सफेदा : कई रंग

कहा जाता है कि सफेदा हमारे देश में लगभग दो सौ साल पहले दिखाई दिया था। 1790 में टीपू सुल्तान ने कोलार जिले के नंदी पर्वत पर 16 किस्म के सफेदे लगवाए थे। उसकी कुल 500 किस्मों में से 170 को भारत में आजमाया गया और पांच किस्में बड़े पैमाने पर लगाई गईं। सबसे पहले बड़े पैमाने पर 1856 में नीलगिरि पहाड़ पर यूकेलिप्टस ग्लोबुलुस नामक किस्म लगाई गई। शंकर सफेदा या युकेलिप्टस भूटिकोर्निस, जिसे ‘मैसूर गम’ कहते हैं, 1960 के बाद व्यापक रूप से लगाई गई किस्म है।

केरल और असम के भारी वर्षा वाले इलाकों में कई प्रकार की विफलताएं भी आईं। वहां के समृद्ध प्राकृतिक वनों को सफेदा लगाने की खातिर काट दिया गया, लेकिन सफेदा वहां पनपा ही नहीं। उसमें एक प्रकार की फफूंदी की बीमारी लग गई। मध्य प्रदेश सरकार ने 1956 और 1974 के बीच भिंड और मुरैना जिलों में मिट्टी और पानी संरक्षण हेतु कोई 46,000 हेक्टेयर भूमि में सफेदा लगवाया। लेकिन ज्यादातर पेंड़ सूख गए, क्योंकि उनकी जड़े निचली कंकरीली सतह को पार नहीं कर सकीं। 1974 के बाद, सफेदे को दूसरे जल्दी बढ़ने वाले पेड़ों के साथ-साथ राज्य में लगाया गया। 1974 और 1982 की अवधि में ऐसे मिले-जुले पेड़ 11,870 हेक्टेयर में लगाए गए।

लेकिन आज दरअसल बहस कम बारिश वाले इलाके में और खराब तथा कजोर जमीन में सफेदा लगाने के बारे में है। अब हजारों किसान ऐसी जमीन में बड़ी मात्रा में सफेदा लगाने लगे हैं। कर्नाटक के वन अधिकारी भी, जिन्होंने सफेदा लगाने के लिए पश्चिमी घाट के प्राकृतिक वनों को कटवा दिया था, अब 500 मि.मी. से 1,125 मि.मी. तक बारिश वाले इलाकों तक ही सफेदे को सीमित कर रहे हैं। पर्यावरण प्रेमी श्री बीवी. कृष्णामूर्ति कहते हैं, “बारिश पर निर्भर खेती सूखे के चपेट में आ गई और ज्वार, दालें और तिलहन जैसी फसलों को लाभदायक मूल्य मिलना मुश्किल हो गया। किसान पूरी तरह हताश हो गए थे। ऐसे में उद्योगपतियों ने उन्हें अपनी फसलें बदलकर सफेदा लगाने की सलाह दी तो किसान आसानी से मान गए। और अब वन विभाग भी सफेदे के पौधे बड़ी मात्रा में मुफ्त में बांटकर, उसे ही बढ़ाने का प्रोत्साहन दे रहा है।”

कोलार जिले के एक सरकारी सर्वेक्षण से ये सब बातें सही साबित होती हैं। कोलार जिले में 1979-80 में 4,828 हेक्टेयर जमीन में सफेदा और 4688 हेक्टेयर में आस्ट्रेलिया से आया सुर्रू (कैसुरीना) था। 1982-83 तक सफेदे का क्षेत्र लगभग तिगुना यानी 15,492 हेक्टेयर हो गया, और सुर्रू का क्षेत्र घटकर 4,013 हेक्टेयर रह गया। जिले के पांच गांवों के एक विस्तृत अध्ययन से पता चलता है कि वहां की 63.3 प्रतिशत भूमि में वन-खेती हो रही है जहां पहले अनाज उगाया जाता था।

गुजरात में पिछले तीन सालों में वितरित कुल 45.44 करोड़ पौधों में से 32.72 करोड़ सफेदे के थे। 1983 तक राज्य की 40,700 हेक्टेयर के करीब भूमि में सफेदा लग चुका था। 1980 के बाद से ही अच्छी सिंचित जमीन में भी अधिक बढ़वार वाली किस्म का सफेदा लगने लगा था।

पंजाब में जंगलों का क्षेत्र कुल भूमि के 4.25 प्रतिशत से बढ़कर 5.20 प्रतिशत हुआ, क्योंकि अनेक निजी फार्मों में सफेदे के पेड़ लगाए गए। होशियारपुर और रूपनगर जिलों के अध-सूखे इलाकों में तो सफेदा तेजी से फैलता जा रहा है। 1984 में योजना बनी की सरकारी 5,000 हेक्टेयर में सफेदा लगाएगी और निजी किसान 3,000 हेक्टेयर जमीन में।

