सुरक्षित विकास बचाएगा धरती को

26 Sep 2011
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भूकंप से होने वाली क्षति कम करने के लिए विकास के कार्यक्रमों को सुरक्षित विकास में बदलने की पहल प्राथमिक आवश्यकता है और यह तभी संभव है जब 'सुरक्षित विकास' एक सोच से बदलकर आदत में तब्दील हो जाए। यह आदत बिलकुल वैसी ही हो, जैसे हम सुबह में दातुन या ब्रश किए बिना अन्न नहीं ग्रहण करते और यह आदत डालनी कोई कठिन नहीं है।

भारत में विगत छह महीनों में भूकंप के छोटे-छोटे कई झटकों को महसूस किया गया। किसे पता था कि भारत, गुजरात एवं कश्मीर के भूकंपों के बाद फिर एक बड़े भूकंप का सामना करेगा। रेडियो, टेलीविजन, अखबारों एवं सोशल नेटवर्क साइटों पर बहुत लोगों ने अपने-अपने विचार व्यक्त किए। इन सभी चर्चाओं में कुछ मूलभूत प्रश्न उठाए गए जैसे भूकंप के प्रति हमारा देश कितना संवेदनशील है, लोग बचाव के प्रति कितने सजग व जागरूक हैं और उसमें भी उत्तरी-पूर्वी राज्यों की स्थिति क्या है? भूकंप से हुए नुकसान को कम किया जा सकता है अथवा नहीं? भूकंप आने के प्रमुख कारण क्या हो सकते हैं? क्या हमारी सरकार आपदा प्रबंधन के प्रति उदासीन है? क्या हमारे पास इस तरह की आपदाओं से निपटने के लिए पर्याप्त क्षमता नहीं है? क्या हमारी सरकार भवन-निर्माण की नियमावली लागू नहीं करना चाहती? क्या आम लोग इस तरह की प्राकृतिक आपदाओं के प्रभाव को कम करने के लिए एकजुट होकर - सरकार एवं समाज संगठित रूप से - किसी साझे कार्यक्रम का क्रियान्वयन नहीं कर सकते? क्या हमें भूकंप एवं उससे होने वाले प्रभाव को भाग्य एवं भगवान के सहारे ही छोड़ना पड़ेगा?

उपरोक्त प्रश्न जितने सरल हैं उतने ही जटिल भी। कभी लगता है कि क्या उपरोक्त प्रश्नों के उत्तर दिए जा सकते हैं? अगर हां, तो उनका उत्तर किसके पास है? सरकार के पास, वैज्ञानिकों के पास, आम लोगों के पास, समाज के पास अथवा किसी के पास नहीं है और अगर कहीं है तो वह क्या है? इन उलझनों के मध्य मैंने सोचा कि क्यों न वर्तमान में सिक्किम में आए भूकंप के परिप्रेक्ष्य में कुछ हल ढूंढ़ा जाए।

पूरी धरती 12 टेक्टॉनिक प्लेटों पर स्थित है। इसके नीचे तरल पदार्थ लावा है। ये प्लेटें इसी लावे पर तैर रही हैं। ये प्लेट जब आपस में टकराती हैं तो ऊर्जा निकलती है जिसके कारण धरती में कंपन होता है, उसे ही हम भूकंप कहते हैं। दरअसल, ये प्लेटें अपने वास्तविक स्थान से धीरे-धीरे प्रतिवर्ष 4-5 मिलीमीटर फिसलती रहती हैं। कोई एक प्लेट दूसरी के निकट आती है तो कोई दूसरी ओर और फिर जब वे एक-दूसरे से टकराती हैं तो भूकंप की स्थिति होती है। इंडियन प्लेट हिमालय से लेकर आर्कटिक तक फैली है और यह प्लेट यूरेशिया प्लेट की तरफ खिसक रही है और इस प्रक्रिया में जब ये टकराती हैं तो भारत में भूकंप आता है। भारत का 54 फीसदी इलाका भूकंप प्रभावित क्षेत्रों में है, जिसमें पहाड़ी राज्य, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, बिहार, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात आदि संवेदनशील एवं अतिसंवेदनशील क्षेत्रों में आते हैं।

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में अगर हम पर्वतीय राज्यों के बारे में बात करें तो कछार (असम) 1869, शिलांग (मेघालय) 1897, अरुणाचल प्रदेश 1950, 1954, 1957, सिल्हट (असम) 1984, टीपी अरुणाचल 1985, मणिपुर 1988, उत्तरकाशी एवं चमोली (उत्तराखंड) 1991 में आए ऐसे भूकंप हैं जो 7 अथवा उससे अधिक रिक्टर स्केल तीव्रता वाले थे। टेक्टॉनिक सिरांत के अनुसार भारतवर्ष भूकंप से प्रभावित होने वाले अति संवेदनशील देशों में से एक है और अगर इन भूकंपों की बारंबारता देखें तो वह कम नहीं है। अब वक्त भाग्य और भगवान के साथ विज्ञान और तकनीकी के जरिए कुछ सफल प्रयास करने तथा इसके प्रभाव को कम करने का है। लेकिन दिक्कत यही है कि इसके लिए न तो सरकार और न समाज ही आगे आ रहे हैं। चिंता होती भी है तो सिर्फ तभी जब भूकंप आता है। इसके बाद त्रासदी को लोग तो भूल ही जाते हैं, सरकार भी हाथ पर हाथ धरकर बैठ जाती है।

