ट्राइकोडर्मा-जैविक खेती में उपयोगी कवक


“खाद्य सुरक्षा और पोषण के लक्ष्यों को प्राप्त करने, जलवायु परिवर्तन से लड़ने और समग्र सतत विकास सुनिश्चित करने के लिये स्वस्थ मृदा की जरूरत है। इस दिशा में मृदा के साथ लोगों को जोड़ने और हमारे जीवन में उनके महत्त्व के प्रति जागरुकता का प्रसार करने के लिये हाल ही में 5 दिसम्बर को पूरे देश में ‘विश्व मृदा दिवस’ मनाया गया। ज्ञात हो कि 68वीं संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा वर्ष 2015 को ‘अन्तरराष्ट्रीय मृदा वर्ष’ घोषित किया गया था। इस सन्दर्भ में, मृदा में सूक्ष्मजीवों के महत्त्व की चर्चा करना काफी प्रासंगिक है। सूक्ष्मजीव स्वस्थ मृदा का बहुत ही महत्त्वपूर्ण घटक है। मृदा में होने वाले समस्त गतिविधियों में ये प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से अपनी भूमिका अदा करते हैं। इनमें से कुछ रोगजनक तो कुछ फायदेमन्द होते हैं। मिट्टी में अपने अस्तित्व के लिये इनमें निरन्तर प्रतिस्पर्धा चलती रहती है। इनकी आबादी का अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि एक चम्मच मिट्टी में इनकी संख्या लाखों में हो सकती है। इसी कड़ी में ‘ट्राइकोडर्मा’ नामक मित्र कवक की विस्तृत चर्चा और खेतों में इसके व्यावहारिक प्रयोग के लिये दिशा-निर्देश की जानकारी यहाँ दी जा रही है।” ट्राइकोडर्मा पौधों के जड़-विन्यास क्षेत्र (राइजोस्फियर) में खामोशी से अनवरत कार्य करने वाला सूक्ष्म कार्यकर्ता है। यह एक अरोगकारक मृदोपजीवी कवक है, जो प्रायः कार्बनिक अवशेषों पर पाया जाता है। इसकी दो प्रजातियाँ विशेष रूप से प्रचलित हैं-ट्राइकोडर्मा विरिडी एवं ट्राइकोडर्मा हर्जियानम। यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण एवं कृषि की दृष्टि से उपयोगी है। यह एक जैव-कवकनाशी है और विभिन्न प्रकार की कवकजनित बीमारियों को रोकने में मदद करता है। इससे रासायनिक कवकनाशी के ऊपर निर्भरता कम हो जाती है। इसका प्रयोग प्रमुख रूप से रोगकारक जीवों की रोकथाम के लिये किया जाता है। इसका प्रयोग प्राकृतिक रूप से सुरक्षित माना जाता है क्योंकि इसके उपयोग का प्रकृति में कोई दुष्प्रभाव देखने को नहीं मिलता है।

ट्राइकोडर्मा एवं रोग नियंत्रण


ट्राइकोडर्मा मुख्यतः एक जैव कवकनाशी है। यह रोग उत्पन्न करने वाले कारकों जैसे-फ्यूजेरियम, पिथियम, फाइटोफ्थोरा, राइजोक्टोनिया, स्क्लैरोशियम, स्कलैरोटिनिया इत्यादि मृदोपजनित रोगजनकों की वृद्धि को रोककर अथवा उन्हें मारकर पौधों में उनसे होने वाले रोगों से सुरक्षा करता है। इसके अलावा ये सूत्रकृमि से होने वाले रोगों से भी पौधों की रक्षा करते हैं। यह मुख्यतः दो प्रकार से रोगकारकों की वृद्धि को रोकता है। प्रथम, यह विशेष प्रकार के प्रतिजैविक रसायनों का संश्लेषण एवं उत्सर्जन करता है, जो रोगकारक जीवों के लिये विष का काम करते हैं। दूसरा, यह प्रकृति में रोगकारकों पर सीधा आक्रमण कर उसे अपना भोजन बना लेता है या उन्हें अपने विशेष एन्जाइम जैसे काइटिनेज, β-1,3, ग्लूकानेज द्वारा तोड़ देता है। इस प्रकार रोगकारक जीवों की संख्या तथा उनसे होने वाले दुष्प्रभाव को कम करके पौधों की रक्षा करता है। यह पौधों में उपस्थित रोगरोधी जीन्स को सक्रिय कर पौधों की रोगकारकों से लड़ने की आन्तरिक क्षमता का भी विकास करता है।

