श्रीनगर के लिये अभिशाप बन कर आई है जल विद्युत परियोजना

7 Sep 2010
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कुछ समय पहले तक श्रीनगर से आगे बद्रीनाथ राष्ट्रीय राजमार्ग पर जाते हुए नदी का विहंगम दृश्य एक अलग तरह का आनंद देता था। लेकिन अब इस पूरे इलाके में सतर्कता बढ़ गई है और शुरू हो गया है हमारे प्राकृतिक संसाधनों को हड़पने का एक घिनौना खेल। जहाँ कभी हरियाली होती थी वहाँ पर मिट्टी के ढेर और इन ढेरों से झाँकते हुए परियोजना के दौरान उखाड़ फेंके गए पेड़-पौंधे ही दिखाई देते हैं। अब भी लोग अपनी गाड़ियों से उतरकर यहाँ देखते तो जरूर हैं लेकिन बाँध के लिए बनाई जाने वाली टनल को या फिर इस बात पर चर्चा करते हैं कि कुछ साल बाद ये पूरा इलाका झील में डूब जाएगा।

अलकनंदा पूरी तरह दूषित हो चुकी है। अब सिर्फ पानी ही नहीं बहता है, बल्कि तमाम ब्लास्टिंग मैटीरियल और सैंकड़ों मजदूरों का नित्यकर्मों से निकलने वाला दूषित पदार्थ भी नदी में बहता है। इस जल प्रदूषण के लिए कंपनी ने किसी प्रकार की एनओसी नहीं ली है। यह शायद दुनिया का अकेला बाँध हो, जिसे किसी शहर के ठीक ऊपर बना दिया गया है। न जाने भविष्य में शहर कितना सुरक्षित रहेगा ?

श्रीनगर-बद्रीनाथ राष्ट्रीय राजमार्ग पर जगह-जगह पर ‘पर्यावरण बचाओ, वृक्ष लगाओ’, ‘नदी बचाओ’ जैसे निरर्थक बोर्ड लगाए गये हैं। इन्ही इबारतों के बीच जीवीके कंपनी द्वारा बाँध निर्माण का कार्य युद्धस्तर पर किया जा रहा है। तकरीबन 6 किमी. का पूरा क्षेत्र कंक्रीट के पहाड़ो में तब्दील कर दिया गया है। दोनों ओर लगे मलबे के ढेरों से नदी नाला बनकर रह गयी है।

गुपचुप तरीके से बढ़ाई गई बाँध की ऊँचाई से डूब क्षेत्र में भी वृद्धि हो गई है। इसके लिए किसी प्रकार की पर्यावरणीय स्वीकृति नहीं ली गई है। न कोई लोक सुनवाई की गई है। यहाँ तक कि कंपनी ने लोगों से आपत्तियाँ प्राप्त करने की जरूरत भी महसूस नहीं की। पर्यावरण मंत्रालय से अनापत्ति पत्र एवं प्रतिपूर्ति व वृक्षारोपण जैसे गंभीर मसलों को भी दरकिनार किया गया। इस बाबत ‘सोसायटी फॉर रेवोल्यूशन अगेन्स्ट क्रप्शन’ ने केन्द्रीय सतर्कता आयोग से जाँच की मांग की है। यह आशंका जतायी है कि सरकारी भूमि के एवज में वित्तीय संस्थानों से कर्जे के रूप में भारी धनराशि ली गई है, जिसके निकट भविष्य में वित्तीय संस्थानों (बैंकों) को भारी धन की क्षति हो सकती है। सोसायटी ने रिजर्व बैंक आफ इंडिया एवं पीएनबी को भी लिखा है और पर्यावरण मंत्रालय, उत्तराखंड शासन, पर्यावरण मंत्रालय भारत सरकार एवं केन्द्रीय विद्युत प्राधिकरण आदि विभागों से प्रोजेक्ट में हुई अनियमितताओं से स्थानीय जनता के उत्पीड़न एवं पर्यावरणीय क्षति की भरपाई करने की मांग भी की है।

केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण द्वारा अलकनन्दा हाइड्रो पावर कार्पोरेशन को 14 जून 2000 को दी गई स्वीकृति के मुताबिक इसे शुरू होने में यदि तीन वर्ष से अधिक का समय लगता है तो पुनः स्वीकृति लेना अनिवार्य है। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की 26 जून 2006 की निरीक्षण रिपोर्ट के अनुसार कार्य शुरू किया जाना अभी बाकी था। छह वर्षों का अन्तराल बीतने के बाद तक भी वास्तविक कार्य शुरू न होने पर पुनः स्वीकृति हासिल नहीं की गई। विभाग हर साल पर्यावरण दिवस के नाम पर करोड़ों डकारने में ही ज्यादा मशगूल दिखाई दे रहा है बजाय कि इस तरह की घटनाओं पर नकेल कसने के। 1985 की पर्यावरणीय स्वीकृति में पूर्ण जलाशय स्तर 604 मीटर रखा गया था। परंतु परियोजना में इसे 611 मी. गुपचुप तरीके से कर दिया गया। इसके चलते परियोजना के डूब क्षेत्र में वृद्धि हो गई है।

