स्वच्छ जल एवं पर्यावरण


मनुष्य में होने वाली बीमारियों में साठ प्रतिशत हिस्सा जल से उत्पन्न बीमारियों का होता है। ये बीमारियाँ जाने-अनजाने अपेय, अशुद्ध जल पीने से होती हैं। अतः यदि हम जल को शुद्ध रखते हैं एवं शुद्ध जल ही ग्रहण करते हैं तो मानव शरीर की आधी बीमारियों का कष्ट स्वतः समाप्त हो जाता है। परन्तु व्यावहारिक रूप से ऐसा नहीं हो पाया। मानव ने विकास के नाम पर अनेक क्रिया-कलापों के माध्यम से विनाश का मार्ग प्रशस्त किया।

सामान्य तौर पर प्राणिमात्र पर परिवेश और पर्यावरण का प्रभाव दिखाई देता है, इसके अतिरिक्त परिवेश यह बताता है कि वहाँ जो मानव आबादी बस रही है उसका रहन-सहन और रहने के तौर तरीके या सलीका क्या है या फिर यदि किसी सभ्यता के सन्दर्भ में बात करें तो यह जीवन कैसा रहा होगा पता चलता है। प्राणी या मानव प्रकृति का ही अभिन्न हिस्सा हैं। कुछ ज्यादा विकसित मस्तिष्क के कारण मानव, जीव जगत के अन्य प्राणियों से अपने को भिन्न मानता है एवं शेष जगत पर अपना साम्राज्य स्थापित करना चाहता है।

अहं भाव के चलते उसने जाने अनजाने बहुत सारे अकरणीय कार्यों को अंजाम दिया। जहाँ उसने एक तरफ अपने दुस्साहस का लोहा मनवाया, एवरेस्ट की चोटी को नाप आया, वहीं दूसरी तरफ समुद्र की गहराई से न केवल समुद्री उत्पाद बल्कि उस तल से भी नीचे जाकर तेल की खोज कर लिया, परन्तु अपनी इस जीवटता के चलते उसने कई ऐसे काम किये जो उसके खुद के लिये घातक सिद्ध हो रहे हैं। जीवनोपयोगी वस्तुओं के उपयोग की सीमा पार कर अति संचय की भावना ने जंगलों से प्राप्त होने वाले पदार्थों के लालच में जंगलों का ही सफाया कर डाला।

प्रकृति के विपरीत जाकर उसने जीवन की सुख सुविधाएँ जुटाईं, जिसके चलते वातानुकूलित यंत्र, समय और दूरी को कम से कमतर करने के लिये वायुयानों आदि की ईजाद की और इन सबका परिणाम हुआ कि न केवल धरती के आस-पास का पर्यावरण बल्कि सुदूर आकाश में भी उसकी नादानियों के परिणाम दिखाई देने लगे हैं और ओजोन छतरी जो ऊपर से आने वाली विषैली गैसों और नुकसानदेय किरणों से मानव को बचाती है उसमें छेद हो गया है। जो धरती के सम्पूर्ण जीव-जगत के लिये खतरे की घंटी है।

मानव सभ्यता का इतिहास देखने से ज्ञात होता है कि लगभग सभी सभ्यताएँ जल या जलस्रोतों जैसे नदी, झरनों, झीलों के आस-पास पलीं और पल्लवित हुईं। जल का जीवन में अति महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसलिये जल को जीवन भी कहा गया है। यह जल हमारे जीवन में अत्यन्त उपयोगी है। जल से मानव शरीर की अनेक क्रियाएँ संचालित होती हैं। यथा पाचन क्रिया आदि। जल शुद्ध होता है तो शरीर में पहुँचकर शरीर की कान्ति में इजाफा करता है और यदि अशुद्ध होता है तो अनेक बीमारियों को आमंत्रण देता है।