ट्राइकोडर्मा के प्रयोग से लाभ


1. यह रोगकारक जीवों की वृद्धि को रोकता है या उन्हें मारकर पौधों को रोग मुक्त करता है। यह पौधों की रासायनिक प्रक्रियाओं को परिवर्तित कर पौधों में रोगरोधी क्षमता को बढ़ाता है। अतः इसके प्रयोग से रासायनिक दवाओं, विशेषकर कवकनाशी पर निर्भरता कम होती है।
2. यह पौधों में रोगकारकों के विरुद्ध तंत्रगत अधिग्रहित प्रतिरोधक क्षमता (सिस्टेमिक एक्वायर्ड रेसिस्टेन्स) की क्रियाविधि को सक्रिय करता है।
3. यह मृदा में कार्बनिक पदार्थों के अपघटन की दर बढ़ाता है अतः यह जैव उर्वरक की तरह काम करता है।
4. यह पौधों में एंटीऑक्सीडेंट गतिविधि को बढ़ाता है। टमाटर के पौधों में ऐसा देखा गया कि जहाँ मिट्टी में ट्राइकोडर्मा डाला गया उन पौधों के फलों की पोषक तत्वों की गुणवत्ता, खनिज तत्व और एंटीऑक्सीडेंट, गतिविधि अधिक पाई गई।
5. यह पौधों की वृद्धि को बढ़ाता है क्योंकि यह फास्फेट एवं अन्य सूक्ष्म पोषक तत्वों को घुलनशील बनाता है। इसके प्रयोग से घास और कई अन्य पौधों में गहरी जड़ों की संख्या में बढ़ोत्तरी दर्ज की गई जो उन्हें सूखे में भी बढ़ने की क्षमता प्रदान करती है।
6. ये कीटनाशकों, वनस्पतिनाशकों से दूषित मिट्टी के जैविक उपचार (बायोरिमेडिएशन) में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इनमें विविध प्रकार के कीटनाशक जैसे-ऑरगेनोक्लोरिन, ऑरगेनोफास्फेट एवं कार्बोनेट समूह के कीटनाशकों को नष्ट करने की क्षमता होती है।

ट्राइकोडर्मा के प्रयोग में सावधानियाँ


1. ट्राइकोडर्मा कल्चर/फार्मूलेशन को उचित एवं प्रमाणित संस्था अथवा कम्पनी से ही खरीदें।
2. कल्चर/फार्मूलेशन छः महीने से ज्यादा पुराना न हो।
3. बीज-पौधे उपचार का कार्य छायादार एवं शुष्क स्थान पर करें।
4. ट्राइकोडर्मा के साथ-साथ अन्य कवकनाशी रसायनों का प्रयोग न करें।
5. ट्राइकोडर्मा के प्रयोग के 4-5 दिनों के पश्चात तक रासायनिक कवकनाशी का प्रयोग न करें।
6. सूखी मिट्टी में ट्राइकोडर्मा का प्रयोग न करें। नमी इसके विकास और बचे रहने के लिये एक अनिवार्य पहलू है।
7. ट्राइकोडर्मा उपचारित बीज को सूर्य की सीधी धूप न लगने दें।
8. कार्बनिक खाद में मिलाने के बाद इसे लम्बी अवधि के लिये न रखें।

ट्राइकोडर्मा उत्पाद का रख-रखाव


ट्राइकोडर्मा एक कवक है, अतः सामान्य तीन-चार महीने तक इसकी संख्या में विशेष गिरावट नहीं आती है। समय बढ़ने के साथ इसकी प्रति ग्राम संख्या कम होने लगती है। इससे इसकी गुणवत्ता पर बहुत असर पड़ता है, इसलिये पैकेट को अधिक दिन तक रखने के लिये 8 से 10 डिग्री सेल्सियस तापमान पर संग्रहित करना चाहिए।

ट्राइकोडर्मा की संगतता


यह जैविक/कार्बनिक खाद और अन्य बायोफर्टिलाइजर जैसे- राइजोबियम एजोस्पिरिलम, वैसिलस सब्टिलिस एवं फास्फोबैक्टीरिया के साथ संगत है। ट्राइकोडर्मा रासायनिक कवकनाशी मेटालेक्सिल और थीरम द्वारा उपचारित बीज के साथ प्रयोग किया जा सकता है पर अन्य किसी भी रासायनिक कवकनाशी (फंजीसाइड्स) के साथ नहीं।

