तालाबों के सामुदायिक प्रबन्धन का पाठ पढ़ाते हैं ‘एरी’

eri water structure
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कम वर्षा वृष्टि वाले क्षेत्रों जैसे कर्नाटक, आन्ध्र और तमिलनाडु के कई हिस्सों में परम्परागत एरी ने सिंचाई और पारिस्थितिकी तन्त्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। बल्कि आज भी सिंचाई की एक तिहाई जरूरत एरी से पूरी होती है। हालांकि दक्षिण भारत सिंचाई में एरी का महत्त्व को आमतौर पर सभी स्वीकार करते हैं, लेकिन कतिपय आधुनिकतावादी इसे ‘पिछड़ी’, ‘अपरिष्कृत’ और उन्नति से बहुत दूर की प्रणाली मानते रहे हैं।

‘हरित क्रान्ति’ के बाद आधुनिक कृषि सिंचाई के लिये ज्यादा पानी, खाद और कीटनाशकों पर निर्भर हो गई और ऐसे में पानी की जरूरत भी बढ़ गई। हालांकि ये रणनीति धान के उत्पादन में निष्फल जान पड़ती है। धान दक्षिण भारत की प्रमुख फसल है। 18वीं सदी के बाद और 19वीं शताब्दी के प्रारम्भिक आँकड़े बताते हैं कि उस काल में एरी के अन्तर्गत धान की उत्पादकता 1960 की पैदावार की तुलना में बहुत ज्यादा थी। जरूरत इस बात की है कि वक्त के साथ घटती पैदावार की त्रासदी को समझा जाए ना कि एरी को समाप्त करना सिर्फ इसलिये कि यह हजारों वर्षों से है।

तालाब यानी सामान्य रूप से खोदे हुए या फिर प्राकृतिक रूप से निर्मित जलाशय हैं जिसमें पानी में जाने के लिये सभी ओर सीढ़ियाँ होती हैं। जबकि एरी, बाँध या तटबन्ध के पीछे स्थित पानी का एक जलाशय है। इसमें बाँध केे तीन ओर पानी होता है, चौथी दिशा खुले जलग्रहण की होती है जिससे जल एरी में नीचे की ओर बहकर एकत्र होता है और जैसे ही बाँध के मध्य से दूसरी ओर या बाँध के पार्श्व में जाते हैं गहराई कम होती जाती है।

एरी का मुख्य कार्य कृषि भूमि की सिंचाई करना है। प्रत्येक एरी निश्चित भूमि की सिंचाई के लिये बनाई जाती है इसे एरी का ‘अयाकट’ कहा जाता है। यहाँ एकत्र पानी गुरुत्वाकर्षण के जरिए खेतों की ओर स्लूइस/नहर (तमिल में माडूगू) के माध्यम से सफर करता है।

एक बार नहर खुल जाने पर जल छोटी-छोटी नहरों में बहता है और पूरे ‘अयाकट’ में वितरित हो जाता है। एरी के आकार पर नहरें आधारित होती हैं। ज्यादा पानी आने पर उसका सरलता से बहाव की व्यवस्था होना, एरी का महत्त्वपूर्ण गुण रहा है। एक एरी पर एक या अधिक कालागल्स या ओवरफ्लो बनाए जाते थे। कुछ एरी एक दूसरे से जुड़े हुए भी होते थे कि एक का पानी पूरा होने पर अगला एरी भरेगा।

दक्षिण भारत में तालाब सदियों से समाज की प्यास बुझाते रहे हैं। जल संचय की यह तरीका आम लोगों के जल प्रबन्धन का नायाब नमूना है। वैसे एरी केवल पारम्परिक देशी तकनीक, कौशल और प्रवीणता का उदाहरण मात्र नहीं हैं, यह ‘अनपढ़’ कहे जाने वाले देहातियों के प्रकृति की समझ की भी बानगी है। इसके रखरखाव और जल के इस्तेमाल के काम में समाज के हर वर्ग-जाति की भागीदारी हुआ करती है। गाँव की अर्थव्यवस्था का आधार एरी का प्रबन्धन साझा समाज की संस्कृति थी।

