सुलगता खतरा


नाइजीरिया चारकोल की माँग पूरी करने के लिये अपने उष्णकटिबन्धीय वन तेजी से खोता जा रहा है। इस सस्ते ईंधन ने देश की जैव विविधता के सामने संकट खड़ा कर दिया

नाइजीरिया अपने बचे-खुचे जंगलों को तेजी से खत्म कर रहा है। फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गनाइजेशन के अनुसार, देश दो दशकों में 50 प्रतिशत वन गँवा चुका है। पाँच प्रतिशत की दर से वनों का खात्मा हो रहा है। यह दर दुनिया में सबसे अधिक है। अगर कटाई इसी दर से जारी रही तो नाइजीरिया 2047 से अपने जंगलों से पूरी तरह हाथ धो बैठेगा।

नाइजीरिया में चारकोल की बढ़ती भूख वनों के खत्म होने की प्रमुख वजह है। ईंधन का यह सस्ता स्रोत तापांशन से तैयार होता है अथवा हवा की अनुपस्थिति में लकड़ी को उच्च तापमान में जलाकर तैयार किया जाता है। अफ्रीका में नाइजीरिया कच्चे तेल का सबसे बड़ा उत्पादक है लेकिन यह ईंधन की गम्भीर कमी का सामना कर रहा है क्योंकि यहाँ कच्चे तेल को शोधित करने के आधारभूत ढाँचे की कमी है।

गैर लाभकारी संगठन नाइजीरियन कंजरवेशन फाउंडेशन के सीनियर कंजरवेशन ऑफिसर स्टीफन आइना का कहना है कि देश में चारकोल के ईंधन को सबसे अधिक प्राथमिकता दी जाती है क्योंकि गैस महँगी है, मिट्टी के तेल की कमी है और बिजली की आपूर्ति नियमित नहीं है। डाउन टू अर्थ का विश्लेषण बताता है कि चारकोल का इस्तेमाल करने वाला एक परिवार ईंधन पर औसतन 350 रुपये हर महीने खर्च करता है। यह एलजीपी के दाम से करीब आधा है। आइना का कहना है कि चारकोल स्टोव किफायती हैं और स्थानीय स्तर पर इसका उत्पादन होता है, इसलिये 93 प्रतिशत परिवार खाना बनाने के ईंधन के रूप में लकड़ी, केरोसीन, बिजली और चारकोल को विकल्प के रूप में चुनते हैं।

सूखे के कारण खेती छोड़कर कई समुदाय चारकोल उत्पादन से जुड़ने पर बाध्यदेश में चारकोल का उत्पादन उत्तरोत्तर बढ़ता जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र के आँकड़े बताते हैं कि 2010 से 2015 के बीच इसका उत्पादन 30 प्रतिशत बढ़कर करीब 40 टन हो गया है। इस बढ़ोत्तरी के पीछे अन्य कारण भी उत्तरदायी हैं। जानकार बताते हैं कि भूमि का कम उर्वर होना प्रमुख कारण है।

दुष्चक्र में फँसना


परम्परागत रूप से अधिकांश नाइजीरियाई व्यक्तिगत स्तर पर चारकोल का उत्पादन करते आये हैं। वे अपनी जमीन और आस-पास के वनों से पेड़ काटते रहे हैं, पेड़ों का ढेर में वे आग लगा देते हैं और करीब दो हफ्तों तक वे आग को सुलगने देते हैं ताकि चारकोल बनाया जा सके। इसका इस्तेमाल वे या तो पारिवारिक जरूरतों के लिये करते हैं या अतिरिक्त आय के लिये व्यापारियों को बेच देते हैं। ये व्यापारी आमतौर पर एक टन चारकोल के लिये 3,500 रुपए देते हैं और करीब 1,605 रुपए प्रति टन में निर्यात कर देते हैं।

दक्षिणी डेल्टा के उष्णकटिबंधीय जंगलों से तैयार होने वाला नाइजीरियन चारकोल की माँग बढ़ रही है क्योंकि ठोस लकड़ी से तैयार चारकोल आसानी से जल जाता है, साथ ही ज्यादा वक्त तक भी जलता है। इसमें ताप भी बहुत होता है। उद्योगों के लिये इसका उत्पादन शुरू हुआ था। छोटे और बड़े पेड़ों की अनियमित और अंधाधुंध कटाई आम हो गई है। 2013 में आईओएसआर जर्नल ऑफ एग्रीकल्चर एंड वेटरीनरी साइंस में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार, साल 2000 में करीब 2.4 बिलियन क्यूबिक फीट राउंडवुड का उत्पादन किया गया। इसका करीब 85 प्रतिशत हिस्सा ईंधन के रूप में इस्तेमाल हुआ। अवैध व्यावसायिक गतिविधियों और लगातार पड़े सूखों के परिणामस्वरूप इसमें इजाफा हुआ।

भूमि के कम उपजाऊ होने के कारण भी वनों से भरे पूरे डेल्टा क्षेत्रों में पेड़ों का कटाई बढ़ी। साल-दर-साल कुछ कृषि समुदाय जैसे बस्सा, दुकावा, हाउसा, टिव और जुरू ने कृषि को त्याग दिया और व्यावसायिक स्तर पर चारकोल का उत्पादन करने के लिये जंगलों का रुख कर लिया। इबादन विश्वविद्यालय के कैरू सालामी का कहना है कि इन समुदायों के लिये यह कारोबार है। किसी को इन व्यावसायिक गतिविधियों के कारण पर्यावरण पर होने वाले असर की चिंता नहीं है।