ट्राइकोडर्मा उत्पाद की गुणवत्ता का भारतीय मानक


1. कॉलोनी फार्मिंग यूनिट (सी.एफ.यू.) कम-से-कम 2X106 प्रति ग्राम या मिली लीटर
2. लक्ष्य सूक्ष्मजीव पर विरोधी मारक क्षमता
3. उत्पाद में नमी की मात्रा-8 प्रतिशत, पी-एच 7
4. प्रयोग करने की अन्तिम तिथि कम-से-कम 6 महीना।
5. मानव और अन्य माइक्रोबियल दशकों के संख्या की अधिकतम स्वीकार्य सीमा -2X104 सी.एफ.यू. प्रति ग्राम या मिली लीटर।

ट्राइकोडर्मा आधारित बायोपेस्टीसाइड-सम्भावनाएँ और चिन्ताएँ


आज हमारे देश में इस्तेमाल की जाने वाले जैविक कीटनाशी (बायोपेस्टीसाइड) उत्पादों में अकेले ट्राइकोडर्मा की हिस्सेदारी 60 प्रतिशत है। ट्राइकोडर्मा व्यवहार के बहुआयामी लाभ होने के साथ-साथ इसका उत्पादन भी अपेक्षाकृत कम लागत पर होता है और बाजार में यह कम कीमत पर उपलब्ध है। लेकिन, इसके साथ ही दूसरा पहलू भी है-उत्पाद की गुणवत्ता के विनियमन का। उत्पादनकर्ता कम्पनी द्वारा बायोपेस्टीसाइड का उत्पादन करने से पहले इसे भारत के कृषि मंत्रालय की केन्द्रीय कीटनाशक बोर्ड (सी.आई.बी.) के साथ पंजीकृत कराना अनिवार्य है। इसके तहत कीटनाशक अधिनियम, 1968 की धारा 9(3) (नियमित पंजीकरण) या 9 (3बी) (अन्तिम पंजीकरण) के अन्तर्गत उत्पादों को पंजीकृत करा सकते हैं। पंजीकरण के लिये आवेदन करते समय उत्पाद लक्षण वर्णन, प्रभावकारिता, सुरक्षा खतरे, विष ज्ञान और लेबलिंग पर डेटा प्रस्तुत करना होता है। इस प्रणाली में बायोपेस्टीसाइड्स को ‘आमतौर पर सुरक्षित’ (जी.ए.आर.एस.) माना जाता है और ‘अन्तिम पंजीकरण’ की पात्रता होती है। सी.आई.बी. ने हर उत्पाद के लिये मानक निर्धारित किये हैं, जिसमें मात्रा संख्या सी.एफ.यू. के रूप में, जीव की मारक क्षमता (विरूलेन्स) एलसी50 में रूप में नमी की मात्रा, भण्डारण में जीवनावधि, अन्य दूषित करने वाले जीव और अधिकतम गैर रोगजनक की संख्या आदि निर्धारित किये गए हैं। स्पष्ट है कि नियम और विनियमन तंत्र मौजूद हैं, बावजूद इसके बाजार में अवमानक और जाली उत्पाद मिलते हैं, जो चिन्ता का विषय है। ऐसे उत्पाद अक्सर कानूनी विनिर्माण लाइसेंस रखने वाले व्यक्तियों? कम्पनियों द्वारा निर्मित किये जा रहे हैं (संदर्भ पॉलिसी पेपर 62, 2013, राष्ट्रीय कृषि विज्ञान एकेडमी, नई दिल्ली)। शायद अपेक्षित कर्मियों की संख्या में कमी के कारण अक्सर पंजीकरण समिति, पंजीकरण की शर्तों के पालन और परिसर को निरीक्षण किये बिना लाइसेंस जारी या नवीनीकरण कर रहे हैं। मौजूदा कीटनाशक अधिनियम, 1968 की मूल भावना, कानून लागू करने वाली मशीनरी, जो राज्य कृषि कार्यकर्ता होते हैं, द्वारा ठीक से कार्यान्वित नहीं हो रही है (मुखोपाध्याय, 1994)। उनमें किसानों की दशा में सुधार की इच्छाशक्ति की कमी है जिसकी वजह से बाजार में करोड़ों की नकली/अवमानक जैव कीटनाशी धड़ल्ले से निर्दोष किसानों को बेच दी जाती है। दूसरी समस्या, अधिकांश जीवनाशक उत्पाद का स्थायित्व प्रकाश, तापमान, आर्द्रता और अन्य जैव दूषकों से संवेदनशील होते हैं। अक्सर, विक्रेता इन उत्पादों का रख-रखाव अनुकूल वातावरण में नहीं करते हैं।