सनद् रहे तमिलनाडु में तालाबों को एरी कहते हैं और वहाँ चप्पे-चप्पे पर फैले 39202 एरी राज्य के समाज, संस्कृति और अर्थतन्त्र की धुरी कहलाते हैं। एरी का निर्माण आम तालाब की तरह नहीं होता, जिसमें गहराई में पानी व चारों तरफ से नीचे तक जाने की व्यवस्था होती है।

एरी, जलनिधि का ऐसा स्थान होता है जिसके एक तरफ कच्चे बाँध या तटबन्ध के किनारे होते हैं। जब समाज पर पानी का हक था तब गर्मी के दिनों में तालाब से निकली सूखी जमीन ‘पोरोम्बोकू’ पर सामुदायिक खेती होती थी। एरी के चारों ओर पीने के पानी के लिये ‘किनारू’ यानी कुएँ और अन्य निस्तार के जल के लिये छोटे-छोटे कुण्ड ‘कुलम’ बनवाये जाते थे। जितनी कम जरूरत, उतनी ही छोटी संचय का प्रबन्ध।

एरी का पानी सिंचाई के काम आता और उससे सिंचित किनारू व कुलम रोजंदारी की पानी की जरूरत पूरी करते। कुल मिलाकर एरी महज एक पानी की झील नहीं, बल्कि सम्पूर्ण पर्यावरणीय तन्त्र हुआ करते थे। एरी सिंचाई के लिये प्रयोग होने वाला मात्र जलाशय नहीं है। एरी की उपस्थिति कृषि के लिये पर्याप्त लघु जलवायु प्रदान करती है। प्रतिवेषी क्षेत्रों की पारिस्थितिकी में इसकी अहम भूमिका होती है।

‘टोंडाईमण्डलम’ (तमिलनाडु के चेंगलपट्टू और उत्तरी आर्कोट जिले से बना) के नाम से जाना जाने वाला तमिलनाडु का उत्तरी क्षेत्र सबसे पहले बसा था। तमिलनाडु के इस हिस्से में पारिस्थितिक अनुरूप एरी नेटवर्क बनाना व्यापक समझा जाता था। यद्यपि एरी का निरन्तर निर्माण ऐतिहासिक समय में भी होता रहा। यह अभिलेखों और अन्य प्रमाणों से पता चलता है।

मूल योजना निश्चित रूप से बहुत बड़ी सी लगती थी, यह बहुत सी एरी की शृंखला के अन्तः सम्बद्ध जो बंगाल की खाड़ी के नीचे पूर्वी घाटों में बहती थी पर विचार करती थी। इस बात पर भरोसा करना कठिन है कि एरी एक-एक कर बनाई गई और कहीं-न-कहीं ये जुड़ी व्यवस्था हो सकती है।

उपलब्ध जानकारी के अनुसार ईस्वी 600-630 में पल्लव वंश के महेन्द्रवर्मन प्रथम के कार्यकाल में महेन्द्रवड़ी एरी बनवाया गया था। उत्तीरामेरू एरी की खुदाई का काल दन्तीवर्मन पल्लव का शासन यानी 796-847 ईस्वी कहा गया है। उत्तरी तमिलनाडु का सबसे विशाल तालाब कावेरीपक्कम का निर्माण नन्दीवर्मन पल्लव तृतीय के शासन में (846-869) हुआ था।

सत्तर के दशक में तमिलनाडु राज्य में तालाबों से सिंचाई का रकबा घटना शुरू हो गया और यही समय था जब तालाबों की अधोगति की शुरूआत हुई। सन् 1970 में राज्य के कोई नौ लाख हेक्टेयर खेत तालाबों से सींचे जाते थे तो सन् 2005 आते-आते यह रकबा घट कर पौने छह लाख हेक्टेयर रह गया। बीच में सन् 2003 में अल्पवर्षा के दौर में यह आँकड़ा और नीचे गिरकर 3,85,000 हेक्टेयर रह गया था।