चारकोल उद्योग से नाइजीरियन कैमरून चिम्पांजी का अस्तित्व भी संकट में कर दिया है। यह जीव पहले से इंटरनेशनल यूनियन ऑफ कंजरवेशन ऑफ नेचर द्वारा 2008 में विलुप्तप्राय घोषित किया जा चुका है। इन दो देशों में केवल 6,500 चिम्पांजी ही बचे हैं। आइना का कहना है कि ठोस लकड़ी और फलों व चारे के खेतों के खत्म होने से चिम्पांजियों का प्रवास नष्ट हो रहा है। उनका कहना है कि चारकोल के उत्पादन से गर्मी और धुआँ होता है जो मधुमक्खियों को भी प्रभावित करता है।

मधुमक्खियों के प्राकृतिक छत्ते खत्म होने से शहद उत्पादन की गुणवत्ता और मात्रा काफी कम हो गई है। स्थानीय मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, चारकोल के व्यावसायिक उत्पादन के चलते आयान पेड़ (अफ्रीकी सैटनवुड या नाइजीरियाई सैटनवुड), इकबा पेड़ (अफ्रीकी लोकस्ट बीन) और इरोका पेड़ (अफ्रीकी टीक) तेजी से खत्म हो रहे हैं।

आसान समाधान


यद्यपि नाइजीरियन अंधाधुंध पेड़ों की कटाई कर रहे हैं फिर भी पर्यावरणविद इस समस्या के समाधान के आसान उपाय सुझाते हैं। उदाहरण के लिये नाइजीरिया करीब 10 देशों का चारकोल निर्यात करता है। इन देशों में उक्रेन, अमेरिका, ब्रिटेन, चीन, पोलैंड, जर्मनी, फ्रांस, नाइजर, कैमरून और बेनिन रिपब्लिक शामिल हैं।

हर साल 1,00,000 टन से ज्यादा चारकोल यूरोप पहुँचता है। आइना के अनुसार, “निर्यात से होने वाला लाभ ही चारकोल का उत्पादन प्रोत्साहित करता है। इस वक्त सर्वश्रेष्ठ चारकोल को निर्यात किया जा रहा है जबकि अन्य स्थानीय स्तर पर बेचा जा रहा है।” अगर यूरोपीय यूनियन बार्बीक्यू को बिजली या गैस से चलाने लगे तो इससे चारकोल की माँग तत्काल कम हो जायेगी। इसके अलावा बेहतर निगरानी के लिये चारकोल को यूरोपियन टिम्बर रेगुलेशन (ईयूटीआर) के अधीन लाना चाहिए। यह रेगुलेशन अवैध लकड़ी उत्पादों को यूरोपीय यूनियन में प्रवेश से रोकने के लिये 2013 में लागू किये गये थे।

चारकोल की ईयूटीआर के तहत निगरानी नहीं की जाती, इसलिये इसे बेचने वाली कम्पनियाँ यह जानकारी देने के लिये बाध्य नहीं हैं कि यह कहाँ और कैसे तैयार किया जा रहा है। वर्ल्डवाइड फंड फॉर नेचर से जुड़े जोहन्स जेनन का कहना है, “कुछ लकड़ी उत्पाद रेगुलेशन का हिस्सा क्यों नहीं है? मेरे लिये यह समझ से परे है।” वह डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू के उस अध्ययन से जुड़े थे जिसमें पाया गया था कि जर्मनी को बेचे गये 80 प्रतिशत चारकोल के स्रोत के सम्बन्ध में गलत जानकारी दी गई। चारकोल उद्योग इससे हो रही बर्बादी की जानकारी लोगों से छुपा रहा है और गलत जानकारी दे रहा है।

मई 2016 में नाइजीरिया ने चारकोल के उत्पादन पर प्रतिबंध लगा दिया था। उस वक्त उत्पादकों और निर्यातकों ने एक पेड़ काटो, दो पेड़ लगाओ नीति का पालन करने से इनकार कर दिया था। यह प्रतिबंध दो महीने बाद ही हटाना पड़ा क्योंकि चारकोल नाइजीरियाई आबादी की ऊर्जा की जरूरतों को पूरा करने का अकेला स्रोत है।

ओयो राज्य के फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट ऑफ नाइजीरिया के चीफ एग्जीक्यूटिव ऑफिसर बताते हैं, “यह समस्या इसलिये भी जटिल है क्योंकि फेडरल सरकार के पास नीति व कानून को लागू करने का तंत्र है जबकि वनों पर राज्यों का स्वामित्व है।” असफल प्रतिबन्ध के बाद सरकार अब सौर ऊर्जा की तरफ देख रही है जो पर्यावरण हितैषी और आर्थिक रूप से मितव्ययी भी है।

पर्यावरण पर बनी नाइजीरिया की राष्ट्रीय परिषद ने पिछली बैठक में कहा था कि देश को सौर ऊर्जा और ईंधन की बचत करने वाले स्टोव को प्रोत्साहित करने के लिये नीतिगत उपायों की जरूरत है। नवीकरणीय एक बेहतर कदम है। इसकी सफलता इस पर निर्भर करेगी कि देश लोगों को इसका प्रयोग करने के प्रति कितना संवेदनशील बनाता है।

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