सुरसरि तीर

समयोचित संदेश उन्हें प्रभु ने दिए,
सबके प्रति निज भाव प्रकट सबने किए।
कह न सके कुछ सचिव विनीत विरोध में,
उमड़ी करुणा और प्रबोध-निरोध में।
देश सुमन्त्र – विषाद हुए सब अनमने,
आए सुरसरि – तीर त्वरित तीनों जने।
बैठीं नाव – निहार लक्षणा – व्यंजना,
‘गंगा में गृह’ वाक्य सहज वाचक बना।

बढ़ी पदों की ओर तरंगित सुरसरी,
मोद – भरी मदमत्त झूमती थी तरी।
धो ली गृह ने धूलि अहल्या-तारिणी,
कवि की मानस-कोष-विभूति-विहारिणी।
प्रभु-पद धोकर भक्त आप भी धो गया,
कर चरणामृत-पान अमर वह हो गया।
हींस रहे थे उधर अश्व उद्ग्रीव हो,
जैसे उनका उड़ा जा रहा जीव हो।
प्रभु ने दिया प्रबोध हाथ से, हेर कर,
पोंछा गुह ने नेत्र-नीर मुँह फेर कर।
कोमल है बस प्रेम, कठिन कर्तव्य है,
कौन दिव्य है, कौन न जाने भव्य है?

“जय गंगे, आनंदतरंगे, कलरवे,
अमल अंचले, पुण्यजले, दिवसंभवे।
सरस रहे यह भरत-भूमि तुमसे सदा,
हम सबकी तुम एक चलाचल संपदा।
दरस-परस की सुकृति-सिद्धि ही जब-मिली,
माँगे तुमसे आज और क्या मैथिली?
बस, यह वन की अवधि यथाविधि तर सकूँ।
समुचित पूजा-भेंट लौटकर कर सकूँ।”
उद्भासित थी जह्नुनंदिनी मोद में,
किरण-मूर्तियाँ खेल रही थीं गोद में।
वैदेही थीं झलक झलक पर झूमती,
त्रिविध पवन गति अलग-पलक थी चूमती।

बोले तब प्रभु, परम पुण्य पथ के पथी-
“निज कुल की ही कीर्ति प्रिये, भागीरथी।”
“तुम्हीं पार रहे आज जिसको अहो।”
सीता ने हँस कहा- “क्यों न देवर, कहो?”
“है अनुगामीमात्र देवि, यह दास तो।”
गुह बोला- “परिहास बना वनवास तो।”
वहां हर्ष के साथ कुतूहल छा गया,
नाव चली या स्वयं पार ही आ गया।

“मिलन-स्मृति रहे यहाँ तक क्षुद्रिका,”
सीता देने लगीं स्वर्गमणि – मुद्रिका।
गुह बोला कर जोड़ कि- “यह कैसी कृपा?”
न हो दास पर देवि, कभी ऐसी कृपा।
क्षमा करो, इस भाँति न तुम तज दो मुझे,
स्वर्ण नहीं, हे राम, चरण-रज दो मुझे।
जड़ भी चेतन मूर्ति हुई पाकर जिसे,
उसे छोड़ पाषाण भला भावे किसे?
उसे हृदय से लगा लिया श्रीराम ने,
ज्यों त्यों करके विदा किया धी-धाम ने।

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