सूखा राहत राज बनाम स्वराज

25 Dec 2015
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यह बात कई बार दोहराई जा चुकी है कि बाढ़ और सुखाड़ अब असामान्य नहीं, सामान्य क्रम है। बादल, कभी भी-कहीं भी बरसने से इनकार कर सकते हैं। बादल, कम समय में ढेर सारा बरसकर कभी किसी इलाके को डुबो भी सकते हैं। वे चाहें, तो रिमझिम फुहारों से आपको बाहर-भीतर सब तरफ तर भी कर सकते हैं; उनकी मर्जी।

जब इंसान अपनी मर्जी का मालिक हो चला है, तो बादल तो हमेशा से ही आज़ाद और आवारा कहे जाते हैं। वे तो इसके लिये स्वतंत्र हैं ही। भारत सरकार के वर्तमान केन्द्रीय कृषि मंत्री ने जलवायु परिवर्तन के कारण भारतीय खेती पर आसन्न, इस नई तरह के खतरे को लेकर हाल ही में चिन्ता व्यक्त की है।

लब्बोलुआब यह है कि मौसमी अनिश्चितता आगे भी बनी रहेगी; फिलहाल यह सुनिश्चित है। यह भी सुनिश्चित है कि फसल चाहे रबी की हो या खरीफ की; बिन बरसे बदरा की वजह से सूखे का सामना किसी को भी करना पड़ सकता है। यदि यह सब कुछ सुनिश्चित है, तो फिर सूखा राहत की हमारी योजना और तैयारी असल व्यवहार में सुनिश्चित क्यों नहीं?

भारत की सबसे बड़ी अदालत ने सूखा मसले पर 11 राज्यों को नोटिस भेजकर यही मूल सन्देश देने की कोशिश की है। गत् 15 दिसम्बर को जारी यह नोटिस ‘स्वराज अभियान’ की याचिका पर जारी किया गया।

‘स्वराज अभियान, आम आदमी पार्टी से अलग हुए नामी वकील श्री प्रशान्त भूषण, जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के शिक्षाविद् प्रो. श्री आनन्द कुमार, विज्ञानी-विश्लेषक श्री योगेन्द्र यादव व साथियों की पहल का परिणाम है।

राहत पर सख्त सुप्रीमो


गौर कीजिए कि भारत के फिलहाल, 11 राज्य सूखे की चपेट में हैं: उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, तेलंगाना, आन्ध्र प्रदेश, उड़ीसा, झारखण्ड, बिहार, हरियाणा और गुजरात।

सुप्रीम कोर्ट ने इन्हें नोटिस देकर पूछा है कि सूखा प्रभावित किसानों को राहत देने की उनकी क्या योजना है। कोर्ट का प्रश्न है कि क्या वे राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तहत राहत के तौर पर दी जाने वाली अनाज मात्रा देने को तैयार हैं या नहीं?

यदि नहीं, तो कारण बताएँ? सरकारों को अगली सुनवाई तिथि चार जनवरी, 2016 को जवाब देना है। विधायिका के दायित्त्व की पूर्ति के लिये भी न्यायपालिका को वक्त लगाना पड़े! हम कैसी विधायिकाएँ चुन रहे हैं?

मुख्य माँगें


खैर, याचिका की बाबत ‘स्वराज अभियान’ का तर्क है कि भारत के 39 फीसदी भूभाग में यह लगातार दूसरा सूखा है; परिणामस्वरूप हालात गम्भीर हैं। फसलें, बड़े स्तर पर बर्बाद हुई हैं। सिंचाई और पेयजल का गम्भीर संकट उत्पन्न हो गया है।

कुपोषण, भूख और चारे की समस्या नए सिरे से सिर उठाती स्पष्ट दिखाई दे रही है। इन हालात में केन्द्र और राज्य सरकारें दायित्व निभाने में अक्षम साबित हुई हैं। 16 दिसम्बर को जारी विज्ञप्ति के मुताबिक ‘स्वराज अभियान’ की छह माँगें मुख्य हैं:

1. सरकार, सूखे की अधिकारिक घोषणा करे।
2. केन्द्र सरकार, प्रत्येक किसान को 20 हजार रुपए प्रति एकड़ की दर से सूखा राहत मुआवजा दे।
3. सूखाग्रस्त आबादी को 60 रुपए प्रति व्यक्ति, प्रति माह सहायता राशि अलग से दे।
4. सूखा प्रभावित सभी राशन कार्ड धारकों को खाद्य सुरक्षा कानून के तहत प्रति व्यक्ति, प्रति माह पाँच किलो अनाज, दो किलो दाल और बच्चों को प्रतिदिन 200 ग्राम दूध या अंडा दिया जाये।
5. सूखा प्रभावितों को रोज़गार मुहैया कराया जाये।
6. मवेशियों के चारे की व्यवस्था हो।

मुआवजा : तंत्र और तरीके पर सवाल


चुनावी विश्लेषण में अपनी महारत के कारण कभी चर्चा में आये श्री योगेन्द्र यादव, जय किसान आन्दोलन के राष्ट्रीय संयोजक के तौर पर आजकल किसान नेता की अपनी नई भूमिका में हैं।

यू-टयूब पर मौजूद एक वीडियो बयान में श्री योगेन्द्र यादव ने बाढ़-सूखा आदि से खेती में होने वाले नुकसान के आकलन का तरीका, मुआवजा वितरित करने वाले तंत्र तथा प्रक्रिया पर भी सवाल उठाया है। उन्होंने कहा है- “सूखे के हालात से निपटने का वर्तमान तंत्र, महज एक मज़ाक बनकर रह गया है। दरअसल, वह अस्तित्व में ही नहीं है। वह सिर्फ कागज़ी है। किसानों तक कुछ नहीं पहुँच रहा। मुआवज़े के नाम पर किसानों को सौ, दो सौ, तीन सौ के चेक मिलते हैं,... महज चार डॉलर!’’

दिक्कत कहाँ?


मुआवजा तय करने की तौर-तरीकों को भेदभावपूर्ण बताते हुए श्री यादव ने तंत्र पर सीधे निशाना साधा है कि सर्वेक्षण किसी कायदे की मुताबिक न होकर, लेखपाल आदि स्थानीय अधिकारियों के नज़रिए से होता है, जिससे भ्रष्टाचार, दलाली और विलम्ब बढ़ जाता है।

प्रक्रिया व तरीका बदलने की जरूरत है। इन्हें इस प्रकार सशक्त करने की जरूरत है, जो पारदर्शी हो, किसान को उचित मुआवजा मिले, समय से मिले तथा प्रक्रिया, भ्रष्टाचार व दलाली से मुक्त हो।

श्री यादव कहते हैं- “तकनीक ने कोई मदद प्रस्तुत नहीं की, जबकि कुछ तकनीक मदद कर सकती है, किन्तु यह कोई रेडीमेड समाधान नहीं है। रिमोट सेंसिंग तकनीक, नुकसान की व्यापक समझ में मदद कर सकती है, किन्तु वह, वहाँ तक पहुँची नहीं है। फोटोग्राफी, खासकर मोबाइल फोटोग्राफी बड़ी मदद कर सकती है; क्योंकि वह सहज-सुलभ है।

किन्तु हमने अभी वह तकनीक विकसित नहीं की है, जो फोटो से नुकसान का सटीक अन्दाज दे सके। मौसम की भविष्यवाणी, मौसम आधारित आकलन मदद कर सकते हैं। किन्तु उन्हें एकदम विचारणीय स्तर तक सटीक होना होगा।

इसी तरह अन्य तकनीक हो सकती हैं, जो मददगार हों, किन्तु वे उन मानवों का विकल्प नहीं हो सकती, जो उनका उपयोग करेंगे यानी उन्हें संचालित करेंगे। अतः क्षेत्र आधारित तरीकों को भी बेहतर करना होगा।’’


श्री योगेन्द्र यादव फसल बीमा की दिक्कत तथा उसमें सुधार का मार्ग भी सुझाते हैं; कहते हैं- फसल बीमा, बैंकों के रास्ते से होकर किसान तक जाता है। बैंक, एक तरह से कृषि बीमा एजेंट की तरह काम करते हैं।..किसान को बीमा सूचना देना जरूरी है, किन्तु कई बार वे अनुमति भी नहीं लेते। कई बार किसान को पता भी नहीं होता कि उसकी फसल का बीमा है अथवा किस चीज का बीमा किया गया है। सबसे बुरी बात, जब बीमा मुआवजा आता है, बैंक सबसे पहले अपने ऋण का भुगतान काट लेते हैं; जो कि स्वीकार्य नहीं है।’’