एक अनुमान के अनुसार मनुष्य में होने वाली बीमारियों में साठ प्रतिशत हिस्सा जल से उत्पन्न बीमारियों का होता है। ये बीमारियाँ जाने-अनजाने अपेय, अशुद्ध जल पीने से होती हैं। अतः यदि हम जल को शुद्ध रखते हैं एवं शुद्ध जल ही ग्रहण करते हैं तो मानव शरीर की आधी बीमारियों का कष्ट स्वतः समाप्त हो जाता है। परन्तु व्यावहारिक रूप से ऐसा नहीं हो पाया। मानव ने विकास के नाम पर अनेक क्रिया-कलापों के माध्यम से विनाश का मार्ग प्रशस्त किया। सुख-सुविधाओं की चाहत में उद्योग, निर्माण में प्रयुक्त जल को जिसमें अनेक रसायन आदि होते हैं, को सीधे जलस्रोतों एवं नदियों में मिला दिया। जिसके चलते ये प्रदूषित जल अनेक बीमारियों का कारण बन रहा है।

जल केवल उद्योगों से ही नहीं सर्वाधिक उपयोग वाली कृषि भी भारी मात्रा में जल प्रदूषण का कारक बन रही है। जब जल की अधिक मात्रा या जल रिसाव जो खेतों द्वारा होता है, मूल जलस्रोत में पहुँचता है तो अपने साथ अनेक कीटनाशकों एवं उर्वरकों को विलयन रूप में ले जाता है। इस प्रकार जलस्रोत और नदियाँ निर्धारित क्षमता से अधिक मात्रा में अपने जल में इन विलयकों को पाती हैं, जिसके चलते शनैः शनैः नदियाँ प्रदूषित होकर आज इनकी स्थिति विस्फोटक हो चुकी है।

इन नदियों का जल पीने की कौन कहे नहाने लायक भी नहीं रहा। परन्तु धर्म भीरुता या धर्म पारायणता के चलते आज भी लोग इन नदियों में स्नान करते हैं एवं धार्मिक कार्यों हेतु पवित्रता के नाम पर इन नदियों के जल का उपयोग करते हैं। नदियाँ आज गन्दे नालों में तब्दील होती जा रही हैं। ऐसा नहीं है कि हम सब इस स्थिति से परिचित नहीं हैं। हम सभी इस स्थिति से अवगत होने के बाद भी आँखे मूँदे बैठे हैं कि कोई सरकार या फरिश्ता आएगा और अपने जादुई चमत्कार से पल भर में सब ठीक कर देगा। हम दोषारोपण एक दूसरे पर करने में उलझे हुए हैं और मूल समस्या के समाधान तक पहुँच ही नहीं पा रहे हैं।

चाहे-अनचाहे धार्मिक भावनाओं के वशीभूत हो भी हम नदियों की पवित्रता नष्ट कर रहे हैं। प्रायः शहर का सारा गन्दा पानी नदियों में ही जाता है और जल दूषित होता है परन्तु कतिपय अन्धविश्वासों के चलते अभी भी हम नदी स्नान और आचमन से बाज नहीं आते। क्या यह धार्मिक अन्धता के पीछे बीमारियों का आमंत्रण नहीं है।

नदियाँ पुण्य सलिला अवश्य रही हैं पर धार्मिक मान्यताएँ मरणोपरान्त नदी में शव विसर्जन से मुक्ति को जोड़ती रही हैं, जिसके चलते नदियों में तथा नदी तट पर जलाए जाने वाले शवों से आस-पास की वायु लगातार प्रदूषित होती रहती है। इन नदियों की जल राशि कम होने के कारण जलजीवों की भी कमी हो गई। विशालकाय नदियों की गहराई में अनेक मांसभक्षी बड़े जीव बड़ी मात्रा में पला करते थे अब वे दीर्घकायी पानी की कमी के कारण अन्यत्र चले गए या फिर इस दुनिया को ही अलविदा कह गए। इस तरह लाशों का मांस नदियों के जल को दूषित करता रहता है।

