संभव नहीं होगा। जब तक आमजन रोजगार, जागरूकता जैसे सवालों से सबका करने लायक नहीं होगा, सुरक्षा बल नाकाम रहेंगे और यह हिम्मत लोगों में केवल पढ़ाई-लिखाई से ही आएगी।

घने जंगलों, प्राकृतिक झरनों और पहाड़ों जैसी नैसर्गिक सुंदरता से भरपूर बस्तर में भी पूरे देश की तरह मौसम बदलते हैं, उनके स्थानीय बोलियों में नाम भी हैं, लेकिन वहां के बाशिंदे इन मौसमों को बीमारियों से चिन्हते हैं। इस समय वहां पीलिया का मौसम चल रहा है, फिर उल्टी-दस्त का आएगा, फिर बारिश हुई कि मलेरिया का। सरकारी खजाने का मुंह बस्तर के जंगलों की तरफ इस तरह खुला हुआ है कि लगता है अब वहां की गरीबी, पिछड़ापन, अशिक्षा बस बीते दिनों की बात बनने ही वाले हैं।

जबकि हकीकत यह है कि कभी प्रकृति के सहारे जीने-मरने वाले यहां के आदिवासी साफ पानी के अभाव में सारे साल बीमारियों से त्रस्त रहते हैं। सरकारी दस्तावेज खुद गवाह है कि जिन इलाकों में लोग जहरीले पानी से मर रहे हैं, वहां सरकारी मशीनरी पहुंच ही नहीं पा रही है और अपनी नाकामी को नक्सलवाद का मुलम्मा चढ़ाकर लाचार दिख रही है। बहुत से बस्तर-विषेशज्ञ इसे हर साल की स्थाई त्रासदी करार देकर मामले को हल्का बना रहे हैं तो कुछ सारा ठीकरा नक्सलियों के सर फोड़ कर सत्ताधारी दल के गुण गा रहे हैं।

सूख रहे हैं जलाशय


यहां साल भर मनरेगा के नाम पर कागजों पर तालाबों के गहरीकरण व सफाई होती है, असलियत में तो अप्रैल के आखिरी सप्ताह में ही यहां के तालाब सूख चुके थे। अब ग्रामीणें के पास पेयजल का एक ही माध्यम बचता है - हैंडपंप, जबकि यहां के अधिकांश हैंडपंप पानी के नाम पर लोहा व फ्लोराइड के आधिक्य वाला जहर फेंकते हैं। यह बात सामने आ रही है कि नदी के किनारे बसे गांवों में बीमारियों का ज्यादा प्रकोप है। असल में यहां धान के खेतों में अंधाधुंध रसायन का प्रचलन बढ़ने के बाद यहां के सभी प्राकृतिक जल-धाराएं जहरीली हो गई हैं।

इलाके भर के हैंडपंपों पर फ्लोराइड या आयरन के आधिक्य के बोर्ड लगे हैं, लेकिन वे आदिवासी तो पढ़ना ही नहीं जानते हैं और जो पानी मिलता है, पी लेते हैं। माढ़ के आदिवासी शौच के बाद भी जल का इस्तेमाल नहीं करते हैं। ऐसे में उनके शरीर पर बाहरी रसायन तत्काल तेजी से असर करते हैं। सरकारी अमले हेपेटाईटस-ए और बी के टीके लगाने के आंकड़े तो पेश करते हैं , लेकिन यह नहीं बताते कि इन टीकों को पांच डिग्री सेंटीग्रेड तापनाम पर रखना होता है, वरना यह खराब हो जाते हैं।

हकीकत यह है कि प्रशासन के पास अभी तक ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है कि आंचलिक क्षेत्रों तक इतने कम तापमान में टीके पहुंचाए जाएं।

अस्पतालों में डॉक्टर ही नहीं हैं


यह पहली बार नहीं हुआ था कि, बीते दस सालों के दौरान यहां गर्मी शुरू होते ही जलजनित रोगों से लोग मरने लगते हैं और जैसे ही बारिश हुई नहीं कि उसके साथ मलेरिया आ जाता है। बस्तर में गत तीन सालों के दौरान मलेरिया से 200 से ज्यादा लोग मारे गए हैं। कह सकते हैं कि बीमार होना, मर जाना यहां की नियति हो गई है और तभी हल्बी भाषा में इस पर कई लोक गीत भी हैं। आदिवासी अपने किसी के जाने की पीड़ा गीत गाकर कम करते हैं तो सरकार सभी के लिए स्वास्थ्य के गीत कागजों पर लिखकर अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाती है।

