सूखे के दौरान छोटी व मिश्रित खेती ने दिया लाभ

मिश्रित खेती में सब्जियों व मसालों को प्राथमिकता देते हुए किसानों ने न सिर्फ सूखे के कारण हुए नुकसान को कम किया, वरन् शहर की ज़रूरतों को भी पूरा करने में अहम् भूमिका निभाई।

संदर्भ


मिश्रित खेती के अंतर्गत किसानों द्वारा औसतन 15-20 फसलें एक साथ ली जाती हैं, जिनके लिए पानी, खाद तथा अन्य जैविक एवं सस्य क्रियाएं समान व एक बार में ही सबको लाभान्वित करने वाली होती है।

बुंदेलखंड क्षेत्र वैसे तो नैसर्गिक रूप से सम्पन्न है, किंतु मौसम के बदलते मिज़ाज ने क्षेत्र की संपन्नता का ह्रास करने में अहम् भूमिका निभाई। पिछले 10 वर्षों में 7 बार पड़ चुके सुखे ने लघु सीमांत किसानों की कमर ही तोड़ दी थी। ऐसे में इन किसानों को अपनी परंपरागत कृषि पद्धति या आई और इन्होंने पुनः उसी तर्ज पर काम करना प्रारम्भ कर दिया। हालांकि कृषि वैज्ञानिक व जानकार खेती में मिश्रित प्रक्रिया की पैरवी लगातार कर रहे हैं, परंतु इन तकनीकों से दूर छोटे सीमांत किसानों ने अपनी खेती में अपना जो प्रयोग किया, उससे वे सुखे का मुकाबला करने में अपने-आपको सक्षम पा रहे हैं।

जनपद ललितपुर के विकास खंड तालबेहट के दर्जनों गाँवों में लघु सीमांत किसानों के पास इस तरह के परंपरागत ज्ञान हैं, जिन्हें उन्होंने विकास के क्रम विस्मृत कर दिया था, परंतु लगातार पड़ रहे सूखे ने इन्हें पुनः पीछे की ओर लौटने पर विवश किया और आज ये सूखा आपदा के बावजूद न केवल अपने को बल्कि शहरों की जरूरत पूरी करने हेतु सब्ज़ियाँ और मसाले उपलब्ध करा पा रहे हैं।

प्रक्रिया


मिश्रित फसलों के नाम एवं फसल चक्र
प्रायः किसानों द्वारा अदरक हल्दी, अरबी, अमीठा, रतालू, सेम, मिर्च, टमाटर, बैंगन, शकरकंद, गुलाखरी, टिंडा, मूली, लौकी, करैला, तरोई, गाजर, गोभी, धनिया, भिंडी व पपीता की खेती की जाती है। इनके द्वारा कृषि उत्पादन में फसल चक्र को अपनाया जा रहा है। एक वर्ष सब्जी उत्पादन के उपरांत उसमें दूसरी फसल लगाई जाती है।

फसल विभाजन


फसलों की प्रकृति के आधार पर इनका विभाजन निम्नवत् किया जा सकता है-
लता वाली फसलें : सेम, रतालू, तरोई, करेला, लौकी, अमीठा
कंद वाली फसलें : गुलाखरी, मूली, गाजर, शकरकंद, अरबी, हल्दी, अदरक
जमीन के ऊपर की फसलें : धनिया, गोभी, भिंडी, पपीता, टिंडा, बैंगन, टमाटर, मिर्च

भूमि उपयोग


15 से 20 डिसमिल भूमि पर ही ज़मीन के अंदर कंद वाली फसल, ज़मीन के ऊपर मिश्रित व बेल वाली फसल तथा फलदार वृक्ष लगाकर एक साथ कई उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है।

खेत की तैयारी व पौध रोपण


खेत की तैयारी के अंतर्गत माह जून से ही हल-बैल से अच्छी तरह जुताई कर देते हैं। एक बरसात होने पर जब ज़मीन में नमी अच्छी होती है, उसी तैयार नर्सरी से पौधों को लाकर खेत में रोपाई कर देते हैं। सभी फ़सलों को लगाते समय इस बात का ध्यान रखा जाता है कि नीचे जड़ों तथा ऊपर बेलों व पौधों को बढ़ने के लिए पर्याप्त सिंचन मिलता रहे।

फसल लगाने की अवधि


धनिया, गाजर, गोभी को छोड़कर शेष फसलें माह जून-जुलाई में लगाई जाती हैं। जबकि धनिया, गाजर, गोभी की बुवाई का समय अक्टूबर से जनवरी तक है।

बीज की प्रजाति


सभी फ़सलों की देशी प्रजातियों के बीज का प्रयोग किया जाता है।

खाद


गोबर की खाद एवं हरी खाद का प्रयोग करते हैं 20 डिसमिल खेत में 4 कुं. सड़ी गोबर की खाद का प्रयोग किया जाता है। यदि हरी खाद का प्रयोग करते हैं तो सड़ी गोबर के खाद की आधी मात्रा प्रयोग की जा सकती है।

निराई-गुड़ाई


खेत में खर-पतवार जमने से पौधों की वृद्धि पर असर पड़ता है। इसले समय-समय पर खेत की निराई करते रहते हैं, जिससे पौधों को बढ़ने का पूरा समय व जगह मिले। पूरी फसल अवधि में खेत की दो बार गुड़ाई करते हैं।

कीट व्याधि नियंत्रण


किसानों द्वारा आई.पी.एम. तकनीक से रोग एवं कीट व्याधियों का नियंत्रण किया जाता है।

सिंचाई


किसान रहट द्वारा पारंपरिक सिंचाई पद्धति अपनाकर कम पानी में सिंचाई करते हैं। सब्जियों के खेत में सिंचाई करते समय इस बात का खास ख्याल रखा जाता है कि खेत में पानी न लगने पाए और न ही नमी सूखने पाए।

फसल अवधि एवं उपज


तरोई, धनिया, मूली, गाजर का उत्पादन एक से डेढ़ माह में, मिर्च, सेम, भिंडी, टमाटर, बैंगन, लौकी, गोभी का उत्पादन दो से ढाई माह में, गुलाखरी, टिंडा, करेला, अरवी, अमीठा, शकरकंद का उत्पादन तीन से चार माह में तथा रतालू, हल्दी, अदरक का उत्पादन चौथे से पांचवें माह में मिलने लगता है।



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