शुष्क भूमि विकास और सम्भावनाएँ


शुष्क भूमियों के कृषि विकास में आड़े आने वाले विभिन्न दबावों का विश्लेषण करते हुए लेखक कहता है कि केवल समन्वित जल-सम्भर विकास ही पर्याप्त नहीं होगा, बल्कि फसलों की बुवाई में भी विविधता लानी होगी। लेखक शुष्क भूमि कृषि को निजी क्षेत्र द्वारा निगमित निवेश के लिये खोलने का भी सुझाव देता है।

योजना आयोग ने भारत में शुष्क भूमि के महत्त्व को पहचाना और छठी पंचवर्षीय योजना के दौरान वर्षा सिंचित क्षेत्रों के लिये राष्ट्रीय जल-सम्भर विकास परियोजना का श्रीगणेश किया। यह परियोजना सातवीं और आठवी पंचवर्षीय योजनाओं के दौरान भी चालू है। आठवीं योजना के लिये इस परियोजना में कई संशोधन किये गए हैं जिनमें परियोजना को क्रियान्वित करने के लिये केन्द्रीय सहायता का तरीका भी शामिल किया गया है। आठवीं पंचवर्षीय योजना को दौरान जल-सम्भर विकास कार्यक्रम उन सभी विकासखण्डों में भी चलाया गया है, जहाँ सुनिश्चित सिंचाई का प्रतिशत 30 से भी कम है।

शुष्क भूमि से अभिप्रायः ऐसे शुष्क व अर्द्ध-शुष्क क्षेत्र से है, जहाँ मौसमी जलाभाव तो होता है, परन्तु साल के कुछ समय में वहाँ पर्याप्त वर्षा भी होती है। शुष्क भूमि क्षेत्रों में अल्पकालिक वर्षा होती है, व उसमें स्थानिक तौर पर परिवर्तनशीलता पाई जाती है। ऐसे शुष्क भूमि क्षेत्रों में अधिकांशतया, कृषि इस प्रकार की अस्थिर वर्षा पर निर्भर करती है और इसीलिये शुष्क भूमि कृषि (बारानी खेती) को वर्षा सिंचित कृषि के समतुल्य माना जाने लगा है।

मानसून पर निर्भरता


हालांकि सिंचित क्षेत्र का विस्तार हुआ है, फिर भी अभी भी भारतीय कृषि, मानसून की कृपा पर निर्भर है। देश में बुवाई वाले क्षेत्र का तिहाई हिस्सा ही शुद्ध सिंचित क्षेत्र के अन्तर्गत लाया जा सका है। लेकिन शेष बुवाई वाले दो-तिहाई शुद्ध क्षेत्र का मानसून पर निर्भर रहना, एक चिन्ता का विषय है। यह तालिका-1 से स्पष्ट होता है, जिसमें विभिन्न राज्यों के शुद्ध वर्षा सिंचित क्षेत्र का अनुपात दर्शाया गया है तथा विभिन्न राज्यों में उनकी आनुपातिक स्थिति को भी दिखाया गया है।

यह पता चलता है कि गुजरात, महाराष्ट्र और कर्नाटक जैसे अपेक्षित समृद्ध राज्यों में भी काफी बड़ा क्षेत्र शुष्क भूमि कृषि के अन्तर्गत है। वास्तव में, महाराष्ट्र में तो वर्षा सिंचित क्षेत्र का अनुपात, देश का एक उच्चतम अनुपात है। यह भी बड़ी दिलचस्प बात है कि वर्षा सिंचित क्षेत्र के अन्तर्गत क्षेत्र और विकास क्षेत्र के समग्र स्तर का घनिष्ठ सम्बन्ध है।

यह पता चलता है कि बिहार, राजस्थान, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश जैसे निम्न आय वाले राज्यों में भी काफी बड़े क्षेत्र पर बारानी खेती की जाती है। तालिका में प्रदर्शित आँकड़ों से देश में शुद्ध सिंचित क्षेत्र के विषम वितरण का भी पता चलता है।