हरियाणा में 40,000 हेक्टेयर के लगभग खाद्यान्न वाले खेतों में, खास कर अंबाला, करनाल और कुरुक्षेत्र की बारिश-सिंचित जमीन में सफेदा खड़ा है। महाराष्ट्र में कोई 150,000 हेक्टेयर में सफेदा और कुछ दूसरे पेड़ हैं जिनमें से 25,000 हेक्टेयर सिंचित जमीन है। उत्तर प्रदेश में 1979 तक 82,000 हेक्टेयर में सफेदा था। कर्नाटक में 1,33,000 हेक्टेयर में सफेदा है। कोलार और तुमकुर जिलों में अनेक निजी किसान सफेदा बोने में लगे हुए हैं। पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु भी इस दौड़ में पीछे नहीं है।

कई किसान तो पक्के सफेदा-उत्पादक बन गए हैं। उत्तर प्रदेश के एक वरिष्ठ वन अधिकारी श्री डीएन मिश्र का कहना है कि “इस प्रदेश में हम इस बात पर बहुत जोर देते हैं कि वृक्षारोपण में 10 प्रतिशत पेड़ तो सफेदे से भिन्न होने ही चाहिए। लेकिन पश्चिम उत्तर प्रदेश के किसान केवल सफेदे को पसंद करते हैं”, कर्नाटक के मुख्य वन संरक्षक श्री श्याम सुंदर कहते हैं, “हमारे यहां पिछले साल सफेदे के अलावा लगभग 50 लाख अन्य पौधे नर्सरी में ही पड़े रह गए।”

सघन खेती


गुजरात के भावनगर जिले में एक ही साल में 9,000 से ज्यादा किसानों ने एक करोड़ से ज्यादा सफेदे के पेड़ लगाए। उनका नेतृत्व कर रहे हैं इंजनियर से किसान बने डॉ वीजी पटेल। वे पूरी सिंचाई के साथ सफेदे को बिलकुल घना बोते हैं- 60 सेंमी. के अंतर से एक हेक्टेयर में 25,000 पेड़ लगाए जाते हैं, जिससे पुरानी पद्धिति की अपेक्षा 6 से 10 गुना ज्यादा पेड़ निकलते हैं। उनके खेतों में 90 प्रतिशत पेड़ जिंदा रहते हैं और प्रति पेंड़ औसत 15 किग्रा. लकड़ी मिलती है। इसमें से 12 किलोग्राम बिक्री लायक होती है और 3 किलोग्राम पत्ती और टहनियां बचती हैं जो बिकती नहीं।

श्री पटेल अच्छे पेड़ो में से एक चौथाई चौथे वर्ष में काटते हैं, एक तिहाई पांचवे साल में और बाकी छठे साल में। 12.5 प्रतिशत ब्याज सहित पूंजी पर छह साल में 25,000 रुपये का खर्च आता है और आय, 16.40 रुपये प्रति पेड़ की दर से 1,47,000 रुपये की होती है। यानी सालाना लगभग 50,000 रुपये का नफा होता है। इस तरह कपास जैसी अच्छी नकदी फसल से भी इसकी खेती ज्यादा फायदेमंद होती है।

पटेल को भरोसा है कि उनके पेड़ 30 साल तक बने रहेंगे और छह या सात बार पेड़ फूट आएंगे। लेकिन ऐसी सघन खेती के कारण जमीन और मिट्टी पर जो बुरा असर पड़ता है, उसकी चिंता अभी किसी को नहीं है। पटेल का कहना है कि सफेदे के जो पत्ते नीचे विखरते हैं, वे धूप की कमी के कारण जल्दी ही मिट्टी में मिल जाते हैं और मिट्टी को ऊर्वर बना देते हैं। वे यह भी कहते हैं कि अब चूंकि उन्होंने कपास बोना बंद कर दिया है, इसलिए अति-सिंचाई की वजह से होने वाले पानी के जमाव की समस्या भी नहीं रहती।

पटेल जैसे किसान यही पसंद करेंगे कि सरकार लकड़ी से चलने वाले बिजलीघर लगाए ताकि उनकी लकड़ी की मांग बनी रहे और लकड़ी का बाजार पट जाने पर भी लकड़ी-उत्पादकों को मंदी का मासना न करना पड़े। उनका मानना है कि भावनगर की बंजर जमीन पर उगाए गए ऐसे पेड़ो से 150 मेगावट का एक ताप बिजलीघर चल सकता है। गुजरात सरकार ने गुजरात कृषि विश्वविद्यालय के दंतीवाड़ा कैंपस में 1.5 मेगावाट वृक्ष-ताप बिजली उत्पादन का एक प्रयोग भी शुरू किया है।