कुछ विशेष नगरों को मोक्षदायी मानने के कारण वहाँ शवदाह की प्रक्रिया और बढ़ जाती है। वाराणसी में कभी भी शवदाह प्रक्रिया खंडित नहीं होती अविरल चला करती है जिसके चलते वाराणसी और आसपास नदी जल में विषाक्तता का स्तर काफी बढ़ा बताया जा रहा है। क्या आज के परिप्रेक्ष्य में मान्यताओं की पुनः समीक्षा करने की आवश्यकता नहीं है।

कब तक मोक्ष की तथाकथित बात को अपनाकर नदियों को जहर के रूप में तब्दील करते रहेंगे, क्या जो लोग अपने सम्माननीय या पूर्वजों को नदियों में प्रवाहित नहीं कर पाते उनके अपने मोक्ष को प्राप्त नहीं होते या फिर मोक्ष किसे मिला या नहीं मिला इसका कोई स्पष्ट प्रामाणिक प्रमाण हमारे पास है? धर्मांधता को कब तक हम प्रश्रय देते रहेंगे। कतिपय स्थानों पर विद्युत शवदाह गृहों की स्थापना भी की गई है परन्तु काफी मामलों में ये नाकाफी हैं तो काफी मामलों में अनेक कारणों से लोग इनका उपयोग भी धार्मिक भावना की ओट में नहीं कर रहे हैं। कब तक तथाकथित मोक्ष की आशा में नदियों के जल प्रदूषण के माध्यम से वर्तमान और भावी पीढ़ी को रोगग्रसित होने का अभिशाप देते रहेंगे। क्या व्यक्ति के जीवन काल के कार्यों की गणना मोक्ष हेतु नहीं की जानी चाहिए। क्या पाप कर्मी भी नदी जल में प्रवाह से अपने बुरे कर्मों से मुक्ति पा जाएगा? हमें अपने सोच बदलने में कितना समय लगेगा?

दिल्ली शहर को ही लें, आईटीओ और पूर्वी दिल्ली को जोड़ने वाले विकास मार्ग पर बने यमुना पुल पर अनर्गल सामग्री नदी में फेंकने से रोकने के लिये लोहे की बाड़ लगाई गई है, परन्तु हम हैं कि इस बाड़ को धता बताकर, बाड़ के झरोखों से, कभी झरोखों का निर्माण कर या फिर बाहुबल का सहारा ले नदी में पूजा उपरान्त की सामग्री, फूल मालाएँ और गन्दगी आदि फेंक कर नदी के जल में गन्दगी में इजाफा करने से बाज नहीं आते। लोगों द्वारा नदी में फेंकी जाने वाली यह सामग्री नदी में न जाकर कुछ रास्ते में भी गिर जाती है और पैरों आदि के माध्यम से धीरे-धीरे नदी में चली जाती है। क्या यहाँ भी यातायात भंग करने वाले नियमों की तरह एक कर्मी को सेवारत करना होगा जो ऐसे लोगों से वातावरण प्रदूषण को लेकर चालान देने के लिये कहे।

आखिर स्वयं भाव से हमें भी तो कुछ सोचना होगा, वह समय कब आएगा जब हम सोचेंगे कि ये नदियाँ पर्वत शृंखलाएँ, पर्यावरण हम सब की साझा विरासत हैं इनको साफ-सुथरा रखना हम सब की साझा जिम्मेदारी है। क्या कोई सरकार अकेले अपने बलबूते बिना सामाजिक सहयोग के नदी या अन्य झील आदि जल स्रोतों की साफ सफाई रख पाएगी? सहभागिता की समझ समाज में कब व्याप्त होगी? आजादी के समय शिक्षा का ग्राफ 18 प्रतिशत के आसपास था आज यह ग्राफ पचास के पास पहुँच रहा है, परन्तु हमारी नैतिकता लगातार पतन की तरफ जाती दिख रही है। हम सबके सामने यह विचारणीय प्रश्न है कि आखिरकार गलती कहाँ हुई और कैसे हुई? आज केवल नदियाँ ही नहीं मानव जनित गन्दगी से त्रस्त हैं बल्कि नदियों के माध्यम से सागर भी गन्दगी की शरण स्थली बनते नजर आ रहे हैं।

