तालाबों ने सहेजी कई नस्लें

Agriculture
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पर्यावरण और जैव विविधता का आपस में बहुत मजबूत सम्बन्ध है। अच्छे पर्यावरण में ही विविध प्रजातियों को पनपने की क्षमता होती है। पर्यावरण यदि प्रदूषित होगा तो वहाँ किसी भी सूरत में जैव विविधता के लिए खतरा ही होगा। जैव विविधता से आशय है जन्तुओं और वनस्पतियों की विभिन्न प्रजातियाँ निरापद रूप में अपने सहअस्तित्व में फले-फूले। लेकिन जिस तरह से हमारे आस-पास का पर्यावरण दूषित होता जा रहा है उससे जैवविविधता के लिए खतरा पैदा होता जा रहा है। हमारे जल स्रोत, नदियाँ, तालाब, जमीन और हवा सब कुछ तेजी से प्रदूषित होते जा रहे हैं। नदियों में समाहित होती जा रही गन्दगी और गन्दे पानी के नालों ने जलीय जीवों की जिन्दगी दूभर कर दी है। कई नदियाँ अब गन्दले नालों में बदलती जा रही है। कई हिस्सों के जमीन में रासायनिक पदार्थों के रिस जाने से भूमि-गत जल और उपजाऊ जमीन भी प्रदूषित हो चुकी है। कई हानिकारक गैसों की वजह से विभिन्न प्रजातियों को साँस लेने में भी परेशानी का सामना करना पड़ता है। चिड़ियाओं तथा परिन्दों की कई प्रजातियाँ ध्वनी प्रदूषण की वजह से अपने प्राकृतिक रहवास तक बदल चुके हैं।

हम तभी खुश और सुकून से रह सकेंगे, जब हमारा पर्यावरण सजीव और साफ़ रह सकेगा। पर्यावरण की सजीवता से आशय है जैव विविधता का सन्तुलन बनाये हुए। हमारा भला सह अस्तित्व में ही है। हम अकेले होकर कुछ भी नहीं, हमारा अस्तित्व प्रकृति के साथ ही है। पर्यावरण और विकास एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और अब इन्हें एक दूसरे का विरोधी नहीं बल्कि पूरक की तरह देखने की जरूरत है। हाल के दिनों में हमने कई बड़ी प्राकृतिक आपदाएँ देखी-भोगी है, हम तेजी से धरती का तापमान बढ़ता हुआ देख रहे हैं। हम गर्मी के दिनों में लाखों लोगों को पानी के लिए भटकते देखते हैं। हमारे देश की भौगोलिक परिस्थितियाँ अलग-अलग है कहीं उत्तर में हिमालय जैसे पहाड़ हैं तो कहीं पश्चिम में थार का रेगिस्तान है बीच का मैदानी इलाका खेती के लिए आदर्श स्थिति में हैं तो दक्षिण का हिस्सा समुद्र से घिरा है। इन अलग-अलग क्षेत्रों की अपनी विशिष्ट पहचान है और अपना विशिष्ट पर्यावरण, जो शताब्दियों से कमोबेश इसी तरह बना हुआ है। इनकी अपनी वनस्पतियाँ हैं, अपने वन्यजीव और अपना जन-जीवन। लोग इसी से इन्हें अलग पहचानते हैं।

भारत में दुनिया का केवल 2.4 प्रतिशत भू-भाग है जिसके 7-8 प्रतिशत भू-भाग पर विश्व की विभिन्न प्रजातियाँ पाई जाती हैं। विश्व के 11 फीसदी के मुकाबले भारत में 44 फीसदी भू-भाग पर फसलें बोई जाती हैं। भारत के 23.39 फीसदी भू-भाग पर पेड़ और जंगल फैले हुए हैं। ये वनस्पति और जीव-जन्तुओं के मामले में बहुत समृद्ध है और जैव विविधता को पालने का काम करते हैं। 22 मई दुनियाभर में अन्तरराष्ट्रीय जैव विविधता दिवस के रूप में मनाया जाता है। जैवविविधता अधिनियम 2002 भारत में जैवविविधता संरक्षण के लिए संसद में पारित संघीय कानून है, जो परम्परागत जैविक संसाधनों और ज्ञान के उपयोग से होने वाले लाभों के समान वितरण के लिए तन्त्र प्रदान करता है। इसे लागू करने के लिए राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण की स्थापना 2003 में की गई थी।

