तपती धरती की भावी कथा

संयुक्त राष्ट्र द्वारा जलवायु परिवर्तन पर गठित अंतर-सरकारी समिति (आई.पी.सी.सी.) ने हाल ही में योकोहामा, जापान में जारी की गयी अपनी रिपोर्ट में ग्लोबल वार्मिग यानी वैश्विक तपन के भयानक खतरों से एक बार फिर आगाह किया है। इस समिति का कहना है कि अब सोचने का समय शेष नहीं रहा, इन खतरों से निबटने का समय आ गया है। कहीं ऐसा न हो कि देर हो जाये और समय हाथ से निकल जाये।

लाखों वर्ष पहले दो पैरों पर खड़े हो गये मनुष्य ने गुफाओं से निकलकर नदी-घाटियों में घर बनाकर बसना शुरू किया। पशुओं को पालतु बनाकर पशुपालनशुरू कर दिया। अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए वह जंगलों को काटकर खेती करने लगा। उसकी आबादी बढ़ती गयीं और जमीन हथियानो की हवस भी बढ़ती गयी।आईपीसीसी ने आसन्न खतरों की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए कहा है कि अगर आज हम नहीं संभले तो जलवायु परिवर्तन की मार से कोई अछूता नहीं रह पाएगा, सभी को यह संकट झेलना होगा। एशिया और विशेष रूप से दक्षिण एशिया का बुरा हाल हो जाएगा। भारत और चीन के लिए तो यह बड़े खतरे की घंटी है क्योंकि विश्व की एक तिहाई आबादी यहीं रहती है।

वैश्विक तापन से मौसम का मिजाज बिगड़ने पर जल-स्रोत सूख जाएंगे कहीं भयंकर सूखा पड़ेगा तो कहीं अतिवृष्टि से तबाही मचेगी जैसे 2013 में केदारघाटी में मची थी। तटवर्ती इलाकों में भयंकर समुद्री तूफान आते रहेंगे जैसे अक्टूबर 2013 में ओडिशा में फेलिन तुफान आया था। समुद्रों का जलस्तर बढ़ने से तटवर्ती इलाकों की बस्तियां और शहर डूब जाएंगे। दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता, टोकियो और शंघाई जैसे शहरों में भीषण बाढ़ आ सकती है।

वैश्विक तापन से ग्लेशियर पिघलेंगे और नदियों में बाढ़ आएगी। फिर ग्लेशियरों के सिकुड़ने से नदियां सूखने लगेंगी। जल-स्रोतों के सूखने से पानी के लिए त्राहि-त्राहि मच जाएगी। सिंचाई के अभाव और अनावृष्टि के कारण खाद्यान्न उत्पादन पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ेगा। फसलें उगाना मुश्किल हो जाएगा। इस कारण अनाज की कीमतें बढ़ती जाएंगी और व्यापक रूप से भुखमरी फैल सकती है। कुपोषण से लाखों लोग प्रभावित होंगे। इतना ही नहीं, इन विपदाओं के कारण लाखों लोग अन्य इलाकों की ओर पलायन करेंगे। उससे आपसी संघर्ष बढ़ेगा।

आईपीसीसी ने एक और हालिया रिपोर्ट में कहा है कि ग्लोबल वार्मिग से बचने का एक ही रास्ता है। वह यह कि विश्व के सभी देश बिना समय बर्बाद किये ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन पर अंकुश लगाएं। रिपोर्ट में बताया गया है कि अगर पिछले चार दशकों पर नजर डाली जाए तो वर्ष 2000 से 2010 के दशक में ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन सर्वाधिक तेजी से बढ़ा है। ये गैसें वैश्विक तपन को बढ़ा रही हैं जिससे आबोहवा बदल रही है। इसके कारण भारी जोखिम पैदा हो गया है। अगर यह तपन घटानी है तो हमें वर्ष 2050 तक ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में वर्ष 2010 की तुलना में 40 से 70 प्रतिशत तक की कमी करनी होगी।