उत्तराखंड सरकार द्वारा अलकनंदा हाइड्रोपावर कंपनी को 30 वर्ष के लिये दिये गये पट्टे की शर्त यह है कि पट्टाधारक द्वारा पट्टा अवधि समाप्त होने पर जमीन यथास्थिति में लौटा दी जाएगी। पट्टाधारक के लिए जमीन की यथास्थिति बनाए रखना अनिवार्य है। परंतु यह कोई भी देख सकता है कि पट्टे पर दी गई भूमि अब और किसी काम की नहीं रह गई है। 26 अगस्त 2008 को मुख्य वन संरक्षक गढ़वाल क्षेत्र के नेतृत्व में परियोजना का स्थलीय निरीक्षण करने वाले दल ने अलकनन्दा नदी तट पर और नदी में मलबा निस्तारित करने की तत्काल वीडियोग्राफी करने के निर्देश प्रभागीय वनाधिकारी पौड़ी को दिए, लेकिन अब तक कोई वीडियोग्राफी नहीं हुई। 3 मई 1985 के केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के पत्रांक संख्या जे-1016/8/82- ई.एन.वी. 5 के अनुसार 200 मेगावाट की श्रीनगर जल-विद्युत परियोजना को इस क्षेत्र में बिजली की अत्यधिक कमी को पूरा करने के लिए स्वीकृति दी गई थी, परंतु 1985 से परियोजना निर्माण की अब तक की अवधि में लगता है कि अब कंपनी का लक्ष्य कुछ और ही हो गया है। कंपनी के उत्तर प्रदेश ऊर्जा निगम के साथ हुए समझौते में लिखा गया है कि परियोजना से उत्पन्न होने वाली 88 फीसदी बिजली उत्तर प्रदेश को बेची जाएगी। यानी डूबने-उजड़ने और बाकी तमाम नुकसान झेले उत्तराखंड !

ऐतिहासिक सिद्ध पीठ धारी देवी मन्दिर पर बाँध की गाज गिरने वाली है। ऊँचाई बढ़ने से मन्दिर का डूबना तय है। मन्दिर की समुद्रतल से वर्तमान ऊंचाई 594 मीटर है। यदि बाँध की ऊँचाई 63 मी. ही होती तो बाँध निर्माण से बनने वाली झील का अधिकतम जलस्तर 576 मीटर होता। जबकि अधिकतम बाढ़ स्तर 582.8 मीटर होता। यानी कि विषम परिस्थितियों में भी मन्दिर जलस्तर से 11 मीटर की ऊँचाई पर होता। ग्रामीणों को इसकी भनक भी नहीं लग पाई कि कब धारी देवी के तथाकथित पुजारियों के साथ कंपनी ने गुपचुप तरीके से सौदेबाजी कर ली। कुछ दिन पूर्व ही परियोजना के निदेशक अपने जत्थे के साथ धारी देवी के पुजारियों के साथ बैठक कर वापस आए हैं। बैठक में किसी भी ग्रामीण को शामिल नहीं किया गया। मन्दिर के पास तक जीवेके कंपनी ने अपना कार्य सुचारू रूप से चलने की खातिर सड़क पहुँचा दी है। अब ऐसे में सवाल यह उठ रहा है कि मन्दिर किसका है ? अब धारी देवी मन्दिर पर भी कार्य शुरू करने की योजना है, जबकि गाँव वाले पूरी तरह से इसका विरोध करने के मूड में दिखाई दे रहे हैं।

बाँध निर्माण की वजह से दिनभर चौरास क्षेत्र में भारी धूल उड़ती रहती है। चौरास में हेमवतीनंदन बहुगुणा गढ़वाल विवि का परिसर स्थित है। हजारों की संख्या में छात्र हर रोज पढ़ने के लिए आते हैं। बड़ी संख्या में छात्र चौरास में ही आसपास किराए के भवनों और हॉस्टलों में भी रह रहे हैं। लेकिन दिन भर उड़ने वाली धूल से इन छात्रों के स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव पडे़गा, इस बात से किसी को कोई मतलब नहीं है। चौरास के स्थानीय लोगों को मुआवजा दिया जा रहा है तो भला उन हजारों छात्रों को क्यों दरकिनार किया जा रहा है ? क्या वे डिग्रियों के साथ ढेरों बीमारियाँ भी ले जाएँ ? ब्लास्टिंग से निकलने वाले पत्थर न सिर्फ परियोजना के कार्यो में ही प्रयुक्त हो रहे हैं, बल्कि परियोजना के आला अधिकारी इन पत्थरों से निकले कंक्रीट को बाह्य ठेकेदारों को बेचकर मालामाल हो रहे हैं। सरकारी खजाने पर करोड़ो की चपत लग रही है। परियोजना के दौरान निकलने वाले पत्थरों के एवज में वन विभाग को भुगतान किया जाना था, जो कि नहीं किया गया है।

मगर परियोजना के संयोजक संतोश रेड्डी जोर देकर कहते हैं कि कंपनी जनहित में कार्य कर रही है। उन्होंने श्रीनगर में तीन महीने पहले स्वास्थ्य शिविर लगाया था। प्रभावित गांवो में भी स्वास्थ्य शिविर लगाए जा रहे हैं। भविष्य में छात्रों के लिए भी स्वास्थ्य शिविर लगाए जायेंगे। उनका दावा है कि परियोजना से पर्यावरण को किसी प्रकार का नुकसान नहीं पहुँच रहा है। कंपनी मानकों पर कार्य कर रही है।
 
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