स्थायी विकास के लिये वर्षाजल संरक्षण: सूखा प्रभावित बुंदेलखण्ड क्षेत्र से एक केस स्टडी


वर्षाजल संरक्षण (आरडब्ल्यूएच) देश में एकीकृत जल विभाजक प्रबंधन कार्यक्रम (आईडब्ल्यूएमपी) का अहम घटक है और उसे वर्षा पर निर्भर इलाकों, खासतौर पर बुंदेलखण्ड के सूखाग्रस्त इलाके में लोगों की आजीविका एवं खाद्य सुरक्षा के लिहाज से अहम माना जाता है। यह पूरा क्षेत्र मध्य भारत के 70.04 लाख हेक्टेयर भूभाग में फैला हुआ है। बुंदेलखण्ड का इलाका अर्द्ध शुष्क क्षेत्र है जहाँ लाल और काली मिट्टी पाई जाती है। यह इलाका मध्य प्रदेश के छह और उत्तर प्रदेश के सात जिलों में विस्तारित है। यहाँ की जमीनी परिस्थितियाँ बहुत विषम हैं। ऊँची नीची बीहड़ जमीन उसे बहुत दुरूह बनाती है। मिट्टी में उर्वरता का स्तर बहुत खराब है, क्षरण की आशंका प्रबल है और जमीन बंटी हुई है। हरियाली का स्तर बहुत कम है जबकि फसलें लगातार विफल होती रहती हैं। यहाँ जैविक दबाव भी बहुत ज्यादा है। ये सारी बातें खाद्य और ईंधन की कमी को जन्म देती हैं (पल्सानिया एवं अन्य, 2011)। भारत के वन सर्वेक्षण के मुताबिक यह इलाका देश के सबसे पिछड़े और वंचित इलाकों में से एक है। यहाँ की आबादी 1.56 करोड़ और पशुओं की आबादी 83.6 लाख थी। इस इलाके में संपूर्ण वन क्षेत्र 12.4 करोड़ हेक्टेयर था (एनॉन, 2005)। इस क्षेत्र के लोगों की आजीविका छिटपुट कृषि कार्यों और पशुपालन पर निर्भर करती है। हालांकि हालिया अतीत में इस पूरे इलाके में लगातार सूखे और बारिश की कमी के मामले देखने को मिले हैं। राष्ट्रीय वर्षा आधारित क्षेत्र प्राधिकार (एनआरएए) का कहना है कि बुंदेलखण्ड इलाके में सूखे की तीव्रता सन 1968 से 1992 के बीच तीन गुना बढ़ गयी। 18वीं और 19वीं सदी में बुंदेलखण्ड में हर 16 साल में एक बार सूखे का सामना करना पड़ा (एनॉन 2008)।

इस क्षेत्र में सालाना औसत वर्षा का स्तर जहाँ 700 से 1200 मिमी है वहीं 10 से 70 फीसदी तक वर्षाजल जमीन की नाकामी की वजह से बह जाता है। आमतौर पर किसी खेत में तालाब बनाने के लिये सपाट सतह पर प्रत्येक 5 हेक्टेयर के कैचमेंट क्षेत्र में 0.2 हेक्टेयर - वर्गमीटर जबकि ढलान वाली जमीन पर 0.3 से 0.4 हेक्टेयर-मीटर कैचमेंट की जरूरत है (शारदा एवं ओजस्वी 2005)। कम समय में तेज बारिश और ऊँची नीची भौगोलिक स्थिति वर्षाजल संरक्षण के लिये उचित अवसर मुहैया कराती है। इस काम को चकबंध बनाकर आसानी से अंजाम दिया जा सकता है।