इन आँकड़ों से सिंचित कृषि की सीमाओं और विभिन्न राज्यों में इनके परिणामस्वरूप खेती की असमान स्थिति का भी पता चलता है, अतः शुष्क भूमि कृषि (वर्षा सिंचित) को एक भरोसेमन्द व्यवसाय बनाने पर भारतीय नीति निर्माताओं द्वारा दिया जा ध्यान उचित ही है। यह इसलिये स्वाभाविक है, क्योंकि अभी भी हमारी 65 प्रतिशत जनशक्ति कृषि पर निर्भर करती है और दूसरे शुष्क भूमि कृषि से न केवल इस जनशक्ति के अधिकांश भाग को आजीविका प्राप्त होती है, अपितु उनका पेट भी भरता है।

दरअसल, खेती की पैदावार में वृद्धि की दर काफी हद तक शुष्क भूमि कृषि के प्रदर्शन से प्रभावित होती है। यही शुष्क भूमि कृषि है, जो सिंचाई सुविधाओं और अधिक पैदावार देने वाली प्रौद्योगिकियों में वृद्धि के बावजूद ग्रामीण श्रमशक्ति का पेट भरती है। हमारे देश में नीति निर्माताओं के लिये चिन्ता की बात यह होनी चाहिए कि गैर खाद्य फसलों की बुवाई के पक्ष में परिवर्तन की एक स्पष्ट प्रवृत्ति दिखाई पड़ रही है। यह प्रवृत्ति शुष्क भूमि कृषि की तुलना में सिंचित कृषि में अधिक दिख रही है।

अनुमान है कि सन् 2000 तक भारत की अनाज की जरूरत 22 से 25 करोड़ टन के बीच पहुँच जाएगी। 22 करोड़ टन की न्यूनतम आवश्यकता का अनुमान उपभोक्ता व्यय से सम्बन्धित एन.एस.एस. के आँकड़ों द्वारा प्रदर्शित लोगों की खान-पान की आदतों में धीमें बदलाव पर आधारित है। अनाज उत्पादन के इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये सिंचाई वाले क्षेत्र में ही विस्तार करना पर्याप्त नहीं है, बल्कि यह भी जरूरी है कि उन लोगों के लिये शुष्क भूमि को पैदावार का एक विश्वसनीय स्रोत बनाया जाये, जो इस पर निर्भर करते हैं।

मृदा संरक्षण की आवश्यकता


अनिश्चित मानसून के अलावा और भी कई समस्याओं से शुष्क भूमि को दोर-चार होना पड़ता है। एक प्रमुख समस्या, भूसंरक्षण की है, जिसके कारण मृदा के पोषक तत्वों की क्षति हो जाती है। इससे फसलों की पैदावार अपने आप ही घट जाती है। भूक्षरण से गाद के कारण सिंचाई परियोजनाओं पर भी प्रभाव पड़ता है।

शुष्क भूमि कृषि के सामने आने वाली दूसरी समस्या मृदा की गुणवत्ता के जटिल मिश्रण की होती है, जो किसी भी समान फसल चक्र से मेल नहीं खाता है। इससे भूमि की क्षमताएँ अपने आप ही सीमित हो जाती हैं इसलिये भूमि को क्षरण से बचाना, भू-क्षमताओं के आधार पर मृदाओं का वर्गीकरण और मृदा की आर्द्रता को बनाए रखने की उचित विधियाँ तैयार करने पर ध्यान देना आवश्यक है, ताकि शुष्क भूमि की फसलों पर वर्षा के असमान वितरण के प्रतिकूल प्रभाव को कम किया जा सके।

जल-सम्भर विकास


योजना आयोग ने भारत में शुष्क भूमि के महत्त्व को पहचाना और छठी पंचवर्षीय योजना के दौरान वर्षा सिंचित क्षेत्रों के लिये राष्ट्रीय जल-सम्भर विकास परियोजना का श्रीगणेश किया। यह परियोजना सातवीं और आठवी पंचवर्षीय योजनाओं के दौरान भी चालू है। आठवीं योजना के लिये इस परियोजना में कई संशोधन किये गए हैं जिनमें परियोजना को क्रियान्वित करने के लिये केन्द्रीय सहायता का तरीका भी शामिल किया गया है।