कृषि बीमा : प्रश्न कई


यदि हम भारतीय कृषि बीमा निगम लिमिटेड पर निगाह डालें, तो सचमुच लगता है कि योजनाओं को सुधार और प्रसार..दोनों की जरूरत है। वर्तमान में चल रही योजनाओं में राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना, राष्ट्रीय फसल बीमा कार्यक्रम, जैविक ईंधन वृक्ष/पौध बीमा योजना, आलू फसल बीमा, कॉफी फसल हेतु वर्षा बीमा, रबर बीमा, रबी फसल हेतु मौसम बीमा, पल्प वुड वृक्ष बीमा जैसी योजनाएँ हैं।

बासमती चावल, चाय, गन्ना, सुगंधीय व औषधीय फसलों तथा संविदा खेती हेतु बीमा योजनाएँ अभी योजना के स्तर पर हैं। ये योजनाएँ आगजनी, बाढ़, चक्रवात, वर्षा, कोहरा, कीट तथा बीमारियों से हुए नुकसान की भरपाई हेतु बनाई गई हैं।

भारत सरकार की यह कम्पनी 20 दिसम्बर, 2002 को अस्तित्व में आई थी। एक अप्रैल, 2003 से अपना व्यापार शुरू किया। रबी वर्ष 1999-2000 से लेकर खरीफ 2014 के आँकड़े बताते हैं कि राष्ट्रीय फसल बीमा योजना के अन्तर्गत इस बीच कुल 22 करोड़, 29 लाख, 349 हजार फसल बीमा किये गए। 33 करोड़, 96 लाख, 74 हजार, 200 हेक्टेयर क्षेत्र बीमित हुआ। विचारणीय है कि 15 वर्षों की अवधि में कुल पाँच करोड़, 91 लाख, 54 हजार किसान लाभान्वित हुए; वार्षिक औसत निकालें तो मात्र 49 लाख, 29 हजार, 500 किसान प्रतिवर्ष।प्रश्न यह है कि एक किसान, कई तरह की फसलें बोता है। एक किसान कितनी तरह की बीमा पॉलिसी लेगा? दिया हुआ कर्ज न डूबे, इसके लिये बैंक कर्जदाता किसान की फसल का तो अपनी मर्जी मुताबिक बीमा भी कर देता है।

यदि कर्जदाता, बीमा पॉलिसी के आकार-प्रकार और उसमें अपनी फसल के जुड़ाव के बारे में बैंक ने उसे न सूचना दी है, न पॉलिसी विकल्पों के चुनाव का अवसर दिया है और न ही बाकायदा समझाकर इसकी अनुमति ली है, तो वाजिब मुआवजा पाने की उसकी हकदारी और उसकी दावेदारी के बारे में उसकी जानकारी कैसे हो सकती है? वह तो जो बैंक भरोसे ही रहेगा न?

सम्भवतः बैंक, मुआवजा दावों में विवाद से बचने के लिये करता हो, किन्तु क्या यह वाजिब है? इसके अलावा जो किसान, किसान क्रेडिट कार्ड धारी नहीं है, जिसने बैंक से कर्ज नहीं लिया, उनका क्या? उनमें से अक्सर को तो फसल बीमा केे बारे में पता भी नहीं है। क्या वह बीमा औपचारिकताओं के लिये पूरी तरह जागरूक व साक्षर बना दिया गया है?

ये विविध योजनाएँ, बीमा उद्देश्य पूर्ति को उलझाएँगी कि सुलझाएँगी? क्या इन योजनाओं की मुआवजा पूर्ति में भारतीय किसान की भू-सांस्कृतिक व आर्थिक विविधता का सम्मान किया जाता है?