बड़े पैमाने पर अनुत्पादक पशुओं की मौजूदगी और दूध न देने वाले पालतु पशुओं को खुला छोड़ देने के रिवाज के चलते क्षेत्र मेंं जमकर चराई हुई (कुमार एवं अन्य 2004)। ये आवारा पशु स्थानीय स्तर पर हरियाली, फसलों आदि के लिये बहुत बड़ा खतरा बनते जा रहे हैं और देश के किसी भी अन्य हिस्से की तुलना में वे यहाँ के किसानों को बहुत नुकसान पहुँचा रहे हैं। इस समस्या की वजह से खरीफ सत्र में 70 प्रतिशत से अधिक खेती लायक जमीन परती रह जाती है और शायद ही कभी 100 फीसदी खेती हो पाती हो। इतना ही नहीं तालाबों आदि से सिंचाई के लिये पानी की अत्यधिक निकासी होने के चलते आवारा पशुओं को पीने के पानी के लिये संघर्ष करना पड़ता है, खासतौर पर गर्मियों के दिन में। यह कहना गलत नहीं होगा कि वर्षाजल संरक्षण और पशुओं के लिये खानेपीने की पूरी व्यवस्था को शायद ही कभी तवज्जो दी जाती हो। क्योंकि पूरा ध्यान तो सिंचाई पर केंद्रित रहता है। जलविभाजक प्रबंधन कार्यक्रमों की अनदेखी के बावजूद यह निरंतर महसूस किया गया कि इसे अपनाने की आवश्यकता है (एनॉन 2012)। वर्षाजल संरक्षण में भंडारित जल का उचित उपयोग एवं प्रबंधन एक अहम मुद्दा है जो काफी हद तक किसानों तथा किसी खास वर्षाजल संरक्षण स्थल पर निर्भर करता है।

इस संदर्भ में यह पत्र वर्षाजल संरक्षण के प्रतिभागी विकास और उपयोग पर ध्यान केंद्रित करता है। ये वे संरक्षण केंद्र हैं जिनका विकास सिंचाई और भूजल रिचार्ज तथा जानवरों के प्रयोग के लिये किया जा सकता है। यह काम दतिया जिले में सीएसडब्ल्यूसीआरटीआई ने वर्ष 2009-2013 के दौरान देश के कृषि मंत्रालय की एमएमए योजना के तहत किया।

सामग्री और तरीके


जलविभाजक चयन:
अन्य जल विभाजक हस्तक्षेपों के साथ वर्षाजल संरक्षण का काम जिगना मेंं बहुत गहनता से शुरू किया गया। इसका चयन सीएसडब्ल्यूसीआरटीआई, आरसी दतिया ने वर्ष 2009-2013 में विकास के लिये किया था। इसे भारत सरकार के कृषि मंत्रालय से आर्थिक सहायता प्रदान की गई। 620 हेक्टेयर में फैला यह जल विभाजक क्षेत्र बुंदेलखण्ड के उस इलाके में आता है जो मध्य प्रदेश के दतिया जिले में आता है। समुद्र तट से इसकी औसत ऊंचाई 240 मीटर से 280 मीटर के बीच स्थित है। इसका अक्षांश देशांतर मान क्रमश: 25037 00 से 250 30 30 और 780 20 30 से 780 23 30 तक है। यह 4.18 किमी लंबा, 1.65 किमी चौड़ा है। इसके बहाव का घनत्व 2.31 प्रति वर्ग किमी है। दीर्घकालिक वार्षिक वर्षा का औसत 835.5 मिमी है जो 39 दिनों तक विस्तारित रहती है परंतु अनिश्चितता और बारिश के बीच-बीच में लंबे लंबे सूखे अक्सर फसलों को नाकाम कर देते हैं।

वहीं दूसरी ओर हाल के वर्षों में इस क्षेत्र में पानी की खासी कमी और सूखे जैसी स्थिति बनी हुई है। इसकी वजह से पीने के पानी तक का भीषण संकट उत्पन्न हो गया है। खेती तथा अन्य कामों के लिये पानी कमी तो है ही। हाल के वर्षों में वर्षा के दीर्घकालिक औसत से जो विचलन आया है उसे और जलविभाजक विकास अवधि के अंतर को सारणी एक में प्रदर्शित किया गया है। इसके मुताबिक नौ सालों में से छह साल बारिश सामान्य से कम रही। लगातार कम पानी के कारण एक प्राचीन तालाब जो 16.7 हेक्टेयर में था, वह वर्ष 2004-08 के बीच सूख गया। इस बीच भूजल स्तर में लगातार गिरावट आई जिसने कुओं और ट्यूबवेल को सुखा दिया। अन्यथा सामान्य वर्षों में इनसे करीब 50 हेक्टेयर क्षेत्र में सिंचाई के लिये पानी मिलता था।

सारणी 1: शोध केंद्र दतिया में परियोजना अवधि (2005-2013) समेत दीर्घकालीन वार्षिक औसत से वर्षा के स्तर (मिमी) और वर्षा के दिनों की संख्या में विचलन

वर्ष

(जनवरी से दिसंबर)

वर्षा (मिमी)

विचलन (मिमी)

प्रतिशत विचलन

वर्षा दिवस (संख्या)

विचलन (संख्या)