आठवीं पंचवर्षीय योजना को दौरान जल-सम्भर विकास कार्यक्रम उन सभी विकासखण्डों में भी चलाया गया है, जहाँ सुनिश्चित सिंचाई का प्रतिशत 30 से भी कम है। इस सम्बन्ध में सम्पूर्ण और समन्वित तरीके विकसित किये गए हैं, जिनमें मौसमी तथा बारहमासी दोनों ही प्रकार की फसलों, भू-क्षरण को रोकने और आर्द्रता बनाए रखने के एक प्रमुख साधन के रूप में वानस्पतिक बाढ़ के इस्तेमाल सहित मृदा की गुणवत्ता और क्षमताओं के अनुकूल विविध पैदावार प्रणाली भी शामिल है, इसके अलावा कृषि योग्य व गैर-कृषि योग्य भूमियों को समन्वित किया जाता है तथा राज्य स्तर के मौजूदा तंत्र को लाभार्थियों को छोटे जल-सम्भरों के दीर्घावधि लाभों के बारे में शिक्षित करने के काम में लगाया जाएगा। जल संकट प्रबन्ध योजनाएँ, बाढ़-सम्भावित नदियों के जल ग्रहण क्षेत्रों पर भी लागू की गई हैं।

सीमाएँ


लेकिन केवल जल-सम्भर विकास प्रबन्ध परियोजना के बूते पर ही शुष्क कृषि को विश्वसनीय व्यवसाय नहीं बनाया जा सकता है। हालांकि यह परियोजना छठी पंचवर्षीय योजना में शुरू की गई थी, फिर भी अभी तक यह बड़े पैमाने पर सफल नहीं हो पाई है तथा इसीलिये हम भविष्य में इससे चमत्कारों की आशा नहीं कर सकते हैं।

इस विलम्ब का कारण मूलतः पहचाने गए जल-सम्भर क्षेत्रों में जमीनों के मालिक किसानों में वांछित सहयोग का अभाव है। यहाँ भी किसानों को जल-सम्भर प्रबन्ध योजना की उपादेयता के बारे में विश्वास दिलाने में कृषि विस्तार व्यवस्था विफल रही है। किसानों में इसके प्रति विरोध है, क्योंकि जल-सम्भर विकास योजना दरअसल सहकारी कृषि से बहुत कुछ मेल खाती है। उन्हें डर है कि यदि वे अपनी जमीनें जल-सम्भर विकास के लिये एकत्र कर दें, तो कहीं उन्हें अपनी जमीनों से हाथ न धोना पड़े।

इसके अतिरिक्त उगाई जाने वाली फसलों के बारे में तय करने और लागत व लाभों के बँटवारे में कई परिचालनगत समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। हालांकि ये सुझाव भी आते रहे हैं कि जल-सम्भर क्षेत्र के भू-स्वामियों में सहकारिता को अनिवार्य बनाने के लिये कानून बनाए जाएँ, लेकिन ऐसे प्रयास नहीं किये गए हैं, जो ठीक भी हैं। ऐसे किसी भी कदम का पूर्णतया विरोध होगा।

इसलिये कृषि विस्तार सेवा को नया स्वरूप देना पड़ेगा तथा यदि जरूरत पड़े तो राज्य स्तर पर जल-सम्भर क्षेत्रों के लिये एक विशिष्ट विस्तार सेवा बनाई जाये। कृषि में ही नहीं, बल्कि जल-सम्भर क्षेत्रों के बीच में भी बहुविधि पैदावार गतिविधियों के कारण, ऐसी विशिष्ट विस्तार सेवा आवश्यक हो गई है।