निश्चित ही नहीं, यही वजह है कि 13 वर्ष की लम्बी उम्र पूरी करने के बावजूद, भारतीय कृषि बीमा कम्पनी लिमिटेड की उपलब्धियाँ, बढ़ती आपदा की रफ्तार से साम्य बिठाने में सफल नहीं दिखाई देती।

कृषि बीमा : अंकित हकीक़त


भारत सरकार की यह कम्पनी 20 दिसम्बर, 2002 को अस्तित्व में आई थी। एक अप्रैल, 2003 से अपना व्यापार शुरू किया। रबी वर्ष 1999-2000 से लेकर खरीफ 2014 के आँकड़े बताते हैं कि राष्ट्रीय फसल बीमा योजना के अन्तर्गत इस बीच कुल 22 करोड़, 29 लाख, 349 हजार फसल बीमा किये गए। 33 करोड़, 96 लाख, 74 हजार, 200 हेक्टेयर क्षेत्र बीमित हुआ।

विचारणीय है कि 15 वर्षों की अवधि में कुल पाँच करोड़, 91 लाख, 54 हजार किसान लाभान्वित हुए; वार्षिक औसत निकालें तो मात्र 49 लाख, 29 हजार, 500 किसान प्रतिवर्ष। 50 करोड़ की कृषक भूमिधरों की तुलना में एक सबसे व्यापक फसल बीमा योजना के लाभान्वितों की संख्या एक फीसदी से भी कम है। क्या हम, लाभान्वितों के इस आँकड़ें से सन्तुष्ट हों?

खरीफ 2007 से खरीफ 2014 तक का आँकड़ा है कि मौसम आधारित बीमा में 3,41,36,419 किसान बीमित हुए। बीमित राशि 62,714.04 करोड़ थी। प्रीमियम गया 5,950.344 करोड़ और मुआवजा दिया गया 4,078 करोड। कुल 1,90,05,570 किसानों को लाभ मिला यानी प्रतिवर्ष औसतन लगभग 27 लाख किसानों ने फायदा पाया।

रबी 2010 से खरीफ 2014 के बीच संशोधित राष्ट्रीय फसल बीमा योजना में 96 लाख, 81 हजार का बीमा किया गया। प्रीमियम 2363.40 करोड़ आई और मुआवजा 1719.49 करोड़ गया। कुल 16 लाख, 56 हजार किसान लाभान्वित हुए; औसतन तीन लाख, 31 हजार, 200 किसान प्रतिवर्ष।

प्रीमियम राशि, लाभान्वितों की संख्या और मुआवजा राशि के आँकड़ों का आकलन भारत में फसल बीमा की हकीक़त स्वतः कह देता है। मुआवजा प्राप्ति के भ्रष्टाचार की हकीक़त इससे भी बुरी होगी ही।

कृषि बीमा : सबसे बुरा पक्ष


सबसे बुरा पक्ष यह है कि 2014-15 के अन्त में 86 लाख, 57 हजार, 063 मुआवजा मामले निपटारे के लिये लम्बित थे। इनमें भी लम्बित मामलों की सबसे ज्यादा संख्या (3,52,510) महाराष्ट्र राज्य को देखने वाले मुम्बई क्षेत्रीय कार्यालय के अन्तर्गत थी, जहाँ इस वर्ष सूखे की सबसे भयावह मार पड़ी।

संवेदनहीनता की यह स्थिति तब है, जबकि सब जानते हैं कि एक फसल चौपट हो जाने की स्थिति में तो किसान को नकदी की सबसे ज्यादा तथा तत्काल जरूरत होती है। ऐसे में इतने मामले यदि मुआवज़े के लिये वित्त वर्ष गुजर जाने के बाद भी लम्बित हैं, तो किसान अपने खर्च के लिये कहाँ जाएगा?

कृषि बीमा : सुधार की जरूरत


सम्भवतः भारतीय कृषि बीमा कम्पनी के उक्त रफ्तार को देखते हुए ही श्री यादव, कृषि बीमा में बैंक की भूमिका बनाए रखने के पक्ष में हैं, कितु नहीं चाहते कि अपनी कर्जदाता और कृषि बीमा एजेंट की दोहरी भूमिका का नाजायज लाभ उठाएँ।

वह सुझाते हैं कि बैंक अपनी दोनों भूमिकाओं को अलग-अलग रखे। बैंक, जो कुछ भी करता है, उसके बारे में किसान को सूचित करें। फसल बीमा से मिली मुआवजा राशि को कर्ज खाते में नहीं डाले। उसे अलग बचत खाते में डालना चाहिए। ज़मीन पर उतर पाने वाली कई तरह की छोटी-छोटी बीमा योजनाओं को एक बड़ी बीमा योजना में बदल दिया जाये।

