सरकार की प्राथमिकता में वंचित तबका नहीं

सूखे और पानी की भारी किल्लत से जूझने वाले राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश या देश के ऐसे ही अन्य हिस्सों के ग्रामीण समुदाय साक्षी हैं कि पानी की कमी ने उन्हें खुद-ब-खुद जवाबदेह और जिम्मेदार बना दिया। जबकि यह जिम्मेदारी या पानी की कमी का वैसा भयावह अहसास अभी शहरी समाज में बिल्कुल नहीं दिखता। लिहाजा यह अहसास और जवाबदेही सरकार की अपनी नीतियों और योजनाओं से पैदा करनी चाहिए थी, न कि जल प्रबन्ध को निजी हाथों में सौंपकर उम्मीदें लगानी थीं।

राष्ट्रीय जल बिरादरी के मंच से जल संसाधन राज्य मंत्री बिजाॅय चक्रवर्ती ने ऐलान किया था कि किसी भी हालात में पानी का निजीकरण नहीं होने दिया जाएगा। लेकिन महीने भर में ही उनका यह ऐलान पानी में बह गया। मन्त्री महोदय ने कहा तो यह भी था कि राष्ट्रीय जल-नीति में पानी के व्यापार के लिए कोई स्थान नहीं होगा, पर यह बात भी इसी मियाद में कभी जीवित नदी की तरह सूख गई। वैसे यह कोई अप्रत्याशित बात नहीं।

सच्चाई यह है कि जल संसाधन परिषद की पाँचवीं बैठक में राष्ट्रीय जल-नीति का जो प्रारूप पारित हुआ है, उससे जल प्रबन्धन में निजी क्षेत्र की भागीदारी के रास्ते खुल गए हैं। न सिर्फ पानी के निजीकरण के रास्ते खुल गए हैं, बल्कि जिस तरह से सरकार ने निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित और आमन्त्रित किया है उससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि निजीकरण से काफी उम्मीदें लगाई जा रही हैं।

राष्ट्रीय जल-नीति की शब्दावली से यह बात साफ जाहिर हो जाती है कि निजीकरण के भयावह नतीजों और इसके विरोध में उठने वाली तमाम् आवाज़ों को अनसुना करते हुए सरकार ने योजनाबद्ध तरीके से पानी के निजीकरण का फैसला कर डाला। इन पँक्तियों को पढ़कर सरकार की नीयत का अन्दाजा लगाया जा सकता है: जहाँ कहीं भी व्यावहारिक हो, वहाँ के जल के विभिन्न उपयोगों के लिए जल संसाधन परियोजनाओं की आयोजना, विकास और प्रबन्धन में निजी क्षेत्र की भागीदारी को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।

निजी क्षेत्र की भागीदारी से नवीनतम् विचार लागू करने, वित्तीय संसाधन जुटाने, निगमित प्रबन्ध लागू करने और सेवा कुशलता में सुधार करने तथा जल उपयोगकर्ताओं के प्रति उत्तरदायी बनाने में मदद मिल सकती है।

विशिष्ट स्थितियों पर निर्भर करते हुए जल संसाधन सुविधाओं के निर्माण, स्वामित्व, प्रचालन, लीजिंग और स्थानान्तरण में निजी क्षेत्र की भागीदारी पर विचार किया जा सकता है।

इससे साफ तौर पर सरकार की प्राथमिकताओं का सही-सही अन्दाजा लगाया जा सकता है। जाहिर है, सरकार की प्राथमिकता में निजी क्षेत्र है न कि वंचित तबका। यह कैसी नीति है जिसमें प्यासे को पहले पानी देने की प्रतिबद्धता नहीं है।

प्राथमिकता का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सरकार ने निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित करने के लिए तो नीति निर्धारित कर ली, लेकिन सम्पूर्ण जल-नीति में यह उल्लेख कहीं नहीं है कि देश के उन 90 हजार गाँवों को कैसे और कब तक पानी मिलेगा जहाँ इसका कोई स्रोत ही नहीं है। फिर देश के एक तिहाई सूखा प्रवण हिस्से को समय रहते, जरूरत लायक और लगातार पानी उपलब्ध कराने के लिए भी नीति में विस्तार से विधान होना चाहिए था, जो नहीं है।

राष्ट्रीय जल-नीति में तो ऐसे लोगों या स्थानों को ही प्राथमिकता मिलनी चाहिए थी। बजाय इसके नीति निर्धारकों ने यह आधार जरूर तैयार कर लिया कि पानी को बेचने से क्या-क्या ‘लाभ’ हो सकता है? जब तक कोई दुर्लभ संसाधन सुलभ नहीं हो जाता तब तक उसे बेचने के बारे में तो नही ही सोचना चाहिए। आज सबसे बड़ा संकट यह है कि पानी बचा रहे और पानी का कोष बढ़े।