दरअसल सभी जीव-जन्तुओं और वनस्पतियों के ज़िन्दा रहने के लिए प्रकृति ने शताब्दियों से एक निर्धारित ताना-बाना बना रखा है। इसे ही हम जीव विज्ञान की भाषा में पारिस्थितिकी तन्त्र कहते हैं। यानी हर प्रजाति के जीवों और पादपों को उनके अनुकूल स्थितियाँ मिल सके और वह निर्बाध रूप से न केवल जीवित रह सके बल्कि अपनी पीढ़ी को भी लगातार आगे बढ़ाता रहे, इससे कभी किसी प्रजाति के विलुप्त होने की आशंका तक नहीं होगी। लेकिन बीते कुछ सालों में पर्यावरण को ख़ासा नुकसान हुआ है और इसी वजह से आज जैव विविधता के बारे में हमें पुनर्विचार करना पड़ रहा है। बीते कुछ सालों से देश में जैव विविधता को लेकर बड़ा काम हुआ है पर जब तक हम पर्यावरण में सुधार नहीं करेंगे तब तक कोई प्रयास कारगर नहीं हो सकेंगे। अच्छे पर्यावरण में ही जैव विविधता कायम रह सकती है।

कभी-कभी बहुत छोटे प्रयास भी बड़ी दिशा में सफल कदम साबित हो जाते हैं, ऐसा ही एक छोटा सा लेकिन महत्त्वपूर्ण प्रयास हुआ है मध्यप्रदेश के देवास जिले के ग्रामीण क्षेत्रों में। यहाँ प्रशासन की पहल पर खेती के लिए पानी की उपलब्धता तथा लगातार गहरे होते जा रहे जल स्तर को बढ़ाने के लिये ग्रामीणों ने अपने खेतों के कुछ हिस्से में तालाब बनाये। इन तालाबों से किसानों को तो बहुत फायदा मिला ही, इसका फायदा इलाके की जैव विविधता को भी मिला है। इससे किसानों के खेत का जल स्तर बढ़ा, उन्हें आसानी से पानी मिला। लगातार घाटे में जा रही खेती उनके लिए फायदे का सौदा बन गई। हालात यहाँ तक बने कि यहाँ के किसानों ने ट्यूबवेल की सांकेतिक रूप से अर्थी निकालकर प्राकृतिक तालाबों पर अपनी निर्भरता कायम कर ली।

पूरे क्षेत्र ने खेती में उत्पादन का नया इतिहास रचा। इसमें प्रशासन ने भी भरपूर सहयोग किया। तत्कालीन जिला कलेक्टर उमाकांत उमराव तो जिलाधीश नहीं जलाधीश कहलाने लगे। वे बैशाख की जानलेवा गर्मी में गाँव-गाँव के खेतों में घूमते, लोगों को तालाब के लिए प्रेरित करते, उनकी शंकाओं का समाधान करते, सरकारी मशीनरी को प्रोत्साहित करते। धीरे-धीरे इस मुहिम ने जन आन्दोलन का रूप ले लिया। देवास जिले में वर्ष 2006 में तत्कालीन जिला कलेक्टर उमाकांत उमराव ने जिले में रेवा सागर योजना भागीरथ किसानों के साथ प्रारम्भ की थी। इनसे 100 एकड़ क्षेत्र तक सिंचाई की जा रही है। अब तक जिले में इन तालाबों से करीब 40 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में अतिरिक्त सिंचाई क्षमता निर्मित हुई है और तेजी से जलस्तर भी बढ़ा है। वहीं गाँवों में आर्थिक बदलाव भी साफ नजर आ रहा है। इससे भी बड़ा फायदा जिले के पारिस्थितिकी तन्त्र में हुए हैं, जहाँ हरियाली और पर्यावरण सुधार के साथ पशु-पक्षियों और वन्य प्राणियों की तादाद में बढ़ोत्तरी हुई है। यहाँ तकरीबन 20 साल बाद इलाके में फिर से प्रवासी पक्षी जैसे साइबेरियन क्रेन दिखाई देने लगी हैं। यह न केवल देश-प्रदेश अपितु पूरे विश्व के लिए अब रोल मॉडल की तरह सामने आया है। रेवा सागर सबसे सस्ता, टिकाऊ और परम्परागत मॉडल है, जो पानी से खाद्य सुरक्षा, जलवायु परिवर्तन, ग्लोबल वार्मिंग, जैव विविधता और पर्यावरण के समग्र सन्दर्भों से जुड़ी समस्याओं का समाधान करता है।