वैश्विक तापन से ग्लेशियर पिघलेंगे और नदियों में बाढ़ आएगी। फिर ग्लेशियरों के सिकुड़ने से नदियां सूखने लगेंगी। जल-स्रोतों के सूखने से पानी के लिए त्राहि-त्राहि मच जाएगी। सिंचाई के अभाव और अनावृष्टि के कारण खाद्यान्न उत्पादन पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ेगा। फसलें उगाना मुश्किल हो जाएगा।आइए, जरा अपनी पृथ्वी पर नजर डालें जो सौरमंडल का एकमात्र ऐसा ग्रह है जिस पर जीवन है। इसमें कहीं ऊंची पर्वतमालाएं हैं तो कहीं दूर-दूर तक फैले मैदान, कहीं गहरी घाटियां हैं तो कहीं विशाल रेगिस्तान। कहीं हरे-भरे जंगल, तो कहीं विशाल गीले दल-दल। कहीं सदानीरा नदियां बहती हैं तो कहीं ऊंचे पहाड़ों से छल-छल झरने गिरते हैं। कहीं अथाह गर्मी पड़ती है तो कहीं कड़ाके की सर्दी। कहीं घनघोर वर्षा होती है तो कहीं पानी को एक बूंद भी नहीं बरसती।

और, मौसम? कभी खिली-खिली धूप तो कभी भीषण गर्मी, कभी शरद ऋतु के गुनगुने दिन तो कभी माघ-पूस के चिल्ला जाड़े। क्यों होता है ऐसा? यहां मौसम बदलते हैं। ऋतुएं आती हैं, जाती हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हमारी पृथ्वी अपनी धुरी पर खम देकर खड़ी है! यह अपनी धुरी की सीध से 23.5 अंश झुकी हुई है। इसलिए जब अपनी धुरी पर घूमती है तो घूमते हुए लट्टू की तरह अंडाकार डोलती भी है। डोलते-डोलते सूर्य की परिक्रमा भी करती है। इस सब का नतीजा यह होता है कि पृथ्वी के हर हिस्से पर साल भर सूर्य की रोशनी एक समान नहीं पड़ती। इसीलिए पृथ्वी की भूमध्य रेखा के आसपास सदा बेहद गर्म होता है। लेकिन, हम ज्यों-ज्यों उत्तर या दक्षिण की ओर बढ़ते हैं तो तपन कम होने लगती है और मौसम खुशगवार लगने लगता है। और आगे बढ़ने पर तापमान कम होने लगता है और ध्रुवों पर यह न्यूनतम हो जाता है। ये हमारी पृथ्वी की जलवायु यानी आबोहवा के विविध रंग हैं। यह जलवायु की ही देन है कि पृथ्वी पर हरियाली लहलहाती है, कहीं झमाझम वर्षा होती है, कहीं भयानक सूखा पड़ जाता है कहीं बर्फ की चादर फैल जाती है। हमारा रहन-सहन, खेतीबाड़ी और आवागमन सभी कुछ जलवायु पर ही निर्भर करता है।

लेकिन, इधर पृथ्वी की आबोहवा गड़बड़ा गयी है। पहले तक जहां समय पर ऋतुएं बदलती थीं। समय पर वसंत आता था, जेष्ठ की ‘छांहों चाहत छांह’ की गर्मी पड़ती थी, समय पर वर्षा और समय पर ही जाड़ों की ठिठुरन शुरू होती थी। ऋतुओं के हिसाब से किसान खेती करते थे, बोआई और कटाई के उत्सव मनाते थे। यहां तक कि पशु-पक्षी भी ऋतुओं के हिसाब से अपनी लम्बी प्रवास यात्राएं करते थे या ठंडे प्रदेशों में गुफाओं, कोटरों और बिलों में शीत निद्रा या ग्रीष्म निद्रा में सो जाते थे। नन्हीं तितलियां तक वसन्त के इन्तजार में प्यूपा बनकर किसी टहनी, चट्टान या दीवार से लटक जाती थीं कि वसन्त आएगा और वे शंख फटफटा कर बाहर निकल आएंगीं, मधु और पराग चुसने के लिए खिलखिलाते फूलों पर पहुंच जाएंगीं। जलवायु के साथ हर जीवधारी का बेहद नाजुक संबंध था।