द्विस्तरीय कृषि बीमा योजना की सुझाव


श्री यादव ने क्षति मुआवजा हेतु द्विस्तरीय फसल बीमा योजना सुझाई है- “प्रथम स्तर की फसल बीमा योजना ऐसी हो, जो भारत के सभी किसान, सभी तरह का नुकसान, सभी प्रकार की आपदा, सभी फसलों तथा फसल चक्र के हर स्तर को शामिल करती हो। प्रथम स्तर की यह फसल बीमा योजना, पूरी तरह सरकार द्वारा सब्सिडी पर आधारित हो। इसमें एक ऐसी न्यूनतम मुआवजा राशि सभी के लिये हो, जो न्यनूतम जरूरत की पूर्ति करती हो। यह जीवन जीने के लिये मदद की तरह हो। यह वास्तविक खर्च.. वास्तविक नुकसान आधारित हो। इस स्तर की योजना की मुआवजा राशि सीधे किसान के खाते में डाली जाये।’’

“बीमा का दूसरा स्तर, अच्छी रकम बीमा हो, जिसकी सीमा फसल उत्पादन से लेकर उत्पाद की न्यूनतम बाजार दर तक जाती हो। किसान अपनी फसल से जो कुछ आय वह कर सकता था, मुआवज़े में उतना अपेक्षित उसे मिले। इसमें किसान के लिये विकल्प हों कि वह किस फसल का बीमा कराना चाहता है।

सूखा आये ही नहीं, इसके लिये जलवायु परिवर्तन के व्यापक कदम हम तत्काल नहीं कर सकते, किन्तु उक्त कदम तो उठा ही सकते हैं। क्या केन्द्र से लेकर गाँव इकाई तक चुनी हमारी विधायिकाएँ यह करेंगी? किसानों को भी याद रखना होगा कि स्वराज का असल मतलब, अपना राज नहीं, अपने ऊपर खुद का राज होता है यानी खुद के ऊपर, खुद का अनुशासन। पानी के उपयोग और निकासी में अनुशासन के बगैर यह सम्भव नहीं।वह किसी एक फसल का बीमा कराना चाहता है अथवा बहुफसल का। वह किस चरण से आगे का फसल बीमा कराना चाहता है। वह व्यक्तिगत फसल बीमा कराना है, या सामूहिक। दूसरे स्तर की इस फसल बीमा योजना को राज्य सरकार अपना 75 प्रतिशत अंशदान करे।

यदि किसान इससे अधिक चाहता है, तो किसान बीमा सम्बन्धी सभी भुगतान करे। फसल के नुकसान का आकलन एकदम सटीक हो। फसल कटाई के तौर-तरीके आदि का ध्यान रखते हुए यह किया जाये।’’
श्री यादव का मानना है कि इस तरह की द्विस्तरीय फसल बीमा पैकेज किसानों को वह दे सकेगा, जो उन्हें चाहिए।माँग से आएगा स्वराज या बढ़ेगा परावलम्बन?

श्री यादव के सुझाव व सुप्रीम कोर्ट का नोटिस सूखा राहत हेतु कमर कसने की कवायद है। निस्सन्देह, फसल बीमा का लाभ हर किसान तक पहुँचना चाहिए। मुआवजा तंत्र और प्रक्रिया में सुधार वांछित है। आपात स्थिति में खाद्य सुरक्षा मिले, यह भी जायज़ है, किन्तु स्वराज अभियान द्वारा हर माह अनाज, दाल, दूध व अंडे की माँग?

25 नवम्बर को स्वराज द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया कि पिछले आठ महीने से बुन्देलखण्ड के 53 प्रतिशत गरीब परिवारों ने दाल नहीं खाई; 69 प्रतिशत ने दूध नहीं पिया; हर पाँचवाँ परिवार कम-से-कम एक दिन भूखा सोया और हर छठे घर ने फिकारा घास की रोटी खाई।

बीती होली के बाद से सर्वेक्षण समय तक 40 प्रतिशत परिवारों को पशु बेचने पड़े, 27 प्रतिशत ने ज़मीन बेची या गिरवी रखी, रिपोर्ट के मुताबिक, होली के बाद से 38 फीसदी गाँवों से भूख से हुई मौतोें की खबर मिली। बुन्देलखण्ड के हालात वाकई इतने खराब हैं या नहीं?

