सवाल विस्थापन की त्रासदी का

9 Jan 2015
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कुल श्रम शक्ति के विस्थापन का 41 प्रतिशत तक गुड़गाँव और दिल्ली की ओर रुख कर रहा है। इस वजह से इन राज्यों में जहाँ गाँवों में खेती के लिए मजदूरों का अकाल पड़ रहा है, वहीं दिल्ली और गुड़गाँव में स्लम बढ़ते जा रहे हैं। ऐसे में विस्थापित होकर आए इन मजदूरों को दिल्ली और गुड़गाँव में पीने के साफ पानी से लेकर स्वच्छ आवास, मेडिकल और मजदूरों के आश्रित बच्चों को शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाओं का हक भी नहीं मिल पा रहा है।

रोजगार के लिए श्रमिक आबादी का गाँवों से शहरों की ओर तेजी से बढ़ रहा विस्थापन और उससे उत्पन्न हो रही सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक समस्याओं पर चर्चा एवं उनके निराकरण के तरीके को लेकर पिछले दिनों देश की राजधानी दिल्ली में दो दिवसीय सेमिनार का आयोजन किया गया।

चूँकि उत्तर प्रदेश और बिहार दो ऐसे राज्य हैं, जहाँ से सबसे ज्यादा संख्या में मजदूरों का विस्थापन देश के अन्य औद्योगिक राज्यों गुजरात, हरियाणा, पंजाब, मुंबई, दिल्ली की ओर होता है, लिहाजा उत्तर प्रदेश और बिहार में काम करने वाले कई श्रमिक संगठनों ने इस सेमिनार में हिस्सा लिया।

यही नहीं, गुड़गाँव और दिल्ली में श्रमिकों के बीच काम करने वाले मजदूर संगठनों ने भी इस सेमिनार में भागीदारी की और इन औद्योगिक इलाकों में विस्थापित मजदूरों के सामने आ रही समस्याओं को बेबाकी से उठाया। सेमिनार में उपस्थित ज्यादातर संगठनों के प्रतिनिधि इस बात से काफी चिंतित दिखे कि शहरों की ओर बढ़ रहा श्रमिकों का यह विस्थापन जहाँ गाँवों के सामाजिक ताने-बाने और कृषि के श्रम सन्तुलन को बुरी तरह से बिगाड़ चुका है, वहीं विस्थापित होकर रोजी-रोटी के लिए अन्य राज्यों में पहुंचने वाले इन श्रमिकों को मानोवांछित जीवन के लिए अनिवार्य न्यूनतम सुविधाएँ भी नहीं मिल पा रही हैं।

इन संगठनों के बीच बड़ा सवाल यही था कि आखिर इस पलायन को कैसे रोका जाए? या फिर क्या इसे वैश्विक पूंजीवादी विकास की स्वाभाविक गति मानते हुए स्वीकार कर लेना चाहिए? क्या वर्तमान वैश्विक आर्थिक व्यवस्था में ऐसा पलायन स्वाभाविक है और इसे रोकने की कोशिशों की जगह अब केवल सरकार से विस्थापित श्रमिकों के लिए न्यूनतम जीवन की अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही संघर्ष करना होगा?

सम्मेलन में सवाल यह भी उठा कि आखिर श्रमिकों के इस सबसे बड़े मुद्दे पर सरकारें मौन क्यों हैं? और राजनीतिक दलों की इस चुप्पी के क्या मायने हैं? गौरतलब है कि इस समय बिहार और उत्तर प्रदेश की श्रमिक आबादी की बड़ी संख्या रोजी-रोटी के लिए गुड़गाँव और दिल्ली का रुख कर रही है और ऐसे आंकड़े सामने आए हैं कि इन राज्यों के कुल श्रम शक्ति के विस्थापन का 41 प्रतिशत तक गुड़गाँव और दिल्ली की ओर रुख कर रहा है।