बस्तर यानी जगदलपुर के छह विकास खंडों के सरकारी अस्पतालों में ना तो कोई स्त्री रोग विशेषज्ञ है और ना ही बाल रोग विशेषज्ञ। सर्जरी या बेहोश करने वाले या फिर एमडी डाक्टरों की संख्या भी शून्य है। जिले के बस्तर, बकावंड, लोहडीगुडा, दरभा, किलेपाल, तोकापाल व नानगुर विकासखंड में डाक्टरों के कुल 106 पदों में से 73 खाली हैं। तभी सन् 2012-13 के दौरान जिले में दर्ज औरतों व लड़कियों की मौत में 60 फीसदी कम खून यानी एनीमिया से हुई हैं। बड़े किलेपाल इलाके में 25 प्रतिशत से ज्यादा किशोरियां व औरतें खून की कमी से ग्रस्त हैं।

टीकाकरण सपने की बात


साल भर मनरेगा के नाम पर कागजों पर तालाबों के गहरीकरण व सफाई होती है, असलियत में तो अप्रैल के आखिरी सप्ताह में ही यहां के तालाब सूख चुके थे। अब ग्रामीणें के पास पेयजल का एक ही माध्यम बचता है - हैंडपंप, जबकि यहां के अधिकांश हैंडपंप पानी के नाम पर लोहा व फ्लोराइड के आधिक्य वाला जहर फेंकते हैं। यह बात सामने आ रही है कि नदी के किनारे बसे गांवों में बीमारियों का ज्यादा प्रकोप है। असल में यहां धान के खेतों में अंधाधुंध रसायन का प्रचलन बढ़ने के बाद यहां के सभी प्राकृतिक जल-धाराएं जहरीली हो गई हैं।

टीकाकरण, गोलियों का वितरण, मलेरिया या हीमोग्लोबीन की जांच जैसी बाते यहां सपने की तरह हैं। जब अस्पताल में ही स्टाफ नहीं है तो किसी महामारी के समय गांवों में जा कर कैंप लगाना संभव ही हनीं होता। अभी बीजापुर जिले के भैैरमपुर ब्लाक में इंद्रावती नदी के उस पार बेथधरमा, ताकीलांड, उतला, गोरमेटा जैसे कई गांवों में हर रोज तीन से पांच लोगों की चिताएं जलने की खबर आ रही है। स्वास्थ्य विभाग नक्सलियों के डर से वहां जाता ही नहीं है। ऐसे कोई 450 गांव पूरे संभाग में हैं जहां आज तक कोई स्वास्थ्य कर्मी गया ही नहीं, क्योंकि या तो वहां तक रास्ता नहीं है या फिर वहां जाना मौत को बुलाना कहा जाता है और वहां उल्टी-दस्त व अब मलेरिया मौत का तांडव कर रहा है।

बस्तर बीमार है, वहां के लेाकरंग स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाओं के अभाव में बेरंग हो रहे हैं। इलाके में जल-जंगल-जमीन को बाहरी दखल ने जहरीला बना दिया है, वरना वहां हर मरज की जड़ी-बूटी थी। सरकार असहाय है और इसका फायदा कतिपय झाड़-फूंक, गुलिया-ओझा उठा रहे हैं। लोगों को बस्तर की याद तभी आती है जब वहां नक्सल या पुलिस के बैरल से निकली गोली के साथ किसी निर्दोश का खून बहता है या फिर कहीं मुल्क की समृद्ध संस्कृति के नाम पर वहां के लोक-नृत्य का प्रदर्शन करना होता है। काश सरकार में बैठे लोगों पर भी कोई टोना-टोटका कर दे ताकि वे पीलिया, डायरिया जैसे सामान्य रोग से मरते अपने ही बस्तर के प्रति गंभीर हो सकें।

बस्तर में शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क और संपर्क बगैर केवल बंदूक के बल पर शांति की कल्पना बेमानी है। आज भले ही वहां जोर शोर से आत्मसमर्पण, जंगल में आतंक समाप्त होने, की खबरें प्रचारित की जा रही हों, लेकिन हकीकत यह है कि बस्तर के आदिवासी का मूल स्वभाव उसके नैसर्गिक कार्यों में आड़े आने पर प्रतिरोध का है। उनकी भाषा, बोली, संस्कार, गांव, भोजन, रहन-सहन में न्यूनतम बाहरी दखल तथा उन्हें सरकारी सुविधाओं के लाभ के लिए ईमानदार यत्न ही बस्तर से बारूद की गंध छांट सकते हैं।

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