बुन्देलखण्ड की 27 तहसीलों के 108 गाँवों के सर्वेक्षण पर आधारित इस रिपोर्ट से बुन्देलखण्ड के कुछेक पत्रकार, कार्यकर्ता सहमत नहीं हैं। हो सकता है रिपोर्ट पर सवाल हो, किन्तु इस तथ्य पर कोई सवाल सम्भव नहीं है कि साल-दर-साल सूखे की वजह से बुन्देलखण्डवासी सुखी तो कतई नहीं है।

उक्त रिपोर्ट को नजर में रखें, तो हो सकता है आपको भी एक बार स्वराज अभियान की अनाज, दाल, दूध, अंडे की हर माह आपूर्ति माँग उचित लगे, किन्तु सोचिए, विद्यालयों में दोपहर के मुफ्त भोजन के कारण क्या वाकई असल शिक्षा के प्रति हमारे नौनिहालों की रुचि व सक्षमता बढ़ी या सिर्फ उनकी उपस्थिति, प्राथमिक शालाओं की संख्या और खर्च के आँकड़े ही बढ़े?

मेरा मानना है कि आपात स्थिति में मदद, उपेक्षित न की जा सकने वाली अपेक्षित सहायता है, किन्तु सामान्य स्थिति में? सामान्य स्थिति में मदद, हमें कमजोर बनाती है; हमें हाथ फैलाना सिखाती है; भ्रष्टाचार बढ़ाती है। ऐसा समाज फिर कभी स्वाभिमानी, स्वावलम्बी और परिस्थिति से जूझकर जीतने वाला बहादुर नहीं बन सकता।

बाजार और शहरीकरण के प्रभाव में आकर हमारे गाँव पहले ही परावलम्बन की राह पर फिसल चुके हैं, क्या हम उन्हें और परावलम्बी बनाएँ? कठोर शब्दों में कहूँ, तो क्या हम अपने अन्नदाताओं को भीखमंगा बनाएँ?

राहत से बेहतर रोकथाम


क्या यह बेहतर नहीं कि यदि सूखा राहत ही देनी है, तो ऐसी राहत दी जाये, जो महज राहत नहीं, सूखा निवारण की दिशा में बढ़ा एक कारगर कदम बन जाये? क्या यह अच्छा नहीं, अगली फसल हेतु सूखा रोधी चारा बीज, संजोने लायक देशी बीज, देशी खाद, वानिकी के प्रयोग, खेतों का ऐसा भू-सुधार सूखे से पीड़ित किसानों तक तत्काल पहुँचाएँ, जो आकाश से बरसी बूँदों को आवश्यकतानुसार खेत में सहेज दे?

हर घर के सामने एक सोख्ता पिट, हर बड़े ढाल क्षेत्र में एक जलसंचयन इकाई बनाने का सामर्थ्य और प्रेरणा सुनिश्चित करें। बदलती जलवायु और भूगोल के अनुकूल सर्वश्रेष्ठ फसल, बीज और समय के चुनाव के ज्ञान को हर खेत और खेतिहर तक पहुँचाएँ।

सूखा पीड़ित क्षेत्रों में विशेष अभियान और लक्ष्य बनाकर अगली फसल से पहले यह सब युद्ध स्तर की तैयारी के साथ करना, क्या बेहतर सूखा राहत की योजना नहीं होगी? पैसा और अनाज बाँटना, बीमार की सिर्फ प्राथमिक चिकित्सा भर है। क्या उक्त कदम, सूखे की रोकथाम में सहायक नहीं होंगे?

तय कीजिए


सूखा आये ही नहीं, इसके लिये जलवायु परिवर्तन के व्यापक कदम हम तत्काल नहीं कर सकते, किन्तु उक्त कदम तो उठा ही सकते हैं। क्या केन्द्र से लेकर गाँव इकाई तक चुनी हमारी विधायिकाएँ यह करेंगी? किसानों को भी याद रखना होगा कि स्वराज का असल मतलब, अपना राज नहीं, अपने ऊपर खुद का राज होता है यानी खुद के ऊपर, खुद का अनुशासन।

पानी के उपयोग और निकासी में अनुशासन के बगैर यह सम्भव नहीं। जल संचयन, इसकी दूसरी जरूरी शर्त है। इसी से सम्भव है सूखे पर नीलिमा का राज। तय कीजिए कि किसान को राहत चाहिए या रोकथाम?

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