अब यह संबंध भी गड़बड़ा रहा है। ऋतुएं समय पर नहीं आ रही हैं वसन्त समय पर नहीं आता तो फूल भी समय पर नहीं खिलते। वसन्त की आहट न पाकर तितलियां प्यूपों के ताबूत में ही बंद रह जाती हैं। बेमौसम बरसात होती है। बरसात भी ऐसी कि लगे प्रलय आ गया है, जैसे केदारनाथ घाटी में हुआ। अगर कहीं सूखा पड़ रहा है तो इतना सूखा कि हजारों लोगों के सपनों को सुखा दे। तूफान ऐसे कि ताडंव दिखाकर तबाही मचा दें। पहाड़ों में बेमौसम बारिश और ओलों की मार से बागवानों की फलदार फसलों के फूल झर गये तो मैदानों में गेहूं की पकी हुई फसलें तबाह हो गयीं।

लेकिन क्यों? आबोहवा को यह क्या हो गया है? वैज्ञानिकों का कहना है कि आबोहवा खराब हो गई है और मौसम का मिज़ाज बदल गया हैं और, यह स्वयं आदमी की करतूत का नतीजा है। अन्यथा, पहले सब कुछ ठीक-ठाक था। नदियां कल-कल, छल-छल बह रही थीं, हरे-भरे जंगल ठंडी बयार बहाकर हमारी सांसों के लिए प्राणवायु ऑक्सीजन दे रहे थे। हम प्रकृति में, प्रकृति के साथ रह रहे थे। लेकिन, विकास की एक ऐसी मूषक दौड़ शुरू हुई कि जमीन के चप्पे-चप्पे पर कंकरीट के जंगल खड़े होने लगे। हरे-भरे जंगल कटने लगे। तथाकथित विकास के नाम पर शहर पैर फैलाने लगे। लोग यह भूल गये कि मां प्रकृति पेड़-पौधों और हरे-भरे जंगलों में हमारी सांसें तैयार करती है। उनकी बनायी प्राणवायु ऑक्सीजन में ही सांस लेकर हम जीवित हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए था अन्यथा वायुमंडल में हवा तो लाखों वर्ष पहले भी थी। लेकिन, उसमें ऑक्सीजन नहीं थी, केवल कार्बन-डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन और मीथेन थी। ऑक्सीजन नहीं थी तो उसमें सांस लेनेवाले जीवधारी भी नहीं थे।

जलवायु के ठीक रहने के लिए प्रकृति का कारोबार ठीक चलना चाहिए। अब बादल, वर्षा और पानी के ही चक्र को देखिए। सूरज की धूप और गर्मी से महासागरों, नदी-नालों, झील-तालाबों और नम धरती का पानी भाप बनकर ऊपर आसमान में पहुंचता है। पेड़-पौधे और घने जंगल भी जड़ों से पानी सोख कर बकाया पानी को हवा में छोड़ देते हैं। पानी की वह भाप भी आसमान में पहुंचतीं हैं। वहां भाप ठंडी होकर बादल बन जाती है, बादल बरस कर उस पानी को फिर धरती पर भेज देते हैं। नदी-नालों से बहता पानी सागरों तक पहुंचता है। फिर भाप बनती है, फिर बादल और वर्षा। यह चक्र चलता रहता है और इसका असर जलवायु पर पड़ता है।

इसी तरह कार्बन का एक चक्र है। हमारी पृथ्वी पर सभी जीवधारी मुख्य रूप से कार्बन के अणुओं से बने हैं। जीवधारी सांस में कार्बन-डाइऑक्साइड बाहर छोड़ते हैं। उनके मरने, गलने, सड़ने पर भी यह गैस मुक्त होती है। जब हम कोयला, ईंधन और पेट्रोलियम ईंधन जलाते हैं, वनों में आग लगती है या हमारे कल-करखानें धुआं उगलते हैं, तब भी बड़ी मात्रा में कार्बन-डाइऑक्साइड वायुमंडल में पहुंच जाती है।