इसके अलावा राष्ट्रीय भूमि उपयोग व संरक्षण बोर्ड के माध्यम से तकनीकी सहयोग देना भी जरूरी है। इस बोर्ड द्वारा तैयार किये गए मार्गदर्शी सिद्धान्तों को अभी लागू नहीं किया गया है। शुष्क भूमि कृषि को एक विश्वसनीय व्यवस्था बनाने के मौजूदा कार्यक्रम की यह एक कमी है। यदि इन दिशा-निर्देशों पर केन्द्र और राज्य सरकारें अमल करती हैं तो उन राज्यों में जल-सम्भर विकास कार्यक्रम जोर पकड़ना शुरू कर देगा, जहाँ शुष्क भूमि कृषि का प्रमुख स्थान है।

जल-सम्भर विकास परियोजना में इन सभी नवीनताओं और सुधारों के बावजूद, केवल इस परियोजना से ही शुष्क भूमि कृषि की समृद्धि की आशा करना व्यर्थ ही होगा क्योंकि पारिस्थितिक जलवायु कमियों से एकदम अलग ऐसे कई संस्थागत दबाव हैं, जो शुष्क भूमि कृषि की जोतों के विभाजन और विखण्डन के कारण, जोतों के अलाभकारी आकार की समस्या सामने आती है।

पिछले वर्षों में सीमित व लघु जोतों का अनुपात काफी अधिक 76 प्रतिशत तक पहुँच गया है, जिससे खेती पर निर्भर व्यक्तियों के लिये खेत का आकार अलाभकार हो गया है। शुष्क भूमि कृषि के मामले में यह समस्या और भी गम्भीर हो जाती है।

दूसरे, पहले दबाव के कारण ही इतनी छोटी जोतों के मालिक किसानों को पर्याप्त मात्रा में उधार व पूँजी नहीं मिल पाती है। वास्तविकता तो यह है कि ऐसे जोतों के लिये जिनका औसत आकार 1.68 हेक्टेयर तक घट चुका हो, पूँजी का उपयोग भी किफायती नहीं रहता।

तीसरी समस्या यह है कि इनमें से अधिकांश छोटी जोतें केवल पेट भरने के लिये ही पूरी पड़ जाती हैं, इसलिये यह सम्भव नहीं रह गया है कि ऐसी छोटी जोतों में लाभकारी फसलें उगाई जाएँ। इसलिये सबसे पहला और प्रमुख संस्थागत परिवर्तन जो शुष्क भूमि कृषि के लिये जरूरी होगा वह यह है कि बटाईदारी नियमों में ढील कर दी जाये और किसानों को छोटी जोतें बटाई पर देने व लेने की छूट दी जाये। इससे उद्यमशील किसानों को अपने परिचालन में जोतों के आकार को बढ़ाने में मदद मिलेगी। परिचालनगत जोतों के आकार के आर्थिक दृष्टि से व्यावहारिक होने पर ही यह सम्भव हो सकता है कि लाभप्रद व्यापारिक फसलें उगाने के लिये पूँजी को आकर्षित किया जा सके।

विविधीकरण


शुष्क भूमि क्षेत्र के किसानों पर लाभकारी न होने पर भी केवल खाद्यान्न फसलें उगाने के लिये जोर डालने की कोई तुक नहीं है। हमें बाजार की शक्तियों के प्रभावों को स्वीकार करना चाहिए और किसानों छूट दे देनी चाहिए कि जो भी फसल उनके हिसाब से लाभप्रद हो, उगाए।

उदाहरण के लिये कर्नाटक में शुष्क भूमि क्षेत्र में पारम्परिक रागी की फसल के स्थान पर व्यापारिक यूकेलिप्टस उगाने के बारे में विरोध था। यह विरोध अपने आप ही खत्म हो गया, जब किसानों ने अपने अधिकार का दृढ़ता से इस्तेमाल किया। ऐसा ही विरोध तब देखा गया जब बैंक ने रेशम उत्पादन विकास परियोजना के अन्तर्गत शहतूत की खेती को प्रोत्साहन दिया था। लेकिन राज्य सरकार व किसान इस विरोध को नजरअन्दाज करने में सफल हो पाये, क्योंकि यह एक प्रेरित दुष्प्रचार था। दूसरे शब्दों में किसानों को वह फसल उगाने देनी चाहिए, जिसमें उनकी निगाह में अधिक मूल्य मिलेंगे।

