औपनिवेशिक शासन सर्वप्रथम बंगाल में स्थापित किया गया था। यही वह प्रांत था जहाँ पर सबसे पहले ग्रामीण समाज को पुनर्व्यवस्थित करने और भूमि संबंधी अधिकारों की नयी व्यवस्था तथा एक नयी राजस्व प्रणाली स्थापित करने के प्रयत्न किए गए थे। चूँकि बंगाल मे स्थापित औपनिवेशिक राजस्व प्रणाली पर काफी चर्चा हो चुकी है इसलिये आइए अब हम अपना ध्यान बंगाल की गीली जमीनों से हटाकर सूखे अंचलों पर और स्थायी कृषि के क्षेत्र से हटाकर झूम कृषि के क्षेत्र पर केंद्रित करें। आप उन परिवर्तनों को देखेंगे जो कृषक अर्थव्यवस्था की सीमाओं के बाहर की ओर विस्तार होने से आए, जिससे राजमहल की पहाड़ियों के इलाकों में स्थित जंगल और चरागाह उस अर्थव्यवस्था में समा गए। आप यह भी देखेंगे कि इन परिवर्तनों के कारण इस क्षेत्र के भीतर तरह-तरह के झगड़े-झंझट कैसे उत्पन्न हुए। उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में, बुकानन ने राजमहल की पहाड़ियों का दौरा किया था। उसके वर्णन के अनुसार ये पहाड़ियाँ अभेद्य लगती थीं। यह एक ऐसा खतरनाक इलाका था जहाँ बहुत कम यात्री जाने की हिम्मत करते थे। बुकानन जहाँ कहीं भी गया, वहाँ उसने निवासियों के व्यवहार को शत्रुतापूर्ण पाया। वे लोग कंपनी के अधिकारियों के प्रति आशंकित थे और उनसे बातचीत करने को तैयार नहीं थे।
कई उदाहरणों में तो वे अपने घर-बार और गाँव छोड़कर भाग गए थे। ये पहाड़ी लोग कौन थे? वे बुकानन के दौरे के प्रति इतने आशांकित क्यों थे? बुकानन की पत्रिका में हमें उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में इन लोगों की जो तरस खाने वाली हालत थी उसकी झलक मिलती है। उन स्थानों के बारे में उसने डायरी लिखी थी, जहाँ-जहाँ उसने भ्रमण किया था, लोगों से मुलाकात की थी और उनके रीति-रिवाजों को देखा था। यह पत्रिका हमारे मस्तिष्क में अनेक प्रश्न खड़े करती है किन्तु यह हमेशा हमें उत्तर देने में सहायक नहीं होती है। उसकी यह डायरी समय के केवल एक क्षण-विशेष के बारे में ही बतलाती है, लोगों तथा स्थानों के लंबे इतिहास के बारे में नहीं बतलाती। ऐसे लंबे इतिहास के लिए इतिहासकारों को अन्य रिकार्ड की ओर मुड़ना होगा। यदि हम अठारहवीं शताब्दी के परवर्ती दशकों के राजस्व अभिलेखों पर दृष्टिपात करें तो हम जान लेंगे कि इन पहाड़ी लोगों को पहाड़िया क्यों कहा जाता था। वे राजमहल की पहाड़ियों के इर्द-गिर्द रहा करते थे। वे जंगल की उपज से अपनी गुजर-बसर करते थे और झूम खेती किया करते थे। वे जंगल के छोटे-से हिस्से में झाड़ियों को काटकर और घास-फ़ूँस को जलाकर जमीन साफ कर लेते थे और राख की पोटाश से उपजाई
बनी जमीन पर ये पहाड़िया लोग अपने खाने के लिए तरह-तरह की दालें और ज्वार-बाजरा उगा लेते थे। वे अपने कुदाल से जमीन को थोड़ा खुरच लेते थे कुछ वर्षों तक उस साफ की गई जमीन में खेती करते थे और फ़िर उसे कुछ वर्षों के लिए परती छोड़ कर नए इलाके में चले जाते थे जिससे कि उस जमीन में खोई हुई उर्वरता फ़िर से उत्पन्न हो जाती थी।