प्रतिशत विचलन

2005

568.0

-267.6

-32.03

29

-10.0

-25.64

2006

547.2

-288.4

-34.52

36

-3.0

-7.69

2007

547.8

-287.8

-34.45

32

-7.0

-17.94

2008

845.4

9.8

1.17

48

9.0

23.08

2009

753.8

-81.8

-9.79

32

-7.0

-17.94

2010

780.2

-55.4

-6.63

41

2.0

5.13

2011

806.4

-29.2

-3.49

47

8.0

20.51

2012

959.8

124.2

14.86

41

2.0

5.13

2013

1089.6

254.0

30.40

46

7.0

17.94

दीर्घकालीन वार्षिक औसत : वर्षा 835.5 मिमी, वर्षा दिन 39

 


विकास प्रकिया: पीआरए


जलविभाजक प्रबंधन योजना का निर्माण समुदाय को जोड़ते हुए किया गया था। चूँकि कृषि कार्य एवं पशुपालन इस क्षेत्र के प्राथमिक कार्य हैं इसलिये समस्याओं की पहचान और उनकी प्राथमिकता तय करने के लिये भागीदारी वाली ग्रामीण समीक्षा (पीआरए) मोटे तौर पर दो प्राथमिक क्षेत्रों पर निर्भर थी। इनका संबंध जल स्रोत विकास से था।

पूरक सिंचाई और भूजल रिचार्ज के लिये वर्षाजलसंरक्षण और चारागाह वाले इलाकों में पशुओं के लिये वर्षाजल संरक्षण। इन दोहरे लक्ष्यों के साथ जलविभाजक क्षेत्रों में वैज्ञानिक ढंग से जरूरत आधारित वर्षाजल संरक्षण ढाँचों की योजना बनाई गई ताकि ऐसे अन्य हस्तक्षेपों के अनुपूरक रूप में स्थायी विकास को अंजाम दिया जा सके।

जल संसाधन विकास:


अनुपूरक सिंचाई और भूजल रिचार्ज के लिये :
परियोजना अवधि के दौरान नए वर्षाजल संरक्षण व्यवस्थाओं के निर्माण और पुराने पुराने निष्क्रिय पड़ी व्यवस्थाओं के जीर्णोद्धार तथा उनकी उचित देखरेख के साथ 26105 सीयूएम नई क्षमता का विकास किया गया। एक ओर जहाँ तीन नए चकबाँध बनाए गए वहीं एक मौजूदा स्टॉप डैम की मरम्मत की गई और उसे सामुदायिक भूमि पर दोबारा शुरू किया गया। इस दौरान किसानों की जरूरतों का ध्यान रखा गया। इनका निर्माण भारत सरकार के जलविभाजक प्रबंधन दिशानिर्देशों के अनुरूप किया गया। निर्मित किए गए जल संरक्षण ढाँचों के बारे में विस्तृत जानकारी नीचे सारणी-2 में दी गई है।

सारणी : 2 वर्ष 2009-2013 के दौरान जिगना जलविभाजक क्षेत्र में निर्मित जल संरक्षण ढाँचों का ब्योरा

वर्ष

जल संरक्षण ढाँचा

(डब्ल्यूएचएस)

भंडारण

(सीयूएम)

स्वामित्व

प्रमुख उद्देश्य

2009-10

सीडी सीयूएम मेढ 1

1500

निजी

क्षरण की जाँच एवं जीडब्ल्यूआर

2010-11

डब्ल्यूएचएस 2 (मरम्मत)

7500

समुदाय

अनुपूरक सिंचाई

2011-12

डब्ल्यूएचएस 1

7500

समुदाय

अनुपूरक सिंचाई

2011-12

रिसाव वाला स्टाप डैम

750

निजी

जीडब्ल्यूआर एवं अनुपूरक सिंचाई

2011-12

सीडी सीयूएम मेढ 2

1200

समुदाय

क्षरण की जाँच एवं जीडब्ल्यूआर

2011-12

सीडी सीयूएम मेढ 3

240

समुदाय

क्षरण की जाँच एवं जीडब्ल्यूआर

2011-12

नाली प्लग 10

  -

समुदाय

नाली स्थिरीकरण एवं जीडब्ल्यूआर

2013-14

चक बाँध 2

7415

समुदाय

जीडब्ल्यूआर एवं अनुपूरक सिंचाई

 

कुल

26105

  

सीडी: चक बाँध,  जीडब्ल्यूआर: भूजल रिचार्ज

 


पालतू पशुओं के लिये:


जैसा कि पीआरए में जोर दिया गया, पालतू पशुओं के लिये पेयजल सुनिश्चित करने की खातिर एक तटबंध वाला तालाब पंचायती जमीन / सामान्य चराई वाले इलाके पर बनाया गया। यह जगह गांव की रिहाइश से दो किमी दूर थी। वास्तव में ग्राम पंचायत जिगना ने भी कुछ वर्ष पहले इस दिशा में प्रयत्न किए थे। सामुदायिक चारागाह क्षेत्र में तट बनाकर एक तालाबनुमा आकृति बनाई गई थी लेकिन वहाँ समुचित जल भंडारण नहीं हो सकता। जैसा कि ऊपर बताया गया। इस क्षेत्र में जानवरों को खुला छोड़ देने की अन्ना प्रथा की वजह से बहुत समस्याएं पैदा होती हैं। इस बात को ध्यान में रखते हुए किसानों ने सोचा कि अगर सामुदायिक भूमि पर तालाब का निर्माण किया जाता है तो पशुओं को चारागाह के इर्दगिर्द तालाब के पास केंद्रित रखने में सुविधा होगी और फसलों पर से दबाव कम होगा। निर्मित तालाब के तकनीकी पहलू नीचे सारणी 3 में दिए गए हैं।

सारणी:3 दतिया मप्र की जिगना पंचायत में सामुदायिक चारागाह में बनाए गए तटबंध वाले तालाब की तकनीकी विशेषताएँ

ब्योरा

परिमाप

वर्ष

2010-11

तालाब का शीर्ष मीटर में

38 × 28

तालाब का तल मीटर में

30 × 20

गहराई मीटर में

2.0

डोंगी क्षमता सीयूएम में

1664

कुल क्षमता सीयूएम में

4493

कुल संधारण क्षेत्र हेक्टेयर में

4.5

अधिशेष जल प्रबंधन

प्राकृतिक

 


अहम उत्पादन मसले और मिट्टी की सीमाएं:


यहाँ मौजूद कुल 365.3 हेक्टेयर कृषि उपयोगी जमीन में से 93.8 (25 प्रतिशत) जमीन ही मौजूदा पारंपरिक तालाब और कुओं के जरिए सिंचाई के दायरे में थी। यहाँ होने वाली प्रमुख फसलों की बात करें तो खरीफ में तिल, काला चना, हरा चना और मूंगफली तथा रबी में सरसों, चना और गेहूँ की फसल होती थी। एक अनुमान के मुताबिक 10 प्रतिशत इलाका यानी करीब 35 हेक्टेयर इलाका कुओं और ट्यूबवेल के जरिए पूरी तरह सिंचाई के दायरे में था। यहाँ की मिट्टी पारंपरिक रूप से काली और लाल रही है। लाल मिट्टी जहाँ ऊपरी इलाकों में पाई जाती है वहीं काली मिट्टी निचले इलाके में मौजूद है। लाल मिट्टी के राखड़ और परवा और काली मिट्टी के काबर और मार प्रकार इस क्षेत्र में पाए जाते हैं और इन सभी की उर्वरता, प्रकृति, दर्जा और इनकी समस्याएं आदि सभी अलग-अलग हैं। इनका जिक्र तिवारी तथा अन्य, 2009 ने किया है।

हरियाली का स्तर:


इस क्षेत्र की वनीय हरियाली को मोटे तौर पर उत्तरी शुष्क मिश्रित पतझड़ी वन और उत्तरी कटिबंधीय न के रूप में बाँटा जा सकता है। प्राकृतिक हरियाली में छोटे झाड़ झंखाड़ और यहाँ वहाँ उगे हुए वृक्ष शाामिल हैं। इस क्षेत्र में पाए जाने वाला प्रमुख वृक्ष एनोजेइसस पेंडुला (करधई)है। उसके अलावा इस क्षेत्र में पाए जाने वाले अन्य वृक्ष हैं: मधुका लातिफोलिया, अजादिराक्टा इंडिका,जिजिफस जुजुबे, जिजीफस मारीटियाना, एमब्लिका ऑफिसिनालिस, मैंगीफेरा इंडिका, बुटेया मोनोस्पर्मा, अकासिया सेनेगल, अकासिया निलोङ्क्षटका, प्रॉसोपिस जुलिफोरा और प्रोसोपिस सिनरेरिया।