शुष्क भूमि कृषि के विविधीकरण के क्रम में बागवानी फसलों, विशेषकर फलों को उगाने के लिये प्रोत्साहित किया जाना चाहिए क्योंकि इनके लिये नियमित वर्षा जरूरी नहीं होती और फिर जहाँ सम्भव हो वहाँ छोटे शुष्क भूमि खेतों में, जहाँ सीमित वर्षा होती हो, तालाबों में मत्स्य पालन को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। इन अतिरिक्त क्रियाकलापों से शुष्क भूमि वाले किसानों को अतिरिक्त आमदनी हो सकेगी। यह एक सर्वविदित तथ्य है कि देश दलहनों की पैदावार में पिछड़ा हुआ है।

निगमित निवेश के पक्ष में


आर्थिक उदारीकरण के इस दौर में, हमें मछली-पालन, फल उगाने और कृषि वानिकी जैसे कामों में निगमित संगठनों द्वारा निवेश को भी बढ़ावा देना चाहिए। दलहन, अधिकांशतया गहरी जड़ों वाली फसलें होती हैं। शुष्क भूमि कृषि के अन्तर्गत दलहनों की पैदावार को बढ़ाना सर्वथा उचित रहेगा, क्योंकि इनके लिये नियमित जलापूर्ति की जरूरत नहीं होती है।

शुष्क भूमि कृषि में निजी निगमित निवेश के बिना, इसे लाभप्रद व विश्वसनीय व्यवसाय बनाना अत्यन्त कठिन होगा। हमें अपने कुछ दकियानूसी विचारों को त्यागने और बाजार में ऐसे प्रोत्साहनों की यथार्थता को स्वीकार करने के लिये तैयार रहना चाहिए जिनसे निवेश को गति मिलेगी और कृषि सम्बन्धी गतिविधियों में विविधता आएगी।

शुष्क भूमि कृषि की नीति का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अंग, अनुमानित 10 लाख हेक्टेयर ऊसर भूमि को पैदावार सम्बन्धी गतिविधियों के दायरे में लाना होगा। ऊसर भूमि पर कृषि वानिकी और वृक्षदार फसलें उगाना सम्भव है। सम्भवतया निगमित संगठन ऊसर भूमि को विकसित करने के लिये नवीनतम प्रौद्योगिकी का उपयोग कर सकेंगे और अन्य आवश्यक बुनियादी सुविधाओं में निवेश कर सकेंगे।

इस प्रकार, शुष्क भूमि कृषि विकास के लिये केवल समन्वित जल-सम्भर विकास कार्यक्रम ही पर्याप्त होंगे, बल्कि मृदा की गुणवत्ता व भूमि क्षमता के अनुसार फसलों में विविधता के प्रयास जरूरी होंगे और अधिक महत्त्वपूर्ण बात तो यह होगी कि शुष्क भूमि जोतों का आकार बढ़ाकर निजी निगमित क्षेत्र को पूँजी लगने के लिये प्रेरित किया जाये। सम्भवतया, निगमित निवेश से ऊसर भूमि तक को कृषि वानिकी और फलदार फसलों जैसे लाभकारी उपयोगों के लिये उपयोग में लाने के उद्देश्य से नवीनतम प्रौद्योगिकियों का पदार्पण हो। ऐसी नीति, वर्तमान आर्थिक उदारीकरण कार्यक्रम के अनुरूप होगी।

शुष्क भूमि कृषि की पारम्परिक विकास नीतियों से ही हमें सन्तुष्ट नहीं हो जाना है। यह जरूरी है कि शुष्क भूमि कृषि को भी यदि अधिक नहीं तो सिंचित भूमि कृषि के बराबर लाभकारी बनाया जाये और यह उद्देश्य प्राप्त करना सम्भव है, बशर्ते भू-सीमा कानूनों और बटाईदारी कानूनों के बारे में हम अपनी विचारधारा को बदलने के लिये तैयार हों और साथ ही शुष्क भूमि कृषि में निजी क्षेत्र के निगमित निवेश के प्रवाह को प्रोत्साहित किया जाये।

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