जहाँ राज्य का समाज तालाबों से सिंचाई कम कर रहा था तो उसकी भूजल पर निर्भरता बढ़ती जा रही थी, इस बात से बेखबर कि भूजल का अस्तित्व इन्हीं तालाबों पर निर्भर था। सन् 70 में जहाँ राज्य के 39 प्रतिशत खेत तालाबों से सींचे जाते थे और भूजल पर निर्भर खेत महज 25 प्रतिशत थे। सन् 2005 में तालाब से सींचे जाने वाले खेत 19 फीसदी और नलकूपों से सिंचाई 52 प्रतिशत हो गया था। यह भी कहा जाता है कि गाँवों की सामाजिक व्यवस्था चौपट होने यानी नीरघंटी समाज की उपेक्षा से भी तालाब निराश्रित हुए।

तमिल में ‘मेरामथ’ शब्द उर्दू के ‘मरम्मत’ से ही आया। मेरामथ के तहत समाज खुद ही श्रमदान कर तालाबों का रखरखाव करता था, लेकिन जब तालाबों पर सरकार ने कब्ज़ा कर लिया तो समाज ने मेरामथ को बँधुआ या जबरिया मजदूरी की तरह मान लिया। वास्तविकता ये थी कि ग्रामीण समुदायों के सहयोग के बिना पीडब्ल्यूडी का एरी का रखरखाव कर पाना असम्भव था और एरी व्यवस्था जैसे ज्यादा दुश्क्रियात्मक हो गई, राजस्व घटने लगा और एरी के रखरखाव की जरूरत महसूस हुई।

यह ग्रामीण समुदायों को सम्मिलित करके ही सम्भव हो सकता था। लेकिन कंगाल ग्रामीण समुदाय पूर्ण रूप से विघटित हो गए और इन्हें उदासीन कहा गया। इस सन्दर्भ में एक ही तरीका था जिससे ग्रामीण समुदायों को एरी के रखरखाव की जिम्मेदारी दी जा सकती थी वह तरीका था जबरदस्ती का। इसलिये कुडी मेरामथ के बारे में मिथक बनाने की जरूरत हुई तथा एरी और अन्य सिंचाई आधारभूत संरचना के रखरखाव में ग्रामीण समुदायों द्वारा स्वैच्छिक श्रम रिवाजी माना गया। चूँकि यह श्रम स्वैच्छिक रूप से नहीं हो रहा था इसलिये राज्य के लिये कानूनी दबाव डालने का प्रयास करना स्वतः चयन बन गया।

एरी या कुडी मेरामथ को कानूनी रूप देने के लिये एक बिल जून, 1883 में मद्रास कानून परिषद ने बनाया, लेकिन इसे बाद में समाप्त कर दिया गया था। सिंचाई आयोग (1901-1903) ने कहा, ‘किसानों ने तालाबों के रखरखाव व मरम्मत की ज़िम्मेदारी नहीं की जो उन पर रिवाज द्वारा लागू की गई थी’ और ये सिफारिश की गई थी कि किसानों को कुडी मेरामथ के तहत राजी करने के बाद नियमित रखरखाव का कार्य दे दिया जाना चाहिए।

आयोग ने आगे सिफारिश की कि यदि कुडी मेरामथ को कानून के बिना बल नहीं मिल सकता तो कानून का भार अपने ऊपर लेना चाहिए। अगर कुडी मेरामथ से काम नहीं चलता तो स्थानीय पंचायत के द्वारा तालाबों के कोष का प्रबन्ध सिंचित भूमि पर उपकर लगाकर करना चाहिए।