जल और पर्यावरण संरक्षण से जुड़े कर्मियों का तो यह भी मानना है कि पानी का निजीकरण करके सरकार सकल घरेलू उत्पाद को बढ़ाना चाहती है। तभी तो जल संसाधन परिषद द्वारा पारित प्रारूप में निजी क्षेत्र की भागीदारी से वित्तीय संसाधन जुटाने की बात कही गई है। लेकिन इस तर्क को भी हजम कर पाना मुश्किल है कि निजी कम्पनियों के आने से पानी का उपयोग करने वाले इस दुर्लभ संसाधन के प्रति जवाबदेह हो जाएँगे। या कि वे पानी कम खर्च करेंगे।

इसके पीछे सरकार की यह सोच नजर आती है कि जब निजी कम्पनियाँ पानी महँगा देंगी तो लोग भी इसके महत्व को समझेंगे और पानी की कम बर्बादी करेंगे। इसके उदाहरण संसार के सामने हैं कि जहाँ पानी का निजीकरण किया गया वहाँ सब्र का बाँध टूटने के बाद लोग दंगे पर उतारू हो गए। कुछ ही साल पहले बोलिविया में तो नौबत यहाँ तक आ गई थी कि जनाक्रोश का दमन करने के लिए मार्शल लाॅ लगाना पड़ा था।

हालांकि राष्ट्रीय जल-नीति के आने से पहले इस बाबत होने वाले तमाम आन्दोलनों से जुड़े समाजकर्मियों और पर्यावरणविदों ने यह आशंका जताई थी कि नीति निर्धारक जिन्दा रहने के साधनों के निजीकरण की ओर बढ़ रहे हैं। मैग्सेसे पुरस्कार विजेता राजेन्द्र सिंह और पर्यावरणविद् वन्दना शिवा ने खुले तौर पर कहा था कि यह नीति पानी के व्यापार और बाजार के लिए बन रही है।

इसी के आधार पर इस बात की ओर भी संकेत किया गया था कि पहले पानी की सरकारीकरण किया जाएगा और फिर निजीकरण, क्योंकि सरकारीकरण के बाद ही निजीकरण सम्भव है। आशंका यह भी जताई गई है कि यदि पानी और इसके स्रोतों पर भी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का कब्जा हो गया तो वे पानी को घी के दाम बेचेंगी। जल नीति ने इन तमाम आशंकाओं पर कयासबाजी के लिए भी कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी।

हैरत में डालने वाली एक बात यह भी है कि सरकारी महकमे ने एक अरब से अधिक की आबादी वाले इस देश की राष्ट्रीय जल-नीति की सिर्फ 200 प्रतियाँ ही छपवाई हैं। ये 200 प्रतियाँ किस-किस के नाक से लगेंगी? और फिर निजीकरण जैसे अहम सवाल को राष्ट्रीय जल-नीति में जितनी जगह मिली है वह अपने आप में यह साबित करने के लिए काफी है कि सरकार ने इस विवादास्पद मुद्दे को कितनी तवज्जो दी है।

यदि निजीकरण की ठान ही रखी थी तो फिर इसी में नियन्त्रण जैसे बिन्दु पर भी दो-चार बातें समर्पित की जानी चाहिए थीं। यह बात भी सकते में डालने वाली है कि निजीकरण जैसे बड़े मामले को नीति निर्धारकों ने महज् तीन वाक्यों में समेट दिया है।

जिस सवाल पर एक अर्से से बहस-मुबाहिसे हो रहे हैं वह राष्ट्रीय जल-नीति के आ जाने के बाद भी ‘जैसे थे’ की तर्ज पर यथावत् बना हुआ है। सवाल है कि जल और जल प्रबन्धन पर पहला हक किसका होना चाहिए? सरकार, निजी कम्पनियों का या उस समुदाय का जो उसे बचाने-बढ़ाने के लिए जी-तोड़ संघर्ष कर रहा हैं।

जल-नीति के आने से पहले तमाम् आन्दोलन इस बात की वकालत कर रहे थे कि सामुदायिक आधार पर जल प्रबन्धन की व्यवस्था होनी चाहिए। समुदाय और समाज को ही जल प्रबन्धन के लिए जिम्मेदारी के साथ बढ़ावा देने की गुहार भी की जा रही थी। दरअसल इसके पीछे का कारण यह था कि जब तक समुदाय इस नियामत के प्रति जिम्मेदार और जवाबदेह नहीं होगा तब तक वह इसकी कीमत नहीं समझेगा। इस बात को शहरी और ग्रामीण समाज के व्यवहार से आसानी से समझा जा सकता है।

सूखे और पानी की भारी किल्लत से जूझने वाले राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश या देश के ऐसे ही अन्य हिस्सों के ग्रामीण समुदाय साक्षी हैं कि पानी की कमी ने उन्हें खुद-ब-खुद जवाबदेह और जिम्मेदार बना दिया। जबकि यह जिम्मेदारी या पानी की कमी का वैसा भयावह अहसास अभी शहरी समाज में बिल्कुल नहीं दिखता।

लिहाजा यह अहसास और जवाबदेही सरकार की अपनी नीतियों और योजनाओं से पैदा करनी चाहिए थी, न कि जल प्रबन्ध को निजी हाथों में सौंपकर उम्मीदें लगानी थीं। जल-नीति में ऐसी प्रतिबद्धता भी कहीं नजर नहीं आती कि कम-से-कम पानी को किसी की निजी सम्पत्ति न बनने दिया जाए।

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