समय की नजाकत को देखते हुए पेयजल या मीठे जल पर चौतरफा हो रहे हमलों से हमें जल प्रदूषण के भयंकर राक्षस की राक्षसी प्रवृत्ति पर पहले अंकुश लगाना है। जितना समय अधिक होता जाएगा समस्या महामारी बनती जाएगी, महामारी जब भी आती है मानव जाति को धता बताकर उसकी पौध को नष्ट-भ्रष्ट करके ही जाती है। इसके प्रकोप के समय प्राथमिक चरण में हम निरुपाय ही रह जाते हैं क्योंकि यह अप्रत्याशित रूप से आती है और हमें बचाव का अवसर नहीं देती। बचाव करते-करते काफी धन-जन की हानि हो चुकी होती है।

जल के साथ-साथ आज वातावरण भी अनेक प्रकार से दुष्कर जीवन का पर्याय बना हुआ है। सहज-सरल जीवन को धता बताकर जबसे हमने कल्पित सुविधाओं की शरण ली यानी फ्रिज, रेफरीजरेटर, वातानुकूलन यंत्रों का साम्राज्य तैयार किया तब से यद्यपि एक सीमित वर्ग को शारीरिक तौर पर अविस्मरणीय सुख की अनुभूति मिली, पर बहुसंख्यक जनता को वातावरण में अवांछित गैसों का अभिशाप मिला। ये गैसें वातावरण में फैलकर प्राणि मात्र के शरीर में प्राणवायु के साथ साँस के माध्यम से जाती रही हैं और अनजाने अनचाहे प्राणिजगत अनेक रोगों और विपदाओं का शिकार हो रहा है। शहरी जीवन काफी कुछ विलासिता का पर्याय बनता जा रहा है। उसने पदयात्रा या साइकल यात्रा को गरीब और गरीबी का पर्याय मानकर छोड़ दिया है।

आज लोग छोटी-छोटी दूरियों के लिये भी वाहनों का प्रयोग करते हैं। घर, दफ्तर, बाजार आदि जाने आने के लिये ये निजी वाहन शान-शौकत में शुमार हो रहे हैं, जिनके चलते आज शहरों में प्राइवेट या निजी वाहनों की भारी फौज खड़ी हो चुकी है। यह फौज जब सड़कों पर उतरती है तो रास्तों में बड़े-बड़े जाम लग जाते हैं। कभी-कभी हालात यह हो जाते हैं कि यात्रा पैदल से भी ज्यादा कष्टदायी हो जाती है। अधिक वाहनों के चलते ईंधन के उपयोग और कीमतों में लगातार इजाफा हो रहा है और इस मूल्य वृद्धि का प्रभाव अप्रत्यक्ष रूप से सामान्य जनमानस पर पड़ता है जिसके लिये वह कतई जिम्मेदार नहीं है। इस प्रकार वातावरण यानी जलवायु के विषैले होने से न केवल मनुष्य बल्कि अनेक पशु-पक्षियों की प्रजातियाँ सदैव के लिये दुनिया से विदा हो गईं। ये मूक परिंदे और पशु बेजुबानी भाषा में क्या कहकर इस दुनिया को अलविदा कह गए हमारी समझ से परे है। परन्तु इस दुनिया को अलविदा कहने के पीछे कारक मनुष्य ही रहा है।

सुन्दर-सुन्दर नयनाभिराम पक्षी, जीवनोपयोगी पशु, जंगलों की शान जंगली जानवर इस पृथ्वी पर कुदरत की विरासत हैं। इन्हें भावी पीढ़ी के लिये संजोकर रखना हमारा नैतिक दायित्व है। परन्तु जलवायु को प्रदूषित कर मानव ने इस देश-दुनिया से अनगिनत पशु-पक्षियों की प्रजातियों को सदा के लिये काल के गाल में भेज दिया। हम सभी प्राणी प्रकृति के अभिन्न अंग हैं। अतः सभी अंगों की सुरक्षा हमारा दायित्व बनता है। आज ये सारी विलुप्त प्रजातियाँ जंगलों और जीव जगत की श्रेणी से हटकर इतिहास के पन्नों में सिमट कर रह गई हैं।