दक्षिण भारत में तालाब सदियों से समाज की प्यास बुझाते रहे हैं। जल संचय की यह तरीका आम लोगों के जल प्रबन्धन का नायाब नमूना है। वैसे एरी केवल पारम्परिक देशी तकनीक, कौशल और प्रवीणता का उदाहरण मात्र नहीं हैं, यह ‘अनपढ़’ कहे जाने वाले देहातियों के प्रकृति की समझ की भी बानगी है। इसके रखरखाव और जल के इस्तेमाल के काम में समाज के हर वर्ग-जाति की भागीदारी हुआ करती है। गाँव की अर्थव्यवस्था का आधार एरी का प्रबन्धन साझा समाज की संस्कृति थी। वर्तमान में राजस्व विभाग नियन्त्रित क्षेत्र के 40 हेक्टेयर से कम गैर एरी व्यवस्था के लिये पंचायत संघ के साथ जिम्मेवारियाँ साझा करती है। तालाब पुनः स्थापना प्रणाली की शुरुआत से सर्वेक्षण की गई उन एरी को पंचायत संघ को दे दिया जाता है। इस अन्तरित या स्वार्थ निहित एरी की मछली और पेड़ों से आय संघ एरी को आँकलित किया जाता था।

पहले की जमींदारी क्षेत्रों में जिनका सर्वेक्षण नहीं हुआ गैर अन्तरित या निस्वार्थ निहित एरी कही जाती थी और अधिकारिक रूप से राजस्व विभाग में होते थे। ये तमिलनाडु के रामंथपुरम जैसे क्षेत्रों में खासतौर पर महत्त्वपूर्ण है। जल विनियमन अधिकार भी पीडब्ल्यूडी, राजस्व विभाग और पंचायत द्वारा साझा किया गया। पीडब्ल्यूडी नदी व्यवस्था और हर एनीकट से जल विषय या नदी बंधिका के साथ जल नियन्त्रण करती थी।

आधिकारिक रूप में राजस्व विभाग 40 हेक्टेयर या ज्यादा के नियन्त्रण के साथ एरी में जल विनियमन के लिये उत्तरदायी है। ग्राम पंचायत नियन्त्रित क्षेत्र के 40 हेक्टेयर कम के एरी जल विनियमन के लिये उत्तरदायी हैं। हालांकि एरी से जल विनियमन आमतौर पर किसानों पर छोड़ दिया जाता है बिना किसी आधिकारिक हस्तक्षेप के।

विभिन्न प्रकार के संगठनों द्वारा सिंचाई का सामुदायिक प्रबन्धन होता है। 1. कुलाम या जाति पंचायत 2. गाँव के आधार पर संगठन जैसे ऊर और पंचायत 3. परा स्थानीय स्तर प्रबन्धन के रखरखाव के लिये दीर्घ स्तर संगठन जैसे नदियों की विभिन्न पहुँच या विशिष्ट जल उपभोक्ता संगठन भी हो सकता है जो एरी के अन्य सिंचाई स्रोतों के विषय के अन्तर्गत किसानों से बना होता है इसलिये आमतौर पर कार्यालय के वाहक और सिंचाई का मुखिया गाँव के बड़े होते हैं जो जाति या ग्राम पंचायत संगठन के सदस्य होते हैं।

सिंचाई संगठन और कार्यालय के वाहक सभी धर्मों और जातियों का व्यापक प्रतिनिधित्व होता है। तमिलनाडु के तिरुनेल्वेली क्षेत्र से अध्ययन में खुलासा हुआ कि सिंचाई संगठन कई जातियों के सदस्यों जैसे: वेल्लालस, नादर्स, मुप्पन, कोनार, असारी, मारावार, हरिजन, साम्बदवार को शामिल किया। इसके साथ ही तीन धर्मों हिन्दू, मुस्लिम और ईसाई से मिलकर बना है।

ये जल उपभोक्ता संगठन एरी के अन्तर्गत सभी किसानों से बना है और इन संगठनों के कार्यालय वाहक संगठन की बैठक में सहमति से चुने जाते हैं। कार्यालय वाहक की संख्या अयाकट के आकार पर निर्भर करती है अर्थात् संगठन के सदस्यों की संख्या। तमिलनाडु के विभिन्न हिस्सों जैसे कंबूकट्टी, नीरकट्टी, नीरघंटी, नीरपायची, नीरानी, मदायन, थोट्टी इत्यादि जल वितरण ग्राम कर्मचारी को सौंप दिया जाता है। सिंचाई कर्मचारी जल उपभोक्ता संगठन के कर्मचारी होते हैं और ये कर्मचारी और कार्यालय वाहक संगठन द्वारा संतुष्ट न होने पर हटाए भी जा सकते हैं। सिंचाई कर्मचारी ज्यादातर हरिजन समुदाय से लिया जाता है।