इस वजह से इन राज्यों में जहाँ गाँवों में खेती के लिए मजदूरों का अकाल पड़ रहा है, वहीं दिल्ली और गुड़गाँव में स्लम बढ़ते जा रहे हैं। ऐसे में विस्थापित होकर आए इन मजदूरों को दिल्ली और गुड़गाँव में पीने के साफ पानी से लेकर स्वच्छ आवास, मेडिकल और मजदूरों के आश्रित बच्चों को शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाओं का हक भी नहीं मिल पा रहा है।

यही नहीं विश्व मजदूर संगठन द्वारा घोषित न्यूनतम सुविधाएँ भी जब इन मजदूरों को नहीं मिल पा रही हैं तो ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर मजदूर संगठनों की रणनीति इस सवालों को लेकर कैसी हो, जिससे कि मजदूरों को न्यूनतम सुविधाओं की गारण्टी दी जा सके? क्या बदलते परिवेश में मजदूर यूनियन मजदूरों के हितों की सच्ची प्रतिनिधि बनकर उनके लिए संघर्ष भी कर रही हैं या वे सब हताशा के गर्त में जा गिरी हैं?

गाँवों से शहरों की ओर पलायन को रोकने के लिए केंद्र सरकार की मनरेगा योजना भी जब इन राज्यों में बुरी तरह से असफल हो चुकी है, ऐसे में मनरेगा को लेकर कैसे परिवर्तन हों? ताकि यह पलायन की प्रवृत्ति को कुछ हद तक हतोत्साहित कर सके। कुल मिलाकर देश के आर्थिक और राजनीतिक मॉडल के लिए इसे एक त्रासदी ही कहा जाएगा कि अपने राज्य से विस्थापित होकर रोजी-रोटी के सिलसिले में दूसरे राज्यों में जाने वाले मजदूरों का योगदान अर्थव्यवस्था में कितना होता है? आज तक इसका कोई सरकारी आँकड़ा मौजूद नहीं है।

यह विस्थापन मजदूरों को पीड़ा के अलावा कुछ नहीं देता। लेकिन यह पीड़ा देश की जीडीपी में कितना योगदान देती है, इसका कोई अध्ययन आज तक नहीं हुआ है। आखिर विस्थापन की इस त्रासदी के लिए असल जिम्मेदार कौन है? कोई आवाज क्यों नहीं उठती? असल समस्या कहाँ है और राजनीति ने इस पर मौन क्यों साध रखा है? जहाँ तक इस त्रासदी के लिए जिम्मेदारी की बात है, केन्द्र सरकार की नव उदारवादी आर्थिक नीतियाँ ही इसके लिए ज्यादा जिम्मेदार हैं। सवाल किसी एक पार्टी का नहीं है।

1991 के बाद जिस आर्थिक ढाँचे को हमने स्वीकार किया है, उसे तकरीबन हर पार्टी ने आगे बढ़ाया है। पार्टियों का वर्ग चरित्र ही मजदूर विरोधी है। उनके पास मजदूरों को समस्याओं को देने के अलावा कुछ भी नहीं है। दरअसल हमने जो आर्थिक तंत्र स्वीकार कर लिया है यह उसकी आवश्यक देन है। मौजूदा आर्थिक नीतियों के खात्मे के बगैर इनसे पार पाना सम्भव नहीं है। लेकिन देश का राजनीतिक वर्ग इन समस्याओं पर चुप्पी साधे हुए है। मोदी सरकार ने जिस तरह से खेती विरोधी आर्थिक नीतियों को प्रोत्साहित किया है उससे और भयावह हालात आने तय हैं।

आखिर विस्थापन की इस त्रासदी के लिए असल जिम्मेदार कौन है? कोई आवाज क्यों नहीं उठती? असल समस्या कहाँ है और राजनीति ने इस पर मौन क्यों साध रखा है? जहाँ तक इस त्रासदी के लिए जिम्मेदारी की बात है, केन्द्र सरकार की नव उदारवादी आर्थिक नीतियाँ ही इसके लिए ज्यादा जिम्मेदार हैं। सवाल किसी एक पार्टी का नहीं है। 1991 के बाद जिस आर्थिक ढाँचे को हमने स्वीकार किया है, उसे तकरीबन हर पार्टी ने आगे बढ़ाया है।

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