इतनी सारी कार्बन-डाइऑक्साइड, लेकिन यह जाती कहां है? इसका काफी हिस्सा पेड़-पौधे दिन में अपने लिए फोटोसिंथेसिस के जरिए भोजन बनाने में इस्तेमाल कर लेते हैं। रात में वे भी कुछ कार्बन-डाइऑक्साइड सांस में बाहर छोड़ते हैं। कार्बन का का बड़ा हिस्सा प्राचीनकाल में सड़-गल कर पेट्रोलियम या फिर गर्मी से कोयले के विशाल भंडारों में बदल गया। यानी, कार्बन मुख्य रूप से वायुमंडल की कार्बन-डाइऑक्साइड और जीवाश्म इंधनों में जमा है।

एक बात और। प्रकृति ने हवा में कार्बन-डाइऑक्साइड और अन्य गैसों की ठीक उतनी ही मात्रा रखी थी, जितनी हमारे सांस लेने के लिए जरूरी थी। जब तक ऐसा था, तब तक सबकुछ ठीक था। जीने के लिए जैसी जलवायु चाहिए थी, वह वैसी ही थी। लेकिन, फिर लाखों वर्ष पहले दो पैरों पर खड़े हो गये मनुष्य ने गुफाओं से निकल कर नदी-घाटियों में घर बना कर बसना शुरू किया। पशुओं को पालतू बनाकर पशुपालन शुरू कर दिया। अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए वह जंगलों को काटकर खेती करने लगा। उसकी आबादी बढ़ती गयी, जरूरतें बढ़ती गयीं और जमीन हथियाने की हवस भी बढ़ती गई। आगे चलकर उसने तथाकथित विकास की दौड़ में घने जंगलों का सफाया करना शुरू कर दिया। हरे-भरे जंगल शहरों में तब्दील होने लगे। कल-कारखानों को चलाने के लिए बड़े पैमाने पर कोयला फूंका जाने लगा। सड़कों पर लाखों गाड़ियां पेट्रोल का धुआं उगलने लगीं। इस तरह हर साल लाखों टन कार्बन-डाइऑक्साइड वायुमंडल में पहुंचने लगी।

सूर्य की गरमाहट वायुमंडल को पार कर पृथ्वी पर पहुंचने वाली उसकी ऊर्जा या विकिरण से मिलती है। इस विकिरण में प्रकाश की किरणें तो होती ही हैं, उसमें अल्ट्रावायलेट तथा इन्फ्रारेड किरणें, एक्स-किरणें और न्यूट्रान कण भी होते है। अगर सूर्य का यह पूरा विकिरण सीधा पृथ्वी पर पहुंच जाये तो इस पर जीवन नेस्तनाबूद हो जाएगा। इससे वायुमंडल में प्रकृति द्वारा तय किया गया गैसों का हिसाब गड़बड़ा गया। विकास की अन्धी दौड़ जारी रही और आसमान में धुआं भरता गया। फल यह हुआ कि पृथ्वी पर तपन बढ़ती गयी। सूर्य की जिस गुनगुनी गरमाहट ने कभी पृथ्वी पर जीवन पनपने और उसके फलने-फूलने में मदद की थी, वह विगत कुछ दशकों में धीरे-धीरे बढ़कर अब असहनीय होती जा रही है। सूर्य की गरमाहट वायुमंडल को पार कर पृथ्वी पर पहुंचने वाली उसकी ऊर्जा या विकिरण से मिलती है। इस विकिरण में प्रकाश की किरणें तो होती ही हैं, उसमें अल्ट्रावायलेट तथा इन्फ्रारेड किरणें, एक्स-किरणें और न्यूट्रान कण भी होते है। अगर सूर्य का यह पूरा विकिरण सीधा पृथ्वी पर पहुंच जाये तो इस पर जीवन नेस्तनाबूद हो जाएगा। लेकिन, ऐसा नहीं होता। सूर्य का काफी विकिरण वायुमंडल से टकरा कर आसमान की ओर वापस लौट जाता है। वायुमंडल को पार कर जो विकिरण या गरमाहट पृथ्वी पर पहुंचती हैं, उससे हमारी धरती की सतह गरमाती है और सतह से आसमान की ओर लौटती किरणों को वायुमंडल की गैसों की परत रोक लेती है। इस कारण इतनी गरमाहट बनी रहती है कि पृथ्वी पर जीवन पलता-पनपता रहे। इन गैसों की परत अगर गरमी को नहीं रोकती तो धरती पर तापमान कम हो जाता, शून्य से भी कम। तब धरती पर जीना मुहाल हो जाता। इन गैसों के कारण ही पृथ्वी का औसत तापमान 33 डिग्री सेल्सियस बना रहता है।