आमतौर पर एक ही परिवार में वैतृक होने से इस पद का पतन हो गया। ज्यादातर गाँवों मे इस सेवा के लिये कंबूकट्टी आज भी मजदूरी लेते हैं। (चेंगलपट्टू के कुछ गाँवों में प्रत्येक कंबूकट्टी हर फसल हर एकड़ धान के 6 किलोग्राम मात्रा के अनुसार अपनी मजदूरी लेता है)।

सिंचाई और जल वितरण से सम्बन्धित मामलों में समुदाय कंबूकट्टी का आदर करते हैं और सभी किसान उनके कहे शब्दों का पालन करते हैं। जहाँ पर एरी व्यवस्था है अर्थात् वहाँ ग्रामीण कर्मचारी एरी में जल लाने के लिये जिम्मेदार होते हैं वे अयाकट से एरी तक छोटी नहर की गश्त लगाते हैं।

सम्भावित जल चोरी या संरचना के नुकसान की जाँच करते हैं। (तमिलनाडु के कुछ हिस्सों में ये कार्यकर्ता नीरानी कहलाते हैं) चूँकि कुछ एरी अयाकट जल प्राप्त करने में शामिल होते हैं। आमतौर पर वहाँ जल के सहभाजन में कलह होती है। कलह आमतौर पर ग्रामीण कर्मचारियों के स्तर पर या अगर ये सम्भव नहीं होता तो सम्बन्धित जल उपभोक्ता संगठन के कार्यालय वाहक के द्वारा सुलझा दी जाती है।

सिंचाई के लिये एरी की नहरों को खोलने व बन्द करने की अगली जिम्मेदारी नीरघंटी या कंबूकट्टी की है। बड़ी एरी में कंबूकट्टी किसी विशिष्ट नहर का प्रभारी भी हो सकता है। जब अयाकट विभाजित होता है और हर नहर अयाकट के विशिष्ट हिस्से की सिंचाई के लिये नियुक्त की जाती है तो नहर प्रभावी ही कंबूकट्टी को अयाकट के विशिष्ट हिस्सों जो उसके प्रभार में हैं उनकी पूरी सिंचाई को सुनिश्चित करना है।

हर कंबूकट्टी निजी रूप से हर भूखण्ड में पानी को मोड़ता है अपने अधिकार में और जब खेत में आवश्यक पानी की मात्रा पहुँच जाती है वह भूखण्ड को बन्द कर देता है। हर खेत में जल की मात्रा से सम्बन्धित कंबूकट्टी का निर्णयन किसानों के विश्वास पर किया जाता है और स्वीकार किया जाता है।

अगर कोई कंबूकट्टी किसानों का भरोसा खो देता है तो उसे हटाया भी जा सकता है और उनके स्थान पर अन्य को नियुक्त किया जा सकता है। यह संगठन की वार्षिक बैठक जिसमें ऐसे निर्णय लिये जाते हैं उसमें किया जाता है। कंबूकट्टी की भूमिका महत्त्वपूर्ण है चूँकि इसने किसानों में जल वितरण की कलह को कम किया है।

सिंचाई संगठन का अध्यक्ष अन्य महत्त्वपूर्ण अधिकारी होता है। सिंचाई संगठन के अध्यक्ष की दो महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारियाँ होती हैं। वह संगठन की सभी गतिविधियों का पर्यवेक्षण करता है और संगठन व बाहर की दुनिया अन्य संगठनों या नौकरशाही के बीच सेतू का काम करता है। यद्यपि उसे वेतन नहीं मिलता उसका पद सामाजिक रूप से लोकप्रिय होता है। व्यवस्था एरी के मामले में जल आपूर्ति से सम्बन्धित गतिविधियों में सामंजस्य की आवश्यकता होती है।