.अब तो यह इलाका ही रेवा सागर तालाबों के लिए पहचाना जाने लगा है। इन खेत तालाबों को नाम दिया गया रेवा सागर। रेवा यानी नर्मदा, नर्मदा का सागर। इसी तरह इसे बनाने वाले किसान को नाम दिया गया भागीरथ किसान। आपने वह कहानी तो पढ़ी ही होगी जिसमें राम के पूर्वज भागीरथ ने कठोर मेहनत कर गंगा नदी को जमीन पर उतारा था लोगों की भलाई के लिए तो ठीक उसी तर्ज पर यहाँ के किसानों ने भी भागीरथ बनकर अपने–अपने खेतों पर रेवा सागर को उतारा। देखते ही देखते जिले में सात हजार से ज्यादा रेवा सागर तालाब बन गए। दूर-दूर से लोग इस चमत्कार को देखने आने लगे। दूर प्रदेशों में बात पहुँची तो वहाँ से भी किसान लोग यहाँ इन्हें देखने आये। देश के कई हिस्सों में देवास के रेवा सागर एक मॉडल बन कर उभरा। इसके फायदों को देखते हुए लोगों ने इसे हाथों-हाथ लिया। भू-जल के लिये इस अभिनव प्रयास को बहुत सराहा गया। केन्द्रीय भू-जल परिषद ने इसका व्यापक अध्ययन किए और इसे प्रोत्साहित करने के लिए पाँच बार राष्ट्रीय स्तर पर गाँवों को पुरस्कार भी मिले। देवास में जल-संरक्षण और भू-जल स्तर बढ़ाने के लिए रेवासागर को देश और प्रदेश में रोल मॉडल माना जा चुका है। इन्हें नवाचारी जल संरचनाओं के लिए अन्तरराष्ट्रीय ख्याति का यूएनए अवार्ड मिला है। इसे संयुक्त राष्ट्र संघ ने विशेष तौर पर यूएन-वाटर बेस्ट प्रैक्टीसेस अवार्ड दिया है। इसके लिए विश्व के 5 महाद्वीपों के 17 देशों से प्रतिस्पर्धा में देवास के काम को चुना गया। यानी अब यह नवाचार दुनियाभर के लिए रोल मॉडल बन गया है।

किसानों ने रेवा सागर की पाल पर फलदार पौधे, रतनजोत और फूल के पौधे लगाये तो कुछ ने मछली पालन, सिंघाड़ा और किसी ने कमलगट्टे की खेती की। इससे उन्हें अतिरिक्त आमदनी का जरिया भी मिला। तालाब में पानी सूखने के बाद भी नमी बनी रही इससे किसान चने की फसल या सब्जियाँ उगाने में सफल रहे। इतना ही नहीं पानी और नमी से कृषि कीट मित्रों की संख्या भी बढ़ गई और सतही जल होने से हर साल आने वाले प्रवासी पक्षियों की तादाद भी बढ़ गई। पानी की वजह से कई जलीय जीव-जन्तुओं तथा पेड़-पौधों की भी संख्या बढ़ गई है वहीं कीटनाशकों और रासायनिक खादों की कमी से जमीन और फसल भी दूषित होने से बच गई है।

जैव विविधता से जुड़े आँकड़े हमें चौंकाते हैं। आँकड़े बताते हैं कि वनस्पतियों की हर आठ में से एक प्रजाति पर विलुप्तता का खतरा मंडरा रहा है। बेलगाम बढ़ती जनसंख्या से पूरी दुनिया के पारिस्थितिकी तन्त्रों और प्रजातियों पर प्रतिकूल असर और दबाव बढ़ रहा है। मनुष्य के लालच की कोई सीमा नहीं है हम अपने मकान, खेती और सड़कों–बाँधों के लिए जीव– जन्तुओं का प्राकृतिक आवास बर्बाद करते जा रहे हैं। हम तेजी से जंगल ख़त्म कर रहे हैं, पानी को अपने ही उपयोग के लिए उलीचते जा रहे हैं। हवा में जहरीली गैसें छोड़कर साँस लेने में भी दूभर हवा बनाते जा रहे हैं।