सामुदायिक व्यवस्था और आजीविका


यहाँ के तीन गाँवों / बसाहटों में 403 परिवार हैं जिनमें प्रत्येक में औसतन 5-7 व्यक्ति हैं। इनकी आजीविका का प्रमुख साधन कृषि कार्य और पशुपालन है। इन गाँवों के करीब 75 प्रतिशत लोग इसी काम में लगे हुए हैं। करीब 20 फीसदी आबादी अत्यंत गरीब है और वह आसपास श्रम करके अपनी आजीविका चलाती है। बाकी बचे हुए 5 प्रतिशत लोग अन्य कार्य करते हैं। पालतू पशुओं में 28 फीसदी गाय और भैंस हैं जबकि शेष 62 फीसदी में बकरी, भेड़ आदि शामिल हैं।

परिणाम एवं परिचर्चा:


भूजल की उपलब्धता :
इस क्षेत्र में मौजूद कुओं और ट्यूबवेल आदि में प्रत्येक पखवाड़े / मासिक अंतराल के बाद भूजल स्तर को नापने का काम शुरू किया गया। वर्ष 2012 के जून में जहाँ यहाँ न्यूनतम और अधिकतम जल स्तर 4.9 मीटर और 12.5 मीटर था वहीं वर्ष 2014 में यह 1.83 मीटर और 12.9 मीटर रहा। जिगना जलविभाजक क्षेत्र में स्थित कुओंं और ट्यूबवेल में जल स्तर में अस्थायी अंतर को चित्र एक में दर्शाया गया है। यह बात एकदम प्रत्यक्ष है कि भूजल की गहराई का स्तर समय के साथ घटा है। इससे यह पता चलता है कि कुओंं में भूजल स्तर बढ़ा है। कुओंं और ट्यूबवेल में पानी का स्तर बढऩे की बात कई किसानों ने भी कही।

फसल और उत्पादकता:


जल संरक्षण व्यवस्थाओं में भंडारित जल का इस्तेमाल किसानों ने पूरक सिंचाई के लिये किया। यह उपयोग खरीफ की फसल और रबी में बुआई के पहले किया गया। 44.17 एकड़ दायरे वाले25 किसानों के एक उपयोगकर्ता समूह के जल संरक्षण व्यवस्था 1 के निर्माण से पहले और बाद के आंकड़े सारणी में पेश किए गए हैं। सारणी से यह बात एकदम स्पष्ट है कि अधिकांश किसानों ने रबी सत्र में सरसोंं के बजाय गेहूँ बोना शुरू कर दिया है क्योंकि अब सिंचाई के लिये अधिक पानी उपलब्ध है। 44.17 हेक्टेयर भूमि की कुल उत्पादकता की बात करें तो रबी फसल में यहाँ उपजने वाला गेहूँ 996 क्विंटल से दोगुना होकर 1836 क्विंटल हो गया ।

पालतु पशुओं के लिये बनाए गए तालाब में पानी की उपलब्धता :


पंचायत की जमीन में इस तालाब का निर्माण मूल रूप से पशुओं, पालतू पशुओं के उपयोग के लिये किया गया था। स्थानीय लोगों ने इस प्रयास की खूब सराहना की। इस तालाब की सफलता की गाथा शुरू हो गई क्योंकि इसमें पहले साल पानी के भराव के तत्काल बाद ही किसानो के नाकाम पड़े कुओंं में पानी नजर आने लगा। जबकि इससे पहले वे लंबे समय से सूखे पड़े हुए थे। इस क्षेत्र में पालतू पशुओ की संख्या 6911 है। औसतन 10 से 15 प्रतिशत पालतू पशु पंचायती चारागाह और आसपास की निजी जमीन पर निर्भर हैं। यह वह जमीन है जो इस चारागाह के आसपास परती पड़ी है। एक अनुमान के मुताबिक हर रोज अलग-अलग समय पर करीब 1000 छोटे बड़े जानवर (सारणी 5) यहाँ आते हैं।

सारणी 5: जिगना में चारागाह भूमि पर बनाए गए तालाब से लाभान्वित होने वाले परिवार और उस पर निर्भर जानवरों की संख्या

गाँव

कृषक परिवार

गायें

भैंस

भेड़, बकरी

नीलगाय समेत अन्य जीव)

लाभान्वित समुदाय

जिगना

58

250

150

700

>50

बगला Bagla (25) कुम्हार (5), हरिजन (10), यादव  (8), ब्राह्मण (10)

 