इधर खुशी के इजहार के लिये भी अनर्गल शगल की परम्परा सी चली आ रही है। वातावरण या वायु का प्रदूषण जानबूझकर कर रहे हैं और अनजान बनने का दिखावा कर रहे हैं। पर्व, त्योहारों पर हम बारूद के बने पटाखों आदि का प्रयोग करते हैं। इस क्रम में दीपावली के दिन तो प्रायः आसमान बुरी तरह बारूदी धुएँ से पटा रहता है। सामान्य जन को साँस लेने में असुविधा महसूस होती है तो फिर सोचिए उन लोगों का क्या होता होगा जिन्हें साँस से सम्बन्धित रोग या व्याधियाँ हैं। क्या उनके प्रति हमारा दायित्व कुछ भी नहीं, हम अपने चंद लम्हों की खुशी के लिये उनके अनेक दिन कष्टमय बनाने से बाज क्यों नहीं आते? सरकार और समाचार पत्रों के माध्यम से लोगों से अपील के बावजूद यह प्रदूषण सामान्य सीमा से कई गुना नहीं कर सौ गुना बढ़ जाता है। निश्चय ही इससे पशु-पक्षी भी प्रभावित होते ही होंगे।

केवल दीपावली ही नहीं अनेक अन्य धार्मिक उत्सवों में इन बारूदी उत्पादों का प्रयोग होता है और वातावरण को दूषित करने में हम अपना नैरन्तर्य बनाए रखते हैं। इतना ही नहीं मांगलिक कार्यों और अन्तरराष्ट्रीय खेलों क्रिकेट आदि में विजय हासिल होने पर भी हम इन्हीं बारूदी उत्पादों का अन्धाधुन्ध उपयोग अपनी खुशी के इजहार के लिये करते हैं यह किस प्रकार की खुशी है, क्या चंद लम्हों के लिये हम अपने साल प्रदूषण के माध्यम से नहीं बर्बाद कर रहे हैं। इतना ही नहीं शादी विवाह के अवसरों पर भी यह शौक अपने चरम पर होता है। जहाँ पर हम वायु प्रदूषण के साथ-साथ ध्वनि प्रदूषण में भी अपनी तथाकथित बीरानगी दिखाने से बाज नहीं आते।

आखिर खुशी के अवसरों का बहाना बनाकर वातावरण या वायुमण्डल को प्रदूषित करना कहाँ की अकलमंदी है। क्या अब समय नहीं आ गया है कि हम अपने खुशी के इजहार के तरीकों पर गहन मंथन पर चिन्तन करें, वातावरण को बारूदी धुएँ से रहित बनाने का प्रयास करें, अपने और अपनों को शुद्ध ताजा वायु उपलब्ध कराने का कारक बनें, उनके आशीर्वाद का पात्र बनें। अनेकों जल और स्थल जीवों की वंशावली को चिरस्थायी बनाने का कारक बनें। इस दुनिया की रंग-बिरंगी जीव सम्पदा को अक्षुण्ण बनाए रखने में अपना सहयोग प्रदान करें।