व्यवस्था में एरी संगठनों, कलह सुलझाना आदि पीडब्ल्यूडी की दृष्टि से उसकी भूमिका महत्त्वपूर्ण है- चूँकि एरी की स्थिति से सम्बन्धित पीडब्ल्यूडी की सूचना का वही एकमात्र स्रोत होता है। ऐसी स्थिति में किसानों के संग्रहण की अतितीव्र आवश्यकता हो जैसे जरूरत से ज्यादा बहाव वाली बंधिका को खोलना व बन्द करना, संगठन के अध्यक्ष को सहायता की जरूरत के लिये तैयार रहना होता है।

सामुदायिक सिंचाई संगठन का सरोकार पानी उपयोग की क्षमता को अधिकतम करना है, उसका बेहतर प्रयोग करके। इसलिये जल अभाव के दौरान जुताई शीर्षभाग में निषेध होती है। बिल्कुल, सूझबूझ व कई अपवाद परिस्थितियों में इस्तेमाल की जाती है। लेकिन आमतौर पर, शीर्ष पहुँच पहली नीति पूर्ण उत्पादन को अधिकतम करती है। इसने श्रेष्ठ समझ उस समाज में बनाई जहाँ सभी उत्पादों को एक साथ रखा जाता है जिसमें से समुदाय के सभी निवासियों के लिये कमी की जाती है जैसा कि पूर्व ब्रिटिश चेंगलपट्टू गाँव और दक्षिण भारत में कहीं भी होता रहा है।

सिंचाई संगठन के द्वारा जो रखरखाव किया वो अयाकट में सभी छोटी नहरों को साफ रखना था। यह संगठन और हर किसान के बल से हुआ। हर किसान अपने खेत की अगली गुजरती छोटी नहर को साफ रखने की अपेक्षा रखता है। अगर किसान ऐसा करने में असफल होते हैं तो सिंचाई संगठन का अध्यक्ष यह किराए के श्रम और इस श्रम का शुल्क किसानों पर डालकर किया जा सकता है।

संगठन का प्रमुख और एकमात्र स्रोत एरी में मछली बेचकर प्राप्त आय है। यह कोष लघु मरम्मत और रखरखाव के कार्य के साथ ही मन्दिरों के रखरखाव और कई गाँवों में मन्दिर त्योहारों को कराने में इस्तेमाल होता है। अन्य शब्दों में, सिंचाई से सम्बन्धित व्यय ही इस कोष के कुल व्यय का एकमात्र हिस्सा है। ज्यादा जरूरत के लिये तैयार रहना चाहिए और यह हर किसान से चन्दा एकत्र करके किया जा सकता है।

कई उदाहरण हैं जहाँ पीडब्ल्यूडी ने एरी की मरम्मत में अनिच्छा जताई, संगठन ने आवश्यक कोष जुटाए और स्वयं ही मरम्मत कराई। एक अध्ययन में अनुमान लगाया गया कि एक संगठन किसानों से स्वेच्छा चन्दों के द्वारा प्रतिवर्ष स्थानीय रूप से 250-350 रु. प्रति हेक्टेयर जुटाने का प्रबन्ध करती है। यह अध्ययन निष्कर्ष देता है कि जो किसान एरी संगठन के सक्रिय सदस्य हैं वे एरी प्रबन्धन के लिये पीडब्ल्यूडी की मरम्मत के खर्च की तुलना में ज्यादा वित्तीय संसाधनों का सहयोग करते हैं।