‘सफलता’ की महामारी


होशियारपुर जिले के शिवालिक पहाड़ों की तलहटी में मल्लेवाल गांव में सफेदे का कमाल देखकर अब छोटे-छोटे किसान भी सफेदा लगाने के बड़े उतावले हो रहे है। उस गांव के कोई 118 छोटे किसानों ने 45 एकड़ जमीन में सफेदा लगाया था। इससे पहले उस गांव में लगातार पांच फसलें खराब हो गई थीं। बारिश होते ही सारा पानी उस रेतीली जमीन में जज्ब हो जाता था। वहां की मिट्टी में दीमक है इसलिए खेती से बरकत नहीं होती। यही कारण है कि ज्यादातर लोग बीच-बीच में गांव छोड़कर पास के औद्योगिक शहरों में या बाजारों में मजदूरी करने चले जाते थे।

मल्लेवाल कृषि विशेषज्ञ डॉ डीआर. भूंबला का गांव है। डॉ. भूंबला पहले कृषि आयुक्त थे और सरकारी सेवा से निवृत होने के बाद कुछ समय तक नई दिल्ली की ‘सोसायटी फॉर प्रमोशन ऑफ वेस्टलैंड्स डेवलपमेंट’ के निदेशक भी रहे हैं। उन्होंने किसानों को पेड़ लगाने की सलाह दी और कहा कि खड्ढे खोदने में उनकी संस्था कुछ मदद दे सकती है। मांग बहुत ज्यादा थी, पर संस्था केवल 45,000 पौधे ही दे पाई।

चार वर्गमीटर की दूरी पर बोने से एक एकड़ में लगभग 1,000 पेड़ लग सकते हैं। किसान सात साल बाद 100 रुपये प्रति पेड़ की दर से उन्हें बेच सकते हैं। 50 प्रतिशत पेड़ मर भी जाएं तो भी एक एकड़ में सफेदे से सात साल तक लगभग 600 रुपये महीने की कमाई हो सकती है। इतनी आमदनी दूसरी किसी भी नकदी फसल से नहीं हो सकती। पूछा गया कि क्या इस लकड़ी को जलावन के रूप में काम में लाते हैं तो फौरन फटकार मिली कि “क्या हम अपना ‘रुपैया’ जला सकते हैं?” लेकिन इसमें एक पेंच है। पंजाब चो (एक तरह का बीहड़) प्रिवेंशन एक्ट 1903 के तहत वन विभाग की अनुमती के बिना कोई पेड़ नहीं काटा जा सकता। इसलिए पेड़ काटने की अनुमति लेने के लिए रिश्वत भी देनी पड़ सकती है। फिर भी यहां सफेदे की महामारी फैलती जा रही है।

वापस कर्नाटक चलें। आलोचनाएं जब बढ़ने लगीं तो कर्नाटक सरकार की सलाहकार समिति ने मुख्यमंत्री श्री रामकृष्ण हेगड़े के अनुरोध पर सितंबर 1983 में एक बैठक बुलाई इसमें जे. बंद्योपाध्याय, तथा प्रो. बीवी कृष्णामूर्ति जैसे सफेदे के आलोचकों और दूसरे भी कई पर्यावरण प्रेमी बुलाए गए थे। उस दल ने पर्यावरण पर क्या प्रभाव पड़ता है बल्कि चर्चा को यहीं तक सीमित रखा कि सफेदे के क्या-क्या प्रभाव हैं। बाद में बंद्योपाध्याय ने सारी चर्चा को यह कहकर बेकार बताया कि “जो भी कागजात प्रस्तुत हुए वे सब गलत थे और यह किसानों को भ्रम में डालने की एक चालाकी भर थी।”

योजना आयोग के भूतपूर्व सदस्य श्री जीवेके राव द्वारा तैयार की गई उस समिति की बैठक की रिपोर्ट में कहा गया है कि संकर किस्म के सफेदे लगाने से पानी का बहाव बढ़ता है और मिट्टी का नुकसान इस बात पर निर्भर है कि वे किन पेड़ों की जगह लगाए जाते हैं। रिपोर्ट बताती है कि अगर प्राकृतिक वन की जगह संकर सफेदा लगाया जाता है तो मिट्टी और पानी का बहाव बढ़ जाता है। इससे उलटे, अगर खेती की जमीन में, या जिस पर पेड़ नहीं हो ऐसी बंजर जमीन में-जैसी कि सरकारी योजना की मंशा है- संकर सफेदा लगाया जाता है तो पानी का बहाव और मिट्टी का नुकसान कम होता है।

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