भूकंप से होने वाली क्षति कम करने के लिए विकास के कार्यक्रमों को सुरक्षित विकास में बदलने की पहल प्राथमिक आवश्यकता है और यह तभी संभव है जब 'सुरक्षित विकास' एक सोच से बदलकर आदत में तब्दील हो जाए। यह आदत बिलकुल वैसी ही हो, जैसे हम सुबह में दातुन या ब्रश किए बिना अन्न नहीं ग्रहण करते यानी सुरक्षा के आयामों को बिना डाले विकास नहीं करने की आदत और यह आदत बनानी संभव है। आम जनता को कुछ आपसी सलाह-मशविरे और कुछ नीतियों द्वारा भूकंप, आपदा प्रबंधन के आयामों से निरंतर अगवत कराते रहना जरूरी है। संस्थान, जो इस विषय पर कार्य कर रहे हैं, सभी विद्वानों की सहायता से रोजमर्रा की जिंदगी के साथ इसे जोड़ने का प्रयास करें।

भारत में खासकर पिछले दस वर्षों में एक नई सोच के साथ आपदा प्रबंधन के लिए योजनाएं, कार्यक्रम एवं संस्थानों को विकसित किया गया है। नई सोच में आपदा के प्रभावों को कम करने पर बल दिया गया है और उसके लिए पूर्व तैयारी पूर्व कार्य को प्राथमिकता दी गई। नए अधिनियम, नीतियों, मार्गदर्शिका, आपदा प्रबंधन नियोजन इसमें प्रमुख रूप से महत्वपूर्ण कदम हैं। अब आवश्यकता है कि आपदा प्रबंधन के लिए देश, राज्य एवं स्थानीय स्तर पर पंचायत, नगरपालिका संस्थागत तरीके से क्षमता का विकास करें।

तीसरी बात वित्तीय संस्थाओं के संदर्भ में रखनी मैं उचित समझता हूं। सभी टेलीविजनों, अखबारों की चर्चाओं एवं लेखों में भूकंप अवरोधी भवनों तथा मूलभूत ढांचों को बनाने की अनुशंसा की गई। क्या किसी भी सरकार के पास पर्याप्त धन है जिससे वह बने हुए ढांचों को फिर से भूकंप-रोधी बना सके एवं नए ढांचों को भूकंप अवरोधी बनाए? ऐसी स्थिति में पर्याप्त धारावाहिक कदम उठाने होंगे जिससे नवीनीकरण के लिए उठाए जाने वाले कदमों से दूसरों को प्रेरित किया जा सके। वित्तीय संस्थान मकान बनाने के लिए (अगर भूकंप के क्षेत्र हैं तो भूकंप अवरोधी और बाढ़, सूनामी एवं तूफान के क्षेत्र हैं तो उन्हें अवश्य सुरक्षित करने के लिए) ऐसे व्यक्ति को ब्याज दरों को कुछ प्रतिशत कम करते हुए ऋण वितरित करें। दूसरा, अलग-अलग ऋण दर की बात सोचें अथवा भारत के कुछ मौद्रिक एवं राजस्व नीतियों में बदलाव लाकर ऐसे कार्यों को प्रोत्साहन दें जिससे ढांचागत सुरक्षा सुगमता से और कम समय मं प्राप्त की जा सकती है।

चौथी महत्वपूर्ण बात है राज्य, जिले एवं स्थानीय निकायों के स्तर पर आपदा प्रबंधन क्षमता का विकास करना। वर्तमान में राज्यों (कुछ राज्यों को छोड़कर) में आपदा प्रबंधन नियोजन की प्राथमिकता में निचले पायदान पर खड़ा रेंग रहा है, सिक्किम का भूकंप इसका एक उदाहरण है। अगर हमारी स्थानीय क्षमता विकसित रहती तो शायद हम स्थानीय स्थिति को समझते हुए आपदा के प्रभावों को कम कर सकते थे।

यहां एक और बात कहनी जरूरी लगती है और वह यह है कि आपदा से प्रभावित प्रत्येक राज्य को जानमाल का प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से होने वाले नुकसान तथा सकल आय पर पड़ने वाले उसके प्रभावों तथा उससे संबंधित अन्य खतरों की भी चिंता करनी जरूरी है। आपदा प्रबंधन और भूकंप के प्रति सतत जागरूकता आज की आवश्यकता है।

लेखक राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान, नई दिल्ली से जुड़े हैं।

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