उन जंगलों से पहाड़िया लोग खाने के लिए महुआ के फ़ूल इकट्ठा करते थे, बेचने के लिए रेशम के कोया और राल और काठकोयला बनाने के लिए लकड़ियाँ इकट्ठा करते थे। पेड़ों के नीचे जो छोटे-छोटे पौधे उग आते थे या परती जमीन पर जो घास-फ़ूस की हरी चादर-सी बिछ जाती थी वह पशुओं के लिए चरागाह बन जाती थी। शिकारियों, झूम खेती करने वालों, खाद्य बटोरने वालों, काठकोयला बनाने वालों, रेशम के कीड़े पालने वालों के रूप में पहाड़िया लोगों की ज़िंदगी इस प्रकार जंगल से घनिष्ठ रूप से जुड़ी हुई थी। वे इमली के पेड़ों के बीच बनी अपनी झोपड़ियों में रहते थे और आम के पेड़ों की छाँह में आराम करते थे। वे पूरे प्रदेश को अपनी निजी भूमि मानते थे और यह भूमि उनकी पहचान और जीवन का आधार थी। वे बाहरी लोगों के प्रवेश का प्रतिरोध करते थे। उनके मुखिया लोग अपने समूह में एकता बनाए रखते थे, आपसी लड़ाई-झगड़े निपटा देते थे और अन्य जनजातियों तथा मैदानी लोगों के साथ लड़ाई छिड़ने पर अपनी जनजाति का नेतृत्व करते थे।
इन पहाड़ियों को अपना मूलाधार बनाकर, पहाड़िया लोग बराबर उन मैदानों पर आक्रमण करते रहते थे जहाँ किसान एक स्थान पर बस कर अपनी खेती-बाड़ी किया करते थे। पहाड़ियों द्वारा ये आक्रमण ज्यादातर अपने आपको विशेष रूप से अभाव या अकाल के वर्षों में जीवित रखने के लिए किए जाते थे। साथ ही, ये हमले मैदानों में बसे हुए समुदायों पर अपनी ताकत दिखलाने का भी एक तरीका था। इसके अलावा, ऐसे आक्रमण बाहरी लोगों के साथ अपने राजनीतिक संबंधों बनाने के लिए भी किए जाते थे। मैदानों में रहने वाले जमींदारों को अक्सर इन पहाड़ी मुखियाओं को नियमित रूप से खराद देकर उनसे शांति खरीदनी पड़ती थी। इसी प्रकार, व्यापारी लोग भी इन पहाड़ियों द्वारा नियंत्रित रास्तों का इस्तेमाल करने की अनुमति प्राप्त करने हेतु उन्हें कुछ पथकर दिया करते थे। जब ऐसा पथकर पहाड़िया मुखियाओं को मिल जाता था तो वे व्यापारियों की रक्षा करते थे और यह भी आश्वासन देते थे कि कोई भी उनके माल को नहीं लूटेगा। इस प्रकार कुछ ले-देकर की गई शांति संधि अधिक लंबे समय तक नहीं चली। यह अठारहवीं शताब्दी के अंतिम दशकों में उस समय भंग हो गई जब स्थिर खेती के क्षेत्र की सीमाएँ आक्रामक रीति से पूर्वी भारत में बढ़ाई जाने लगीं।
अंग्रेजों ने जंगलों की कटाई-सफ़ाई के काम को प्रोत्साहित किया और जमींदारों तथा जोतदारों ने परती भूमि को धान के खेतों में बदल दिया। अंग्रेजों के लिए स्थायी कृषि का विस्तार आवश्यक था क्योंकि उससे राजस्व के स्रोतों में वृद्धि हो सकती थी, निर्यात के लिए फ़सल पैदा हो सकती थी और एक स्थायी, सुव्यवस्थित समाज की स्थापना हो सकती थी। वे जंगलों को उजाड़ मानते थे और वनवासियों को असभ्य, बर्बर, उपद्रवी और क्रूर समझते थे जिन पर शासन करना उनके लिए कठिन था। इसलिए उन्होंने यही महसूस किया कि जंगलों का सफ़ाया करके, वहाँ स्थायी कृषि स्थापित करनी होगी और जंगली लोगों को पालतू व सभ्य बनाना होगा उनसे शिकार का काम छुड़वाना होगा और खेती का धंधा अपनाने के लिए उन्हें राजी करना होगा। ज्यों-ज्यों स्थायी कृषि का विस्तार होता गया, जंगलों तथा चरागाहों का क्षेत्र संकुचित होता गया। इससे पहाड़ी लोगों तथा स्थायी खेतीहरों के बीच झगड़ा तेज हो गया। पहाड़ी लोग पहले से अधिक नियमित रूप से बसे हुए गाँवों पर हमले बोलने लगे और ग्रामवासियों से अनाज और पशु छीन-झपट कर ले जाने लगे। औपनिवेशिक अधिकारियों ने उत्तेजित होकर इन पहाड़ियों पर काबू की भरसक कोशिशें कीं परंतु उनके लिए ऐसा करना आसान नहीं था।