किसानों की धारणा के मुताबिक इस तालाब के निर्माण के बाद (1) करीब 3-4 घंटे का वह समय रोज बचने लगा है जो अन्यथा पानी की तलाश करने में बीत जाता था (2) इस तालाब का पानी आसपास के चारागाह में चरने वाले जानवरों को यहीं केंद्रित रखता है और फसलों पर दबाव कम हो जाता है (3) जानवरों की संख्या तथा दूध के उत्पादन में इजाफा हुआ है। करीब 60 पशुपालक किसानों पर किया गया नमूना सर्वेक्षण बताता है कि वर्ष 2013 में परियोजना पश्चात अवधि में क्षेत्र में जानवरों के बेड़े और दूध के उत्पादन में बढ़ोतरी हुई है।

तालाब में पानी की उपलब्धता की निगरानी का काम दूसरी बार जल भराव के बाद 2012 में सिंतबर माह से शुरू किया गया। यह काम पखवाड़े और मासिक स्तर पर किया गया। निर्माण के शुरुआती सालों में चरम गर्मी के दिनों में यानी मई जून में तालाब का पानी सूख गया। परंतु साल बीतने के दौरान सूखने के दिनों की संख्या कम होती चली गई। बहरहाल वर्ष 2014 की गर्मियों के दौरान पूरी गर्मियों में 1.2 मीटर से लेकर 1.5 मीटर तक जल स्तर बरकरार रहा।

निष्कर्ष :


नतीजों मेंं पाया गया कि जिगना में जल संरक्षण के सकारात्मक परिणाम स्पष्ट रूप से सामने आए। इसके चलते न केवल जल संरक्षण होने लगा बल्कि उत्पादकता में इजाफा हुआ और यह साबित हुआ कि जरूरत आधारित निर्माण के जरिए जल संरक्षण तथा इसके साथ जरूरी सामुदायिक उद्देश्यों की प्राप्ति सतत विकास के लिहाज से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। इस प्रक्रिया के जरिए प्राकृतिक संसाधन के संरक्षण के क्षेत्र में काफी काम किया जा सकता है और सूखे की आशंका वाले बुंदेलखण्ड इलाके के गरीब किसानों की आजीविका सुरक्षित की जा सकती है।

संदर्भ :
अज्ञात, 2005, स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट-2005, भारतीय वन सर्वेक्षण देहरादून (यूके) पृष्ठ 171
अज्ञात, 2012, 01-04-06 से 31-03-2012 की अवधि के लिए पंचवर्षीय समीक्षा टीम की रिपोर्ट. सीएसडब्ल्यूसीआरटीआई, देहरादून (यूके), 109.
अज्ञात, 2008, राष्ट्रीय वर्षापूरित क्षेत्र प्राधिकरण नई दिल्ली की उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बुंदेलखण्ड इलाके में सूखे की कमी संबंधी नीति से जुड़ी रिपोर्ट.
डी आर पालसानिया, आरएस यादव, आर सिंह, आर के तिवारी, ओपी चतुर्वेदी और एसके ध्यानी 2011. मध्य भारत के बुंदेलखण्ड क्षेत्र में गढक़ुंढार डाबर में संसाधन मूल्यांकन. इंडियन जे सॉइल कॉन्स. 39 (3) 263-270
ए कुमार, एसबी मैती और एसएस कुंडू, 2004. उत्तर प्रदेश के बुंदेलखण्ड क्षेत्र मेंं पशुपालन रुझान और चराई के संसाधन. भारतीय चारागाह और चारा शोध संस्थान, झांसी (उप्र)
वी एन शारदा और पीआर ओजस्वी 2005, देश के विभिन्न कृषि पर्यावास इलाकों में जलविभाजक प्रबंधन के जरिए जल संरक्षण. इंडियन जे एग्रिक साइंस 75 (12): 722-729
एसपी तिवारी, डी नारायण और एच विश्वास 2009, बुंदेलखण्ड इलाके में मिट्टी की गुणवत्ता संबंधी बाधा, वर्षासिंचित क्षेत्र में उत्पादकता बढ़ाने का संरक्षण व्यवहार।
खाद्य एवं पर्यावरण सुरक्षा तथा प्राकृतिक संसाधन संरक्षण पर राष्ट्रीय संगोष्ठी. सीएसडब्ल्यूसीआरटीआई, आरसी आगरा, पृष्ठ 211-222

10 से 13 फरवरी 2015 को नई दिल्ली में आयोजित अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन खाद्य सुरक्षा एवं ग्रामीण अाजीविका के लिये प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन में प्रस्तुत

अंग्रेजी में देखने के लिए यहाँ क्लिक करें 



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