एरी उन लोगों को लाभ पहुँचाती है जो उन्हें पोषण देते हैं। इतिहास दर्शाता है कि हमारे लोगों की बुद्धि ने ही ये तकनीक हमें दी और सामाजिक, राजनैतिक संगठन एरी व्यवस्था के रखरखाव के लिये जिम्मेदार हैं। अगर हम अपने लोगों और ग्रामीण समुदाय की सृजनशीलता और आविष्कार को पूरा अवसर प्रदान करें तो ऐसी असाधारण देसी तकनीक लोगों के कल्याण में ऐतिहासिक भूमिका निभा सकती है।ब्रितानी राज में इन तालाबों के रखरखाव का बजट भले ही कम रहता हो, लेकिन शासक उस समय ग्रामीणों के मुफ्त श्रमदान के बदौलत तालाबों की सफाई करवाया करते थे। तमिलनाडु से सटे पाण्डिचेरी या पुडुचेरी ने फ्रांसिसी उपनिवेशी शासकों ने बाकायदा ‘‘पानी इस्तेमाल करने वालों’’ का एसोसिएशन बनाया हुआ था, जिन्हें फ्रांसीसी नाम ‘कैसे कम्यूने’ और ‘सिंडिकेट एग्रीकाॅले’ कहा जाता था।

अंग्रेजी राज के बाद सन् 1980 तक सरकार ने तालाबों की सुध ही नहीं ली। जब आबादी बढ़ने से पानी की माँग बढ़ी तो खयाल आया कि हमारे पास जल भण्डारण की समुचित व्यवस्था ही नहीं है और जब संभले तो जनहित के मामलों में समाज की सहमति की अनिवार्यता का दौर समाप्त हो चुका था, नीतियाँ राज्य या केन्द्र की राजधानी में बन रही थीं व योजनाओं की उपयोगिता उनके भारी भरकम बजट से आँकी जा रही थी, ना कि उनकी स्थानीय उपयोगिता व मितव्ययिता से।

कहने को तमिलनाडु में ‘जल इस्तेमालकर्ता एसोसिएशन’’(डब्लूयूए) का गठन गाँव-गाँव में है। यहाँ जानना जरूरी है कि यहाँ दो किस्म की खेती की ज़मीन है - नंजल यानी सिंचित, अर्थात जिनकी ज़मीन तालाब के जल ग्रहण क्षेत्र में है और दूसरी पुंजल यानी असिंचित ।

तमिलनाडु एफएमआईएस (तमिलनाडु फार्मर्स मैनेजमेंट ऑफ इरीगेशन सिस्टम एक्ट) के मुताबिक डब्लूयूए का सदस्य बनने के लिये जरूरी है कि किसान की ज़मीन नंजल यानी तालाब के कमाण्ड एरिया में हो। इस तरह से तालाब से समाज पूरी तरह कट गया, उसके रखरखाव, तालाब के उत्पादों से आय आदि में गाँव के अन्य लोगों की सहमति की जरूरत ही नहीं रह गई सो तालाब कमेटी की सदस्यता एक प्रकार से राजनीतिक खींचतान का ज़रिया बन गई।

मछुआरे, कृषि मजदूर, गड़रिए जैसे कई लोग जो अपरोक्ष रूप से तालाब के समाज की अभिन्न हिस्सा थे, या पुंजल किसान; इन सबकी एरी से सहभागिता समाप्त होते ही राज्य का सामाजिक ताना-बाना बिखर गया। कानून के कारण कतिपय बड़ी जोत वाले ताकतवर लोग पानी पंचायत के मालिक बन गए और इस तरह समाज का जल और जल का ज्ञान ताकतवर लोगों की कठपुतली बन गया।

एरी उन लोगों को लाभ पहुँचाती है जो उन्हें पोषण देते हैं। इतिहास दर्शाता है कि हमारे लोगों की बुद्धि ने ही ये तकनीक हमें दी और सामाजिक, राजनैतिक संगठन एरी व्यवस्था के रखरखाव के लिये जिम्मेदार हैं। अगर हम अपने लोगों और ग्रामीण समुदाय की सृजनशीलता और आविष्कार को पूरा अवसर प्रदान करें तो ऐसी असाधारण देसी तकनीक लोगों के कल्याण में ऐतिहासिक भूमिका निभा सकती है।

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