1770 के दशक में ब्रिटिश अधिकारियों ने इन पहाड़ियों को निर्मूल कर देने की क्रूर नीति अपना ली और उनका शिकार और संहार करने लगे। तदोपरांत, 1780 के दशक में भागलपुर के कलेक्टर ऑगस्टस क्लीवलैंड ने शांति स्थापना की नीति प्रस्तावित की जिसके अनुसार पहाड़िया मुखियाओं को एक वार्षिक भत्ता दिया जाना था और बदले में उन्हें अपने आदमियों का चाल-चलन ठीक रखने की जिम्मेदारी लेनी थी। उनसे यह भी आशा की गई थी कि वे अपनी बस्तियों में व्यवस्था बनाए रखेंगे और अपने लोगों को अनुशासन में रखेंगे लेकिन बहुत से पहाड़िया मुखियाओं ने भत्ता लेने से मना कर दिया। जिन्होंने इसे स्वीकार किया उनमें से अधिकांश अपने समुदाय में अपनी सत्ता खो बैठे। औपनिवेशिक सरकार के वेतनभोगी बन जाने से उन्हें अधीनस्थ कर्मचारी या वैतनिक मुखिया माना जाने लगा। जब शांति स्थापना के लिए अभियान चल रहे थे तभी पहाड़िया लोग अपने आपको शत्रुतापूर्ण सैन्यबलों से बचाने के लिए और बाहरी लोगों से लड़ाई चालू रखने के लिए पहाड़ों के भीतरी भागों में चले गए। इसलिए जब 1810-11 की सर्दियों में बुकानन ने इस क्षेत्र की यात्रा की थी तो यह स्वाभाविक ही था कि पहाड़िया लोग बुकानन को संदेह और अविश्वास की दृष्टि से देखते। शांति स्थापना के अभियानों के अनुभव और क्रूरतापूर्ण दमन की यादों के कारण उनके मन में यह धारणा बन गई थी कि उनके इलाकों में ब्रिटिश लोगों की घुसपैठ का क्या असर होने वाला है उन्हे ऐसे प्रतीत होता था कि प्रत्येक गोरा आदमी एक ऐसी शक्ति का प्रतिनिधित्व कर रहा है जो उनसे उनके जंगल और जमीन छीन कर उनकी जीवन शैली और जीवित रहने के साधनों को नष्ट करने पर उतारू है।
वस्तुत: इन्हीं दिनों उन्हें एक नए खतरे की सूचनाएँ मिलने लगी थीं और वह था संथाल लोगों का आगमन। संथाल लोग वहाँ के जंगलों का सफ़ाया करते हुए, इमारती लकड़ी को काटते हुए, जमीन जोतते हुए और चावल तथा कपास उगाते हुए उस इलाकों में बड़ी संख्या में घुसे चले आ रहे थे। चूँकि संथाल बाशिंदों ने निचली पहाड़ियों पर अपना कब्जा जमा लिया था, इसलिए पहाड़ियों को राजमहल की पहाड़ियों में और भीतर की ओर पीछे हटना पड़ा। पहाड़िया लोग अपनी झूम खेती के लिए कुदाल का प्रयोग करते थे इसलिए यदि कुदाल को पहाड़िया जीवन का प्रतीक माना जाए तो हल को नए बाशिंदों; संथालों की शक्ति का प्रतिनिधि मानना होगा। हल और कुदाल के बीच की यह लड़ाई बहुत लंबी चली।
अन्य स्रोतों से:
गुगल मैप (Google Map):
बाहरी कड़ियाँ:
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विकिपीडिया से (Meaning from Wikipedia):
संदर्भ:
http://vimitihas.wordpress.com