सूखे पर सर्वोच्च न्यायालय सख्त


बिल्ली के आँख बन्द करने का किस्सा कुछ इस तरह का है कि बिल्ली कुछ खाते-पीते वक्त अपनी आँखें बन्द कर लेती है तो मानती है कि उसकी आँखों के आगे जैसा अन्धेरा छाया है, वैसा अन्धेरा आस-पास हर तरफ छाया होगा। इस तरह वह आराम से दूध पी सकती है क्योंकि वह किसी को देख नहीं रही है।

देश में जब हर तरफ सूखे की वजह से हाहाकार मचा हुआ है, किसानों की फसल बर्बाद हो रही है, पानी की किल्लत की खबर आ रही है और देश की केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों को मानों कोई परवाह ही नहीं है। वे माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी दिशा-निर्देशों का इन्तजार कर रहे हैं। देश भर में पानी की इतनी किल्लत के बावजूद हरियाणा और बिहार ने अपने राज्यों को अब सूखा प्रभावित घोषित क्यों नहीं किया? यह सवाल भी इन राज्य की सरकारों से सर्वोच्च न्यायालय को पूछना पड़ा।

सर्वोच्च न्यायालय ने सूखे की वर्तमान स्थिति से लड़ने के लिये एक दिशा-निर्देश जारी किया है। जिसमें सूखे के सम्बन्ध में एक राष्ट्रीय कार्ययोजना बनाने की जिम्मेवारी केन्द्र सरकार पर डाली गई है। सूखा प्रबन्धन से जुड़े दिशा-निर्देशों में 2009 के बाद कोई बदलाव नहीं हुआ है। न्यायालय द्वारा सूखा प्रबन्धन से जुड़े दिशा-निर्देशों में संशोधन की बात की गई है।

सूखा निर्धारित करने के लिये निश्चित समय सीमा के अन्दर एक मानक पद्धति की आवश्यकता पर न्यायालय ने बल दिया है। बीते साल ग्यारह राज्यों ने सूखा प्रभावित होने की घोषणा की। सबसे पहले कर्नाटक ने अगस्त 2015 में इसकी घोषणाा की। उसके बाद अक्टूबर 2015 में महाराष्ट्र, ओड़िशा, छत्तीसगढ़, आन्ध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश ने। फिर नवम्बर में उत्तर प्रदेश और तेलंगाना ने। दिसम्बर में झारखण्ड और राजस्थान ने सूखे की घोषणा की। पिछले महीने गुजरात ने सूखे की घोषणा की है। अब तक बिहार और हरियाणा ने यह घोषणा नहीं की है।

न्यायालय ने सूखे को लेकर सरकार की लेट-लतीफी और इसकी वजह से पलायन, आत्महत्या, बच्चों, बुजूर्गों और महिलाओं के दुख पर चिन्ता व्यक्त करते हुए कहा कि केन्द्र सरकार को सूखे की पहचान प्रारम्भिक दिनों में करने के लिये नई तकनीक का इस्तेमाल करना चाहिए। जिससे वह पलायन, आत्महत्या को रोक पाये और बच्चों-महिलाओं के हित में नीतियाँ बना सके।

न्यायाधीश मदन बी लोकूर और एनवी रमण की खण्डपीठ ने अपने फैसले की शुरुआत लोकमान्य तिलक के इन प्रसिद्ध पंक्तियों से की, जिसमें उन्होंने कहा था- ‘संसाधन और क्षमताओं की कमी कोई समस्या नहीं है, समस्या है इच्छाशक्ति की।’

वास्तव में पंचायत से लेकर केन्द्र की सरकार तक, यदि सकारात्मक बदलाव नहीं हो पाता तो उसके पीछे इच्छाशक्ति की कमी ही एक बड़ी वजह बनती है।

गुजरात, बिहार, हरियाणा जैसे राज्य अपने यहाँ की जमीनी सच्चाई देश के साथ साझा करने में संकोच कर रहे हैं। वहाँ सूखे की क्या स्थिति है, वे अब तक जाहिर नहीं कर पाएँ हैं। इस स्थिति की तुलना न्यायालय ने शुतूरमुर्ग की स्थिति से की है। जो जमीन के अन्दर अपना सिर देकर समझता है कि दुनिया में हर तरफ सब कुछ ठीक चल रहा है।