गुणवत्ता सम्बन्धी समस्याओं का समाधान


1. गुणवत्ता आश्वासन प्रणाली को मजबूत किया जाना चाहिए। निर्धारित प्रारूप का अनुपालन सुनिश्चित करने के लिये हैंडलिंग और प्रसंस्करण के विभिन्न चरणों में यादृच्छिक निरीक्षण किया जाना चाहिए।
2. अपंजीकृत और अनियमित उत्पादों को सतर्कता से खत्म करना चाहिए।
3. जाली आश्वासनों वाले उत्पाद की उत्पत्ति का सुराग पता कर सख्तीपूर्ण कार्यवाही की जानी चाहिए।
4. गैर सरकारी और निजी एजेंसियों द्वारा जैव जीवनाशकों के विभिन्न पहलुओं जैसे गुणवत्ता, उपयोग, सक्रिय घटक पर उपभोक्ता जागरुकता पैदा किये जाने की जरूरत है।

 

ट्राइकोडर्मा के प्रयोग की विधि

 

1. बीजोपचार: बीजोपचार के लिये प्रति किलो बीज में 5-10 ग्राम ट्राइकोडर्मा पाउडर (फार्मूलेशन) जिसमें 2X106 सी.एफ.यू. प्रति ग्राम होता है, को मिश्रित कर छाया में सुखा लें फिर बुवाई करें।


2. कंद उपचार: 10 ग्राम ट्राइकोडर्मा प्रति लीटर पानी में डालकर घोल बना लें फिर इस घोल में कंद को 30 मिनट तक डुबाकर रखें। इसे छाया में आधा घंटा रखने के बाद बुवाई करें।


3. सीड प्राइमिंग: बीज बोने से पहले खास तरह के घोल की बीजों पर परत चढ़ाकर छाया में सुखाने की क्रिया को ‘सीड प्राइमिंग’ कहा जाता है। ट्राइकोडर्मा से सीड प्राइमिंग करने हेतु सर्वप्रथम गाय के गोबर का गारा (स्लरी) बनाएँ। प्रति लीटर गारे में 10 ग्राम ट्राइकोडर्मा उत्पाद मिलाएँ और इसमें लगभग एक किलोग्राम बीज डुबोकर रखें। इसे बाहर निकालकर छाया में थोड़ी देर सूखने दें फिर बुवाई करें। यह प्रक्रिया खासकर अनाज, दलहन और तिलहन फसलों की बुवाई से पहले की जानी चाहिए।


4. मृदा शोधन: एक किलोग्राम ट्राइकोडर्मा पाउडर को 25 किलोग्राम कम्पोस्ट (गोबर की सड़ी खाद) में मिलाकर एक सप्ताह तक छायादार स्थान पर रखकर उसे गीले बोरे से ढँकें ताकि इसके बीजाणु अंकुरित हो जाएँ। इस कम्पोस्ट को एक एकड़ खेत में फैलाकर मिट्टी में मिला दें फिर बुवाई/रोपाई करें।


5. नर्सरी उपचार: बुवाई से पहले 5 ग्राम ट्राइकोडर्मा उत्पाद प्रति लीटर पानी में घोलकर नर्सरी बेड को भिगोएँ।


6. कलम और अंकुर पौधों की जड़ डुबकी: एक लीटर पानी में 10 ग्राम ट्राइकोडर्मा घोल लें और कलम एवं अंकुर पौधों की जड़ों को 10 मिनट के लिये घोल में डुबोकर रखें, फिर रोपण करें।


7. पौधा उपचार: प्रति लीटर पानी में 10 ग्राम ट्राइकोडर्मा पाउडर का घोल बनाकर पौधों के जड़ क्षेत्र को भिगोएँ।


8. पौधों पर छिड़काव: कुछ खास तरह के रोगों जैसे पर्ण चित्ती, झुलसा आदि की रोकथाम के लिये पौधों में रोग के लक्षण दिखाई देने पर 5-10 ग्राम ट्राइकोडर्मा पाउडर प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें।

 

 

