तालाब सिंचाई

डा. भूंबला का कहना है कि ऐसी परिस्थितियों में तालाब की सिंचाई सर्वोत्तम है। अनुसंधानों ने सिद्ध किया है कि फसलों को तालाबों से अगर अतिरिक्त पानी मिल जाता है तो प्रति हेक्टेयर एक टन से ज्यादा पैदावार बढ़ती है। बाढ़ो को रोकने में भी तालाब बड़े मददगार होते हैं। उनसे कुओं में पानी आ जाता है और ज्यादा बारिश के दिनों में अतिरिक्त पानी की निकासी की भी सुविधा हो जाती है।

जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, पंजाब और हरियाणा के उप-पर्वतीय इलाकों में, खासकर शिवालिक के निचले हिस्सों में औसत बारिश अच्छी होने पर भी पैदावार कम ही हुआ करती है। चंडीगढ़ के पास सुखोमाजरी गांव में एक छोटा तालाब बनाया गया। उसका जलग्रहण क्षेत्र बिलकुल बंजर था। अब उस तालाब से सिंचाई होती है और वहां के किसान दो-दो, तीन-तीन फसलें लेने लगे हैं। हिमाचल प्रदेश के कृषि विभाग ने बिलासपुर जिले के दर्रों वाले इलाके में 20 तालाब बंधवाए जिनके कारण मक्का और गेंहू दोनों फसलों को सहारा मिल सका। उन्हें बांधने पर प्रति हेक्टेयर 5,000 रुपये का खर्च आया।

मध्य प्रदेश की गहरी काली मिट्टी वाले इलाके में अकसर बारिश का पानी जल्दी जज्ब हो जाता है, ऊपरी सतह सूखकर तड़क जाती है। रबी की बुआई नहीं हो पाती। बुआई से पहले की सिंचाई के लिए तालाबों से पानी मिल सके तो मिट्टी की नमी पौधे की बड़वार में काम आ सकेगी। खरीफ के समय तालाबों में पानी जमा करके बारिश के मौसम के बाद उसका इस्तेमाल किया जा सकता है। इंदौर के पास किए गए एक शोध ने सिद्ध किया है कि इस तरह से ज्यादा फसलें ली जा सकती हैं।

महाराष्ट्र और कर्नाटक के ज्वार पैदा करने वाले इलाकों में तालाब की सिंचाई से ज्यादा फायदा हो सकता है। उदयपुर के वनवासी क्षेत्र में फसल के आखिरी दौर में मकई को पानी की जरूरत पड़ती है। यह जरूरत तालाबों से पूरी की जा सकती है। तालाब की सिंचाई न सिर्फ मकई की पैदावार को स्थिरता देगी, बल्कि आने वाले मौसम में गेहूं की पैदावार को भी बढ़ा सकती है। गुजरात में मूंगफली की पैदावार की कमी के कारण घटती-बढ़ती रहती है, वहां भी तालाब बनाए जा सकते हैं।

सुखोमाजरी के अनुभव के आधार पर श्री भूंबला कहते हैं कि सामान्य नियम यह होना चाहिए कि “पानी जमीन के हिसाब से नहीं, लोगों के हिसाब से मिलना चाहिए। हर परिवार को, चाहे वह बे जमीन ही क्यों न हो, पानी का समान हक मिलना चाहिए।” तालाबों के पानी के समान वितरण के लिए ‘पानी समितियां’ बननी चाहिएं उनको पनढाल की रक्षा का तथा वहीं की घास आदि के पैदावार के बंटवारे का भी जिम्मा सौंपा जाना चाहिए। चराई से पनढाल की रक्षा न की जाए तो तालाब में साद जल्दी भर जाएगी। दुख इस बात का है कि पहले व्यवस्था ऐसी ही हुआ करती थी। लद्दाख जैसी जगहों में, जहां आधुनिक विकास के चरण अभी नहीं पड़े हैं, आज भी हर घर के हर खेत को पानी पहुंचाने का प्रबंध परंपरागत संबइनों के माध्यम से होता है।

आज गांव के लिए फिर से तालाब की बात करने वाले विशेषज्ञ यह भी जोड़ देते हैं कि शायद घनी आबादी वाले क्षेत्रों में, यानी शहरों में तालाब संभव नहीं होंगे। उन्हें शायद मालूम नहीं कि अभी कुछ ही बरस पहले तक देश में न जाने कितने शहरों में तालाब और झील हुआ करती थीं। मध्य प्रदेश के जबलपुर शहर में ‘चेरी ताल’ से ‘रानी ताल’ तक अनगिनत तालाब थे और ज्यादातर मोहल्ले इन्हीं के नाम से जाने जाते थे।

सरकार ने कई बार तालाबों और जल संरक्षण के महत्व का ढोल पीटा है। दूसरे सिंचाई आयोग ने भी कुएं और तालाबों को बड़ा महत्व दिया है पर इन सुझावों का कोई ध्यान नहीं दिया गया। दरअसल, देश में तालाबों की स्थिति का कोई व्यवस्थित अध्ययन भी नहीं हुआ है। सरकार की दिक्कत साफ है-तालाबों के बारे में सोचने का अर्थ है छोटी-छोटी बातों पर ध्यान देना और अपने को पीछे रखकर लोगों को आगे लाना। ये दोनों बातें हमारे राजकर्ताओं के लिए बड़ी मुश्किल हैं। इसलिए ठीक छोटी पंचायती चीजें उनके लिए सचमुच बड़ी पंचायती बातें हैं। इसका सबसे ताजा उदाहरण है राजस्थान के अलवर जिले के भीकमपुरा गांव का किस्सा।

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