आदेश में लिखा गया है- ‘सूखे के मामले में राज्यों की तरफ से बरती जा रही चुप्पी, आने वाले संकट की वजह बन सकती है।

आदेश में गुजरात का जिक्र करते हुए लिखा गया है कि जब सुनवाई अन्तिम चरण में है तो गुजरात ने राज्य में सूखे को स्वीकार कर लिया। लेकिन बिहार और हरियाणा अब भी इसे नकारने के पक्ष में हैं। केन्द्र को न्यायालय ने यह भी निर्देश दिया कि उसका काम सिर्फ वित्तीय सहायता उपलब्ध कराना है।

भारत की सरकार से ऐसे समय में अधिक तीव्र और सूक्ष्म प्रतिक्रिया की अपेक्षा है। इस काम के लिये पैसा कहाँ रोकता है?

 

न्यायालय ने यह पूछा


सर्वोच्च न्यायालय में यह मामला स्वराज अभियान द्वारा दाखिल एक जनहित याचिका के रूप में आया था, जिसमें सूखे की इस विकराल स्थिति में रोजगार और खाद्य सुरक्षा योजनाओं को ठीक प्रकार से राज्यों में लागू कराने के लिये न्यायालय से हस्तक्षेप करने का आग्रह किया गया था।

इस जनहित याचिका पर न्यायालय ने कहा कि सरकार राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन कानून के प्रावधानों को लागू करे और इसके अन्तर्गत सूखे को लेकर राष्ट्रीय नीति बनाए। एक राष्ट्रीय योजना कानून बनने के 10 साल बाद भी कार्यान्वित नहीं हो पाई है, केन्द्र सरकार जल्द-से-जल्द इस पर कार्रवाई करे। न्यायालय ने तीन महीने के अन्दर राष्ट्रीय आपदा शमन कोष बनाने का भी निर्देश सरकार को दिया है। साथ ही 2009 के सूखा प्रबन्धन दिशा-निर्देश में सुधार की बात भी न्यायालय ने कही है।

दिशा-निर्देश में सूखा की स्थिति कब मानेंगे, यह बात स्पष्ट होनी चाहिए। सूखे के लिये निश्चित मापदण्ड तय होना चाहिए और सूखे की घोषणा के लिये समय सीमा निर्धारित की जानी चाहिए। फसल हानि, कम और अधिक वर्षा के स्पष्ट मानक तय किये जाने चाहिए। जिससे निर्णय लेने में आसानी हो।

न्यायालय ने आदेश में मानकीकृत शब्दावली की बात की। आदेश में गुजरात के उदाहरण से मानकीकृत शब्दावली की आवश्यकता को समझाने का प्रयास किया गया है। गुजरात सूखे की जगह पानी की कमी शब्द का इस्तेमाल करता है। वह सूखा शब्द का इस्तेमाल करने से बचता है। मानकीकृत शब्दावली होने से कोई सरकार शब्दजाल में उलझने की जगह तय शब्दावली में स्पष्ट शब्दों में अपने राज्य की स्थिति बता पाएगी।

न्यायालय ने सूखे को मापने के सामन्ति तरीकों को खत्म करने की भी वकालत की है। जिसमें पटवारी खेत की मेड़ पर खड़े होकर नाप देता है कि सूखा कितना और कितनी फसल बची है। न्यायालय ने नई तकनीक मसलन डोन और सेटेलाइट तस्वीरों के माध्यम से सूखे का निर्धारण प्रारम्भिक समय में करने की वकालत की है।

केन्द्रीय कृषि सचिव को सर्वोच्च न्यायालय ने निर्देश दिया है कि वे जल्द-से-जल्द बिहार, हरियाणा और गुजरात के कृषि सचिवों से मिलकर राज्यों के उन हिस्सों में सूखे की घोषणा कराएँ, जहाँ इसकी जरूरत है।

सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार यह उसके निर्देशों का पहला हिस्सा है, दूसरा जल्द ही आएगा।

न्यायालय ने अपने हिस्से का काम कर दिया है और अब गेंद केन्द्र सरकार के पाले में है। देखना होगा कि सरकार इन निर्देशों को कितनी गम्भीरता से लेती है और निर्देशों का क्रियान्वयन किस तरह करती है?

 

 

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