प्रदूषित वातावरण से अनेक प्रकार के फल वृक्ष बाँझ होते जा रहे हैं। उनकी फलत बुरी तरह प्रभावित हो रही है। मालिहाबाद, लखनऊ, उत्तर प्रदेश का इलाका विभिन्न प्रकार की आम की फसलों और किस्मों से अपने को धनी मानता है। परन्तु इस क्षेत्र में बढ़ते ईंट भट्ठों की संख्या से वातावरण में धुआँ और राख का साम्राज्य बनता जा रहा है। यह धुआँ और पेड़ों तथा मंजरियों पर पड़ती राख पेड़ों को बाँझ या अफलदायी बनाती जा रही हैं। ये भट्ठा मालिक धन सम्पन्न होते हैं अतः इन्हें पर्यावरण और दूसरे की तकलीफों से क्या लेना-देना। अपना लाभ सर्वोपरि है पर शायद वे यह भूलते हैं कि उसी वातावरण में वे खुद और उनके अपने परिजन भी रहते हैं। कालान्तर में जब पड़ों के साथ राख से जमीन भी बाँझ बनती नजर आएगी तो उनके अपने भी उन्हें अपना कहने में लज्जा महसूस करेंगे, क्योंकि स्वास्थ्य सभी प्रकार की न्यामयतों और सभी प्रकार के धनधान्य से सर्वोपरि है। इसलिये शायद कहा गया है तंदुरुस्ती हजार न्यामत।

वातावरण को स्वच्छ और स्वस्थ रखना हम सब की साझा जिम्मेदारी है। अतः हम सबको इस वातावरण को स्वस्थ बनाए रखने का हर प्रयास करना चाहिए। जल, वायु, मृदा, ध्वनि आदि सभी प्रदूषण मानव स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं अतः इन सभी को स्वच्छ और साफ रखना हम सब का प्रथम दायित्व होना चाहिए। जिससे न केवल हम स्वस्थ रह सकें बल्कि आने वाली पीढ़ियाँ भी गर्व से कह सकें कि हमारे पूर्वजों ने हमें विरासत में सभी तरह से भरापूरा साम्राज्य दिया। जिसमें सभी पशु-पक्षी और जीव अपनी रंग-बिरंगी विरासत से इस धरा को सतरंगी और नयनाभिराम बनाए हुए हैं।

ऐसी स्थिति में निश्चय ही हमारी आगामी पीढ़ियाँ हम पर गर्व कर सकेंगी। कह सकेंगी कि हमें अपने पूर्वजों पर गर्व है, जिन्होंने हमें सभी तरह से परिपूर्ण धरा और जीव जगत की सौगात दी। गर्व है कि हम ऐसी धरा पर पैदा हुए हैं जहाँ के पूर्वज केवल अपने लिये ही नहीं भावी नस्लों के प्रति उनके स्वास्थ्य और चिन्तन के प्रति चिन्तातुर थे। इस प्रकार स्वस्थ वातावरण इस धरा पर ही उत्पन्न हो सकेगा। लोगों को अकाल मृत्यु और अनचाही बीमारियों की चिन्ता नहीं सताएगी। निश्चय ही विकास, विनाश के मूल्य पर स्वीकार नहीं होना चाहिए। नदियाँ हमारी धमनी और शिराएँ हैं उनका स्वच्छ होना नितान्त आवश्यक है।

एक बारगी फिर से हमें प्रकृति की तरफ लौटना होगा। नदियों की कल-कल झरनों का संगीत, पक्षियों का कलरव इस धरा को फिर से लौटाना होगा। जंगल में निःशंक कुलाचे भरते मृग-शावकों और खरगोशों की चौकड़ी को कायम करना होगा। प्रयास करना होगा कि बिना भय के मयूर नृत्य कर सकें। ‘चीता विलुप्त हो गया है’ आओ इसे बचाएँ के नारों को पीछे छोड़ना होगा।’ रंग विरंगी पंखों वाली चिड़ियों को विलुप्त होने से बचाना होगा। मानव के मांसाहारी होने का यह कतिपय आशय नहीं होना चाहिए कि वह जल और स्थल के सभी जीवों को अपनी थाली की शान बनाए और क्षणिक स्वाद के लिये बड़े-बड़े जीवों की बलि चढ़ा दे। आओ हम सब मानव धर्म का हिस्सा बनें और सह अस्तित्व की भावना कायम करें।

-प्लाट नं.- 133, राजेंद्रनगर, सिरसी रोड, जयपुर (राजस्थान)

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