राष्ट्रीय लीची अनुसन्धान केन्द्र की पहल


ट्राइकोडर्मा विरिडी स्ट्रेन एन.आर.सी.एल. टी

01-लीची में प्रयुक्त एक प्रभावी जैवनियंत्रक


राष्ट्रीय लीची अनुसन्धान केन्द्र, मुजफ्फरपुर में विकसित ट्राइकोडर्मा विरिडी की स्ट्रेन एन.सी.आर.सी.एल.टी. 01 लीची के म्लानि रोग जो फ्यूजेरियम सोलानी की वजह से होती है, के नियंत्रण में रामबाण साबित हुई है। इसके प्रयोग से जो वृक्ष सूखने के कगार पर थे, उन्हें भी बचाया जा सका है। लगभग 200 ग्राम टेल्कम पाउडर आधारित उत्पाद (2X106 सी.एफ.यू. प्रति ग्राम) को एक किलोग्राम वर्मीकम्पोस्ट में मिलाकर नाली रिंग विधि से वृक्ष के सक्रिय जड़ों के पास डाला गया तो ऐसे वृक्ष 20 दिनों में फिर से स्वस्थ हो गए। 20 दिन बाद जड़ विन्यास क्षेत्र में ट्राइकोडर्मा की संख्या 1.2-9.0X104 सी.एफ.यू. प्रति ग्राम पाई गई। स्ट्रेन एन.आर.सी.एल. टी 01 की विशेषता यह कि इसमें व्यापक तापमान सहिष्णुता (15-400 सेल्सियस) एवं लवणता सहन करने की क्षमता है। मिट्टी- जनित रोगों के अलावा देखा गया कि यह लीची की गूटी द्वारा निर्मित पौधों को खेतों में बेहतर स्थापित होने में भी मदद करता है। इसके प्रयोग से विकास के पैमानों जैसे-प्रति वर्ग मीटर जड़ घनत्व, पर्ण क्षेत्रफल, वृक्ष का फैलाव, ऊँचाई, टहनी, लम्बाई, धड़ परिधि एवं क्लोरोफिल की मात्रा में बगैर ट्राइकोडर्मा वाले पौधों (कंट्रोल) की अपेक्षा काफी उच्चतर वृद्धि दर्ज की गई।

 

 

सारिणी 1. ट्राइकोडर्मा के इस्तेमाल द्वारा नियंत्रित कुछ रोग

फसल का नाम

रोग का नाम

रोगजनक का नाम

जिमीकंद/ओल

मृदा-स्तर पर तना गलन/मूल संधि गलन (कॉलर रॉट)

स्क्लैरोशियम रॉल्फसी

मिर्च, टमाटर, बैंगन

बिचड़ा गलन/अंकुर गलन (डैम्पिंग-ऑफ)

पिथियम, फाइटोप्थोरा, फ्यूजेरियम

हल्दी, अदरक, प्याज

कंद सड़न (राइजोम रॉट)

पिथियम, फाइटोप्थोरा, फ्यूजेरियम

केला, कपास, टमाटर, बैंगन

म्लानि (विल्ट)

फ्यूजेरियम ऑक्सीस्पोरम

शीशम, लीची

म्लानि (विल्ट)

फ्यूजेरियम सोलानी

 

 

 

ट्राइकोडर्मा संवर्धित खाद


इस विधि से किसान एक व्यावसायिक उत्पाद की छोटी मात्रा से पर्याप्त मात्रा अपने स्तर पर बनाकर न केवल बड़े क्षेत्र में प्रयोग कर सकते हैं बल्कि अपने ही स्तर पर इसे गुणित कर ज्यादा-से-ज्यादा फसलों में भी प्रयोग कर सकते हैं। पर, ध्यान रखें कि यह लम्बी अवधि के लिये न करें। 100 किलोग्राम सड़ी गोबर की खाद, वर्मीकम्पोस्ट या नीम की खली लें। इसे किसी छायादार शेड में फैलाकर रखें। फिर इसके ऊपर एक किलोग्राम ट्राइकोडर्मा पाउडर बुरक दें और कुदाल या फावड़े से अच्छी तरह मिलाएँ। अगर यह सूखी लगे तो हल्की पानी की छींटे दे दें। इसके बाद इसे पॉलीथीन से ढँक दें। हर 7 दिन के अन्तराल पर मिश्रण को मिलाएँ। लगभग 20 दिन में खाद ट्राइकोडर्मा संवर्धित हो जाएगी जिसे खेतों में विस्तारित कर अथवा जोत-गड्ढे में डालकर फसल लगाएँ। बागवानी पौधों जैसे- आम, लीची इत्यादि में रिंग बेसिन बनाकर संवर्धित खाद डाली जा सकती है।

 

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