बीते दिनों मौसम के बदलते मिजाज और बिगड़ते पर्यावरण के कारण अंचल से परिंदों ने भी किनारा कर लिया था। बुजुर्ग बताते हैं कि कुछ अर्सा पहले तक यहाँ परिंदों की चहचहाट सुनाई देती थी लेकिन बीते कुछ सालों से यहाँ पेड़ों की टहनियाँ सुनी दिखाई देती थी पर अब यहाँ 33 प्रजाति के परिंदों में गौरेया, मैना, कठफोड़वा, अबाबिल, मोर, तीतर, नीलकंठ, बाज, गिद्द, बुल-बुल, कोयल, तोता, कौआ, टिटहरी, चमगादड़ और उल्लू बहुतायात में पाए जाते हैं। मालवा क्षेत्र के बिगड़ते पर्यावरण के चलते कुछ पक्षियों का वंश खत्म होने की स्थिति उत्पन्न हो रही थी। इसके अलावा रंग–बिरंगी तितलीयाँ, केंचुएँ, साँप, नेवला, छछूंदर सहित कई प्रजातियाँ भी अब गाँवों से लगातार कम होते जा रहे हैं। विभिन्न प्रजातियों के पौधों की तो और भी बदतर स्थिति है। पानी की कमी और अन्य कारणों से कई प्रजातियाँ खत्म होने की कगार तक पहुँच चुकी थी। लेकिन रेवासागर के आस-पास के इलाके में अब ऐसी कोई बात नहीं है। यहाँ तालाब के नीले पानी के किनारे सुबह-शाम के समय गाँवों में पक्षियों की ऐसी चहचाहट सुनाई देती है कि बरबस ही ध्यान खिंच जाता है उनकी ओर तथा फिजा सुहानी लगने लगती है। सर्दियों के दिनों में मेहमान विदेशी पक्षी भी क्षेत्र के रेवा सागरों में अटखेलियाँ करते हैं।

तालाबों में ये विदेशी मेहमान पक्षी मछली और कीट पतंगों को खाते हुए दावत उड़ाते दिखाई देते हैं। पक्षियों के जानकार बताते हैं कि जो पक्षी भारत में आकर सर्दियाँ गुजारते हैं, वे उत्तरी एशिया, रूस, कजाकिस्तान तथा पूर्वी साइबेरिया से यहाँ आते हैं। यह सैकड़ों किलोमीटर की दूरी से उड़कर भारत में आते हैं। इन प्रवासी पक्षियों के यहाँ इस समय बर्फ जम जाती है। ऐसी कंपकंपाने वाली ठंड के कारण इन पक्षियों का आहार बनने वाले जीव या तो मर जाते हैं या जमीन में दुबक कर शीतनिद्रा में चले जाते हैं। जिससे वे सर्दियों के समाप्त होने के बाद ही जागते हैं। ऐसी स्थिति में इन पक्षियों के लिए आहार ढूँढना और जिंदा रहना मुश्किल हो जाता है। इसलिए वे भारत जैसे गर्म देशों में चले आते हैं। जहाँ बर्फ नहीं जमती और उन्हें आहार भी अच्छे से मिल जाता है। हर साल मानसून से पहले ही ये सायबेरियाई परिंदे यहाँ पहुँच जाते हैं और अपने लिए जरूरी रेन बसेरा तैयार करते हैं। विदेशी मेहमान पक्षी सर्दियाँ गुजारने के लिए बड़ी संख्या में आते हैं लेकिन कम बारिश के चलते मालवा के अनेक जलस्रोत रीते पड़े होते हैं। इनके कारण पक्षियों के लिए जलस्रोतों में अठखेलियाँ करने के विकल्प भी कम ही है। लेकिन देवास जिले में अब प्रवासी पक्षियों का आँकड़ा लगातार बढ़ता जा रहा है।

बीते कुछ सालों में प्रकृति के ताने-बाने में मनुष्य का हस्तक्षेप इतना बढ़ा कि बाक़ी जीवों और वनस्पतियों के धीरे–धीरे खत्म होने के साथ–साथ हमारे लिये भी प्राकृतिक आपदाओं का खतरा बढ़ गया। देश का मौसम चक्र बिगड़ने लगा। हमारा हस्तक्षेप हमारे लिए ही भारी पड़ने लगा है। जैव विविधता में आये हानिकारक बदलाव की वजह से ही मनुष्यों को नई–नई तरह की बीमारियों से रूबरू होना पड़ रहा है। डॉक्टर बताते हैं कि इन बीमारियों के प्रतिरोधक अंश हमें जिन जीवों या वनस्पतियों से मिल सकते थे, वे अब समाप्ति की कगार पर हैं या खत्म हो चुके हैं। अब इस बात को शिद्दत से महसूस किए जाने लगा है कि हमारे निरापद जीवन के लिए जैव विविधता बहुत जरूरी है। जैव विविधता को बनाये रखने के लिए हमें अपने जंगलों और जीवों की रक्षा करना बहुत जरूरी है। यदि हमने अब भी ध्यान नहीं दिया तो हालात और भी गम्भीर हो जायेंगे।

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