अगर अतीत में झांके तो लेकिन, सन् 1780 के आसपास जेम्स वाट का धुआं उगलता भाप का इंजन आ खड़ा हुआ। रेलगाड़ी और कल-कारखानों को चलाने के लिए कोयला ‘काला सोना’ बन गया। औद्योगिक क्रान्ति हो गयी और मशीनों को चलाने के लिए दुनिया भर में कोयले के भंडार खोजे जाने लगे। फिर मोटरगाडि़यों और मशीनों के लिए धरती के गर्भ मे छिपे प्राकृतिक तेल के भंडारों की खोज शुरू हुई। कोयले और तेल के दहन से आसमान में कार्बन-डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ती गयी। तब विश्व भर में घने जंगल थे, मनुष्यों की आबादी कम थी, गाड़ियां भी कम थीं। इस कारण वायुमंडल में बढ़ती कार्बन-डाइऑक्साइड के कुप्रभाव का पता नहीं लगा।

औद्योगीकरण के बाद वायुमंडल में कार्बन-डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ती ही चली गयी। वैज्ञानिकों को लगा कि वायुमंडल में इसके बढ़ने से तापमान भी बढ़ रहा है। जंगलों के अन्धाधुंध कटान से यह स्थिति और भी बिगड़ती गयी। लाखों वर्षो से कोयले, तेल और प्राकृतिक गैस में कैद कार्बन भी धुएं के रूप में मुक्त होकर वायुमंडल में पहुंच गया। वैज्ञानिक ग्लोबल वार्मिंग का कारण ग्रीनहाउस गैसों को बताते हैं। यानी, वायुमंडल में मौजूद ऐसी कोई भी गैस जो इन्फ्रारेड किरणों को गर्मी को सोख कर तापमान बढ़ा दे। मुख्य ग्रीनहाउस गैसें हैः जल वाष्प, कार्बन-डाइऑक्साइड मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड और क्लोरोफ्लुओरोकार्बन (सी.एफ.सी.) रसायन।

ग्रीनहाउस प्रभाव से गर्मी बढ़ाने वाला मुख्य अपराधी कार्बन डाइऑक्साइड गैस को माना गया है। अनुमान है कि हर साल करीब 32 अरब टन कार्बन-डाइऑक्साइड वायुमंडल में पहुंच रही है। औद्योगिकीकरण से पहले की तुलना में आज वायुमंडल में यह गैस 30 प्रतिशत से भी अधिक बढ़ चुकी है। आज यह 38 भाग प्रति दस लाख भाग है जो पिछले साढ़े 6,50,000 वर्षो में सर्वाधिक है। औद्योगिक क्रांति से पूर्व यह केवल लगभग 280 भाग प्रति दस लाख भाग था। यानी, विगत 300 वर्षो से भी कम समय में ही वायुमंडल में कार्बन-डाइऑक्साइड की मात्रा करीब 30 प्रतिशत बढ़ चुकी है। आईपीसीसी ने आशंका जतायी है कि यही हाल रहा तो 2050 तक कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर 450 से 550 भाग प्रति उस लाख भाग तक बढ़ सकता है जिसके कारण तापमान और समुद्रों का जल स्तर काफी बढ़ जाएगा।

