सूर्य-दर्शन

18 Feb 2011
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हमारे असंख्य पूर्वजों ने भारत भक्ति के लिए खास स्थान पसंद किये हैं और भारत दर्शन क्रम भी बांध दिया है। ‘चार धाम की यात्रा’ इस व्यवस्था का एक सर्वमान्य नमूना है। पश्चिम में द्वारका, उत्तर में बदरीनारायण अथवा अमरनाथ, पूर्व में जगन्नाथपुरी और दक्षिण में (शंकर आचार्य के भक्त कहेंगे श्रृंगेरी मेरे जैसा देवीभक्त कहेगा) कन्या कुमारी। इन चार धामों की यात्रा अगर की तो भारत के सारे प्रेक्षणीय पवित्र धाम उसके अंदर आ ही जाते हैं।

हमारी संस्कृति के आचार्य कहते हैं ‘भारत माता कहने से केवल भूमिका ख्याल मत करो। इस भूमि में रहने वाले ऋषि-मुनि, संत-महंत, आचार्य और पंडित सबका दर्शन और परिचय करने से ही भारत दर्शन पूरा होता है।’

‘कन्या कुमारी’ कहते ही शिवजी की पौराणिक कथा याद आती है और उस कथा की करुणा में दिल पिघल जाता है। कन्या कुमारी का दर्शन करने गये हुए ऋषियों का स्मरण करते-करते हम स्वामी विवेकानन्द और महात्मा गांधी तक आ पहुंचते है। यह तो है ही; लेकिन भारत-भक्ति का जब ख्याल करता हूं तब कन्याकुमारी की यात्रा इसलिए करता हूं कि वहां तीन सागरों का संगम है। करांची, द्वारका, बंबई, मुरगांव, मंगलूर, कारवार कालीकट आदि स्थानों में जिसका दर्शन मैंने असंख्य बार किया है, उस पश्चिम सागर को पुरी, मछलीपट्टम, मद्रास और रामेश्वर तक जिसका दर्शन मैंने कई बार किया है, उस पूर्व सागर को दक्षिण महासागर के साथ एक होते देखने का महद्भाग्य हमें कन्याकुमारी में ही प्राप्त होता है। दुनिया के लोग हमारे दक्षिण महासागर को हिंद महासागर कहते हैं। इसके लिए दुनिया के तमाम भूगोलवेत्ताओं के प्रति मेरे मन में कृतज्ञता है।

कन्याकुमारी के अंतरीप में मैं सूर्यनारायण को समुद्र में डूबते देख सकता हूं और दूसरे दिन उसी सूर्यनारायण को पुर्व समुद्र में ऊपर आते देखकर मैं अपने को धन्य-धन्य मानता हूं।

पता नहीं क्यों, सूर्य का उदय और अस्त समुद्र में देखते मुझे बड़ा आनन्द आता है।

पिछले दिनों बम्बई में अम्बेसेडर होटल के शिखर पर से मैंने सूर्यास्त देखा था और ‘कोई अद्भुत दर्शन करता हूं’ ऐसा आनन्द-गदगद हो गया था।

इसके कुछ ही समय बाद हमारे ब्रिगेडियर ध्रुव के भाई चक्रपाणी की कृपा से मद्रास के पूर्व-समुद्र में से उगते सूर्य को अडियार पुल पर खड़े होकर मैं देख सका। बादल हमारी भक्ति के साथ अठखेलियां कर रहे थे। आकाश में सूर्य किरणों की दिशाएं दिखाने का उपकार बादलों ने प्रारम्भ किया। फिर तो सूर्योदय का स्वागत् करने करने के लिए कई छोटे-छोटे बादल पूर्वाकाश में दीखने लगे। उनका रंग प्रथम लाल था, बाद में गुलाबी हो गया और देखते-देखते सारा रंग गायब होकर केवल सफेद रंग ही आकाश की नीलिमा को उठावदार बनाने लगा। इतने में पूर्व के बादलों में बिलकुल क्षितिज के जैसी एक तेजस्वी लकीर दीखने लगी। वह लकीर इतनी आकर्षक थी कि समुद्र को और आकाश को जोड़ने वाली क्षितिज की रेखा दीख नहीं पड़ती थी, इसका विषाद हम भूल गये।

पुल पर खड़े-खड़े आधा घंटा हुआ, पौन घंटा हुआ और उसी लाल लकीर पर सूर्य भगवान का दर्शन हुआ। प्रथम केवल चमकीला बिंदु, देखते-देखते वही प्रकाश बिंदु, सूर्य-मंडल का ऊपर का भाग बन गया। उसका आनन्द आंखों में भर लेते, इतने में सूरज का मंडल आधे से अधिक हो गया। उसकी चमक भी आंखों की ध्यान-शक्ति की कसौटी करने लगी।

अब जब सूर्य-मण्डल, पुरा, सम्पूर्ण दीख पड़ा तब मेरे मुह से श्लोक निकलाः

ध्येयः सदा सवितृ –मण्डल- मध्यवर्ती,
नारायणः सरसिजासन-सन्निविष्टः।
केयूरवान् मकर-कुंडलवान् किरीटी,
हारि हिरण्मयवपूर् धृत-शंख-चक्रः।।


सूर्यनाराण का स्वागत करता था, इतने मे विश्वामित्र ऋषि ने आज्ञा की, “जनेऊ पाकर जब द्विज बनते हो और वेद के अध्ययन का अधिकार तुम्हें मिलता है तब मेरे देखे जिस मंत्र से ही प्रारम्भ करते हो वहीं याद करो।” सविता के मण्डल में जो नारायण विराजमान हैं, उनका ध्यान करने से ही बुद्धि धर्मज्ञान की ओर प्रवृत्त होती है। आज्ञा सुनते मैंने ही चलायाः

तत् सवितुर वरेण्यम भर्गो देवस्य धीमहि
धियो यो नः प्रचोदयात्।।


और इसी वैदिक मंत्र का सामान्य संस्कृत वाणी में ही एक सुन्दर अनुवाद बचपन में कंठ किया था, उसी श्लोक से सूर्य-दर्शन की पूर्णाहुति करके हम कृतार्थ भाव से लौटे कि सूर्यास्त भी देख लिया और सूर्योदय भी देख रहे हैं। भारत-दर्शन के साथ सूर्यनारायण का ध्यान हो रहा है। कैसी धन्यता!

यो देवः सविताSमाकं, धियों धर्माधिगोचरे।
प्रेरयेत् तस्य तद् भर्गः तद् वरेण्य उपास्महे।।


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