यों भी विगत 30 वर्षो में पृथ्वी की सतह का तापमान हर दशक में औसतन 0.2 डिग्री सेल्सियस की दर से बढ़ता है। उत्तरी गोलार्ध के ऊंचे भागों में तापमान विशेष रूप से अधिक बढ़ा है जिसके कारण बर्फ पिघल रही है। पिछले 25 वर्षो में उपग्रहों से प्राप्त आंकड़े बताते हैं कि दुनिया के उपोष्ण भागों में तापमान तेजी से बढ़ रहा है। इसका असर इन भागों के ऊपर बहने वाली हवा की उत्तरी और दक्षिणी जेट धाराओं पर पड़ रहा है। इससे ध्रुवों की बर्फ और भी तेजी से पिघलेगी और सहारा रेगिस्तान और अधिक फैल जाएगा।

बढ़ती वैश्विक तपन के कारण साइबेरिया, अलास्का और अन्य क्षेत्रों में जंगलों में भीषण आग लगने की घटनाएं भी हुई हैं। धुर उत्तर के वनाच्छादित क्षेत्रों में जमीन की सतह पर जमी ‘पीट’ और बर्फ की मोटी पर्माफ्रॉस्ट परत के पिघलने से उसमें संचित मीथेन तथा अन्य ग्रीनहाउस गैसें मुक्त हो जाएंगीं और वायुमंडल में पहुंचकर तापमान को और अधिक बढ़ा देंगी। इस तरह तापमान 3 से 5 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ गया तो विश्व के कई हिमाच्छादित पहाड़ों की बर्फ पिघल जाएगी और वे सामान्य पहाड़ रह जाएंगे।

वैश्विक तपन के कारण ग्लेशियर भी पिघलकर सिकुड़ते जा रहे हैं। हिमालय क्षेत्र में ये तेजी से पिघल रहे हैं और आने वाले समय में इनके कारण गाद भरी नदियों में भारी बाढ़ आ सकती है। ध्रुवों पर जमा बर्फ के बाद हिमालय में ही बर्फ के रूप में सबसे अधिक पानी जमा है। ग्लेशियरों के पिघलने से भारत, नेपाल और चीन में भारी जल संकट पैदा हो सकता है।

बढ़ते तापमान के कारण पिछले 100 वर्षों में विश्व में समुद्रों का जलस्तर 10 से 25 से.मी. तक बढ़ चुका है। तापमान इसी तरह बढ़ता गया तो ग्लेशियरों के पिघलने तथा सागरजल के गर्मी से फैलने के कारण समुद्रों का जलस्तर काफी बढ़ जाएगा।बढ़ते तापमान के कारण पिछले 100 वर्षों में विश्व में समुद्रों का जलस्तर 10 से 25 से.मी. तक बढ़ चुका है। तापमान इसी तरह बढ़ता गया तो ग्लेशियरों के पिघलने तथा सागरजल के गर्मी से फैलने के कारण समुद्रों का जलस्तर काफी बढ़ जाएगा। इसके परिणाम भयानक होंगे। सागरतटों पर बसे शहरों के डूबने का खतरा पैदा हो जाएगा। महासागरों में स्थित तमाम द्वीप डूब जाएंगे। जलवायु परिवर्तन के कारण जलप्लावन की यह प्रक्रिया कई क्षेत्रों में शुरू भी हो चुकी है। हमारे देश के सुन्दरवन क्षेत्र में घोड़ामारा द्वीप का क्षेत्रफल पहले 224,000 बीघा था जो अब केवल 5,000 बीघा रह गया है। उस 5,000 की आबादीवाले द्वीप में अब केवल लगभग 3.5 हजार लोग रहे रहे हैं। उन्हें मालूम है कि उनका यह द्वीप जल्दी ही डूब जाएगा। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि 2020 तक सुन्दरवन का करीब 15 प्रतिशत क्षेत्र डूब जाएगा।

संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि अगर सागरों का जलस्तर 1.5 मीटर बढ़ गया तो दुनिया भर में सागरतटों पर बसे करीब 2 करोड़ लोगों के डूबने का खतरा पैदा हो जाएगा। गंगा, ब्रह्मपुत्र और नील नदी के किनारे बसे शहर डूब सकते हैं। मुम्बई और कलकत्ता जैसे शहरों को लहरें घेर लेंगी। हालैंड, जमैका और मालद्वीव जैसे देश जलप्रलय की भेंट चढ़ जाएंगे। तापमान बढ़ने से हरियाली उत्तर की ओर सिमटती जाएगी। धीरे-धीरे टुंड्रा वनों तक हरियाली नष्ट हो जाएगी जिसके कारण लाखों पशु-पक्षियों का जीवन संकट में पड़ जाएगा। अनुमान है कि वैश्विक तपन के कारण 2050 तक पशु-पक्षियों और पेड़-पौधों की लगभग 10 लाख से अधिक जातियां नष्ट हो जाएंगी।

जलवायु विज्ञानी बढ़ती वैश्विक तपन के कारण एक और आसन्न खतरे की ओर संकेत कर रहे हैं। वह खतरा है भीषण समुद्री तूफान और घनघोर बारिश। विगत लगभग पचास वर्षों में वायुमंडल की तपन से सागरों का पानी भी गरमा गया है जिसके कारण सागरों से उठनेवाली भाप की मात्रा में काफी इजाफा हुआ है। इस कारण तेज और भीषण समुद्री तूफानों की घटनाएं बढ़ रही हैं। इसके अलावा वर्षा का पैटर्न भी बदल गया है। मौसम, बेमौसम, कहीं भी, कभी भी घनघोर बारिश हो जाती है। कहीं भीषण गर्मी पड़ रही होती है तो कहीं लम्बे समय तक भारी बर्फबारी होने लगती है। इस कारण खेती पर बहुत बुरा असर पड़ रहा है।

गर्ज यह कि ग्लोबल वार्मिंग यानी वैश्विक तापन बढ़ने से आबोहवा बदलती जा रही है। विश्व के कई भागों में भारी वर्षा हो रही है तो अनेक भागों में भयंकर सूखा पड़ रहा है। ग्लेशियर पिघल रहे हैं। एशिया, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया और अमेरिका में पानी का भारी संकट शुरू हो चुका है। तापमान बढ़ने से फसलों पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ रहा है। नतीजतन उपज घट रही है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि वर्षा पर आधारित खेती में फसलों की उपज आधी रह जाएगी। इस तरह अकाल का साया फैलता जायेगा और विश्व भर में गरीब वर्ग ही नहीं, मध्यम वर्ग भी भूख से बुरी तरह प्रभावित हो जाएगा। राजेश जोशी की कविता की पंक्तियां याद आती हैं- आषाढ़ के बादल बिना बरसे ही इस बार/उत्तर भारत से फरार हो गये थे/मानसून से पहले की फुहारें भी इन इलाकों में नहीं पड़ी थीं....

समय हाथ से निकल रहा है। विश्व पर घिर रहे ग्लोबल वार्मिंग के इस महासंकट को रोकने के प्रयास अब हमें आपातकालीन स्तर पर शुरू कर देने चाहिए। बदलती आबोहवा के संकेतों को समझकर हमें आसन्न कार्बन ग्रीष्म-ऋतु के मारक कदमों को रोकना होगा। इसके लिए दुनिया के सभी देशों के नागरिकों के साथ ही नीति निर्धारकों और राजनेताओं को भी एकजुट होकर कार्बन-डाइऑक्साइड गैस और ग्रीनहाउस गैसों की नकेल कड़ाई से कसनी होगी।

सुपरिचित लेखक। कथेतर गद्य लेखन में गहरा हस्तक्षेप। संपर्क - 9818346064।

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